शनिवार, 24 दिसंबर 2016

बलि

'बल्' धातु का पाणिनीय अर्थ है प्राणने। 'प्राण' श्वास है। श्वास जीवन है। जीवन अर्थात शक्ति। बल का अर्थ शक्ति इस कारण हुआ। श्वास को नियमन द्वारा उच्च आयाम प्रदान करना प्राणायाम है। बैल बलीवर्द है, क्यों? क्यों कि वह महत कार्य करने हेतु प्राणवान है, समर्थ है। 
बल् धातु से ही बलि बनती है - बलिः [बल्-इन्]। बलि क्या है? अर्पण है, दान है। किसका? प्राण का। माध्यम ऐसी वस्तु हो जो प्राप्तकर्ता को प्राणवान बनाये, पुष्ट करे। दान की अवधारणा ही भावना से जुड़ी है। देने वाले के भीतर  प्राण समर्पित करने का भाव होना चाहिये। समर्पण भाव कृतज्ञता से जुड़ कर पवित्रता और ऐश्वर्य का वाहक बनता है। यहीं बलि यज्ञ का रूप ले लेती है। यजन् जोड़ने से सम्बन्धित है। समर्पित करने वाला और प्राप्त करने वाला दोनों एक उदात्त भाव से जुड़ें तो यज्ञ है। पञ्चमहायज्ञों में दैनिक भूतयज्ञ भी सम्मिलित है। वह क्या है? अन्न ग्रहण करने के पहले सभी भूतों अर्थात जीवधारियों के लिये उनका अंश निकाल देना भूतयज्ञ है। गइया का कौरा, चींटी का दाना, कौवे की रोटी, अतिथि का भोजन, ये सब स्वयं के प्राण को पुष्ट करने वाले अन्न का ग्रहण करने से पहले करना होता है। यह समूचे विश्व का ध्यान रखने वाला बलिवैश्व है। घरनी की रसोई भी बलि का स्थान है। राजा को दिया जाने वाला कर भी बलि है क्यों कि वह राजा प्रजा दोनों को प्राणवान करता है किंतु वही कराधान विकृत लिप्सा भाव से चलित होने पर हंता बन जाता है। 
यदि आप यज्ञ और बलि के आङ्ग्ल अनुवाद देखेंगे तो sacrifice भी मिलेगा। चौंकिये नहीं, यह sacra धातु से बना है जिसका सम्बन्ध देवता के आगे पवित्र समर्पण से है।
यह तो स्पष्ट हो गया होगा कि बलि क्या है? किंतु अब बलि का अर्थ पशु वध ही लिया जाने लगा है। ऐसा क्यों है? जब आप किसी व्यवहार का बारम्बार निषेध करने लगते हैं तो वह निषिद्ध आचरण रूढ़ अर्थ ले शब्द के साथ जुड़ जाता है। यदि साथ में अन्य आचारों का विलोप हो तो रूढ़ि और पक्की हो जाती है। बलि के साथ यही हुआ। कितने जन प्रतिदिन बलिवैश्व कर्म करते हैं? वह भी बस करने के लिये नहीं, यज्ञ और पुष्टिदायी समर्पण भाव के साथ? उत्तर स्पष्ट है।
देव को अर्पण के लिये आहार योग्य पशुओं का वध बहुत पुराना है जिसका सम्बन्ध आखेटचारी जन से है। जो आहार करते, वही देव को अर्पण करते, पूरी निष्ठा और श्रद्धा के साथ। उससे भी बहुत पहले आदिम भय का भाव रहा लेकिन तब भी बलि देते समय जीभ की स्वादेच्छा पूर्ति गौण रही। ध्यान देंगे तो पायेंगे कि इन पशुओं की पूजा भी की जाती रही और सामान्यतया भी उनके साथ व्यवहार बहुत स्नेहिल रहा। देव अर्पण हेतु वध करते समय जिह्वा का स्वाद नहीं, श्रद्धा निर्देशित करती रही। ऐसा अर्पण आराधक और आराध्य दोनों को पुष्ट करता है। इसे ही कहते हैं कि देवता मनुष्य की हवि पा तुष्ट और पुष्ट होते हैं।
वैदिक पद्धति के समांतर समकालीन ऐसी पद्धतियाँ रहीं किंतु दूध दही, मधु, कन्द, मूल, फल, उन्नत कृषि से उत्पन्न अन्न का आहार करने वाले वैदिक जन के लिये बलि हेतु पशु का वध त्याज्य ही रहा। पूरा वैदिक वाङ्मय पशु वध के निषेध से भरा पड़ा है। कुछ लोग पुराने शब्दों के पशु वध सम्बन्धित अर्थ निकालते हुये तर्क देते हैं। वे भूल जाते हैं कि उत्कृष्ट सांगीतिक छन्दों के सम्पूर्ण दीर्घजीवी तंत्र हेतु जो उन्नत सभ्यता चाहिये होगी, वह कृषि व्यापार में भी बहुत आगे होगी। ऐसा भारत के नदी जल पूरित समतल क्षेत्र में ही सम्भव है। ऐसे रचनाकर्म हेतु ठहराव आवश्यक है जो पशुचारी समाज या बीहड़ क्षेत्रचारी जन के लिये सम्भव नहीं है। ऋषि आश्रमों के अनगिनत उल्लेख और उनके प्रमुख केन्द्र होने के तथ्य सब कुछ स्थापित और स्पष्ट कर देते हैं।

समतल, उपजाऊ और जलसमृद्ध क्षेत्र में विकसित सभ्यता शाकाहार की ओर ही प्रवृत्त होती है। यहाँ जो मांसाहारी हैं, वे प्रतिदिन दोनों समय मांसाहार नहीं करते। पशु वध त्याज्य होने के पीछे उसका क्रन्दन है, रक्त की वह धार है जो अपनी धमनियों में भी दिखती है। एक सुस्थापित व्यवस्था के पुरोहित और यजमान के लिये पशुबलि के समय समर्पण और प्राणपोषण का भाव रखना सम्भव ही नहीं। बलिदान का 'दान' ही उस निषेध के नेपथ्य में है।
तो क्या पशुबलि न दें? ऊपर जो भी कहा वह निगम का पथ है। सहस्रो वर्ष की अपनी यात्रा में सनातन ने आगम अर्थात इतर मार्ग भी स्वीकारे हैं। शाक्त और तंत्र भी उनमें हैं जो प्रभावी रहे और आज भी हैं। मास के साथ मांस भी उनके अनुयायियों के लिये अन्न है। उसका अर्पण यदि वे देवी को करते हैं तो उसके पीछे जो भाव रहते हैं वही महत्त्वपूर्ण हैं। उच्च भाव रखने वाले प्रतिदिन पशुबलि नहीं देते, कतिपय अनुष्ठानों में देते हैं। वे मांसाहारी भी प्रतिदिन मांसाहार करने वाले नहीं हैं। उनके प्रति या उनकी उपासना पद्धति के प्रति तिरस्कार का भाव विनाशक होगा क्यों कि वह जोड़ने वाला यजन् नहीं तोड़ने वाला भंजन होगा।
पशुबलि का निषेध और शाकाहार ये दो समतल भूमि पर संतुलन के साथ रहते जन के लिये आदर्श हैं। आदर्श का प्रसार होना ही चाहिये, उसकी प्राप्ति के लिये तप भी होने चाहिये किंतु अतिरेकी हो अपने ही समाज के पैर पर कुल्हाड़ा चलाया जाना भी रोका जाना चाहिये। जन रहेंगे, संगठित और बली रहेंगे तो देव और देवता भी रहेंगे, आस्था और जीवनमूल्य भी बचे रहेंगे अन्यथा रक्त देखते ही वमन करने वाले कोमल जन के लिये बर्बर रक्तपिपासु शत्रुओं के आगे घुटने टेक आत्महत्या ही परिणति होगी। 

