रविवार, 21 दिसंबर 2014

उत्तरायण के दिन अब मकर संक्रांति नहीं होती!

कल के सूर्योदय के साथ उदया तिथि में 22 दिसम्बर को सूर्य उत्तरायण होंगे अर्थात दक्षिण की ओर के अपने अधिकतम झुकाव से उत्तर की ओर पहला पग लेंगे। उस समय सूर्य मूल नक्षत्र पर होंगे अर्थात आकाश में जिस अयन क्षेत्र में सूर्योदय होगा, वह मूल नक्षत्र (वृश्चिक राशि के डंक का अंतिम बिन्दु) वाला होगा। 

उत्तर दिशा को शून्य मान कर यदि दक्षिणावर्त चलें तो पूरब दिशा 90 अंश पर आती है। अपने अधिकतम दक्षिणी झुकाव में सूर्योदय लगभग 116 अंश पर होता है और वहाँ से पुन: धीरे धीरे घटाव प्रारम्भ होता है - 115, 114, 113 ...। महाविषुव अर्थात 21 मार्च के आसपास मधुमास में सूर्योदय पुन: 90 अंश अर्थात ठीक पूरब दिशा में होगा।

हिन्दुओं में उत्तरायण को मकरसंक्रांति अर्थात सूर्य के धनु राशि से मकर राशि में संक्रमण तिथि 14/15 जनवरी से जोड़ कर माना जाता है। कभी ऐसा था किंतु आज ऐसा नहीं है। 

अब 14 जनवरी को सूर्य उत्तराषाढ़ नक्षत्र पर होते हैं। उत्तराषाढ़ नक्षत्र पर उत्तरायण सूर्योदय लगभग छठी सदी में होता था जब कि आर्यभट आदि ने अंतिम बार पंचांग का मानकीकरण किया। तब मकर संक्रांति और उत्तरायण सम्पाती थे। लगभग 25920 वर्षों की आवृत्ति के साथ धरती के घूर्णन अक्ष के शीर्ष बिन्दु की वृत्तीय गति के कारण यह खिसकन होती है।


 अयनवृत्त पर सूर्य का वार्षिक संचरण अथर्ववेद (19.7) अनुसार 28 नक्षत्रों में विभाजित है (संभवत: महाभारत काल में व्यासपीठ के संशोधनों में अभिजित को हटा कर यह विभाजन 27 नक्षत्रों में कर दिया गया)। 
वैदिक युग में यह विभाजन सदा समान नहीं था। समान विभाजन कालांतर में गणितीय सुविधा हेतु किया गया जिसके कारण पश्चिम के 12 राशि तंत्र को अपनाना और उसके भीतर नक्षत्र आधारित काल गणना को समायोजित करना सरल रहा। 
 आधुनिक विद्वानों ने वैदिक समय की मान्यता के अनुसार 25920 वर्ष के समय अंतराल को महाविषुव के दिन सूर्य के किसी नक्षत्र पर होने से इन अवधियों में बाँटा है:

मृगशिरा - 363, आर्द्रा 1761, पुनर्वसु 1116, पुष्य 354, अश्लेषा 1164, मघा 828, पूर्व फाल्गुनी 741, उत्तर फाल्गुनी 1572, हस्त 748, चित्रा 30, स्वाति 1500, विशाखा 1257, अनुराधा 519, ज्येष्ठा 1068, मूल 720, पूर्वाषाढ़ 561, उत्तराषाढ़ 213, अभिजित 1185, श्रावण 1047, धनिष्ठा 1818, शतभिषा 858, पूर्व भाद्रपद 1128, उत्तर भाद्रपद 771, रेवती 1017, अश्वायुज 1026, भरणी 849, कृत्तिका 705, रोहिणी 1002।


इस समय महाविषुव पूर्वभाद्रपद नक्षत्र पर है जिसके 455 वर्ष बीत चुके हैं। महाविषुव की खिसकन के कारण पर्वों को मनाने में अब 23 दिनों का अंतर आ चुका है, पर्व पंचांग में संशोधन होने चाहिये।

सोमवार, 8 दिसंबर 2014

शत शरद जियो

कुहरे भरी कुनकुनी प्रातधूपों के प्रारम्भिक दिन। इन दिनों जब कि गोरखपुर आँखें फाड़ कुहरे को भेदने के प्रयास कर रहा होता है, मँड़ुवाडीह स्टेशन पर बनारसी लोग लुगाइयाँ नारंगी धूप गंगा में नहा रहे होते हैं। 

आने वाला दिल्ली से आ रहा था, उसे रिसीव करना था सो प्रात:काले शिवगंगा दर्शन को मँड़ुवाडीह स्टेशन जाना पड़ा। एक स्टेशन पहले या आउटर सिगनल पर समय से चलती ट्रेन को भी खड़ा कर डिले कर देने की भारतीय रेलवे की उज्जवल परम्परा का निर्वाह उस दिन भी हुआ था, शिवगंगा जी अगवानी द्वार पर पवना घंटे से खड़ी आरती थाल को अगोर रही थीं जब कि नरायन गेरुआये चमक रहे थे। मैं प्लेटफार्म पर भटकने और लोगों को परखने लगा। पूर्वी उत्तरप्रदेश में साफ सुथरा स्टेशन मिलना यूँ ही आप को भौंचक कर देता है, भीड़ भी कम हो तो दोषदर्शी के लिये कुछ देखने को रहता ही नहीं, इसलिये बहुत शीघ्र ही बोर हो कर एक बेंच पर बैठ गया।

