शनिवार, 25 अप्रैल 2020

Mahabharat महाभारत, एक इतिहास यात्रा - [1], [2]

[१] 

इतिहासः प्रधानार्थः श्रेष्ठः सर्वागमेष्वयम्
इतिहासोत्तमे ह्यस्मिन्नर्पिता बुद्धिरुत्तमा
स्वरव्यञ्जनयोः कृत्स्ना लोकवेदाश्रयेव वाक्
अस्य प्रज्ञाभिपन्नस्य विचित्रपदपर्वणः
भारतस्येतिहासस्य श्रूयतां पर्वसंग्रहः
... 
रामायण के पश्चात शतसहस्रीसंहिता नाम से प्रसिद्ध महाभारत भारत का प्राचीनतम उपलब्ध इतिहास है। प्रधानत: कुरु-पाञ्चाल क्षेत्र के इस इतिहास की परास पूरा भारत है। 
~ लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाः सूतः पौराणिको नैमिषारण्ये शौनकस्य कुलपतेर्द्वादशवार्षिके सत्रे ~ 
इस पंक्ति से स्पष्ट है कि महाभारत का वर्तमान उपलब्ध रूप भार्गव कुलपति शौनक के बारह वर्षीय सत्र में सूत पौराणिकों द्वारा उग्रश्रवा की अध्यक्षता में सुनाया गया। किंतु ग्रंथ में ही उपलब्ध साक्ष्य उद्घाटित करते हैं कि उससे आगे भी इसमें परिवर्द्धन किया जाता रहा तथा २४००० से एक लाख से भी अधिक मात्रा का बनाया गया। 
भार्गवों ने इसे सुरक्षित किया तो वर्गगत व जातीय श्रेष्ठताबोध के चलते विकृत एवं विरूपित भी किया जिसे आगे बढ़ाने का काम उन पौराणिकों ने किया जिनकी थाती वे पुराण थे जिनका प्रणयन महाभारत के पश्चात हुआ किंतु जिन्हें वे सनातन ब्रह्मा के मुख से निस्सृत बताते रहे हैं। वासुदेव कृष्ण की भक्तिधारा ने भी महिमामण्डन हेतु ऐसे प्रसंग जोड़े जो मूल नायकों के स्वरूपों की हानि करते हैं।  
 सौभाग्य से इसके विशाल आकार के कारण भीतर ही ऐसे अंत:साक्ष्य उपलब्ध हैं जो पौराणिक अतिशयोक्तियों एवं स्वार्थी विरूपणों के अभिज्ञान हेतु सामग्री उपलब्ध करा देते हैं। 
इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्
बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रतरिष्यति
इस श्लोक का अर्थ पौराणिकों द्वारा यह बताया जाता रहा है कि वेदों का निर्वचन इतिहास व पुराण के माध्यम से किया जाना चाहिये। जो अल्पश्रुत बिना उनके करता है, उससे वेद भी भय खाते हैं कि यह हमारा नाश कर देगा। 
वास्तव में ऐसा नहीं है। 
इस श्लोक के आगे वाली पंक्ति है - कार्ष्णं वेदमिमं विद्वाञ्श्रावयित्वार्थमश्नुते, जो यह स्पष्ट करती है कि यहाँ वेद का अर्थ ऋक्‌, यजु व सामादि से नहीं है वरन द्वैपायन कृष्ण के रचे इस महाभारत से है जिसे पञ्चम वेद भी कहा जाता है। 
बृंह्‌ मूल हो या समुपबृंहयेत्, अर्थ निर्वचन नहीं, विस्तार कर सामर्थ्य बढ़ाना होता है। इस शब्द में ही इसका रहस्य छिपा है कि क्यों महाभारत को बढ़ा कर एक लाख से भी अधिक छंद संख्या का कर दियागया। श्लोक का अर्थ यह है कि इस वेद को इतिहास व पुराण से अंश ले कर बढ़ाते रहना चाहिये और जो विद्वान है, सरलता से ऐसा कर सकता है। जो अल्पज्ञ है, उससे यह वेद भय खाता है कि वह इसे सरलता से पार कर लेगा अर्थात अपने अल्पज्ञान के कारण इसमें बिना कोई बढ़ोत्तरी किये ही इसे पूरा कर लेगा। 
यह श्लोक पर्वसङ्ग्रहकार द्वारा रचा गया है जो पौराणिक सामग्री की महाभारत में प्रक्षेपण को वैधता प्रदान करता है। आगे चल कर पुराणों को वैधता प्रदान करने हेतु इसका विकृत अर्थ प्रयुक्त किया जाने लगा। चक्रयुक्ति का यह अच्छा उदाहरण है, हेत्ववधारणदोष।  
इस भूमिका के पश्चात अगले अंकों में हम विकृतियों, दूषण व चमत्कारों से इतर, साक्ष्यों के साथ उन  मानवीय पक्षों को उद्घाटित करते हुये वास्तविक इतिहास तक पहुँचने का प्रयास करेंगे जिनके कारण महाभारत अद्भुत हुआ तथा जिनकी उपेक्षा ने लोकमानस को मृषा से भर दिया।  

