सोमवार, 30 जनवरी 2012

मंगल उवाच।



देखो! यह चूहा मर चुका है। इससे डरना मूर्खता है।
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कॉकरोच मटर की फली के कीड़े जैसा ही जीव है। यूँ हाय तौबा मचाने और भागने की आवश्यकता नहीं। फर्निचर से चोट लग सकती है।
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जल्दी में था। भीगा तौलिया बिस्तर पर रख दिया तो कौन सा पाप कर दिया? मैचिंग कलर के लिये बीस दुकानों पर तुम्हारे साथ घूमते मैं कभी झुँझलाया?
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जब मैं लिखता हूँ या मयूजिक सुनता हूँ तो सवाल पूछने पर ऊ हूँ टाइप ही जवाब दे सकता हूँ, समझ जाना चाहिये। मुँह फुला कर चल देने का क्या तुक? मैं मल्टी टास्कर नहीं हूँ बाबा कि एक साथ सब्जी, दाल, भात और कढ़ी पका सकूँ और बीच बीच में सीरियल में साड़ियों का चलन भी दिमाग में बिठा सकूँ। यकीन नहीं होता तो सीरियल राइटर से ही पूछ लो। वह भी बीवी से ऐसे ही त्रस्त होता होगा।
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देखो! फिल्म में कुछ अटपटा लगेगा तो मैं कमेंट करूँगा ही। जहाँ अच्छा होता है, वहाँ तो मैं भी चुप देखता हूँ।
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टी वी पर एक साथ तीन फिल्में मैं देख सकता हूँ। यह मेरा मल्टीटास्किंग है। तुम्हें न पसन्द हो तो वो दूसरा टी वी है ना!
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दोनों डार्क कलर तो थे – एक उसमें का तो दूसरा इसमें का। अब डार्क ब्लू और लाइट ब्लैक का अंतर नहीं दिखा तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा? किसी ने तो पैंट की मोहरी उठा कर नहीं देखा! रंग के ऐसे बारीक फर्क तुम्हें ही दिखते हैं। उफ्फ!
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सिर के पके बाल उखाड़ो नहीं, कैंची से कुतर दिया करो दो तीन दिन पर। मुझे कलर सलर नहीं करना।
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तुम भी खर्राटे लेती हो। कहो तो रिकॉर्ड कर सुना दूँ।
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ऐसे नहीं। एक महीने तुम सब्जी लाओ और एक महीने मैं। खर्च बराबर न हुआ तो कहना। मोल तोल करना तुम्हारी हॉबी है, सीधे क्यों नहीं कह देती? कम से कम टाइम खोटा करने का दुख तो नहीं होगा।
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मोबाइल में डाटा फ्री है। फोन नहीं लगता तो यह नेटवर्क का दोष है। मैं हमेशा इंटरनेट पर नहीं जमा रहता यार! ऑफिस में ढेरों काम हैं जिनके लिये मुझे सेलरी मिलती है।
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देखो वह बस एक कुलीग भर है। उसका हसबेंड मुझसे बहुत स्मार्ट है। वे दोनों हैप्पी हैं। फोन पर हँस कर बात करने का मतलब यह नहीं कि कोई खिचड़ी पक रही है।
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वहाँ से निकलना था तो साफ साफ कह देती! कामवाली काम करके जा चुकी थी, मुझे पता था सो कह दिया।
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अरे यार! सबके बच्चे तुम्हारे बच्चों के एज ग्रुप में ही हैं। कोई उनसे इतना बड़ा नहीं कि यूँ कहने वाली बात हो। वैसे भी उमर अधिक होना कोई नवाँ अचम्भा तो नहीं! आठवीं तो तुम हो ही।
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 घड़ी एकदम सही चल रही है। तुम तैयार हो रही थी।
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जो काम मुझे करना हो, बता दिया करो। मैं अनुमान लगाने में भोदूँ हूँ। नहीं होता तो तुमसे ....
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अरे मजाक किया मैंने! इतना भी नहीं समझती!
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प्रेरणा: The most eligible bachelor श्री श्री अभिषेकानन्द NY के गुगल शेयर 