कुछ पल में ही पीछे से एक बालक स्वर उभरा – अंकल जी, अंकल जी! बच्चे का स्वर इतना संभ्रांत और पॉलिश्ड!!  आश्चर्य में मैंने दृष्टि फेरी –केश करीने से कढ़े हुये, साधारण सी स्कूल यूनिफॉर्म में आत्मविश्वास से भरा मन्द स्मित साँवला सलोना बौद्धिक और गरिमामय तीखे नैन नक्श वाला चेहरा। नाटा सा मासूम लड़का, अधिक से अधिक छ्ठी कक्षा में पढ़ता होगा। उसने पूछा – अंकल, यह जो सामने ट्रेन खड़ी है, एक्सप्रेस है न?  मैंने इधर उधर चेहरा घुमाया कि कोई अभिभावक साथ में है या नहीं? कोई नहीं था। बच्चे के हाथ में एक पॉलीथीन बैग था जिसमें टिफिन रखा हुआ था। मैं सतर्क हो गया – क्या मामला हो सकता है?
चौरीचौरा एक्सप्रेस को देखते मैंने उत्तर दिया – हाँ, एक्सप्रेस ही है।
बच्चे ने उत्तर दिया – भाई जी को छोड़ने आया था। उन्हें पैसेंजर ट्रेन से एक स्टेशन आगे जाना है, यह तो वहाँ शायद रुके भी नहीं। किसी वयस्क पुरुष की तरह उसने अपनी चिंता जताई और मुस्कुराते हुये थैंक यू बोल कर आगे बढ़ गया। 
 मेरे मन में बवंडर उठने लगे – क्या इसके घर कोई अभिभावक नहीं है? सातवीं में पढ़ते अपने बालक को हमें बस स्टॉप तक छोड़ कर आना पड़ता है कि कहीं इतने समय में ही कुछ ऐसा वैसा न घट जाय! जब कि यह बच्चा अकेले,  भाई को ट्रेन पर चढ़ाने आया है! मैं धीरे धीरे उसके पीछे चल पड़ा। दूर दिखा कि वह एक विकलांग से बच्चे को छोड़ने आया था जो रह रह अपनी लाठी के सहारे उठ खड़ा होता और अपने सलोने भाई के कुछ कहने पर पुन: बैठ जाता।

 शिवगंगा आ पहुँची थी, मैं यात्री को साथ ले वापस घर की और चल पड़ा। मन के कुहरे में किरणें फूट रही थीं। संसार ऐसे ही छोटे छोटे अच्छे जन से रहने लायक बना हुआ है। हो सकता है कि बच्चे का पिता न हो या ग़रीबी के कारण कहीं उस समय भी बझा हो या नालायक हो। उसकी माँ के साथ भी ऐसा ही कुछ हो लेकिन वह बच्चा अपने साथ कितनी ऊष्मा, ऊर्जा और प्रकाश लिये जी रहा है! 

माथे पर सूरज देव की तौंक पड़ी। उसमें से बच्चे के लिये किरण भर मौन आशीर्वाद ले कर मैं बुदबुदाया – शत शरद जियो पुत्र! स्टेशन से घर तक की यात्रा टाइम मशीन की यात्रा से कम नहीं थी, मैं एक आयाम से दूसरे आयाम तक जो पहुँच गया था।                   

रविवार, 26 अक्तूबर 2014

उन्माद और अवसाद

उन्माद

'तिष्ठ' माने बैठना सभी जानते हैं। यहाँ बैठने का प्रयोग खड़े होने के विपरीत के अर्थ में नहीं, स्थाणु - जम जाने के अर्थ में है जैसे आग पर रख कर बारम्बार पकाये जाने वाले बरतन की तली में 'जरठा' बैठ जाय। 'प्र' उपसर्ग 'अति, अत्यधिक आदि' के लिये प्रयुक्त होता है, यह भी जानते हैं। इन दोनों के युग्म से बनती है -प्रतिष्ठा। माने की जो बहुत जम के बैठ जाय, मिटाये न मिटे वह प्रतिष्ठा। पुरानी रचनाओं में इसका प्रयोग वांछनीय और अवांछनीय दोनों के लिये हुआ है - नामी चोर की भी प्रतिष्ठा होती थी! कालांतर में इसका विधायी रूप प्रचलित हो गया। जब ऐसा हुआ तो इसका अंतिम महाप्राण व्यंजन 'ठ' बहुत मारू हो गया। जब अल्पप्राण ध्वनियों में 'ह' जुड़ता है तो महाप्राण ध्वनि बनती है जैसे ट+ह = ठ, त+ह = थ आदि। ध्वन्यात्मकता से देखें तो बिना 'महा'प्राण 'ठ' के इस शब्द में ठसक आती ही नहीं!

प्रतिष्ठा के साथ मद भी आता है। मति कहीं स्थिर हो जाय तो मत बनता है। 'मत' जब अड़ने लगता है तो एक 'त्' और जोड़ लेता है और मनुष्य मत्त हो जाता है। जैसे ट से ठ तक पहुँचते पहुँचते शब्द वजनी हो जाता है वैसे ही जब ये डेढ़ 'त' अपने महाप्राण 'थ' पर पहुँचते हैं तो चित्त को मथ देते हैं और ऐसे में 'द' तक पहुँचते देर नहीं लगती, मन मन्मथ हो मदमत्त हो जाता है। ध तक पहुँचते मदांध होना स्वाभाविक है। ऐसे व्यक्ति की तुलना मद बहाते हाथी मतंग या मतंगज से की जा सकती है। उत्त-उन्न परिवार के उपसर्ग का अर्थ भिगोने से है। मन मद से पूरा अस्तित्त्व भीग जाय तो उन्मत्त होना स्वाभाविक है। पहले की ही तरह त से द तक आते आते व्यक्ति उन्मादी अर्थात मद रूपी सुरा(द्रव) के वशीभूत हो जाता है।
साधो! इस प्रकार उन्माद तक की स्थिति आने में कई पड़ाव आते हैं। उन्हें पहचान कर पहले ही उपाय कर लो ताकि भवसागर से तरे रहो।

अवसाद

अवसाद बहुत मायावी शब्द है। इसके लिये पहले साद को समझ लिया जाय। साद मन:स्थिति का अर्थ इस रूपक से समझा जा सकता है जैसे कि चलते चलते रथ का पहिया कीचड़ में गहरे धँस गया हो! मने कि खो जाने का, डूब जाने का, रुक जाने का, गति थम जाने का, गइल भँइसिया पानी में जैसा नैराश्य भरा भाव। 'अव' लग जाने पर यह सहारा पा और सान्द्र हो जाता है। 'अव'लम्ब से समझिये कि किसी थमे स्तम्भ के सहारे स्वयं को ढीला छोड़ दिया जाय, स्तम्भ खुदे डूबशिरोमणि हो तो क्या कीजै!

तुलसी बाबा तो तोड़ मरोड़ कर कहा जा सकता है कि विशिष्ट आश्रय ले अवसाद 'विषाद' हो जाता है। सीता और राम को भुँइया सोये देख निषाद को विषाद भया!