[२] 

भार्गवों के वर्गगत अहंमन्यता, द्वेष और जातीय श्रेष्ठताभाव के दर्शन महाभारत के कथित आरम्भ में ही हो जाते हैं। शौनक अपने सत्र में कुरुवंश से पूर्व भृगुवंश की कथा सुनाने को कहते हैं जबकि महाभारत कुरुवंश की गाथा है। बहुत विस्तार से भृगुओं की कथा चलती है। जनमेजय के सर्पसत्र के ब्याज से यह दर्शाया गया है कि कैसे अंतत: भार्गवों ने अपने सम्बंधी नागों को बचा लिया। स्पष्टत: पूरा वर्णन विशुद्ध पौराणिक शैली में अनेक दाँव पेंच वाला है व बेतुका है जिसमें इस ऐतिहासिक वीरगाथा के अपहरण का उपोद्घात है। ५८ अध्याय इसी में बीत गये हैं। 
५९वें अध्याय में वास्तविक महाभारत का आरम्भ संक्षिप्त वर्णन से होता ही है कि पुन: बासठवें में ग्रंथ की महिमा आ टपकती है। तिरसठवें में सत्यवती व व्यास के जन्मों का संक्षिप्त वर्णन होता है कि चौसठवें में पुन: जनमेजय के प्रश्न का आधार ले भार्गव जन अपने प्रिय विषय पर आ जाते हैं - जमदग्निपुत्र (अब के कथित परशुराम) द्वारा क्षत्रियों का २१ बार सम्पूर्ण संहार! 
आगे जो वर्णित है, उससे यह ज्ञात होता है कि जातिवादी श्रेष्ठता के आवेश में कितनी अनर्गल कल्पनायें की जा सकती हैं। यह ध्यान रहे कि इस समस्त भार्गव पुराण के बारम्बार हस्तक्षेप का मूल कथानक से कोई सम्बंध ही नहीं है! 
 त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां पुरा
 जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे
 तदा निःक्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति
 ब्राह्मणान्क्षत्रिया राजन्गर्भार्थिन्योऽभिचक्रमुः
 ताभिः सह समापेतुर्ब्राह्मणाः संशितव्रताः
 ऋतावृतौ नरव्याघ्र न कामान्नानृतौ तथा
 तेभ्यस्तु लेभिरे गर्भान्क्षत्रियास्ताः सहस्रशः
 ततः सुषुविरे राजन्क्षत्रियान्वीर्यसंमतान्
 कुमारांश्च कुमारीश्च पुनः क्षत्राभिवृद्धये
२१ बार समूल नाश की असम्भव बात लिखने के पश्चात भार्गव जन समस्त क्षत्राणियों को ब्राह्मणों के पास गमन हेतु गया बताते हैं जिससे कि उन्हें संतानें हों। इस प्रकार ब्राह्मणोंं द्वारा धरा पर पुन: क्षत्रिय कुमार व कुमारियों का विस्तार किया गया!
यह अंश परवर्ती है, यह इससे सिद्ध होता है कि आगे ब्राह्मणों द्वारा जाये क्षत्रियों के धर्मराज्य के लक्षणों में ये भी गिनाये गये हैं - ब्राह्मण वेद नहीं बेंचते थे व शूद्रों के समक्ष वेदों का उच्चारण नहीं करते थे - 
 न च विक्रीणते ब्रह्म ब्राह्मणाः स्म तदा नृप
 न च शूद्रसमाभ्याशे वेदानुच्चारयन्त्युत
स्पष्टत: इन अंशों के जोडे जाने में उस काल की स्मृति है, जब शूद्र नंदों ने क्षत्रिय राजाओं का नाश कर राज्यश्री प्राप्त की तथा उनके अमात्य, मंत्री आदि ब्राह्मण ही हुये जिन्हें उनके समक्ष वेदघोष भी करना होता था। यह अंश नंदोंं के नाश के शताब्दियों पश्चात तब का रचा प्रतीत होता है जब केंद्रीय राजसत्ता के न होने से राज्यश्री छोटे छोटे राजाओं में बँट गयी तथा ब्राह्मण शूद्र को वेदोच्चार सुनाने के अपराधबोध से मुक्त हो उसे निषिद्ध कर्म बताते हुये लिख सकते थे।  
भार्गवों को इतने से ही संतोष नहीं होता, आगे अवतार की भूमिका में यह बताया गया है कि असुर गण राजरानियों गर्भ से जन्म ले समस्त धरा को संतप्त करने लगे - असुरा यज्ञिरे क्षेत्रे राज्ञां तु
आगे पौराणिक शैली में कश्यप वंश का वर्णन है जिसका महाभारत से कुछ नहीं लेना देना। रामायणकालीन राक्षसों के दुर्योधन के भाइयों के रूप में जन्म लेने के साथ साथ यह भी बताया गया है कि दुर्योधन साक्षात कलि का ही अंश था। कथित द्वापरयुग में कलि का यह जन्म रोचक है। 
नारायण के कृष्ण व पाण्डवों व उनके वंशजों के विविध देवों के अंश से जन्म लेने के दिव्य, पौराणिक व प्रक्षिप्त इन अध्यायों के पश्चात आदि-पर्व के ६८वें अध्याय (सम्भवपर्व) से महाभारत की वास्तविक कथा आरम्भ होती है अर्थात लगभग तीन हजार छंदों के पश्चात! अंशावतार प्रकरण लिखने की पौराणिक शैली बहुत आगे तक चलती रही। भविष्यपुराण में चंदेल योद्धाओं को कृष्ण परिवार के अंशावतारों के रूप में वर्णित किया गया। अंशावतरण सुनने की फलश्रुति भी अंत में बताई गई है। 
महाभारत आरम्भ - दु:षन्त, वैश्वामित्री व भरत