शनिवार, 28 जनवरी 2012

वसंत की भटकन

आज वसंत पंचमी है। माघ महीने के शुक्ल पक्ष की पाँचवी तिथि, विक्रम संवत 2068। भारत की छ: ऋतुओं वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, शिशिर और हेमंत में वसंत ऋतु सिरमौर मानी गई है। वसंत माने पुराने पत्तों का अंत। यह नवोन्मेष की ऋतु है। ऋतुचक्र और पंचांग के फेर से अंतर पड़ता है लेकिन यह ऋतु नई फुनगियों, अन्न की पकी बालियों, सरसो की पियराई और गालों की लाली की ऋतु है। वसंत कामदेव का पुत्र है। यह मौसम राग का मौसम है। वसंत पंचमी, महाशिवरात्रि और अंत में होली, ऐसी उत्सवी ऋतु कोई और नहीं।
बाहर पार्क में पेंड़ अभी भी ठूँठे हैं लेकिन चिड़ियों की चहक बढ़ गई है। समीर शीतल है लेकिन ठिठुरन ऊष्म का आभास है। शहर में फूलों का महोत्सव कुछ दिन पहले ही समाप्त हुआ है और मैं सोचता हूँ कि भारत की मनीषा धन्य है! राग ऋतु का प्रारम्भ विद्या की देवी के उत्सव से। ऋतु के भरपूर यौवन में औघड़ वरदानी, महाभोगी, महायोगी शिव के विवाह का उत्सव और अवसान के समय होली जैसा रंग भरा पर्व! रागमयी वृत्तियों पर विद्या की लगाम, भोग के साथ योग की साधना, और अंत तो जैसे होता ही नहीं, उससे उच्छृंखल इनकार होली के होरियान, भदेस, अश्लील सर र र र र ...रामचन्द्र शुक्ल का विरुद्धों का सामंजस्य! सृष्टि ऐसे ही तो चलती रहती है जब तक सदाशिव संहार न कर दें!
आज के दिन महाप्राण निराला की स्मृति स्वाभाविक है। हठपूर्वक अपना जन्मदिन वसंत पंचमी को मनाते थे। उन्हें और उनकी जीवनी पढ़ते लगता है कि सुसंस्कृत भारत अपनी सकल दुर्बलताओं और शक्तियों के साथ सामने आ खड़ा हुआ है। उन्हें अपनी प्रतिभा पर गर्व था और हिन्दी जगत की उपेक्षा का पर्याप्त अनुभव भी। सरस्वती पुत्र ने कभी हिन्दी में बात करना भी बन्द कर दिया था! रागविरागमयी स्वर लहरियों को पश्चिमी संगीत में निबद्ध किया जिन्हें आज तक समझने के न प्रयास हुये और न कोई खास सम्मान मिला।
उन्हें पढ़ते संगीत का अज्ञान अखरता है। बहुत प्रयास किया लेकिन ....। पहाड़ी, भैरवी, भूपाली, देस आदि के स्वर पहचान जाता हूँ। बिथोवन, बाख, विवाल्डी और मोज़ार्ट की रचनाओं को बजते सुन अनुमान लगा लेता हूँ लेकिन बस वहीं समाप्त। निराला की कविताई का सम्मोहन सर्वदा रहेगा। यहाँ तक कि कुछ पहचानने पर उनकी एक कविता को घनघोर रूप से अंग्रेजी कविताओं से गुँथी अपनी अधूरी रचना में स्थान देने से स्वयं को रोक नहीं पाया:

... साइकिल से उतरते हाँफते वह मुस्कुराया था - 
तुम्हें फिल्म बुरी लगी क्या? जिम से फायदा होगा और संगीत के लिये मुझे याद कर कर के दुआयें दोगे मनु!...सही ही कहता था - पॉजेसिव अतनु।
... आंटी के आगे अच्छा बच्चा बना बैठा हूँ। अंकल चौकी पर तकिये का सहारा लिये अधलेटे हैं।
"मॉम! भैरवी सुनाओ न। मनु इसीलिये आया है।"
...सुबह सुबह झूठ! अतनु तुम माँ से भी झूठ बोलते हो?...
मधुर मातृस्वर - 
सुर-नर-मुनि जनमानी, सकल बुधज्ञानी
जगजननी जगदानी, महिषासुर मर्दिनी
भैरवी में कोई खासियत नहीं होती। सुरों में कोई अच्छाई नहीं और न ही हार्मोनियम में कुछ खास। खास तो मनुष्य़ का स्वर होता है। पत्तों से छन कर भीतर आती दिवस की पहली किरणें तन्मय स्वर में भीगती चली गईं और मैं? रवि रश्मियाँ तो हमेशा से मुझे पसन्द रही हैं। तुम, माँ, मन्दिर, पुजारी...उनके साथ जाने कितनी बातें, कितने लोग जुड़े हैं। भावुकता उमड़ पड़ी, स्वरलहरियाँ भीनती गईं। गीत गोविन्द, सॉनेट, पापा का मानस स्वर...सबने जैसे अपने छिपे कोष खोल दिये। तुम्हारा वह अक्सर कहना - मनु! बहुत कुछ समझ में नहीं आता - समझ गया। स्वयं से कहा - उर्मी! अबकी मिलो तो बताऊँगा...आंटी गाती रहीं, मनप्रस्तर पर स्वरलिपियाँ - सर्वदा के लिये सुरक्षित।
भवानी दयानी, महा वाकवानी
ज्वालामुखी चंडी, अमर पददानी
जगजननी जगदानी।
"मनु! तुम्हारे यहाँ गाते बजाते हैं?"
"नहीं...बस अष्टमी के दिन गाँव में कीर्तन होता है।"
"तुमी कानो एस्चो?" आंटी हँसने लगी हैं।
"निराला को जानते हो? हिन्दी कवि?... हमारे बैसवाड़े के थे?"
"मैंने हिन्दी कवितायें उतनी नहीं पढ़ीं।"
"भालो ना... सुनो उनके कुछ शब्द भैरवी में ही।"
अतनु हार्मोनियम पर मुस्कुराया है।
"गृह-गृह पार्वती, सुन्दर-शिव सँवारती
उर-उर आरती, ग़ृह-गृह पार्वती।
उर-उर आरती।" ... आंटी गाती रहीं और संगीत निरक्षर नहाता रहा...