भयउ बिषादु निषादहि भारी। राम सीय महि सयन निहारी।।

इस साद के आगे 'प्र' जुड़ते ही चमत्कार होता है। मामला एकदम्मे उलटा हो जाता है। प्रसाद - प्रसन्नता, चमक, उत्साह, दयालुता भरा प्रशांत प्रसन्न भाव - प्रसीद प्रसीद परमेश्वरी प्रार्थना वाला। नव्य ढंग से कहें तो अवसाद से मुक्ति पाने के लिये आप को अव का साथ छोड़ प्र का साथ थामना है, pro होना है, बकिया तो सब मन में हइये है।

वैसे कई लोगों को स को श और श को स कहने की आदत होती है (मुझे भी है)। स को श कहा जाय तो साद 'शाद' हो जाता है। फारसी में 'शाद' के अर्थ आह्लाद, आनन्द, सुख आदि हैं। इसी से 'शादी' बनी है, जिसके अनुसार विवाह माने आनन्द और सुख की प्राप्ति। वह सुख दाम्पत्य का सुख होता है, रतिसुख होता है, संतान सुख होता है आदि आदि हालाँकि तमाम मर्द मानुष शादी के पश्चात आनन्द या सुख नाम की धारणा से तवज्जो न रखते हुये उसे कल्पित ही मानते हैं (मानो कल्प भर की ईति गले पड़ गयी हो!), जब देखो तब बेलन जनित अवसाद का रोना रोते रहते हैं। आप किस ओर हैं?

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

...एक सुख ऐसा भी

 कुछ इलाकों की हवायें ऐसी बोझल होती हैं कि उनका भार वही जान पाता है जिसकी नाक लम्बी हो। आप पूछेंगे कि नाक और भार? ये क्या बात हुई? मैं कहूँगा जैसे आप जान नहीं पाते वैसे ही समझ भी नहीं पायेंगे, छोड़िये।

कुआर के घाम में दिन भर भागदौड़ करते मैं बेतहाशा छींकता रहा। साँझ होते होते स्थिति ऐसी हो गयी कि नाक छिल गयी थी, पेट में भूख किंतु जीभ को इनकार। ऐसी स्थिति भी हो सकती है! पहला साक्षात्कार था। कपड़ों के नीचे मधुर गन्धी डियो मेघ तब स्वेद सन मानुषगन्धी हो चले थे और थकान संपूर्ण।

 अयोध्या स्टेशन पर गाड़ी में बैठाने साधू बाबा लाख मना करने पर भी साथ आये थे तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक नहीं, रोगी के साथ कोई भी हो परिचारक होता है। हाथ में भोजन की पोटली थमाने लगे तो मैंने मना किया काशी बहुत दूर नहीं बाबा, मन नहीं है। बाबा के श्मश्रु ढके होठों पर स्मित खो गयी मन तो मनाने से मानता है बेटा! रामरस है, पा लो। सीता की रसोई अन्नपूर्णा के द्वार किसी को भूखा कैसे भेज सकती है? मरजाद तो रखनी ही होगी।

सीता की रसोई! भीतर कुछ ढहता चला गया, अनमने ही मैंने हाथ बढ़ा थाम लिया और उनके हाथ आशीर्वाद में उठ गये - भाग्यवानों को भगवान का प्रसाद मिलता है। सुख पाओगे।

ट्रेन चल दी।

कूपे में एक वृद्ध दम्पति मेरी सीट की ओर बैठे हुये थे। मेरे कहने पर खाली करते उनके चेहरों पर परिचय की झाँकी उभरती सी दिखी लेकिन मैं भीतर बाहर उदासीन ही रहा। देखने से ही सतलज तीर के वासी लग रहे थे, ट्रेन भी तो वहीं से गंगा को जा रही थी। बैग जमाने के बाद मैंने सामने की फोल्डेबल टेबल पर पोटली पानी रख दिया और एक काम यह भी हो जाय, सोच कर उसी समय पोटली खोल दी। दृष्टि ऊपर उठायी तो साइड बर्थ पर बैठे दम्पति को स्वयं को एकटक घूरता पाया। मन ही मन मैंने कहा आप की सीट तो थी नहीं, खाली करा दिया तो इतना मनमैल! आधी बोगी खाली पड़ी है, कहीं चले क्यों नहीं जाते?

भोजन आरम्भ किया और भीतर विचित्र सी ऊष्मा उगने लगी। एलर्जी वालों को कई बार ऐसे अनुभव होते हैं जिन्हें ऐन्द्रजालिक कहा जा सकता है लेकिन इस बार ऊष्मा भौतिक वास्तविकता थी। ए सी डिब्बे में भी पसीना आना शुरू हो गया और जीभ पर स्वाद भी। कौर दर कौर रस भीनने लगा और ललाट पर पसीना भी बह चला।

 क्या सोचते होंगे वे लोग? कैसा भुक्खड़ है ये? – स्वयं को कोसते मैंने उनकी ओर देखा तो वे अब भी घूरे जा रहे लेकिन अब उनके चेहरों पर प्रगाढ़ परिचय और वात्सल्य के भाव स्पष्ट थे। मैं झुँझलाया ऐसे भाव मुझे ही दिखते हैं या औरों को भी? मैं तो इन्हें जानता तक नहीं! भीतर चुगली हुई वे तुम्हें जानते हों तो? जिसे मैंने चुप करा दिया। साफ सफाई के पश्चात पसीना सुखाने मैं पंखे की ओर खिसक कर बैठ गया। पढ़ने के लिये नया ज्ञानोदय निकाला ही था कि वृद्ध ने पूछा बेटा जी, बनारस जा रहे हो? मेरे हूँ पर उन्हों ने बात आगे बढ़ायी हमलोग भी वहीं जा रहे हैं। मैंने दुबारा हूँ की तो इस बार वृद्धा ने शिकायत की देखो न, आधी बोगी खाली है लेकिन मुझ सीनियर सिटिजन को तब भी साइड अपर बर्थ दिया, मान लो आगे तक जाना होता तो? बूढ़ी देह कैसे चढ़ पाती? नासपीटे!