 पौरवाणां वंशकरो दुःषन्तो नाम वीर्यवान्
 पृथिव्याश्चतुरन्ताया गोप्ता भरतसत्तम
 चतुर्भागं भुवः कृत्स्नं स भुङ्क्ते मनुजेश्वरः
 समुद्रावरणांश्चापि देशान्स समितिंजयः
 आम्लेच्छाटविकान्सर्वान्स भुङ्क्ते रिपुमर्दनः
 रत्नाकरसमुद्रान्तांश्चातुर्वर्ण्यजनावृतान्

हे भरतश्रेष्ठ! पुरुवंश का विस्तार करने वाले एक राजा हो गये हैं जिनका नाम  था - दु:षन्‍त (दुष्यंत)। वे महान पराक्रमी तथा चार समुद्रों से घिरी पृथ्वी के पालक थे। वे पृथ्वी के चारो भागों का तथा समुद्रपर्यंत समस्त देशों का भी पूर्णरूप से पालन करते थे। उन्होंने अनेक युद्धों में विजय पायी थी। चारो वर्णों के लोगों से भरे पुरे तथा समुद्र तक पसरे हुये म्लेच्छ आटविकों की सीमा से लगते सम्पूर्ण भूभाग का वे अकेले ही शासन व संरक्षण करते थे।   
....
(क्रमश:)
[बालक भरत का चित्र आभार, गीताप्रेस]  