बचपन के संस्कार। पीत वस्त्र, पीत पुष्प, पीत मिष्ठान्न और पीत तिलक -  वर दे! वीणावादिनी वर दे। स्वयं से पूछ रहा हूँ – किस तरह का नास्तिक है रे तू!
“आप लोग जाइये। मैं बाहर खड़ा हूँ।“
“आक्रोश है, इसका अर्थ है कि मानते हो?”
“कुछ भी कहो मैं मन्दिर में नहीं जाऊँगा।“
आनन्द अच्छा गाता है -  
काट अंध उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर, जगमग जग कर दे।
श्मशान के ऊपर वसंत राग।
“कहाँ हो आनन्द? आज वसंत पंचमी है। सुनने का मन कर रहा है।”

“ हलो! ... सुप्रभातम सर!”
“जग गये क्या? वसंत पंचमी की शुभकामनायें।“
“हाँ, जग ही रहा हूँ। ... वाह! आप ने अच्छी याद दिलाई।“
“मुझे आप के स्वर में ‘वर दे’  की रिकॉर्डिंग चाहिये।“
“हा, हा, हा... अभी तक याद है। अवश्य, अवश्य ... किसी न किसी बहाने यह सम्पर्क बना रहना चाहिये।“
“गीत याद भी है या भूल गये?”
“अरे नहीं यार! याद है ...भूलेगा तो 'रागविराग' पड़ी है घर में। देख लेंगे। श्रीमती जी हिन्दी से एम ए कर रही हैं।
“... गा कर भेजिये न! जल्दी से दिन में ही... चाय पीने के बाद का पहला काम।“
“हा, हा, हा.... मानव मन विचित्र होता है।“
“कैसे रिकॉर्ड करेंगे? मोबाइल पर तो एक मिनट की सीमा होती है।“
“अरे नहीं। कर लेंगे।“
“मैं इंतज़ार कर रहा हूँ।“... 

..."रिकॉर्ड तो कर लिया लेकिन वह बात नहीं आ पाई। आप सामने बैठे होते तो शायद वह बात आ जाती!" 
मन ही मन बड़बड़ाया हूँ - वह युग पुन: कहाँ आयेगा आनन्द! अब देखिये न, उस समय भी आप आप ही कहते थे लेकिन  अब के आप में वह आप कहाँ? जो बीत गई सो बीत गई। 

लीजिये सुनिये, आनन्द ने भेजा है।


 मेरे लिये वसंत स्मृतियों का आनन्द है। वसंत पंचमी, श्रावणी ... कैसे कैसे पर्व! वर्तमान के किनारे भूत में जीता मैं।
देख रहा हूँ कि आने वाली 14 फरवरी को समूचा संसार बढ़िया जायेगा। फूलों की बात के लिये दिन की प्रतीक्षा क्यों करनी? पंचमी हो, श्रावणी हो या वैलेंटाइन डे या कोई भी सामान्य सा दिन! 
... फूल खिलते रहेंगे। सड़कों पर पसीने टपकते रहेंगे। जगमग जग कोठियाँ तनती रहेंगी। भूख मरोड़ती रहेगी। मालों के आगे सड़क के डिवाइडरों पर नाइट शिफ्ट की बस्तियाँ भी बसती रहेंगी। चूल्हे के नाम पर सड़क के आवारा ईंटों से घिरी आग जलती रहेगी। जिनके कैलेंडर से होली दिवाली के अलावा सभी त्यौहार ग़ायब होंगे। वे दो भी इसलिये कि फुरसत का बहाना मिलता है और देसी ठर्रे की बाढ़ में बहा देने को जिन्दगी का राग भी...
...और एक जीवधारी ऐसे ही भटकता रहेगा।

वर दे! वीणावादिनी वर दे!     

सोमवार, 23 जनवरी 2012

प्रेम और सुभाषचन्द्र बोस: An Indian Pilgrim ...Ich denke immer an Sie


सुभाषचन्द्र बसु ( टोकियो, नवम्बर 1943)
भारत में कुछ नायकों को लोग न मृत्यु बदा होने देते हैं और न प्रेम।
सुभाष चन्द्र बोस ऐसे ही नायक हैं। यह बात अलग है कि उन्हों ने प्रेम किया, विवाह किया और कुछ सप्ताह की पुत्री को छोड़ संसार से विदा भी हुये।
परी देश की कहानी सी लगती है यह प्रेम कहानी लेकिन त्रासद है। देश और प्रेमिका के प्रेम को साथ साथ साधने में अदम्य साहस और कर्म का परिचय देते सुभाष बाबू के जीवन के इस पक्ष से साक्षात्कार होने पर उनके प्रति और प्यार उमड़ता है। साथ ही यह खीझ भरी सीख भी पुख्ता होती है कि प्रेम की राह में काँटे बहुत होते हैं।

समर के संगी दो प्रेमी 
ऑस्ट्रिया में जन्मी और आयु में तेरह वर्ष छोटी एमिली शेंकेल  (Emilie Schenkl) से उनकी मुलाकात यूरोप निर्वासन के दौरान जून 1934 में वियना में हुई। विशार्ट नामक कम्पनी ने सुभाष बाबू को 1920 से आगे भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन पर पुस्तक लिखने को कहा था। अपनी पुस्तक के लिये अंग्रेजी जानने वाले किसी सहायक की आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति एमिली ने की और दोनों के सम्बन्ध प्रगाढ़ होते चले गये। एमिली सज्जन, प्रसन्न और नि:स्वार्थ प्रकृति की महिला थीं। उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण सुभाष बाबू उन्हें प्यार से बाघिन कह कर पुकारते थे। एमिली ने बाद में बताया कि प्रेम में पहल सुभाष बाबू ने ही की थी।
  
दिसम्बर 1937 में दोनों ने गुप्त रूप से हिन्दू रीति के अनुसार विवाह कर लिया। उस समय जर्मनी में भिन्न नृवंश केमनुष्यों में आपसी विवाह पर रोक थी।