सोमवार, 5 दिसंबर 2016

रामायण : अतिथि का आश्वासन

विराध वध के पश्चात श्रीराम ने सीता जी को हृदय से लगा कर आश्वस्त किया - परिष्वज्य समाश्वास्य और लक्ष्मण से कहा कि यह वन दुर्गम कष्ट भरा है और हम लोग भी अभ्यस्त वनचारी नहीं हैं, शीघ्र ही तपोधन शरभङ्ग के पास पहुँचना होगा।
कष्टम् वनम् इदम् दुर्गम् न च स्मो वन गोचराः
अभिगच्छामहे शीघ्रम् शरभङ्गम् तपो धनम्

अरण्यकाण्ड को पढ़ेंगे तो साफ लगेगा कि जैसे किसी योजना के अंतर्गत राम कड़ी से कड़ी जोड़ते बढ़ रहे हैं! शरभङ्ग के यहाँ पहुँचने से पहले ही दूर से दिव्य इन्द्र समस्त देवताओं के साथ दिखते हैं। विचित्र घटित होता है, इन्द्र खिसक लेते हैं!
इह उपयाति असौ रामो यावन् माम् न अभिभाषते
निष्ठाम् नयत तावत् तु ततो मा द्रष्टुम् अर्हति
जितवन्तम् कृतार्थम् हि तदा अहम् अचिराद् इमम्
कर्म हि अनेन कर्तव्यम् महत् अन्यैः सुदुष्करम्
 देखो, राम आ रहे हैं। इससे पहले कि वह मुझसे संवादित हों उन्हें आप उनके कर्तव्य की ओर प्रेरित करें। उनके ऊपर एक दुष्कर और महान कार्य का दायित्त्व है, जब पूरा कर लेंगे तब मैं उनसे मिलूँगा।
राम शरभङ्ग से पूछते हैं - शक्र अर्थात इन्द्र के आने का क्या प्रयोजन था? शरभङ्ग उत्तर देते हैं - मुझे मेरा तपस्या का फल दे ब्रह्मलोक ले जाने के लिये आये थे लेकिन मैंने आप का आगमन जान स्थगित कर दिया कि बिना आप जैसे 'प्रिय अतिथि' के दर्शन के मैं प्रस्थान नहीं करूँगा!
 इसके पश्चात वह घटता है जिसे फल समर्पण कहा गया। जिसे लोक में ऐसे कहते हैं कि देवता आराधक द्वारा पुष्ट होते हैं। जिसे आधुनिक समझ से यह कहा जाता है - मनुष्य ईश्वर का विधाता है। आप के देव की शक्ति आप की शक्ति के अनुक्रमानुपाती होती हैशरभङ्ग कहते हैं:
अक्षया नरशार्दूल जिता लोका मया शुभा:
ब्राह्मयाः च नाक पृष्ठ्याः च प्रतिगृह्णीष्व मामकान्
हे पुरुषसिंह! मैंने अक्षय और शुभ लोक जीत लिये हैं। वे ब्रह्मलोक और स्वर्गलोक (नाक - हाथी, पृष्ठ - पीठ अर्थात उसका लोक जो हाथी की पीठ पर बैठता है अर्थात इन्द्र का स्वर्ग लोक) मुझसे आप स्वीकृत करें।
रामकथा दर्शाती है कि कैसे विश्वामित्र, जामदग्नेय राम, अगस्त्य, शरभङ्ग आदि उस युग के बुद्धिजीवियों ने अपने समस्त तप का अर्पण मानवता के योद्धा श्रीराम को कर दिया था। सभी भौतिक योद्धा नहीं होते, बहुत बड़ी पात्रता चाहिये होती है किंतु योद्धा पहचान में आ गया तो उसे बली तो कर ही सकते हैं, उसे उत्प्रेरित कर सकते हैं और मनस्वी तो तैयार भी कर सकते हैं। इस युग के बुद्धिजीवी कहाँ लिप्त हैं, ध्यान दीजिये, समझ में आ जायेगा कि समस्या की जड़ कहाँ है!
 राम विचित्र उत्तर देते हैं:
अहम् एव आहरिष्यामि सर्वान् लोकान् महामुने
आवासम् तु अहम् इच्छामि प्रदिष्टम् इह कानने

महामुनि! मैं ही आप को उन सभी लोकों की प्राप्ति कराऊँगा या महामुनि! केवल मैं ही उन लोकों को ग्रहण करूँगा लेकिन अभी तो इस कानन में आवास निर्माण करना है, मुझे निर्दिष्ट कीजिये।
वह सब तो ठीक है लेकिन हमलोग रहें कहाँ, यह तो बताइये? शरभङ्ग क्या करते हैं? राम को सुतीक्ष्ण मुनि की राह बता हैं जैसे कोई अनूठी छड़ी दौड़ हो, धावक एक, कई ठाँव। दौड़ो राम!
तत्पश्चात कहते हैं - मुहुर्त भर, दो घड़ी मुझे देखो राम! जब तक कि मैं इस जीर्ण देह का त्याग न कर लूँ!

 मुनि अग्नि की स्थापना कर अग्नि में प्रवेश कर गये। वाल्मीकि जी ने लिखा - समाधाय हुत्वा मंत्रवत। देह नहीं समिधा है, जैसे मंत्र पढ़ कर  हवन कर दी गयी हो।  कितनी गहरी प्रतीक्षा रही होगी, कितनी पीड़ा, कितने कष्टों और अत्याचारों को सहते शरभङ्ग तपे होंगे कि अवतार को उसकी प्रतिज्ञा के प्रति सुदृढ़ करने के लिये आत्मदाह से अधिक कोई युक्ति सूझी ही नहीं!
इस अग्निमय प्रस्तावना के साथ राम की दीक्षा का पाठ प्रारम्भ होता है, रक्षा हेतु प्रार्थना के बहाने राम से आश्वासन ले लिया जाता है:
मेsयं वने वासो भविष्यतो महाफल:,
तपस्विनां रणे शत्रुन् हंतुमिच्छामि राक्षसान्
(निशिचर हीन करौं मही)।

कितने प्रकार के तपस्वियों ने यह आश्वासन लिया?
वैखानसा वालखिल्याः संप्रक्षाला मरीचिपाः
अश्म कुट्टाः च बहवः पत्र आहाराः च तापसाः
दन्त उलूखलिनः च एव तथा एव उन्मज्जकाः परे
गात्र शय्या अशय्याः च तथा एव अनवकाशिकाः
मुनयः सलिल आहारा वायु भक्षाः तथा अपरे
आकाश निलयाः च एव तथा स्थण्डिल शायिनः
तथा ऊर्ध्व वासिनः दान्ताः तथा आर्द्र पट वाससः
स जपाः च तपो नित्याः तथा पंच तपोऽन्विताः
जैसे वाल्मीकि वनस्पतियों को बताते हैं, जैसे ऋतुवर्णन में वर्णन की झड़ी लगा देते हैं वैसे ही इन श्लोकों में जितने तरह के तापस हो सकते हैं, समेट दिये हैं - वैदिक वैखानस और वालखिल्य, अगले समय के आहार के लिये कुछ भी सहेज कर न रखने वाले, सूर्य किरणों का पान करने वाले, अन्न को बस पत्थर से कूट खा जीने वाले, पत्ते खा कर रहने वाले, दाँतों से ही ऊखल का काम लेने वाले अर्थात बिना कूटे ही अन्न ग्रहण करने वाले, कंठ तक पानी में निमग्न रह तप करने वाले, देह को ही बिछौना मानने वाले अर्थात धरा पर बिना आभरण के सोने वाले, बिना शय्या के रहने वाले अर्थात न सोने वाले, सत्कर्म में निरंतर लगे रह कभी अवकाश न लेने वाले, जल पीकर रहने वाले, वायु पी कर रहने वाले, आकाश के नीचे खुले में विचरने वाले, वेदी पर सोने वाले, पर्वतों पर रमने वाले, सदा भीगे वस्त्र धारण करने वाले, जपी, नित्य तपी और पंचाग्नि अर्थात चार ओर से अग्नि और ऊपर से धूप का सेवन करने वाले।