नासपीटे सुन कर मेरी रुचि जगने सी लगी, वैसे भी ज्ञानोदय में कुछ खास रचनायें नहीं थीं।

मैंने उन्हें समझाया इसे यूँ देखिये न, आगे के स्टेशनों पर औरों के आरक्षण होंगे और जिन्हें रात की यात्रा करनी होगी, उन सीनियर जनों को लोअर बर्थ दिये गये होंगे। टीटी अभी चेक करने आयेंगे तो बात कर लेंगे, तब तक आप नीचे ही लेट जाइये।

वृद्धा और वृद्ध की आँखें मिलीं, चेहरे चमके और तुरंत गहरी उदासी घिर गयी। प्रकृतिस्थ हो वृद्धा खाँसने लगीं कोई नहीं। ठंड है, कुछ गरम मिल जाता तो ... उन्हों ने बात छोड़ मेरी ओर एक ताम्बे का पुरायठ सा डिब्बा बढ़ाया बेटा, जरा इसे खोल दो। हमलोग कोशिश किये लेकिन मुआ जाने कैसा चढ़ गया है, खुलता ही नहीं! डिब्बा ले कर मैंने यंत्रवत ही प्रयास किया, नहीं खुला। दोनों जाँघों के बीच उसे दबा दोनो हाथ लगा घुमाया तो खुला। वृद्ध दम्पति और खुल गये तुम्हारी पैंट गन्दी हो गयी। मैंने देखा कि सफेद पैंट पर निशान पड़ गये थे। वृद्धा ने कहा रुमाल पानी में भिगो कर ले आओ बेटा, साफ हो जायेगा।

मैंने कहा छोड़िये भी आंटी, घर पर साफ हो जायेगा। पानी का दाग देख लोग जाने क्या सोचने लगें! इस बात पर हम तीनों एक साथ हँस पड़े।

 कोई कोई हँसी ऐसी होती है जैसे बाँध दरक रहा हो और पानी धीरे धीरे प्रवाह पा रहा हो। वे दोनों ऐसे ही हँसे थे हालाँकि  मैं यह देख थोड़ा उलझा भी कि उन्हों ने डिब्बा वापस वैसे ही झोले में रख दिया था।

आप लेटेंगी?”

नहीं। ...सीट का रेक्सिन बहुत गन्दा होता है। चादर हो तो लेटूँ।

वह तो है न!

बिछायेगा कौन? ... मेरे हाथ काँपते हैं। इन्हों ने बिस्तर ताउम्र कभी नहीं लगाया, ढंग ही नहीं आता।कह कर वृद्धा हँस पड़ीं और वृद्ध बस मुस्कुरा दिये। मुझे अब अजीब नहीं, अच्छा लगने लगा था।

घर पर जैसे तैसे मैं ही लगाती हूँ लेकिन यहाँ जाने क्यों .... ट्रेन भी कितनी हिल रही है!

मैं लगा देता हूँ।अपने स्वर में मैंने निर्णयमिश्रित अनुमति की माँग पाया।

हाँ, लगा दो ... तकिये का कवर भी बदल देना। कम्बल नहीं। ... वो जो काला बैग है न, उसमें से मेरी शाल निकाल जब चादर ओढ़ लूँ, तब ऊपर से डाल देना।

वृद्धा लेट गयीं तो वृद्ध ने शुरू की क्या करते हो बेटा?

नौकरी।
बनारस में कहाँ रहते हो?”

कमच्छा पर।

वहाँ से घाट कितनी दूर है?”

पास ही है। आप लोग कहाँ ठहरेंगे?”

पंडे वाला आयेगा, जहाँ ठहराये... तुम्हारे कितने बच्चे हैं बेटा?”

जी, अभी तो साल भर हुये बन्धन में बँधे।

अच्छा, अच्छा ...

मैं स्वयं से ही पूछ पड़ा ये नवाँ दशक है क्या? ट्रेन में ऐसी बातें इस युग में ...

कुछ कहा बेटा?”

नहीं तो।

बुढ़ापे में कान बजते हैं ... ह, , ह।

वृद्धा उठ बैठी थीं बहू काम पर जाती है बेटा?

नहीं अम्मा, घर सँभालती है।

सहज ही निकल पड़े अम्मा शब्द पर हम तीनों चौंक से गये।

ठीक है बेटा... तुम्हारे भाग कि घरनी मिली, फिकरनी नहीं।

वे दोनों हँस पड़े थे।

फिकरनी? माने??”

अरे, बाहर भी खटे और भीतर भी तो कामधन्धे वाली फिकरनी ही रहेगी नमरदाँ तो सुधरने से रहे! इन्हें ही देख लो।

अम्मा, अब जमाना बहुत आगे ...

रहने दो ... देख रही हूँ, आगे गड्ढे में जा रहा है।” – कहते हुये वह मुस्कुरा दीं।

 मौन खिंच गया। गाड़ी की हड़हड़ उससे परे थी और दोनो वृद्ध परिचय वात्सल्य के साथ मुझे पुन: घूरने से लगे। वृद्धा लेटी हुयी थीं। मैं बैठे बैठे ही झपकी लेने लगा। जाने कितने समय के बाद उनकी पुकार से मेरी झपक खुली।  

बेटा...पंखा बन्द कर दे। ठंड लग रही है। नीचे पाँव से शाल खिसक गयी है, वापस उढ़ा दे।

मैंने सहज ही कर दिया। वृद्ध बस देखते रहे। थोड़ी देर बाद बैठे बैठे ही वे इधर उधर होने लगे। अंतत: कह ही पड़े मुझे बाथरूम जाना है। चप्पलें नीचे जाने कहाँ खो गयी हैं। निकाल दोगे बेटा?

मुझे थोड़ा अटपटा तो लगा लेकिन उनकी आयु विचार मैं नीचे झुका। वाकई चप्पलें निकालनी उनके वश की नहीं थीं। चप्पलें पहन वे टॉयलेट गये और मेरे पेट में मरोड़ सी उठने लगी सीता की रसोई, अन्नपूर्णा के द्वार... क्या बाबा!

मुझे टॉयलेट जाना ही पड़ा। लौट कर बैठा ही था कि ट्रेन धीमी होने लगी। वृद्धा उठ कर बैठ गयीं बेटा, मुझे ठंड लग रही है। झोले में से गिलास निकाल कर चाय ले आओ न!

वृद्ध ने जोड़ा इतनी लम्बी ट्रेन और चाय वाले तक नहीं!

मैंने प्रतिवाद किया घूम कर गये तो!