नवम्बर 1942 में उनकी एकमात्र पुत्री अनीता का जन्म हुआ और कुछ दिनों पश्चात सुभाष बाबू की रहस्यमय(विवादास्पद) दुर्घटनाजन्य मृत्यु हो गई। परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि सुभाष बाबू ने अपने जीवन के इस पक्ष को गोपनीय रखा और अंतिम यात्रा के कुछ पहले ही अपने भाई शरत बाबू को यह बात लिखी जिसमें पत्नी और बेटी का खयाल रखने का अनुरोध भी था। मृत्यु की तरह ही उनका प्रेम सम्बन्ध और वैवाहिक जीवन विवादास्पद हुए। दोनों के प्रेमपत्रों की असलियत पर प्रश्न उठाये गये और सुभाष बाबू के चरित्र और यूरोप जाने के असली मंतव्य पर लांछ्न लगाये गये। उन्हें कायर भी कहा गया जिसने अपने प्रेम सम्बन्ध को दुनिया से छिपाये रखा और बाद में पत्नी और पुत्री को धक्के खाने के लिये छोड़ दिया।

लोग भूल जाते हैं कि जो योद्धा होगा वह प्रेमी भी होगा। बिना प्रेम के, बिना उस भीतरी आग के कोई महान योद्धा नहीं हो सकता।

देखें उनके प्रेमपत्रों से कुछ अंश:

 कभी कभी तैरता हिमशैल भी पिघल जाता है, वैसा ही मेरे साथ हुआ है।...क्या इस प्यार का कोई लौकिक उपयोग है? हम जो कि दो अलग से देशों के वासी हैं, क्या कुछ भी हम दोनों में एक सा है? मेरा देश, मेरे लोग, मेरी परम्परायें, मेरी आदतें, रीति रिवाज, जलवायु ....असल में सबकुछ तुमसे और तुम्हारे परिवेश से अलग है। इस क्षण मैं वे सारे भेद भूल गया हूँ जो हमारे देशों को अलग बनाते हैं। मैंने तुम्हारे भीतर की स्त्री से प्रेम किया है, तुम्हारी आत्मा से प्रेम किया है।
एक खास प्रेमपत्र
नज़रबन्दी के दौरान उनके पत्र सेंसर किये जाते थे। अकेलेपन के इस दौर में एमिली के पत्रों से उन्हें आस मिलती। इस दौरान के औपचारिक पत्रों में भी अपने प्रेम को व्यक्त करने की राह उन्हों ने ढूँढ ली। उन्हों ने कालिदास के नाटक शकुंतला से प्रेरित गोथे की एक कृति के पहले भेजे अंग्रेजी अनुवाद का जर्मन मूल एमिली से ढूँढ़ने को कहा और इसे उद्धृत किया:
Wouldst thou the young year’s blossoms and the fruits of its decline,
And all whereby the soul is enraptured, feasted fed:
Wouldst thou the heaven and earth in one sole name combine,
I name thee, oh Shakuntala! And all at once is said.
कांग्रेस का दुबारा सभापति न बनने की दशा में उन्हों ने 4 जनवरी को यह पत्र लिखा:
 “...एक तरह से यह अच्छा होगा। मैं अधिक मुक्त रहूँगा और स्वयं के लिये मेरे पास अधिक समय रहेगा।“ उन्हों ने आगे जर्मन में जोड़ा ‘Und wie geht es Ihnen, meine Liebste? Ich denke immer an Sie bei Tag und bei Nacht.’ (और तुम कैसी हो मेरी प्रिये! दिन और रात हर समय मैं तुम्हें ही सोचता रहता हूँ।)“
एमिली हमेशा उनके लिये अति खास रहीं। अपनी पुस्तक में उन्हों ने केवल एमिली को ही नाम लेकर आभार व्यक्त किया। 29 नवम्बर 1934 को उन्हों ने पत्र में लिखा:

मैं यह पत्र एयरमेल से भेज रहा हूँ। किसी को यह न बताना कि मैंने तुम्हें एयरमेल से पत्र भेजा है, क्यों कि मैं और किसी को भी एयरमेल से पत्र नहीं भेजता हूँ – उन्हें यह ठीक नहीं लग सकता है।