... ऋग्वेद में भी ढेर सारे भिन्न चर्या वालों के उल्लेख हैं। मतभिन्नता के साथ साहचर्य यहाँ की विशेषता रही है। चूँकि लेखन, काव्य और श्रुति परम्परा सबके पास नहीं थी या सभी उस ओर ध्यान भी नहीं देते थे इसलिये भिन्न धारा द्वारा वर्णन में सूचना का अभाव साफ दिखता है। नाम गिना कर काम चला लिया जाता है। ध्यान से देखें तो इनमें चेतना और कर्म की भिन्न भिन्न स्थितियों के संकेत भी मिलते हैं।
यह धारा अक्षुण्ण चली आ रही है। उपनिषदों ने वर्णित किया, बुद्ध ने बताया, जैनियों ने जिया, अलक्षेन्द्र को भी बैखानस तापस मिले, गुप्त काल, वर्धन काल, राजपूत काल ...
... हर काल में यह प्रवाहित है और उसके साथ यह आदर्श भी कि इनकी और प्रजा की रक्षा क्षात्र धर्म है।

शनिवार, 26 नवंबर 2016

कास्त्रो, मोदी, बदलता भारत और इलेक्ट्रॉनिक भुगतान


आज फिदेल कास्त्रो की मृत्यु हो गयी, वही कास्त्रो जिनको उनकी दीर्घ आयु ने अपने मित्र सहयोगी ‘चे’ की तुलना में बौना बना कर रखा। कास्त्रो अपने पीछे एक ऐसा क्यूबा छोड़ कर गये जिसमें शिक्षा और स्वास्थ्य सेवायें नि:शुल्क हैं, टॉयलेट पेपर की राशनिंग है और पुस्तकें विलासिता की वस्तुओं सी महँगी हैं। वामपंथी क्यूबा के निवासी कहते हैं – सरकार हमें वेतन देने का बहाना करती है और हम काम करने का।
 
कॉलेज में था तो बोलीविया की डायरी, कुछ संस्मरण आदि में चे-कास्त्रो द्वय के बारे में पढ़ा था और भक्ति एवं व्यक्ति पूजा क्या हो सकती हैं, जाना था। भारत में देखें तो केवल ‘भक्ति आन्दोलन’ ही ‘अपने नायकों के प्रति कम्युनिस्ट श्रद्धा’ के समांतर खड़ा हो सकता है। फिर भी दोनों इसलिये आदरणीय हैं ही कि उसे सफल कर दिखाया और जीवित रखा जिसे वे क्रांति कहते थे, वह भी अमेरिका जैसे शत्रु के सामने। उनकी क्रांति को मिटाने की अभिलाषा शत्रु में इतनी थी कि सम्भवत: आज भी क्यूबा के अप्रवासियों को अमेरिकी नागरिकता सबसे आसानी से मिल जाती है! 

असमय मृत्यु योद्धाओं को अमरता का चोला पहना जाती है जैसा कि यहाँ भगत सिंह और उधर ‘चे’ के साथ हुआ। दीर्घायु उन्हें अभिशप्त धूमिलता से अलंकृत करती है क्यों कि विरुद्ध रह कीर्ति पाना सरल होता है बनिस्बत इसके कि सत्ता के केन्द्र में रहते हुये कीर्ति पायी जाय। फिदेल कास्त्रो के साथ यही हुआ। 

फिदेल की राह बाहर से आक्रमण की थी और आज भारत में जो हो रहा है वह भीतर से शत्रु पर आक्रमण की है। क्रांति के समय फिदेल सत्ता के बाहर ‘विद्रोही’ थे और यहाँ मोदी सत्ताधीश प्रधान हैं। फिदेल को जनता ने नहीं, उन्हों ने जनता के लिये स्वयं को चुना था। मोदी को जनता ने चुना। फिदेल कास्त्रो का सत्ता में आने से पूर्व विद्रोही इतिहास था, जिसकी छाया से ‘सत्ताधीश कास्त्रो’ कभी उबर नहीं पाया। मोदी का ऐसा कोई इतिहास नहीं। मोदी की तुलना के लिये लोग भूतपूर्व सिंगापुरी प्रधान का नाम ले रहे हैं, सही ही ले रहे हैं। उन्हें मोदी और कास्त्रो की यह तुलना बचकानी लगेगी लेकिन जब क्रांतिकारी परिवर्तन को लक्ष्य के रूप में देखेंगे तो सम्भवत: समझ पायेंगे कि मोदी ने क्या कर दिया है! 

कम्युनिस्टों से मोदी को जो सीखना है, वह है प्रचार तंत्र का आक्रामक उपयोग। उसके लिये क्यूबा के किसी स्क्वायर पर जा कास्त्रो के गगनचुम्बी पोर्ट्रेट देखने की आवश्यकता नहीं, दिल्ली से कुछ दिनों पूर्व उट्ठे करोड़ो के राजकीय विज्ञापनों को याद करना भर है। यह देखना भर है कि कैसे राज्यसभा टीवी का प्रयोग अब भी वामपंथी अपने प्रचार के लिये कर रहे हैं और कैसे ‘मतदाताओं से उनकी जात पूछने वाला’ कांग्रेसी दलाल अब स्टूडियो में बैठ छोटे व्यापारियों को उनकी ही तिजोरी दिखा रहा है कि देखो! खाली हुई जा रही है! सोशल मीडिया पर मोदी भक्तों को उस बारीकी से सीखना है जिससे उस दलाल को आभा-वलय प्रदान किया जा रहा है। 

करना कुछ नहीं है, बस जिस तरह से वे नकारात्मक घटनाओं को उछाल रहे हैं वैसे ही मोदी टीम को सकारात्मक घटनाओं का इतना घनघोर प्रचार करना है कि दलालों की म्याऊँ सुनाई तो दे लेकिन समझ में आने से पहले ही तिरोहित हो जाये! और ऐसी घटनायें अपार हैं क्यों कि एक शांत क्रांति के स्वागत में जनता का मूड अभी भी उत्साही बना हुआ है, भारत बदल रहा है! 

आज एक छोटी सी प्रदर्शनी में गया तो छोटे व्यापारियों का उत्साह देख विस्मित रह गया। 120 से ले कर 500 रुपये तक के भुगतान कार्ड से स्वीकार किये गये, बिना किसी उज्र या अनमनेपन के। समझ भरी मुस्कान जैसे कह रही थी, हम तैयार हैं। दलाल भाँड़ को ऐसे लोग कभी नहीं मिलेंगे क्यों कि उन्हें जात और ‘बहुते वाली क्रांतिकारिता’ से कोई मतलब नहीं, बस इससे है कि सूरत बदलनी चाहिये! मोदी की यही शक्ति है जिसे वह उपेक्षा और तंत्र के निकम्मेपन से खोना तो नहीं ही चाहेंगे। 

एक वृद्ध के यहाँ से हम लोगों ने पर्स लिया। मैंने थोड़ी उत्सुकता दिखाई तो उन्हों ने बड़े प्यार से ‘पेपरलेस’ भुगतान यंत्र की प्रक्रिया समझाई। 

यह छोटे से कैलकुलेटर के बराबर का यंत्र है जिसमें कार्ड लग जाता है। देखो बेटे! स्क्रीन पर तुम्हारे नाम के साथ राशि भी आ गई है। तुम्हारे मोबाइल पर भी सन्देश आ गया होगा। इसमें पर्ची नहीं निकलती और प्रयोग बहुत आसान है। तीन सौ रुपये मासिक शुल्क पर यह उपलब्ध है। खाते से लिंक है, मोबाइल में ऐप इंस्टाल है, इंटरनेट है ही, बस ब्लूटूथ से जोड़ कर रखना है, भुगतान सीधे खाते में!