वृद्धा ने प्रत्युत्तर दिया जब जरूरत पड़े तो आयें ही न नासपीटे... बेटा, ले आ। जा दौड़ ला।

उस स्टेशन पर स्टॉपेज नहीं था फिर भी मैं उतर गया। संयोग से एक चाय वाला दिखा और मैं दौड़ा। अभी चाय लिया ही था कि ट्रेन चल पड़ी। एक हाथ में आधा भरा गिलास लिये उसे छलकने से बचाते जैसे तैसे दौड़ता मैं डिब्बे के गेट पर आया तो दोनों को वहीं खड़े तमाशा देखते पाया। मैं चिल्लाया किनारे होइये। वृद्धा ने लपक कर चाय का गिलास हाथ में ले लिया और मैं चढ़ गया।

कूपे में वापस बैठ जाने पर वृद्धा ने चुस्की लेते हुये कहा अमरित लाये हो बेटा, अब राहत मिल जायेगी, तब उखड़ी साँसों को मैं संयत ही कर रहा था, ट्रेड मिल टेस्ट! ... हम सभी चुप हो गये थे।

जाने क्यों लगा कि इस बार के मौन पर वेदना खिंची हुयी थी। उनकी भठ्ठर दीठ जब असह्य हो चली तो मैं मोबाइल जी पी एस पर ट्रेन की स्थिति देखने लगा। काशी बस दो किलोमीटर। ट्रेन हताश प्रेमी की चाल चल रही थी धीमी हो, रुके, सरके, चले, रुके।

वृद्ध ने खाँस कर गला साफ किया बेटे, हमारी किसी बात का बुरा तो नहीं लगा?

नहीं तो

हमारा बेटा सरवन तुम्हारे जैसा ही है। बचपन में एक दिन जब खेल कर लौटा तो ऐसा बिस्तर पकड़ा कि छोड़ नहीं पाया। बहुत इलाज, झाड़ फूँक कराया लेकिन कोई लाभ नहीं। डॉक्टरों ने हार्ट और ब्रेन दोनों से जुड़ा कुछ बताया। थक हार कर घर ले आये और उसकी सेवा में हम दोनों लग गये। ये बहुत जिन्दादिल है, मुझसे उसका बिस्तर नहीं बदला जाता...

वृद्ध का गला भर आया तो वृद्धा ने बात आगे बढ़ायी तुम्हारे माथे जब रोटी खाते पसीना बहने लगा तो मुझे यकीन हुआ कि तुम भी उस जैसे ही हो। तुमने बर्थ वाली बात जैसे काटी, वह भी ऐसे ही समझाता है।

एक तमन्ना थी बेटा कि हमारा सरवन भी ठीक होता और हम बूढ़ों की सेवा करता। तुमने पूरी कर दी, चैन हुआ। जानते हो, जब तुम पाखाने गये थे तो मैंने इन्हें कहा कि तुम्हें दौड़ाऊँगी। सरवन दौड़ने के बाद ही पड़ा था। तब से किसी को भागते नहीं देख पाती थी। किसी अपने को दौड़ता देखना चाहती थी सो तुम्हें चाय लाने को ... तुम न समझोगे कि तुम्हें भागते  आते देख हमदोनों को कितना सुख मिला! ...

वृद्ध संयत हो गये थे, कहने लगे गये हफ्ते सरवन नहीं रहा। पुरोहित बाबा के कहे अनुसार उसकी भसम यहाँ गंगा में दहाने हम आये हैं। उस डिब्बे में वही है। जिस नदी के किनारे वह खेला बढ़ा उसे उसकी राख सौंपते हमें भी ठीक नहीं। ...

... दरभंगा को जाने वाली ट्रेन प्लेटफॉर्म नम्बर ...उद्घोषणा के साथ ट्रेन वाराणसी कैंट स्टेशन पर रुक चुकी थी। मैं कहीं गहरे डूबा उतरने को उठा कल आप लोगों के साथ घाट चलूँगा।

नहीं बेटा, जीते जी तुम्हें ले कर वहाँ ... नहीं, हम कर लेंगे। हम फिर से मौत नहीं देखना चाहते...जाओ, सुखी रहो।

पूरी यात्रा के दौरान मेरा मोबाइल एक बार भी नहीं बजा था, न ही एलर्जी वाली छींकें उभरी थीं। मेरे मन में शब्द ही शब्द थे रामरस ...भाग्यवानों को भगवान का प्रसाद... सुख पाओगे ... मुआ जाने कैसा चढ़ गया है, खुलता ही नहीं! ... जाओ सुखी रहो...

 गहरे दुख से उबरना सबसे बड़ा सुख होता होगा।

थकान जाने कहाँ थी।  

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ऑडियो श्री अनुराग शर्मा के स्वर में: यहाँ

गुरुवार, 25 सितंबर 2014

ऋग्वेद के पथ - 3: आवाहनं देवी

पुरुष तत्त्व इन्द्र का वर्षाकाल समाप्त होने के पश्चात शरद ऋतु आती है। शरद विषुव (23 सितम्बर) से लेकर वसंत विषुव (22 मार्च) तक का काल स्त्रीकाल है। दिनमान के इन दो संतुलन बिन्दुओं के पास दो महत्त्वपूर्ण नवरात्र पर्व पड़ते हैं। पितर श्रद्धाञ्जलि पर्व के पश्चात नवसंतति के हितार्थ शारदीय नवरात्र पर्व जननी का उपासना पर्व है।
शरद स्त्री है, गहिमणी हो पर्जन्य से प्राप्त को भूमा में सँजोती है। स्त्री परिवर्तनों की सीमा भी है और ऋतुमती आवृत्ति भी। वह सनातन सत्य अर्थात ऋत को धारण करने वाली ऋतावरी है। संख्या नौ अपनी अद्भुत अपरिवर्तनीयता के कारण ऋतावरी माँ का प्रतीक है। सृजन और सृष्टि का अनुशासन स्त्री में निहित है। वह वत्सल माता प्रिया है, सरस है।
rg_2_41_18ऋतस्वरूपा, व्रती और व्रतरक्षक के रूप में वह आवाहनीया है।
rg_3_4_7वैदिक श्रौत सत्रों के आह्वान मंत्रों में ऋषियों ने स्त्री तत्त्व को स्थान दिया। तिस्रो देवी नाम से जिन तीन रूपों को अपने आह्वान में दश ऋषिकुलों ने स्थान दिया, वे हैं – भारती (भूमा, मही, पृथ्वी), इळा (मानवीय प्रज्ञा) सरस्वती (वाणी, विद्या)। भारती अस्तित्त्व अर्थात मातृ पक्ष हैं, इळा हैं मेधा, सुसंग्रहण और विवेक शक्ति और सरस्वती हैं चेतन जीवन अभिव्यक्ति।
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विश्वरूपा विराट विराज जगज्जननी भवानी के ये त्रिनेत्र हैं। नवरात्र पर्व के प्रथम दिवस इनका आह्वान है। मंगल हो!
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बुधवार, 17 सितंबर 2014

पहली सफेदी

... देर तक पिता के टँगे कुर्ते को देखता रहा। आर्य प्रतिमान वाली प्रशस्त ऊँची देह ऐसी खिया गयी है कि पहनने पर अब वे खेत में खड़े पुतले से दिखते हैं...