एक और स्थान पर उन्हें दिल की रानी कहते हुये सुभाष बाबू लिखते हैं:
  तुम पहली स्त्री हो जिसे मैंने प्यार किया है...ईश्वर से प्रार्थना है कि तुम ही अंतिम रहो...मैंने कभी नहीं सोचा था कि किसी स्त्री का प्रेम मुझे बाँध लेगा। पहले कितनी स्त्रियों ने मुझे चाहा लेकिन मैंने उनकी ओर कभी नहीं देखा। लेकिन तूने बदमाश! मुझे पकड़ ही लिया।“ 
1937 के एक बहुत ही आर्द्र और सान्द्र पत्र में उन्हों ने लिखा:
... तुम हमेशा मेरे साथ हो। सम्भवत: मैं संसार में और किसी के बारे में सोच ही नहीं सकता।...मैं तुम्हें बता नहीं सकता कि बीते महीने मैंने कितना दुख और अकेलापन महसूस किया है। केवल एक चीज मुझे प्रसन्न कर सकती है – लेकिन मैं नहीं जानता कि वह सम्भव भी है। फिर भी मैं उसके बारे में दिन रात सोच रहा हूँ और ईश्वर से प्रार्थना कर रहा हूँ कि मुझे सही राह दिखाये ...”
दिसम्बर 1937 में An Indian Pilgrim नाम से उन्हों ने अपनी अधूरी आत्मकथा लिखना प्रारम्भ किया। उसमें उन्हों ने लिखा:
मेरे लिये सत्य का आवश्यक अंग प्रेम है। प्रेम जगत का सार है और मानव जीवन में आवश्यक तत्त्व है ...मैं अपने चारो ओर प्रेम का खेल देखता हूँ; मैं अपने भीतर उसे ही पाता हूँ; मुझे लगता है कि अपनी पूर्णता के लिये मुझे अवश्य प्रेम करना चाहिये और जीवन की पुनर्रचना के लिये मुझे प्रेम की एक मौलिक सिद्धांत के रूप में आवश्यकता है।“
एक पत्र में वह एमिली को समय पर दवाइयाँ लेने, वर्तनी की अशुद्धियों में सुधार करने और उन्हें उनकी वास्तविक जन्मतिथि, जन्म समय और स्थान भेजने को कहते हैं। उन्हों ने लिखा:
” Ich denke immer an Sie – Warum glauben Sie nicht?’ (मैं तुम्हारे बारे में हमेशा सोचता रहता हूँ। तुम मेरा भरोसा क्यों नहीं करती?). ....“Ich weiss nicht was ich in Zukunft tun werde. Bitte sagen Sie was ich machen soll (मुझे नहीं पता कि मैं भविष्य में क्या करूँगा। मुझे बताओ न कि मुझे क्या करना चाहिये)...Ich denke immer an Sie. Viele Liebe wie immer (मैं तुम्हारे बारे में हमेशा सोचता रहता हूँI हमेशा की तरह ढेर सारा प्यार) ”.
घोषित रूप से अपने पहले प्यार ‘देश’ और अपनी गुप्त ‘हृदयेश्वरी’ के प्रेम की पीर को जीते सुभाष बाबू की मन:स्थिति को सोच आँखें भर आती हैं। उनका अंतिम पत्र यह था:
“...मैं नहीं जानता कि भविष्य ने मेरे लिये क्या रख छोड़ा है। हो सकता है कि मैं अपना जीवन जेल में ही बिता दूँ, मारा जाऊँ या फाँसी पर चढ़ा दिया जाऊँ। चाहे जो हो, मैं तुम्हें याद करता रहूँगा और तुम्हारे प्यार के लिये तुम्हें अपनी मौन कृतज्ञता व्यक्त करता रहूँगा। हो सकता है कि मैं तुम्हें फिर कभी न देख पाऊँ .... हो सकता है कि लौटने पर तुम्हें लिखने लायक भी न रह पाऊँ...लेकिन मेरा भरोसा करो कि तुम हमेशा मेरे हृदय में रहोगी, मेरी सोच में रहोगी और मेरे सपनों में रहोगी। यदि भाग्य हमें इस जीवन में अलग कर देगा तो अगले जन्म में भी मैं तुम्हें चाहूँगा।
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अनीता और एमिली
अगस्त 1945 के अंत की एक साँझ एमिली अपने वियना के घर की रसोई में बैठी ऊन का गोला बनाती रेडियो पर समाचार सुन रही थीं। अचानक ही रेडियो ने घोषणा की कि भारतीय ‘क़िस्लिंग’ सुभाष चन्द्र बोस एक विमान दुर्घटना में तायहोकू (ताइपेय) में मारे गये हैं। एमिली की माँ और बहन ने उन्हें भौंचक्के हो कर देखा। वह धीरे से उठीं और बेडरूम की ओर गईं जहाँ उनकी पुत्री अनीता गहरी नींद में सोई हुई थी। उसके बिस्तर के बगल में झुक कर वह रोने लगीं।
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आभार: द टेलीग्राफ (कलकत्ता); हिन्दुस्तान टाइम्स; टाइम्स ऑफ इंडिया और सर्मिला बोस  

गुरुवार, 19 जनवरी 2012

पुन: कब ...


भूमि से नीचे बहुत, कहीं बहुत गहरे है एक आसमान
कोर से उछलती दमकती बिजलियाँ हैं मेरुप्रभा का आसमान
उसके छाये में पलते घने दरख्त, मनुष्य, पशु, हैवान, फरिश्ते
बहती हैं नदियाँ जिनमें पानी नहीं काला शोणित अश्यान अप्राण।
दिन और रात नहीं होते वहाँ, घड़ी घड़ी हैं पुकारें दहाड़ सी
समय की बीत जताती ज्वालामुख जिह्वा करती रह रह फुफकार
कानों में घुसती है चुम्बकीय हवा के संग बिन सूरज प्रकाशमान
करती स्तवन तुम सब, तुममें सब रूप, तुम सर्वशक्तिमान।

मैं आ गया हूँ, पहुँच गया हूँ। चौथा या पाँचवाँ जाने कौन सा?
हाथ पाँव सही सलामत, कोई दर्द कहीं नहीं, न देह का पता
मैं स्वस्थ हूँ, सुरक्षित हूँ, बस मस्तिष्क की जगह कोई जड़ पिंड है
याद आता नहीं कि किसी उभरे शिलाखंड से टकराया सिर गिरते हुये
याद है भी, होती भी है? जड़ है फिर भी प्रश्न उठते हैं पिंड में
कहते हैं दिमाग को काटो तो दर्द नहीं होता, चोट लगी तो कहाँ लगी?