...फिदेल कास्त्रो के नाम क्यूबा में मार्ग नहीं हैं और भविष्य में यहाँ मोदी के नाम भी नहीं होंगे। नवोन्मेषी लोग 'मार्ग और मूर्ति' सरीखी बहुजनी कांग्रेसी गतिविधियों में अपनी ऊर्जा नहीं खपाते। हाँ, उन्हें प्रचार तंत्र तगड़ा रखना ही होता है और दण्ड का भी। कौटल्य भी तो यही कह गये हैं, नहीं?

बुधवार, 23 नवंबर 2016

नाक्षत्रिक नटराज

पूर्णिमान्त आधारित नामकरण में महीने का अंत पूर्णिमा से होता है, उत्तर के अधिकांश भाग में यह प्रचलित है। गई पूर्णिमा को जब कि चंद्र कृत्तिका नक्षत्र पर पहुंचे, कार्तिक मास समाप्त हो गया और मार्गशीर्ष (अगहन) प्रारम्भ हो गया जो कि अगली पूर्णिमा तक रहेगा। उस दिन चन्द्र मृगशिरा (Orion) नक्षत्र पर होंगे। इसी से महीना मार्गशीर्ष कहलाता है।

 इसके एक और नाम अगहन का सम्बन्ध उस समय से है जब महाविषुव (Spring equinox) के दिन सूर्य मृगशिरा नक्षत्र पर होते और नया साल प्रारम्भ होता अर्थात मृगशिरा साल का अगुवा था।

दक्षिण में अमान्त का चलन है अर्थात अमावस्या के दिन महीना समाप्त होता है और शुक्ल पक्ष एक से प्रारम्भ। पूर्णिमा महीने के बीच में पड़ती है। अत: यहां कार्तिक अभी भी चल रहा है जो अगली अमावस्या को समाप्त हो जाएगा। 

किसी समय परंपरा में मृगशिरा नक्षत्र प्रजापति का रूप था जिसका मस्तक लुब्धक नक्षत्र (Sirius) रूपी रुद्र ने काट दिया था। उस नाक्षत्रिक रूपक का संबंध महाविषुव की खिसकन से था।

दक्षिण भारत में मृगशिरा, आर्द्रा और रोहिणी नक्षत्रों के साथ और नीचे का क्षेत्र ले 'विराट नटराज' का रूपक मिलता है। रोहिणी (aldebaran) और अग्नि हुतभुज (Alpha स्टार) एवं [Hyades] का क्षेत्र वैदिक यज्ञीय अग्नि से संबन्धित था। उसका नटराज का प्रज्वलित खप्पर हो जाना! कल आकाश को घूरते मेरे रोंगटे खड़े हो गये। 

तो आज रात आप नटराज का दर्शन करेंगे न? दक्षिण पूर्वी आकाश साढ़े दस के पश्चात?

शुक्रवार, 4 नवंबर 2016

राक्षसी लङ्का - समये सौम्य तिष्ठंति सत्त्ववंतो महाबला: [सुंदरकाण्ड - 6]

सुंदरकाण्ड -5 से आगे:

लङ्का। वैश्विक आतंक और अत्याचार की नाभि लङ्का। महाकपि के सामने वह लङ्का थी जो विश्वकर्मा द्वारा निर्मित और राक्षसेन्द्र द्वारा पालित थी -  पालितां राक्षसेन्द्रेण निर्मितां विश्वकर्मणा। विकृत विद्या, आहार और विहार से उन्मत्त महाभोगी राक्षस समृद्ध लङ्का सामने थी जिसका पूरा तंत्र ही शोषण, अपहरण, बलात्कार, हत्या और रुधिर से समन्वित था।  
सागर उसकी सुरक्षा में था। त्रिकूट लम्ब पर्वत के शिखर पर स्थित अट्टालिकाओं में रहने वाला दुरात्मा व्यभिचारी रावण चहुँओर फैले स्कन्धावारों के माध्यम से अपनी आतंकी श्रेष्ठता का उद्घोष करता था जिसे सुदूर कैलास तक सुना जा सकता था।
उसके अपने वेदविद ब्रह्मराक्षस थे, अपने अभिचारी यजन सत्र थे और सुव्यवस्थित सुनियोजित प्रचारतंत्र भी:
षडङ्गवेदविदुषां क्रतुप्रवरयाजिनाम्
शुश्राव ब्रह्मघोषांश्च विरात्रे ब्रह्मरक्षसा

देव, विद्याधर, यक्ष, नाग, गन्धर्व आदि सब उससे काँपते थे, ग्रामीण और नागर मनुष्यों या वनवासी वानर भल्लूकों को तो वह गिनता ही नहीं था। जाने कितनी स्त्रियाँ अपहृत बलत्कृत कर लङ्का के वासनापङ्क में लायी गयीं और भुला दी गयीं। निर्बल जग ने लङ्का की रीति कह स्वीकार सा कर लिया, सबल की सामर्थ्य क्षम्य हो गयी।

ऐसे में एक और स्त्री, वह भी एक निर्वासित राजकुमार की स्वयं रावण द्वारा अपहृत मानवी पत्नी को ढूँढ़ने वह आये थे और सामने विराट लङ्का के उत्तुङ्ग भवनशिखर थे - अट्टालकशताकीर्णां ...गिरिमूर्ध्नि स्थितां लङ्कां

उत्तरी द्वार के निकट पहुँच हनुमान चिंतित हो उठे - द्वारमुत्तरमासाद्य चिन्तयामास वानरः। इस राक्षस नगरी में भीतर कोई सहायता नहीं मिलनी, वह तो आगे की बात है, प्रविष्ट कैसे हों? वह तो भयङ्कर शस्त्रास्त्र धारी घोर राक्षसों द्वारा रक्षित थी, जैसे विषधर सर्प अपनी गुहाओं की करते हैं - दंष्ट्रिभिर्बहुभिः शूरैः शूलपट्टिशपाणिभिः रक्षितां राक्षसैर्घोरैर्गुहामाशीविषैरपि
वह उस स्त्री की भाँति थी जिसकी जघनस्थली चहारदीवारी हो, विशाल जलराशि और गहन वनप्रांतर जिसके वस्त्र हों, शतघ्नी और शूल सरीखे अस्त्र जिसके केश हों और अट्टालिकायें कर्णफूल:
वप्रप्राकारजघनां विपुलाम्बुनवाम्बराम्
शतघ्नीशूलकेशान्तामट्टालकवतंसकाम्
 लम्पटों द्वारा प्रताड़ित दीन स्त्रियों को बन्दी बना कर रखने वाली लङ्का का रम्य रूप भी अभेद्य था!    