... एक उसाँस ले मैंने कुर्ते को आयु जान पहन लिया। मेरी बढ़ गई, उनकी घट गयी। दर्पण में देखा कि फूली शरद ऋतु का एक कास कनपटी पर ठहर गया है। हाथ लगाया तो जाना पहली सफेदी थी।   

गुरुवार, 14 अगस्त 2014

ऋग्वेद के पथ - 2 : 'हिन्दुस्थान' नाम विवाद सन्दर्भ

दस ऋषिकुलों के आह्वान मंत्रों आप्री में तीन देवियाँ भारती, सरस्वती और इळा समान रूप और आदर में पायी जाती हैं। मेधातिथि और काण्व भारती के लिये 'मही' का प्रयोग करते हैं तो कुछ ऋषिकुल मही और भारती दोनों का।

भारती धरती है, सरस्वती जीवनस्रोत और इळा मानवीय प्रज्ञा। दो प्रतिद्वन्द्वी कुल कौशिक विश्वामित्र गाथिन(3.4) और वसिष्ठ मैत्रावरुणि (7.2) अलग स्थानों पर एक ही ऋचा का प्रयोग करते हैं।

इस प्राचीन, विराट और संस्कृतिबहुल देश के लिये आवश्यकता इस बात की है कि एकता के बिन्दु खोजें जायँ जहाँ विविधता के प्रति सम्मान हो, स्वीकार हो और साहचर्य हो न कि ऐसे जुमले जो विकट समस्याओं से भीत पाखंडी समाज को आँखें फेर कुकुरझौंझ के मौके प्रदान करें।

कौशिकों और मैत्रावरुणों के आह्वान स्वर में मेरा स्वर भी मिला लो देवियों! देश में सद्बुद्धि का प्रसार हो।

आ भारती भारतीभि: सजोषा इळा देवैर्मनुष्येभिरग्नि:
सरस्वती सारस्वतोभिरर्वाक् तिस्रो देवीर्बर्हिरेदं सदंतु।

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माता भूमि: पुत्रोऽहम्

शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

नागपंचमी की शुभकामनायें

Temple of Secretshttp://temple-of-secrets.blogspot.comShri Mukti Naga Temple, Bangaloreआज नागपंचमी है। पुरनियों के स्मृतिपर्व पर आप सबको शुभकामनायें। नाग उतने ही प्राचीन हैं जितने भृगु, अत्रि, अंगिरादि। नाग 'देवता' हैं, नाग 'बाबा' हैं, देवों और पितरों दोनों को अपने में समेटे हुये हैं। संवत्सर धारी सूर्यप्रतीक शिव के दक्षिणायन और उत्तरायण दोनों रूप उनमें समाये हैं। मुख्य भारतभू के सभी जनों में किसी न किसी रूप में नागों के जीन हैं।

वैदिकों के समांतर उनसे स्वतंत्र नाग जाति धीरे धीरे उस धारा में समा गयी जिसे आज सनातन हिन्दू कहते हैं। ऋग्वेद में अहिवृत्र इन्द्र का प्रतिद्वन्द्वी है। महाभारत काल आते आते नागिनें वैदिक राजकुलों की घरनियाँ होने लगती हैं। नागों से युद्ध भी होते हैं, सन्धियाँ भी होती हैं, वैवाहिक सम्बन्ध भी होते हैं। मातृपक्ष से देखें तो कृष्ण बलराम में नाग अंश है। भीम अर्जुन में नाग अंश है। अर्जुन नागकन्या उलूपी से विवाह करते हैं तो खांडववन प्रकरण में नागों का संहार भी। भीम को पाश और विष से अभय नागों द्वारा मिलता है। परीक्षित काल में नाग प्रत्याक्रमण करते हैं तो जनमेजय काल में उनकी शक्तियों का नाश होता है। बौद्धकाल में वे प्रबल ब्राह्मण क्षत्रिय कुलों के रूप में पुन: उठते हैं। परवर्ती बौद्धकाल के दिगनाग हों या नागार्जुन, उनके नामों से ही नागों की महत्ता स्पष्ट हो जाती है। सनातन धारा में बौद्धों के विलयन के साथ ही नाग भी विलुप्त हो जाते हैं, बच जाते हैं नागवंशी क्षत्रिय, नागों को लपेटे कुछ कश्यप, उन्हें मस्तक पर धारण किये कुछ भारशिव, राज्य करते राजभर।
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nagas_the_kerala_temples_image  ग्रामीण भारत आज मल्लविद्या के आयोजनों में व्यस्त होगा। गृहिणियाँ गोमय से नागबाबा की प्रतिकृति उकेरते घर को रक्षा घेरे में ले लेंगी। दूध और धान के लावा का प्रसाद चढ़ायेंगी। शुभ पकवान दलभरी पूड़ी और खीर बनायेंगी। naga-Hoysala-Belur-Chennakeshava-Temple-gm-
सच कहें तो किसी अन्य भारतीय नृजाति(यदि कह सकें तो) को इतना सम्मान नहीं मिलता। नाग भारत के रक्त में रच बस गये ऐसे कि पहचान भी कठिन हो गयी। मन्दिरों का शिल्प युगनद्ध नागयुगल के चित्रण बिना असम्भव हो गया। 
इस प्राचीन उत्कीर्णन में बौद्ध त्रिरत्न की आराधना करते नागों को देखिये, आप को लगा न कि शिवलिंग की उपासना में सर्प लगे हैं?