सोमवार, 20 अप्रैल 2020

Ramayan Notes रामायण वार्त्तिक - ४ : अयोध्या पहुँच अपना क्षात्रधर्म दिखाइयेगा - दुष्टों का दलन राजन्य का कर्तव्य

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शबरी और शरभङ्ग, दोनों ने श्रीराम से मिलने के पश्चात उनके वहाँ रहते ही स्वयं को अग्नि को समर्पित कर दिया।
चमत्कार और कल्प कहानियों को किनारे कर विचार करें कि कितना सञ्चित अवसाद, कितनी यातना, कितनी घुटन उन दोनों में रहे होंगे!
राक्षसों को प्रश्रय देने वाले राज में सन्त दमित होते ही हैं। राज्य ही नहीं, केन्द्र में भी बैठे उच्च पीठासीनों को आत्ममन्थन करना चाहिये। कुछ अपराधों के प्रति शून्य सहिष्णुता होनी चाहिये। जिस देश के राजन्य भौंकने वाले कुत्तों से भय खा सियार बने रहते हों, उसका कल्याण नहीं हो सकता।
राजा वह जो निर्वासन में भी हाथ उठा कर कहे -
तपस्विनाम् रणे शत्रून् हन्तुम् इच्छामि राक्षसान्
पश्यन्तु वीर्यम् ऋषयः सः ब्रातुर्मे तपोधनाः
दत्त्वा अभयम् च अपि तपोधनानाम्

और कर के दिखा भी दे -
विप्रकारम् अपाक्रष्टुम् राक्षसैः भवताम् इमम्
भवताम् अर्थ सिद्ध्यर्थम् आगतोऽहम् यदृच्छया
तस्य मे अयम् वने वासो भविष्यति महाफलः

... 
और देवी सीता ने कहा, वन में हैं तो यहाँ के अनुसार रहिये, अयोध्या पहुँच कर अपना क्षात्र धर्म दिखाइयेगा माने राक्षसों के नाश की प्रतिज्ञा मुझे नहीं सुहाती -
क्व च शस्त्रम् क्व च वनम् क्व च क्षात्रम् तपः क्व च
व्याविद्धम् इदम् अस्माभिः देश धर्मः तु पूज्यताम्
तदार्य कलुषा बुद्धिः जायते शस्त्र सेवनात्
पुनर्गत्वात् तत् अयोध्यायाम् क्षत्र धर्मम् चरिष्यसि
(i.e. in Rome do what Romans do Rāma! Thus spake the future queen.)...
देवी सीता ने कह तो दिया किन्तु साथ ही यह भी जोड़ा कि स्त्रीसुलभ बात कर रही हूँ, तब भी विचार करें। सीता चाहती ही नहीं थीं कि राम घनघोर दण्डकारण्य में प्रविष्ट हों!
sixth senseऔर राम तो राम ठहरे, पहले ही कह चुके थे कि पिता के वचन का पालन तो है ही किन्तु आप तपस्वी लोगों की दुर्दशा भी दूर करनी है - विप्रकारम् अपाक्रष्टुम्! सुतीक्ष्ण मुनि भी अहिंसक ही थे, कहे कि जाओ, उन तपस्वियों की दशा देख लो किन्तु लौट कर यहीं आ जाना -
आगन्तव्यम् च ते दृष्ट्वा पुनः एव आश्रमम् प्रति।
राम ने सीता को उत्तर देना आरम्भ किया, महान जनक कुल की प्रशंसा के साथ सीता की भी प्रशंसा की, अपनी प्रशंसा किसे अच्छी नहीं लगती और नैहर की हो जाय तो स्त्री परमानन्दित हो जाती है - आप तो महा कुलीन धर्मज्ञ जनक की आत्मजा हैं, भला ऐसा क्यों न कहेंगी!
हितम् उक्तम् त्वया देवि स्निग्धया सदृशम् वचः
कुलम् व्यपदिशन्त्या च धर्मज्ञे जनक आत्मजे