उसे तो युद्ध द्वारा भी जीता नहीं जा सकता था – नहि युद्धेन वै लङ्का शक्या। विषमां लङ्का दुर्गां, पहुँच कर भी राघव क्या कर लेंगे – किं करिष्यति राघव:?
राक्षसों पर साम, दान, भेद और युद्ध, इनमें से कोई भी नीति सफल नहीं होनी:
अवकाशो न सान्त्वस्य राक्षसेष्वभिगम्यते
न दानस्य न भेदस्य नैव युद्धस्य दृश्यते
मेरे अतिरिक्त केवल तीन वानरों, अङ्गद, नील और सुग्रीव की गति ही यहाँ तक हो सकती है।
घोर चिंता में महाकपि की विचारसरि बह चली, अच्छा, पहले पता तो लगा लूँ कि वैदेही जीवित हैं भी या नहीं – वैदेहीं यदि जीवति वा न वा?
नगरी में आँख बचा कर, कोई ऐसा रूप धारण कर जो दिखने पर भी अनदेखा रह जाये, लक्ष्यालक्ष्य रूप धारण कर ही प्रवेश करना चाहिये।

उन्हें दूत के कर्तव्य की सुध भी हो आई - मेरे कारण कार्य बिगड़ना नहीं चाहिये। विकल दूत द्वारा देशकाल के प्रतिकूल आचरण करने के कारण कई बार स्वामी के बने बनाये कार्य भी बिगड़ जाते हैं। अपने को पण्डित मानने वाले दूत भी कई बार सब चौपट कर देते हैं – घातयंतीह कार्याणि दूता: पण्डितमानिना:। कैसे करूँ कि मुझे विकलता न हो, समुद्र लङ्घन का उद्योग व्यर्थ न जाने पाये और कार्य भी न बिगड़े – न विनश्येत्कथं कार्यं वैक्लव्यं न कथं भवेत्, लङ्घनं च समुद्रस्य कथं नु न वृथा भवेत्? यहाँ छिपे बैठे रहने से भी कुछ नहीं होना, ऐसे ही रहा तो मारा जाऊँगा और स्वामी का कार्य भी विनाश को प्राप्त हो जायेगा।
मैं रात में अपने इसी रूप में ह्रस्व हो लङ्का में प्रवेश करूँगा - तदहं स्वेन रूपेण रजन्यां ह्रस्वतां गतः

प्रदोषकाल में हनुमान जी ने परकोटा फाँदा और नगरी में प्रविष्ट हो गये। भीतर जो लम्बशिखरे लम्बे लंबतोयदसन्निभे ...खमिवोत्पतितां लङ्का का रूप दिखा वह मन को हराने वाला अचिंत्य था, अद्भुत था; साथ ही उन लघुदेह को विदेह कन्या के दर्शन की उत्सुकता की पूर्ति की आस बँधी थी, इसलिये प्रसन्नता भी थी - विषण्णता और हर्ष का विचित्र समन्वय घटित हुआ था:
अचिन्त्यामद्भुताकारां दृष्ट्वा लङ्कां महाकपिः
आसीद्विषण्णो हृष्टश्च वैदेह्या दर्शनोत्सुकः

मन को थोड़ी ठाँव मिली तो मेधावी समीक्षा पुन: प्रवाहित हुई। इस बार कुछ आशा बलवती हुयी थी इसलिये सतर्क विवेचन से कपि ने अनुमान लगाया। मेरे अतिरिक्त वानरों में केवल कुमुद, मैन्द, द्विविद, सुषेण, अङ्गद, सुग्रीव, कुशपर्वा  और जाम्बवान ही इस पुरी के भीतर प्रविष्ट हो सकते हैं। तत्क्षण राघव और लक्ष्मण के विक्रम पराक्रम ध्यान में आये और कपि प्रसन्नचित्त हो गये:
समीक्ष्य तु महाबाहो राघवस्य पराक्रमम्
लक्ष्मणस्य च विक्रान्तमभवत्प्रीतिमान्कपिः

लङ्का के रम्य रूप पर पुन: ध्यान गया – वह नगरी वस्त्राभूषणों से विभूषित सुन्दरी युवती के समान थी। उसके वस्त्र रत्नमय थे। गोष्ठागार और भवन उसके आभूषण थे।  परकोटों पर लगे यंत्रों के गृह ही उसके स्तन थे और वह सब प्रकार की समृद्धियों से सम्पन्न थी:
तां रत्नवसनोपेतां कोष्ठागारावतंसकाम्
यन्त्रागारस्तनीमृद्धां प्रमदामिव भूषिताम्

प्रशंसा करते कपि आगे बढ़े ही थे कि रंग में भंग पड़ गया। लङ्का का विकृत स्त्री रूप सामने था। गर्जना करती हुई वह सामने आ गयी – रे वानर! तू कौन है, यहाँ किस उद्देश्य से आया है? तू इस रावण सैन्य रक्षित पुरी में प्रवेश नहीं कर सकता।
वीर हनुमान अपनी धुन में पूछ पड़े – हे दारुण स्त्री! जो पूछ रही है, वह तो बता दूँगा लेकिन पहले तू ये बता कि है कौन? तेरे नयन बड़े विरूप हैं। तू किस कारण मुझे इस तरह भर्त्सना पूर्वक डाँट रही है? किमर्थं चापि मां क्रोधान्निर्भतर्सयसि दारुणे!      

उत्तर मिला – मैं महात्मा रावण की आज्ञा की प्रतीक्षा करने वाली सेविका हूँ और मैं इस नगरी की रक्षा करती हूँ। आज तू मेरे हाथों मारा जायेगा। तू मुझे ही लङ्का नगरी समझ, अतिक्रमण करोगे तो कठोर वाणी से सत्कार होगा ही।

मेधावी और सत्त्ववान वानरशिरोमणि ने कूटनिवेदन किया – मुझे इस अद्भुत नगरी को देखने का बड़ा कौतुहल है। इसके वन, उपवन, कानन और मुख्य भवन आदि को देखने के लिये ही मेरा आगमन हुआ है।
 इसे सुन कर लङ्का ने पुन: परुष वाणी में उनका तिरस्कार किया – दुर्बुद्धि वानराधम! मुझे परास्त किये बिना तू इस पुरी को नहीं देख सकता। मैं राक्षसेश्वर रावण की पालिता हूँ (कोई ऐरी गैरी नहीं!)।

हनुमान जी ने बिना धैर्य खोये और विनम्र हो कर निवेदन किया – भद्रे! इस पुरी को देख कर मैं जैसे आया हूँ, वैसे ही लौट जाऊँगा (मुझे जाने दें)। दृष्ट्वा पुरीमिमां भद्रे पुनर्यास्ते यथागतम्

इस पर अत्यंत क्रुद्ध हो राक्षसी ने भयङ्कर महानाद कर वानरश्रेष्ठ को बड़े जोर से एक तमाचा जड़ दिया। इस प्रकार पीटे जाने पर वीर मारुति ने उससे भी अधिक तीव्र महानाद किया।
तत: कृत्वा महानादं सा वै लङ्का भयंकरम्
तलेन वानरश्रेष्ठं ताडयामास वेगिता
तत: स हरिशार्दूलो लङ्कया ताडितो भृशम्
ननाद सुमहानादं वीर्यवान् मारुतात्मज:

उन्हों ने बायें हाथ का एक मुक्का उसे जड़ दिया। उस प्रहार से व्याकुल हुई वह धरती पर गिर पड़ी। तमाचे के व्याज में मुक्का खाने से उसकी अहंकार विचलित बुद्धि स्थिर हो गयी। सतोगुणी वीर वज्राङ्ग द्वारा राक्षसी का पराभव हो गया।