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भारत के कई प्रतीकचिह्न अनेक अर्थ रखते हैं। इसका कारण सम्मिलन, संलयन, विलयन और जीवन की वह सशक्त, अक्षुण्ण और बली परम्परा है जिसने सबको अपनी गोद में स्थान दिया।
भारत के विशाल शिवरूपक को देखिये। यदि सिर पर हिमालय है तो उससे लिपटे नाग भी विराजमान हैं। गले में तो नागेन्द्रहार है ही जिसका विष उसने वहीं धारण कर रखा है। कर्पूरगौर भस्मदेह शिव का नीला गला विलयन में भी स्वतंत्र अस्तित्त्व को दर्शाता है।
यह लोकपर्व आप के लिये शुभ हो।
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रविवार, 27 जुलाई 2014

ऋग्वेद के पथ - 1

[ आज से लगभग ८५०० वर्ष पहले जब सूर्य अश्विनी नक्षत्र में उत्तरायण होते थे, तब का बहुत ही अलंकारिक वर्णन ऋग्वेद में मिलता है। अश्विनी नक्षत्र को अथर्ववेद अश्वयुज अर्थात अश्वों की जोड़ी कहता है। इसका कारण नक्षत्र के दो तारे हैं। अश्विनकुमार यही दो तारे हैं।
ashvini rohini krittika सूर्य के उत्तरायण होते ही यज्ञों के वार्षिक सत्रों का नया चक्र प्रारम्भ होता था। दिन बड़ा होने लगता, सूर्य की कांति बढ़ने लगती। अलंकारिक वर्णन में उसे ऐसे व्यक्त किया गया जैसे कि अश्विनकुमारों के रथ में सूर्य की दुहिता अर्थात पुत्री उन्हें वरण करने के पश्चात सवार शोभायमान हो रही हो। यहाँ दुहिता शब्द प्रयोग बहुत अर्थगहन है। दूहने से सम्बन्धित शब्द सूर्य की कांतिमय रश्मियों को दूहती उनकी पुत्री सूर्या को अभिव्यक्त करता है। कालांतर में अयनगति सूर्या के सोम अर्थात चन्द्र संग विवाह से अभिव्यक्त होने लगी। वैदिक उषा दक्षिणायन के समय की लम्बी ठिठुरती रातों से मुक्ति का प्रतीक भी है जब कि सूर्य दुहिता चन्द्रमा की २७ पत्नियों अर्थात नक्षत्रों में एक से अभिव्यक्त होती है जिसमें चन्द्रगति से जुड़े नाक्षत्रिक महीनों की ओर संकेत है। आज भी विवाह के वैदिक मंत्र सूर्या सोम के विवाह वाले ही हैं।
  पृथ्वी के घूर्णन अक्ष की लगभग २५७००वर्ष की आवृति वाली चक्रीय गति को ले गणना करें तो शीत अयनांत के अश्विनी नक्षत्र में होने का काल आज से लगभग ८००० से ९००० वर्षों पहले का है।]
 
शीत अयनांत है। यमलोक की मृत्युशीत में निवास करते पितरों ने निज वार्षिक विश्राम हेतु धरा पर अपनी संतति का दायित्त्व देवों को सौंप दिया है। अश्विन नक्षत्र पर आ चुके सूर्य उत्तरायण होंगे। दिनमान बढेंगे। ऊष्मा का संचरण होगा। नवजीवन सृजन को सूर्य की पुत्री सूर्या ने अश्विनकुमारों का वरण किया है। उन अद्भुत मायावियों के संग उसे कीर्ति मिलेगी। सूर्या के यौवन को समृद्धि उपहार मिलेंगे। आनन्द खग उड़ान भरेंगे। 
ऋषि भरद्वाज आह्लादित  हैं। बृहस्पति के वंशज का त्रिष्टुप छन्दी आह्लाद छलक पड़ा है।  (६.६३.५-६) 
rv 6_63_5-6 सरस्वती के तट पर मैत्रावरुणि वसिष्ठ ने दुल्हन सूर्या के संग आरूढ़ अश्विनकुमारों के रथ के परिपथ का प्रेक्षण किया है। उसका परिपथ अंतरिक्ष के अंतबिन्दुओं तक प्रसरित है। सूर्या ने उस समय अश्विनियों के प्रकाश का वरण किया जब रजनी तनु हो धूसर प्रात: का रंग ले रही थी। (७.६९.३-४)
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रविवार, 20 जुलाई 2014

सावित्री सूत्र : यम सावित्री संवाद से

चित्र आभार : जागरण 
(1)
प्राहु: साप्तपदं मैत्रं ... मित्रतां च पुरस्कृत्य।
[सात पग साथ चलने से मैत्री हो जाती है। मुझे मित्रता का पुरस्कार दीजिये यमदेव!]

(2)
विज्ञानतो धर्ममुदाहरंति ... संतो धर्ममाहु प्रधानं
[विवेक विचार से ही धर्मप्राप्ति होती है। संत धर्म को ही प्रधान बताते हैं]

प्रश्न यह नहीं है कि सावित्री कितनी प्रासंगिक है या कितनी हानिकारक है। प्रश्न यह भी नहीं है कि वह आज के मानकों पर खरी उतरती है या नहीं। प्रश्न यह है कि आप अपनी समस्त प्रगतिशीलता और बौद्धिक प्रखरता के होते हुये भी उसके समान आदर्श गढ़ नहीं सके! यथार्थ अलग हो सकते हैं, होते ही हैं किंतु किसी समाज की गुणवत्ता उसके आदर्शों की भव्यता और दीर्घजीविता से भी आँकी जाती है। आप 'फेल' हुये हैं! आप का सारा जोर ऐसे प्राणहीन जल की प्राप्ति की ओर है जिसका स्रोत कृत्रिम है और जिसमें मछलियों के जीवित रहने की बात तो छोड़ ही दीजिये, वे हो ही नहीं सकतीं। 
(3)
 एकस्य धर्मेण सतां मतेन, सर्वे स्म तं मार्गमनुप्रपन्ना:, मा वै द्वितीयं मा तृतीयं च 
[सतमत है कि एक धर्म के पालन से ही सभी उस विज्ञान मार्ग पर पहुँच जाते हैं जो कि सबका लक्ष्य है,
मुझे दूसरा तीसरा नहीं चाहिये]

यम सावित्री की वाणी की प्रशंसा करते हैं - स्वराक्षरव्यंजनहेतुयुक्तया [स्वर, अक्षर, व्यंजन और युक्तियुक्त - वाणी तो सबकी ऐसी होती है, इसमें अद्भुत क्या है? अद्भुत यह है कि मर्त्यवाणी देवसंवाद करती है। अक्षर माने जिसका क्षरण न हो। जिससे मृत्यु भागे, अमरत्त्व की प्राप्ति हो। अमृतस्य पुत्रा: की अनुभूति का स्तर है वह]


(4)
सतां सकृत्संगतभिप्सितं परं , तत: परं मित्रमिति प्रचक्षते । 
न चाफलं सत्पुरुषेण संगतं, ततं सता: सन्निवसेत् समागमे॥ 
[सज्जनों की संगति परम अभिप्सित होती है, उनसे मित्रता उससे भी बढ़ कर। उनका साथ कभी निष्फल नहीं होता, इसलिये सज्जनों का साथ नहीं छोड़ना चाहिये] 

आप तो सज्जन हैं न यमदेव! आप का साथ कैसे छोड़ दूँ?