एक साथ ज्यों पीठ ठोंकी है हजार हाथों ने सब ठीक है, ऐसिच है
पहली दफा ऐसा ही होता है, अब आ गये हो, सब ठीक होगा
इब क्या होगा, अब जीवन कैसा होगा? पहला सवाल है जो मैंने पूछा है
अट्टहास हैं समवेत उन्नत आत्मा! यहाँ जीवन और मृत्यु नहीं होते
इस लोक में वैसी हवायें हैं ही नहीं जो उन्हें अलग अलग करें।

हवायें? मैंने दीठ फेरी है उन अनाम वृक्षों की पुतलियों पर
झँकोरे नहीं, किसी चित्रकार के ब्रश से निकले भगोड़े छागल हैं
इधर उधर कुँलाचते सब धुँधला करते उभारते नये नये लैंडस्केप
लहरा उठती हैं बहुरंगी साड़ियाँ मेरुप्रभा मुग्ध इठलाती है
बरस रहे हैं पत्ते गिरते चमक चन चन नदी के पानी में। 
अश्यान फलक में तैर नहीं, उछलते हैं बार बार सरकते
अदृश्य में फिसलते चमकते रह रह खिलखिल झिलमिल।

अचानक पाता हूँ यहाँ कोई विसरित प्रकाश नहीं, अन्धकार नहीं
बस है जो कि होता है तब जब कोई होता है ढूँढ़ता उसे जो होता है
पुकार आई है सब ओर से (यहाँ दिशायें नहीं और न उनका बोध है)
आगंतुक! अपना प्रश्न पूछो! प्रश्न? कैसा प्रश्न? वह क्या था जो पूछा
पहला, जिसे उलझा दिया तुमने हवाओं के पल्लू में बाँध कर?
फिर से हैं अट्टहास समवेत सिद्ध हुआ कि तुम पर्यटक नहीं
आगंतुक! तुम हम हो, अब नहीं जाना तुम्हें उस दिवालोक में
जहाँ अस्तित्त्व बस होते नहीं, नागरिक होते हैं और कुछ रह नहीं जाते।

माथे से द्रव रिस उठा है, आँखों से रिस उठा है, जाना अब नहीं हो पायेगा?
घेर लिया है मुझे अनेक रोशन श्यान जिह्वाओं ने, द्रव सूख गया है
साफ बेलार बिनटपकी चाट मिलन की अभावी सहसा प्रथम छुअन सी।
कौन हो तुम लोग मुझे रोकने वाले? सामने क्यों नहीं आते, क्यों यूँ लजाते?
हाथ घुमाओ यूँ जैसे कि किसी पास खड़े को लग न जाय, हम दिखेंगे
हुई है हाथों में जुम्बिश और मुझे घेरे खड़े हैं हजारों दमकते स्याह से
यहाँ कोई काल नहीं सब वर्तमान है, फिकर करोगे तो सब दिखेंगे
जिन्हें तुम कहोगे भूत से, ऊपर वहाँ कोई भविष्य नहीं, तुम्हारा नहीं।

मैं चल पड़ा हूँ उनके साथ साथ, चन्द कदम जोर साँस, पानी पी, चल
यह है हमारा आहार विहार। हम हवाखोर बस होते हैं, जीते मरते नहीं।
यहाँ आओ, हमें दिखलाओ, मुंड में क्या है? घिर गये हैं प्रभाओं के वलय
मैं मुग्ध हूँ। नाच रही है नायिका। मेरुप्रभा। आयत नेत्र अक्षितिज अबूझ
लघुत्तम केन्द्रक परिक्रमा इलेक्ट्रॉन, महत्तम निहारिकायें, कितने प्रकाशवर्ष!
तुम अद्भुत हो, जगा दी याद हमें हमारी विस्मृति की, पहले हम ऐसे ही थे
तुम क्यों आये? मैं आया नहीं खुद से, गिरा हूँ मृत्युलोक से, जहाँ जीवन है।
-झूठ है सब - तुम भी क्या खूब गिरे! हममें से कोई नहीं पतित यहाँ, हम हैं
शाश्वत, बदलते नित नवीन। इस लोक बार्धक्य का क्षरण नहीं, खुश रहो।
यहाँ विस्मृति है, तुममें दोष है कि तुम्हारे म्ंड में स्मृतियाँ हैं, शेष हैं और
यहाँ की भी हो रही रिकॉर्डिंग। एक प्रश्न, एक वृत्त, एक केन्द्र, एक प्रमेय
फिर मुझे क्यों कहा गया पहली दफा, पहली दफा ऐसा ही होता है?

ज्यों पूछ दिया हो कोई सनातन अनसुलझा प्रश्न सब ओर सन्नाटा
फुफकार, दहाड़ चुप। रुक गई हैं मेरुप्रभायें। साटिका साटिन बिजलियाँ
थम! आहट। हाँ, इस लोक में आहट भी है! किसी बवंडर की अकस्मात
अट्टहास वह तुम्हें बहलाने को था। हम भुलक्कड़ों की मज्जा में है यह!
बहलाना, फुसलाना, दुलराना, समझाना पतन की चोट गहरी है होती
उन्नत! नहीं बहलोगे, नहीं फुसलोगे, नहीं दुलरोगे तो कैसे समझोगे? कैसे?
कैसे होगे हममें से एक, तब जब कि तुममें हैं हजार दोष! पतित!!
उन्नत, पतित, पतित, उन्नत घिरे हैं उलटबाँसी प्रश्नवाची आवर्त अविश्वास
नहीं, मैं नहीं सम्मोही अदृश्य यमदूतों की चुम्बकीय शीतलता से घिरा
महके गुलाब घेरे हैं उन्नतग्रीव ऊष्म सुकोमल गोरे बन्धन हाथ, साथ
तैर रही है देह सुचिक्कण फूलदार साटिन में जिस पर खिले कास कचनार
लिपटी है वह जो सुन्दर है, अलसाई आँखें कजरारी, रोज का जीवन है
कानों पर अटखेलियाँ हैं गर्म सिसकी, देह पिघले मोम जमती सर हवा।

लगा चाटा चटाक, जल उठे हैं गाल, जम गई है देह डाँट- कल्पना मूर्ख! 
दिव्य लोक आकर सोचता मल, मज्जा, विष्ठा, लार, लपार हासिल जो यूँ ही
तुम सचमुच आये हो सम्राट एकराट की दुनिया, किस्मत वाले हो, अटेंशन!
आ पहुँचे हो उनके सामने तैरते राख नदी पर, हवाई तिलस्म में घुलते
देखो! छिटक उठे हैं सितारे इस गहन चिरगर्भवती धरा की ममता कोख में 
देखो! निहारिकायें उड़ा रही हैं धूल धमाल अरे! साज ताल, सुनो पखावज
नाद निर्वात नित नृत्य नग्न हो उठा नवीन। काट खाया है निज को शोणित हीन
चमकती खाल से झाँकती शिरायें यह सच है अज्ञानी, झुको सच के आगे! 