 उसने गद्गद वाणी में निवेदन किया -  महाबाहो! प्रसन्न होइये, मुझे त्राण दीजिये। हे सौम्य! सत्त्वगुणशाली वीर पुरुष शास्त्र की मर्यादा में स्थिर रहते हैं (स्त्री अवध्य होती है, ध्यान रखिये)।
प्रसीद सुमहाबाहो त्रायस्व हरिसत्तम
समये सौम्य तिष्ठंति सत्त्ववंतो महाबला:
मुझे आप ने अपने विक्रम से परास्त कर दिया। जाइये जिस हेतु आये हैं वह सब पूरा कीजिये – विधत्स्व सर्वकार्याणि यानि यानीह वाञ्छसि!
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 (रामायण का यह प्रसंग पर्याप्त नाट्य सम्भावनायें लिये हुये है। विचित्रता तो है ही, हास्य और रससृजन के भी अवसर हैं। एक समय ऐसा आया होगा जब आख्यान गायन मंचित भी होने लगा होगा। हरिवंश में यादवों द्वारा रामायण प्रसंग के मंचन के अंत:साक्ष्य हैं।)     

बुधवार, 2 नवंबर 2016

चार गुण – धृतिर्दृष्टिर्मतिर्दाक्ष्यं [सुन्दरकाण्ड-5]


मनुष्य प्रज्ञा प्रेरित सम सम्यक संतुलन के कारण मनुष्य होता है। ऊर्ध्वरेता प्रज्ञा के कारण मूल प्रवृत्तियों का संतुलन सत की पहचान है। सत का सजग चयन वरेण्य है। वह प्रकाशमय सविता है जिसकी प्रेरणा निरंतर ऊँचाइयों की ओर ले जाती है।   
क्षुधा, निद्रा, भय और मैथुन - ये चार प्राकृत हैं, पाशव हैं, मूल प्रवृत्तियाँ हैं, समस्त जंतुओं में होती हैं। इनके एकल या बहुल समुच्चय ही बस हों तो तमस की स्थिति है। इस स्थिति में पाशव वृत्ति ही काम करती है, सम् वाद अर्थात संवाद नहीं। किसी भी अभियान में यदि ऐसी बाधा आये तो बेझिझक कठोरता पूर्वक उसका संहार शमन ही मार्ग है। तमस से उलझना उसे बढ़ाना और बली बनाना होता है।
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पहली दो विघ्न बाधाओं में सजग देव तत्त्व की प्रेरणा और हस्तक्षेप थे लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं था। हनुमान जी की गति को मूल प्रवृत्ति ‘क्षुधा’ से प्रेरित राक्षसी सिंहिका ने रोक लिया – बहुत दिनों पश्चात मोटा आहार मिला है, इसे खा लूँ तो आज पेट भर जायेगा अद्य दीर्घ कालस्य भविष्याम्यहमाशिता
उसके द्वारा पकड़े जाने के कारण हनुमान जी का पराक्रम पङ्गु हो गया जैसे सागर में प्रतिलोम वायु के कारण विशाल जलयान की गति अवरुद्ध हो जाती है – सहसा पङ्गुकृतपराक्रम:, प्रतिलोमेन वातेन महानौरिवे सागरे!
सब ओर देखने पर समुद्र के जल के ऊपर उठा विशालकाय प्राणी दिखा और उन्हें स्मृति हो आयी कि सुग्रीव ने इसी महापराक्रमी छायाग्राही जीव के बारे में चेताया था, इसमें संशय नहीं कि वही है – छायाग्राहि महावीर्यं तदिदं नात्र संशय:। पानी में थोड़े गहरे रहने वाले कुछ हिंसक जीव तैरते जीवों की छाया से ही आहार की उपस्थिति का अनुमान कर आक्रमण करते हैं, छायाग्राही से उसी ओर संकेत है।
उनकी गति अवरुद्ध कर सिंहिका मेघ घटा के समान गर्जना करती हुई ‘दौड़ी’ – घनराजीव गर्जन्ती वानरं समभिद्रवत्।
तमस विघ्न आक्रमण पर था। हनुमान जी पहचान चुके थे, कोई दुविधा नहीं, कोई झिझक नहीं और न पहले की तरह संवाद करने की आवश्यकता भी थी, कोई लाभ नहीं होता। कपि ने उसके मर्मस्थलों को चिह्नित किया कि इन पर वार करने से इसका नाश हो जायेगा, कायमात्रं च मेधावी मर्माणि च महाकपि - नीति चयनित आक्रमण।  
वे उसके मुँह में समा गये जैसे कि पूर्णिमा का चन्द्र राहु का ग्रास बन गया हो – ग्रस्यमानं यथा चन्द्रं पूर्णं पर्वणि राहुणा!
भीतर उसके मर्मस्थलों को अपने तीखे नखों से विदीर्ण कर दिया, राक्षसी मृत हो गिर पड़ी – पतितां वीक्ष्य सिंहिकाम्
आकाशचारी प्राणियों ने कपि की सराहना की (न देवता, न विद्याधर, न गन्धर्व, केवल प्राणी)। इस विजय पर उन प्राणियों ने हनुमान जी से यह सूत्र कहा:
यस्य त्वेतानि चत्वारि वानरेन्द्र यथा तव
धृतिर्दृष्टिर्मतिर्दाक्ष्यं स कर्मसु न सीदति
हे वानरेन्द्र! जिसमें तुम्हारे समान धैर्य, सूझ बूझ वाली सूक्ष्म दृष्टि, बुद्धि और दक्षता - ये चार गुण होते हैं, उसे अपने कार्य में कभी असफलता नहीं होती।
(सुकवि मर्मस्थलों को पहचानता और उदात्त मानवीयता की प्रतिष्ठा करता चलता है, यहाँ वही किया गया है)।

हनुमान जी को आगे विविध वृक्षों से विभूषित द्वीप दिखा, मलय पर्वत दिखा और उसके उपवन भी – विविधद्रुमविभूषितम्, द्वीपं ..मलयोपवनानि च
सागर, उसके तटीय जलप्राय क्षेत्र, तटीय वृक्ष और सागरपत्नी समान सरिताओं के मुहाने भी दिखे:
सागरं सागरानूपान्सागरानूपजान्द्रुमान्
सागरस्य च पत्नीनां मुखान्यपि विलोकयन्
लङ्का निकट आ गयी, कहीं मेरी इस गति को देख राक्षसों के मन में कौतुहल न उत्पन्न हो जाय, ऐसा विचार कर महाकपि देह को ढील दे पुन: वैसे ही प्रकृतिस्थ हो गये जैसे मोहरहित हुआ व्यक्ति अपने मूल स्वभाव में प्रतिष्ठित हो गया हो – वीतमोह इवात्मवान्, जैसे तीन पग में समूचे लोकों को नापने के पश्चात बलि की वीरता का हरण करने वाले हरि ने स्वयं को समेट लिया था – त्रीन् क्रमानिव विक्रम्य बलिवीर्यहरो हरि:। हरि का अर्थ वानर भी होता है और विष्णु भी। कपि ने सागर पार कर लिया था। 

...अंतिम तमस परीक्षा के साथ ही त्रिगुण परीक्षा को सफलता पूर्वक सम्पन्न कर महाबली हनुमान जी ने त्रिकूट पर्वत के शिखर पर स्थित लङ्का को सावधान हो देखा - त्रिकूटशिखरे लङ्कां स्थितां स्वस्थो ददर्श ह

अब तक तो केवल परीक्षायें थीं, वास्तविक चुनौतियाँ तो अब आनी थीं। उनका आत्मविश्वास हिलोरें ले रहा था:
शतान्यहं योजनानां क्रमेयं सुबहून्यपि
किं पुनः सागरस्यान्तं संख्यातं शतयोजनम्

सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

गच्छ सौम्य यथासुखम् [सुंदरकाण्ड - 4]