(5)
 अद्रोह: सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा 
अनुग्रहश्च दानं च सतां धर्म: सनातन:॥
 
[मनसा, वाचा, कर्मणा सभी प्राणियों से अद्रोह का भाव, अनुग्रह और दान सज्जनों का सनातन धर्म]

(6)
 आत्मन्यपि विश्वासस्तथा भवति सत्सु य: 
न च प्रसाद: सत्पुरुषेषु मोघो न चाप्यर्थो नश्यति नापि मान:
 
[अपने पर भी उतना विश्वास नहीं होता जितना संतों पर होता है। उनका प्रसाद अमोघ होता है। उनके साथ अर्थ और सम्मान की हानि भी नहीं होती]

संतों की बात करते करते सावित्री उनके लिये आदर्श गढ़ देती है, उनकी कसौटी तय करती है। 
॥ _______॥_______ ॥


महाभारत : वन पर्व 

गुरुवार, 17 जुलाई 2014

आमीन

"आप फिलिस्तीनियों के हक़ की लड़ाई में उनके साथ हैं या नहीं?"
"फिलिस्तीन? यह कहाँ है?"
"अखबार नहीं पढ़ते क्या? इजराइलियों ने उनका जीना हराम कर रखा है।"
"अखबार पढ़ कर मुझे तो हाथरस, बागपत जैसे स्थानों पर रहने वाले लोगों से सहानुभूति होती है। उन्हें सुकून से जीने का माहौल मिले इसके लिये आप के परवरदिगार से भी दुआ माँगने को तैयार हूँ।"
"हाथरस? वहाँ क्या हुआ?"
"हम दोनों दो नावों में सवार हैं मित्र! बीच में पानी नहीं, अपराध हैं और लहरें अलग अलग। इससे पहले कि संसार स्वर्ग हो, अच्छा हो कि हम अपनी अपनी सहानुभूतियों के साथ दोजखनशीं हो जायँ।  वो मजहब को अफीम मानने वाले क्या कहते हैं अंत में?"

"आमीन!"
"हाँ, वही।"    

रविवार, 6 जुलाई 2014

ऋत, ऋतु और Ritual

Rk_4_23_8-10ऋग्वेद 4.23.8-4.23.10

क्रिया धातु 'ऋ' से ऋत शब्द की उत्पत्ति है। ऋ का अर्थ है उदात्त अर्थात ऊर्ध्व गति। 'त' जुड़ने के साथ ही इसमें स्थैतिक भाव आ जाता है - सुसम्बद्ध क्रमिक गति। प्रकृति की चक्रीय गति ऐसी ही है और इसी के साथ जुड़ कर जीने में उत्थान है। इसी भाव के साथ वेदों में विराट प्राकृतिक योजना को ऋत कहा गया। क्रमिक होने के कारण वर्ष भर में होने वाले जलवायु परिवर्तन वर्ष दर वर्ष स्थैतिक हैं। प्रभाव में समान वर्ष के कालखंडों की सर्वनिष्ठ संज्ञा हुई 'ऋतु'  । उनका कारक विष्णु अर्थात धरा को तीन पगों से मापने वाला वामन 'ऋत का हिरण्यगर्भ' हुआ और प्रजा का पालक पति प्रथम व्यंजन 'क' कहलाया।

आश्चर्य नहीं कि हर चन्द्र महीने रजस्वला होती स्त्री 'ऋतुमती' कहलायी जिसका सम्बन्ध सृजन की नियत व्यवस्था से होने के कारण यह अनुशासन दिया गया - ऋतुदान अर्थात गर्भधारण को तैयार स्त्री द्वारा संयोग की माँग का निरादर 'अधर्म' है। इसी से आगे बढ़ कर गृह्स्थों के लिये धर्म व्यवस्था बनी - केवल ऋतुस्नान के पश्चात संतानोत्पत्ति हेतु युगनद्ध होने वाले दम्पति ब्रह्मचारियों के तुल्य होते हैं।

आयुर्वेद का ऋतु अनुसार आहार विहार हो या ग्रामीण उक्तियाँ - चइते चना, बइसाखे बेल ..., सबमें ऋत अनुकूलन द्वारा जीवन को सुखी और परिवेश को गतिशील बनाये रखने का भाव ही छिपा हुआ है।  ऋत को समान धर्मी अंग्रेजी शब्द Rhythm से समझा जा सकता है - लय। निश्चित योजना और क्रम की ध्वनि जो ग्राह्य भी हो, संगीत का सृजन करती है। लयबद्ध गायन विराट ऋत से अनुकूलन है। देवताओं के आच्छादन 'छन्द' की वार्णिक और मात्रिक सुव्यवस्था भी ऋतपथ है।
अंग्रेजी ritual भी इसी ऋत से आ रहा है। धार्मिक कर्मकांडों में भी एक सुनिश्चित क्रम और लय द्वारा इसी ऋत का अनुसरण किया जाता है। 'रीति रिवाज' यहीं से आते हैं। लैटिन ritus परम्परा से जुड़ता है। परम्परा है क्या - एक निश्चित विधि से बारम्बार किये काम की परिपाटी जो कि जनमानस में पैठ कर घर बना लेती है।

कभी सोचा कि 'कर्मकांड' में 'कर्म' शब्द क्यों है? कर्म जो करणीय है वह ऋत का अनुकरण है। कर्मकांडों के दौरान ऋत व्यवहार को act किया जाता है। Rit-ual और Act-ual का भेद तो समझ में आ गया कि नहीं? :)