कहीं इस बात में उलाहना भी थी कि ऐसा होते हुये भी आप धर्म की सूक्ष्म गति से अज्ञान दर्शाती हैं!
और राम तुरन्त ही अपने पर आ गये - क्षत्त्रियैः धार्यते चापो न आर्त शब्दो भवेद् इति, क्षत्त्रिय धनुष इसीलिये धारण करते हैं कि कहीं भी आर्तनाद न हो और यहाँ तो मेरे पास कितने ही विप्रश्रेष्ठ अपना दुखड़ा ले स्वयं चल कर आये हैं, मुझे स्वत: संज्ञान ले वहाँ पहुँचना था न! हम आप की शरण में आये हैं, ऐसा अनुनय विनय ले कर वे आये, यह तो बड़ी उल्टी बात हो गई, उनसे आदेश लेने, उनकी शरण तो हमें जाना था न! यह मेरे लिये अतुल लज्जा की बात है - मे ह्रीः एषा तु मम अतुला!
ते च आर्ता दण्डकारण्ये मुनयः संशित व्रताः
माम् सीते स्वयम् आगम्य शरण्याः शरणम् गताः
..
अस्मान् अभ्यवपद्य इति माम् ऊचुर् द्विज सत्तमाः
कृत्वा वचन शुश्रुषाम् वाक्यम् एतत् उदाहृतम्
प्रसीदन्तु भवन्तो मे ह्रीः एषा तु मम अतुला
यद् ईदृशैः अहम् विप्रैः उपस्थेयैः उपस्थितः

उनकी सुन मैं उन्हें रक्षा का वचन दे चुका हूँ - मया च एतत् वचः श्रुत्वा कार्त्स्न्येन परिपालनम्। आपको तो पता ही है कि जीवित रहते मैं उससे विचलित नहीं हो सकता। मैं अपना जीवन त्याग सकता हूँ, लक्ष्मण को छोड़ सकता हूँ, आपको छोड़ सकता हूँ किन्तु सत्य का त्याग नहीं कर सकता, ब्राह्मणों की बात तो विशेष भी है। मैं ऋषियों का परिपालन अवश्य करूँगा।
संश्रुत्य न च शक्ष्यामि जीवमानः प्रतिश्रवम्
मुनीनाम् अन्यथा कर्तुम् सत्यम् इष्टम् हि मे सदा
अपि अहम् जीवितम् जह्याम् त्वाम् वा सीते स लक्ष्मणाम्
न तु प्रतिज्ञाम् संश्रुत्य ब्राह्मणेभ्यो विशेषतः
तत् अवश्यम् मया कार्यम् ऋषीणाम् परिपालनम्

राम से हम यह भी सीख सकते हैं कि पत्नी को कैसे तुष्ट रखें, कैसे बात न मानते हुये भी सहधर्मिणी का मान बनाये रखें -
मम स्नेहात् च सौहार्दात् इदम् उक्तम् त्वया वचः
परितुष्टो अस्मि अहम् सीते न हि अनिष्टो अनुशास्यते
सदृशम् च अनुरूपम् च कुलस्य तव शोभने
सधर्मचारिणी मे त्वम् प्राणेभ्यो अपि गरीयसी
सीते, मुझसे स्नेह व सौहार्द वश ही आपने वे बातें की, मैं परितुष्ट हूँ (आप मुझे रुष्ट न समझें)। शोभने, जो आपने कहा, वह आपके योग्य है, आप ही वैसा कह सकती हैं। आपकी बातें आपके महान कुल के अनुरूप हैं। आप मेरी सधर्मचारिणी हैं अर्थात मेरे साथ का धर्म तो आपको निभाना ही होगा, आप मुझे प्राणों से भी प्रिय हैं (अर्थात पहले जो कहा उसे ऐसे समझें कि प्राण जाने पर ही आपसे विलगाव होगा।)
...
स्त्री मन की समझ रखने वाले राम ने इस प्रकार प्रशंसा और नैहर की महानता से आरम्भ कर वहीं पर समाप्त भी किया। सीता को अपने साँवरे पर रीझना ही था।
°°° तीनों प्राणी घनघोर वन की ओर चल पड़े। आगे उन मुनियों, महात्माओं व ब्राह्मणों की अस्थियाँ उनकी प्रतीक्षा में थीं जिन्हें दुरात्मा राक्षस रावण ने अन्तिम संस्कार तक से वञ्चित कर दिया था...
... आगे वह काल भी प्रतीक्षा में था जब राक्षसों हेतु भी न्याय भाव रखने वाली विदेहकन्या वैदेही का अपमान भरा अपहरण होने वाला था। आगे रावण का काल भी प्रतीक्षा में था।
दुर्गम वन में तीनों मूर्ति जायें तो जायें, मैं तो तुलसी बाबा के संग ताली बजाते गा रहा हूँ -
आगे राम लखन बने पाछे
तापस भेस बिराजत काछे
उभय बीच सिय सोहति कैसे
ब्रह्म जीव बिच माया जैसे
... kids, so replied and acted the future king of Vasundharā.
॥जय श्रीराम॥