महर्षि कहते हैं कि हनुमान जी द्वारा मैनाक को इस प्रकार पार करना उनका दूसरा दुष्कर कर्म था – द्वितीयं हनुमत्कर्म दृष्ट्वा तत्र सुदुष्करम्। सागर को पार कर शत्रु क्षेत्र के अत्यंत अपरिचित, हिंस्र और दुर्जेय लङ्का में प्रवेश का निर्णय ले छलाँग भरना पहला दुष्कर कर्म था:
रामार्थं वानरार्थे च चिकीर्षन् कर्म दुष्करम्।
समुद्रस्य परं पारं दुष्प्रापं प्राप्तुमिच्छति॥

परीक्षा अभी पूर्ण नहीं हुयी थी - लङ्का पुरी में तो इच्छा अनुसार रूप धारण करने वाले कामरूपियों से पाला पड़ेगा जो कि भय के साथ बुद्धि को भी चुनौती देंगे, मारुति क्या उनसे पार पा सकेंगे?
राक्षसों से पीड़ित देव, गन्धर्व, सिद्ध और महर्षि; ये चार मिल कर नागमाता सुरसा के पास गये – मारुति के मार्ग में मुहुर्त भर के लिये विघ्न डाल दो। भय उत्पन्न करने वाली राक्षसी का भयंकर रूप बनाओ – द्रंष्टाकरालं पिङ्गाक्षं वक्त्रं कृत्वा नभ:स्पृशम्! हम सब पुन: मारुति के बल और पराक्रम को जानना चाह रहे हैं को संकट के समय ये उपाय कर तुम्हें जीतने के लिये कार्य करेंगे या विषाद में पड़ जायेंगे – त्वां विजेष्यत्युपायेन विषादं वा गमिष्यति?

राक्षसों की अजेयता का इतना आतङ्क था कि श्रीराम हित उनका भी कार्य सम्पन्न करने जा रहे मारुति को वे सभी ठोंक पीट कर परीछ लेना चाहते थे – आगे की सम्भावित दारुण परिणति से अच्छा है कि अभी निर्णय हो जाय। उन्हें केवल अपनी पड़ी है। पिटी पिटायी परिस्थिति में स्वयं अभियान न कर किसी अन्य उद्योगी को परीक्षित करना उसके लिये रजोगुणी बाधा उत्पन्न करना है। स्थैतिक बल और गतिक पराक्रम की पर्याप्तता जाँचना रजस है।
सुरसा अर्थात सुर-सा। नागमाता हैं किंतु उन चार के वर्गहित में पीड़ित नागों का भी हित देख कर नागमाता सहमत हो गयीं, रजोगुणी का यह भी एक लक्षण है। वह भयङ्कर रूप धारण कर पथ में अड़ गयीं - विकृतं च विरूपं च सर्वस्य च भयावहम्!

हनुमान! देवताओं ने तुम्हें भक्ष्य बता मुझे अर्पित कर दिया है। मैं तुम्हें खाऊँगी, मेरे मुख में प्रवेश करो। यहीं पर नहीं रुकीं, कहा कि यह तो मुझे पुराना ब्रह्म वरदान है – वर एष पुरा दत्तो मम! सुजन वरदानों के भ्रष्ट उपयोग और उनसे निवृत्ति के उदाहरण पूरी रामायण में व्याप्त हैं। विशिष्ट के विरुद्ध साधारण किंतु अप्रतिहत मानवीयता की अंतत: विजय ही तो रामाख्यान है। इस महत्त्वपूर्ण घड़ी भी उसे उपस्थित होना ही था। (आगे लङ्का में भी ऐसी स्थिति आनी है जहाँ दैहिक बल और पराक्रम से अधिक बुद्धि उपयुक्त होगी। महाकाव्य की विशेषता इसमें है कि मानवीयता को दृढ़ खड़ा रखता है - देखते हैं। सब कुछ जान समझ कर ‘देखी जायेगी’ कह कर उद्यत होने वाला रजस भाव यहाँ प्रतिष्ठित है।)    

मारुति ने धैर्य धारण किया, भयभीत तो हुये ही नहीं। प्रसन्नमुख अपना पक्ष निवेदित किये – प्रहृष्टवदनोऽब्रवीत्। राक्षसों से तो राम का भी वैर है और उनकी यशस्विनी पत्नी का हरण रावण ने कर लिया है – सीता हृता भार्या रावणेन यशस्विनी। अर्थात श्रीराम वैरी के वैरी हैं और पीड़ित स्त्री को मुक्त करना चाहते हैं, तुम तो राम की प्रजा भी हो। माता! ऐसे में तुम्हें तो उनकी सहायता करनी चाहिये – कर्तुमर्हसि रामस्य साह्यं विषयवासिनी। (उल्टे बाधा डाल रही हो?)

ध्यान देने योग्य है कि सीता यशस्विनी हैं, वनवास के वर्ष उन्हों ने ऐसे ही नहीं बिता दिये थे। राम के अभियान का जनपक्ष यहाँ भी उद्धृत है। नाग भी उनके विषयवासी प्रजा थे और वे भी राक्षसों से पीड़ित थे। अभियान साधारण नहीं था।

मारुति ने विकल्प भी दे दिया। मैथिली का दर्शन कर श्रीराम जी से मिल लूँगा तब तुम्हारे पास आ जाऊँगा, यह मेरा सत्यवचन है – आगमिष्यामि ते वक्त्रं सत्यं प्रतिशृणोमि ते, अभी तो जाने दे माँ! राजन्य वर्ग में वचन की बड़ी प्रतिष्ठा थी। इक्ष्वाकु कुल तो प्रसिद्ध ही था। मारुति ने यह कह स्मृति सी दिलायी कि मैं रघुवंशी राम का दूत हूँ, तुम्हें मेरे वचन को मान देना ही चाहिये।

राजा, प्रजा, कुल, वचन-प्रतिष्ठा, स्त्री पीड़ा आदि सबको मिला कर स्थिर प्रसन्न बुद्धि से मारुति ने जो संवाद किया उससे उनकी बुद्धिमत्ता प्रमाणित हो गयी लेकिन सुरसा को तो हनुमान की क्षमता भी जाननी थी – बलं जिज्ञासमाना, उसे युक्ति पूर्वक प्रयोग में ला भी सकता है या नहीं, यह भी तो जानना है।

माता ने मुख फैला दिया – तुम्हें तो मेरे मुख में प्रवेश कर के ही आगे जाना होगा, मेरी अवहेलना कर कोई आगे नहीं बढ़ सकता! निविश्य वदनं मेऽद्य गंतव्यं वानरोत्तम

हनुमान और उनमें होड़ सी लग गयी – वे मुख फैलाती गयीं, हनुमान भी बढ़ते गये। सीमा समझ हनुमान ने अपना आकार अंङ्गूठे के बराबर कर लिया, मुख में प्रवेश कर बाहर निकल नमस्कार मुद्रा में खड़े हो गये – दाक्षायणि! तुम्हें नमन है। अब तो तुम्हारा वर भी सत्य हो गया, मैं तुम्हारे मुख में प्रवेश कर बाहर जो आ गया। मैं अब वहाँ जाऊँगा जहाँ वैदेही हैं। (विद्वानों ने दाक्षायणि का अर्थ दक्ष पुत्री किया है। नागमाता का दक्ष पुत्री होना एक अलग विषय है।)

रजोगुणी परीक्षा पूर्ण हुई, बलबुद्धिनिधान हनुमान सफल हुये। आश्वस्त माता ने प्रकृत रूप धारण कर उन्हें आशीर्वाद दिया:
अर्थसिद्ध्यै हरिश्रेष्ठ गच्छ सौम्य यथासुखम्
समानय च वैदेहीं राघवेण महात्मना
हे हरिश्रेष्ठ! वांछित कार्यसिद्धि के लिये सुख पूर्वक जाओ। हे सौम्य! वैदेही को राघव से शीघ्र मिलाओ।