सामने सच विराट, श्याम मुंड लाट, श्याम भूधर हवाखोरों के वार
सहस्रों छिद्र मोहन, सहस्र रूप, सहस्र किनारे चमके  हजारो हजार
झुका हूँ, घुटनों को गला रहा शीतल तेज़ाब, देखा कभी कृष्ण प्रकाश?
इतना चौंधियाता! धड़के धड़ दिल हजार हजारो भुलक्कड़ साष्टांग अभिचार
उगलने लगी हैं पसीना घायल नोच दी गयी शिरायें, उतर रही है खाल
धीरे धीरे मांस पकता नमकीन जलन! देख रहा अस्थियों के चमके फास्फर;
 हे देव! तुम्हें ऐसे ही मिलना था। क्या करूँगा मैं जब देह ही नहीं रहेगी?

 हंग हहा गस्पा ज्या तुन ता मातल गहा.... सच स्वामी ने क्या कहा?
सिर उतार ले लिया है एक छाया ने हाथ में और कहा है बड़े प्यार से
गुस्ताख! स्वामी से प्रश्न पूछते हो जैसे कि हम हों? सुनो जो सुना कहा
भूमि के ऊपर प्रकाश वह अन्धकार, जीवन वह मृत्यु, देह वह हवा
मैं देता हूँ दिशायें उन्हें, मेरुप्रभायें दासियाँ मेरी जिनकी देह चुम्बक
भटका देती हैं राहों को जब मचलती हैं बिजलियाँ उनमें शाद को।
मैं ऐसा ही हूँ कि तुम जान नहीं सकते, हाँ ऊपर नीचे जी सकते हो...
चूमा है मुझे अनुवादक ने, आह आनन्द! अभी बन्द भी न हुईं कि
घुसेड़ कोटरों में हड्डियाँ निकाल ली आँखें उसने, सौंप दिया है सच को
रहेंगी तो रिसती रहेंगी, आका! तुम्हें भेंट है, तुम सब, तुममें सब रूप,
दिखने दिखाने का क्या काम?” गर्जन ध्वनि तुन ता मातल गहाऽऽ
गलदश्रु हूँ मैं, ज्ञानचक्षु खुले हैं पहला स्तवन, नासमझा बिला दहा।

दौड़ चली हैं भीतर रश्मियाँ हिम सा फैलता श्यामल प्रकाश
बहते गालों पर रक्ताश्रु, घुसती हवा सहलाती आँखों के कोटर
कम्पयमान है सब कुछ मैं भीतर देख रहा सहमता उमगता
निकसे वह स्तुति निराभरण साधारण सी और एकदम साफ।
सर्वरूप तुम पतितों के तारनहार
तुम सर्वशक्ति महिमा ....
...”
 रुक गये हैं शब्द स्तवन गूँजती भीतर पदावली कोमल कांत
रुक गई हैं साँसें, चुम्बकीय बवंडर, उल्का फुसफुसाहटें सब शांत
निकल आये हैं सब ओर से शांत सरकते व्याल सब विष स्नात
आह विष शीतल! जलन दाह पीड़ा दलन सब शांत, क्या मृत्यु!
नहीं यह जीवन चरम, कुछ कहो स्वामी, कष्ट काटता अपार।
जकड़ गये कपोल अश्रु सूखे रक्त से, हुआ क्या प्रसन्न वह?

सा मिना मइ तंत वारे वाकुल कनगा गन ताम गाम
वारे कुल गा गना तना सन्गा केतुच मऎ ऍऑ दनाम...

श्याम पट है ललाट श्याम सब अन्ध अक्षर चमकें अनेक
पतित मैं सब कुछ छूटा अनसमझी तिलस्म दुनिया में
देह से त्वचा उतरी आँखें निकाल लीं वायु पिशाचों ने
और तुम बोलते हो वह बानी जिसके वैसाखी दलाल!
क्या नहीं पर्याप्त तप मेरा या तुममें नहीं आत्मविश्वास?
कुछ समझ आता नहीं स्वामी! नहीं चाहिये संवाद दलाल
सीधे  कहो मैं अन्ध त्रस्त इस अन्ध लोक के अन्धों से।

चमक उठे हैं विषधर मेरुप्रभा संग बहुरंग नील श्याम संग
विलुप्त हुये वायु पिशाच हो लीन साँपों के वलय श्वेत
आह! दिखी पहली बार ऐसी सफेदी रोशनी वाकई उजली
फूटी है वाणी की धार, हो शक्ति मुक्त, अगम कृष्ण विवर से
आह! सम्बोधित किया स्वामी ने सीधे मुझे निज भाषा में

तुम अन्ध! दिखता है तुम्हें वह जो नहीं दिखे और किसी को 
तुम मुक्त! जकड़े है तुम्हें वह झटक बढ़ते सब छोड़ जिसे
तुम पतित! साहस तुममें डूबने की अतल तक भार लिये। 
लगा होगा सब कुछ तिलस्म तुम्हें जिसे वाकई तुमने रचा
कुछ नहीं खास सब कुछ वैसे ही है जो है, तुममें है
मानो कि  शब्दों के पार चित्रों के पार सादा है सब कुछ
समझने को नहीं चाहिये चित्रमयी बोली, बस सीधी बात।
  
मानो कि वे वायु पिशाच सच हैं
हैं वे बहुरुपिये तुम्हारे प्रताड़क, मेरे उद्गाता
वे अमर हैं धारण किये सनातन कालकूट को।
नहीं जरूरत मंथन की उन्हें, वे मथते हैं काल को
उनके कूट से भटकते हैं ऋत रूप, वे गढ़ते हैं।
 
वे साँप सम्मोहक सच करते नाश विवर मूषकों का
और सँजोते हैं वसुधा का धन कुंडली मारे प्रलोभनों के।
दे वास्ता सुखमणि का छीनते हैं वे पल एक, दो, तीन ...
जिनसे सदियाँ चरमराती हैं। 

छीन लेंगे वे तुमसे तुम्हारे सारे मिथक
और उनका सच तुम्हारा होगा।

वे गढ़ेंगे कल्पना-वृद्ध रौंदते चित्र तुम्हारे पितरों के
और उनका इतिहास तुम्हारा होगा।
 
उनके व्याकरण रखे बैंकों के गुप्त लॉकरों में
आयेगा वह दिन तुम्हें जब बस करेंसी नोट समझ आयेंगे
और उनकी भाषा बानी तुम्हारी होगी।

वे गिनेंगे नहीं उस देह को जिससे है तुम्हारा इतना मोह
वे गिनेंगे दो कान, दो हाथ, दस अंगुलियाँ ...अंग अंग खंड खंड
वे गढ़ेंगे बहु और अल्प तुम्हें काट बाँट
नाक मुँह पेट अल्पसंख्यक, 
आँखें हाथ पैर कान बहुसंख्यक।  
वे जीते ही तुम्हें कर देंगे विदेह
जब कि भोगेंगे स्वयं सुख देह अनेक। 
तुम्हें करेंगे सम्मानित भी
भव्य उपाधि,
उदात्त व्याधि
ज्ञान शिरोमणि

तुम जो देखते श्याम प्रकाश यहाँ
ऐसे ही होंगे तुम्हारे आठों पहर
खो जायेंगे साँझ रजनी सबेर दुपहर,  
उनके सब दिन तुम्हारे होंगे।

और तुम सीना तान छाती ठोंक कहते फिरोगे
नहीं! हमसे कुछ नहीं छिना, हमने अपनाया है। 
वे तिलस्मी वायु पिशाच होंगे तुम्हारे मित्र और सम्बन्धी
तुम कहोगे, इन्हें पाने को मैंने दिये हैं बलिदान
खाल तक उधेड़ दी मैंने अपनी, अब मैं गुलाबी गोरा दमकता हूँ
और तुम्हारे पास दमक से चौंधियाने को आँखें नहीं होंगी
तुम वही देखोगे जो वे बतायेंगे
इस तरह होगा तुम्हारा मस्तिष्क संस्कार
तुम्हारी पीढ़ियाँ तर जायेंगी
 तुम बच जाओगे अपने आगम के लिये बस एक मिथक भर
जो देह पर लिये फिरता था सैकड़ो कृमि, दुर्गन्ध पीव से लदा।

सुनो! मत रोको मुझे, मैं स्वामी नहीं, सच नहीं, तुम्हीं हो
तुमसे हुआ हूँ साक्षात बताने को
जिन ध्वनियों को तुम समझ नहीं पाते लेकिन कहते हो
निरर्थक अबूझ नहीं वे, शिराओं में खौलते बहते रक्त की
आदिम रंगलहरियाँ हैं। कम हैं वे जो उन्हें सुन पाते हैं।
वही होते हैं पतित और बनते हैं पथिक उन खुदरीली राहों के
जो ले जाती हैं अन्ध गह्वर मरुस्थलों तक
ले जाती हैं निहारिकाओं के पार चुम्बकीय उद्यानों तक।
उन्हें दिखते हैं वे सब जो औरों को नहीं दिखते
आस के सपनों के पल दूर भयानक भविष्य के
होते हैं दास उनके और करते हैं प्रतीक्षायें अनंत
कि भूत से आयेंगे स्वामी और ले फिरेंगे खुशरंग वीथियों में
वे अगोरते हैं वर्तमान के वसंत को।

जाओ! यह तिलस्म पतन, पतन नहीं उत्थान है
गिरते रहोगे रह रह इस अन्ध विवर में
कि तुम्हारी जीवन संजीवनी यही है। 
तुम हो शापित निज रचना से
तुम्हारे एक कन्धे भूत का अमिट सच है
और दूसरे कन्धे भविष्य का गर्भ है।
तुम्हारा वर्तमान वह नहीं जो वे बताते हैं
तुम बस मनुष्य हो, पिशाच नहीं
समय तुम्हारी सीमा है,
और तुम हो अभिशप्त यूँ ही घुट घुट जीने को
तुम शापित आस हो
तुम अमर हो।

मैं हूँ श्लथ, लुंज पुंज
ऊपर नीचे एक साथ मेरा विस्तार
यह प्रकाश वह अन्हार दुर्निवार
मैं -
अपार्थिव सन्न जीवन लहरियों का द्रष्टा
लिख चुका जो याद रहा बस जोह रहा - 
कब?
पुन: पतन कब?