हमुमान जी द्वारा यह तीसरा दुष्कर कार्य सम्पन्न हुआ - तत्तृतीयं हनुमतो दृष्ट्वा कर्म सुदुष्करम्

... तमस परीक्षा आगे थी।  

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

मैनाक! प्रतिज्ञा च मया दत्ता [सुंदरकाण्ड - 3]

जीवन की भारतीय संकल्पना त्रिदेव, त्रिगुण, त्रिदोष संतुलन और त्रि पुरुषार्थ के पथ चलते अनंत से एकाकार होने या मोक्ष प्राप्त करने की रही है। काल के तीन आयामों में विचरित चेतना इनसे ही अनुशासित होती है। ऋग्वेद में भी  तिस्रो देवियाँ मही, इळा और सरस्वती बीज रूप में हैं और समस्त ऋषिकुलों के आह्वान मंत्रों में रची बसी हैं:
आ भारती भारतीभि: सजोषा इळा देवैर्मनुष्येभिरग्नि:।
सरस्वती सारस्वतोभिरर्वाक् तिस्रो देवीर्बर्हिरेदं सदंतु॥  
(वसिष्ठ, विश्वामित्र)
भारतीळे सरस्वति या व: सर्वां उपब्रुवे। ता नश्चोदयत श्रिये॥ 
(अगस्त्य मैत्रावरुणि)
इसी क्रम में तीन नाड़ियों पिंगला, इड़ा और सुषुम्ना पर भी ध्यान चला जाता है।    
बिना बँधे अनासक्त कर्म चरम आदर्श है, सत है। उसका मार्ग रजस से है जो कि दोषयुक्त होने पर भी वरेण्य है। रजस तत्त्व तमस वृत्ति से उठान है। परिवेश से सद् प्रेरणा, तुलना, प्रतिद्वन्द्विता, कठिन कर्म आदि रजोगुण के लक्षण हैं। रजोगुणी होना सर्वसाधारण के लिये भी सरल है। निष्क्रिय तमस को ही सतोगुण मान बैठे भारत हेतु विवेकानन्द ने इसीलिये कभी रजोगुण का आह्वान किया था। युवकों के लिये वे हनुमत् आदर्श ही चाहते थे – नि:स्वार्थ, बली, पराक्रमी और पूर्णत: समर्पित।   
     
कर्म के पथ त्रिगुण अर्थात सत्, रजस और तमस परीक्षायें आती ही हैं। अनजान और भयङ्कर तमसकेन्द्र लङ्का में वायुपुत्र को आगे अग्नि को भी साधना था, परीक्षाओं से कैसे छूट जाते?
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 पितरों के शुभकर्म संतति के लिये सुभीते हो जाते हैं। आदिकवि सागर और पर्वत दोनों का मानवीकरण करते हैं। वज्रांग हनुमान के अभियान हित सागर का कृतज्ञ भाव मूर्तिमान हो उठा। उसने अपने भीतर स्थित  मैनाक पर्वत से कहा,”हनुमान श्रीराम के हित इतने उत्कट अभियान पर निकले हैं। श्रीराम के पूर्वज सगर ने मेरी अभिवृद्धि की थी, कृतज्ञता कहती है कि इतने लम्बे पथ पर मुझे इस कपि को विश्राम प्रदान करना चाहिये। अहमिक्ष्वाकुनाथेन सगरेण विवर्धित: ... तथा मया विधातव्यं विश्रमेत यथा कपि:। पानी से ऊपर हो - सलिलादूर्ध्वमुत्तिष्ठ तिष्ठत्वेष कपिस्त्वयि!” 
मैनाक ऊपर हो आया।
 नि:स्वार्थ भाव से रामकाज करने को कभी तैरते और कभी अंतरीप छलाँग भरते जाते मारुति को पथ में विशाल मैनाक पर्वत अड़ा दिखा – दृष्टिपथ बाधित और मार्ग अवरुद्ध।

कृतज्ञता से उपजी थी, सतोगुणी थी किंतु जिस अभियान को बिना रुके पूरा करने की प्रतिज्ञा थी, उसके लिये तो विघ्न बाधा ही थी - विघ्नोऽयमिति निश्चितः।  मारुति ने इस विघ्न पर अपने वक्ष से आघात कर गिरा दिया – महावेगो महाकपि: ... उरसा पातयामास जीमूतमिव मारुत:
सतोगुणी परीक्षा लेते हैं, सफल होने पर हर्षित हो उत्साह वर्द्धन करते हैं। कवि लिखते हैं कि पर्वत प्रसन्न हो गया - बुद्ध्वा तस्य कपेर्वेगं जहर्ष च ननन्द च
 वह मानव रूप में आ गया। समानधर्मा उत्प्रेरण हुआ, मैनाक की स्मृति जीवंत हो उठी -  पुराकाल में पर्वतों के पंख थे, उड़ते विशाल पिण्डों से जनता भयभीत होती थी - भयं जग्मुस्तेषां, क्रुद्ध हो इन्द्र ने उनके पंख काट दिये किंतु मुझे वायुदेवता ने बचा लिया था। उनके पुत्र का सम्मान तो करना ही चाहिये।  

हे हनुमान! उपकार के लिये प्रत्युपकार सनातन धर्म है। ऐसी मति वाले इस समुद्र की इच्छा का आप को सम्मान करना चाहिये। मेरे शिखर पर ठहर थोड़ा विश्राम कर लीजिये। ये सुस्वादु सुगन्धित कन्द, मूल और फल हैं। इन्हें ग्रहण करने के पश्चात आगे प्रयाण कीजिये।
कृते च प्रतिकर्तव्यमेष धर्मः सनातनः
सोऽयं तत्प्रतिकारार्थी त्वत्तः संमानमर्हति
...
तव सानुषु विश्रान्तः शेषं प्रक्रमतामिति
तिष्ठ त्वं हरिशार्दूल मयि विश्रम्य गम्यताम्
तदिदं गन्धवत्स्वादु कन्दमूलफलं बहु
तदास्वाद्य हरिश्रेष्ठ विश्रान्तोऽनुगमिष्यसि
 धर्मानुरागी के लिये तो साधारण अतिथि भी पूजा का पात्र होता है। आप जैसे महान अतिथि के लिये क्या कहूँ?
अतिथिः किल पूजार्हः प्राकृतोऽपि विजानता
धर्मं जिज्ञासमानेन किं पुनर्यादृशो भवान्

हनुमान जी शीघ्रता में थे। उन्हों ने उत्तर दिया – आप के इस प्रिय प्रस्ताव से ही आतिथ्य हो गया, (मेरे न रुकने के कारण) कोई लाग डाँट न रखियेगा। मुझे शीघ्रता से यह कार्य पूरा करना है और दिन बीता जा रहा है। मैं प्रतिज्ञाबद्ध हूँ कि जब तक कार्य पूरा नहीं कर लूँगा, रुकूँगा नहीं। (नहीं रुक सकता, क्षमा कीजिये।)    
प्रीतोऽस्मि कृतमातिथ्यं मन्युरेषोऽपनीयताम्
त्वरते कार्यकालो मे अहश्चाप्यतिवर्तते
प्रतिज्ञा च मया दत्ता न स्थातव्यमिहान्तरा

ऐसा कह कर पर्वत को मान सा देते हुये हनुमान जी ने उसका हाथ से स्पर्श किया और आगे बढ़ गये।
इत्युक्त्वा पाणिना शैलमालभ्य हरिपुंगवः


... सतोगुणी बाधा के लिये तो स्पर्श भर सम्मान ही पर्याप्त था। आगे देवों द्वारा आयोजित रजोगुणी परीक्षा प्रतीक्षा में थी।