रविवार, 19 अप्रैल 2020

Ramayan Notes रामायण वार्त्तिक - ३ श्रीरामपट्टाभिषेकम्‌


Ramayan Notes रामायण वार्त्तिक - १  से आगे 

सर्वा पूर्वमियं येषामासीत्कृत्स्ना वसुन्धरा 
प्रजापतिमुपादाय नृपाणां जयशालिनाम् 
यह रामायण का प्रथम श्लोक है। प्रजापति मनु से आरम्भ हुये जयशाली राजाओं द्वारा यह वसुंधरा शासित थी। दशरथ के राज्य का जो वर्णन है, वह रामराज्य सा ही है। 
श्रीमती त्रीणि विस्तीर्णा सुविभक्तमहापथा
मुक्तपुष्पावकीर्णेन जलसिक्तेन नित्यश:
तां तु राजा दशरथो महाराष्ट्रविवर्धन: 
पुरीमावासयामास दिवं देवपतिर्यथा 
... 
विक्षेप हुआ, युवराज निर्वासित हुआ और आज चौदह वर्षों पश्चात लौटा है, जाने कितनी जातियों को एक सूत्र में बाँध, जाने कितनों को भयमुक्त व स्वतंत्र कर तापस राम लौटा है, राजा बनने।
प्रजापति मनु का वह श्रेष्ठ उत्तराधिकारी है जिसके यहाँ समस्त जातियाँ मानव होंगी, कोई राक्षस नहीं, कोई पीड़क नहीं, कोई पीड़ित नहीं। 
राम लौटा है, वहाँ जहाँ उसका सौतेला भाई भरत उसकी पादुकाओं को राजपीठ पर रख उसका तपस्वी प्रतिनिधि बन प्रजा के भरण पोषण के भर्त्तार राजधर्म का निर्वाह कर रहा है। प्रतीक्षा के चौदह वर्ष मानों एक कल्प के चौदह मन्‍वन्तर की भाँति बीते हैं और आज राम मनु का किरीट सिर पर धारण करने लौटा है  ... 
...
कच्चिन्न खलु कापेयी सेव्यते चलचित्तता
न हि पश्यामि काकुत्स्थं राममार्यं परन्तपम् 
भरत ने हनुमान से पूछा - वानरसुलभ चञ्चलता के वशीभूत हो तो नहीं कह रहे? मुझे तो काकुत्स्थ परन्तप राम आते नहीं दिख रहे!
तं समुत्थाप्य काकुत्स्थश्चिरस्याक्षिपथं गतम्
अङ्के भरतमारोप्य मुदितः परिषष्वजे
राम ने भरत को देखा - आँखें पथरा गयी थीं रे, जो तुझे इतने दिनों से देखा नहीं! उन्होंने भरत को गोद में उठा लिया, तब आलिंगन किया।
भरत ने अपना नाम उचार अभिवादन तो सबका यथोचित किया किन्तु पहली बात सुग्रीव से बोले -
त्वमस्माकं चतुर्णां वैभ्राता सुग्रीव पञ्चमः
आप हम चारों के पाँचवे भाई हैं।
... 
संसार में सम्भवत: यह अकेला उदाहरण होगा जहाँ शीर्षाभिषेक से पूर्व पादाभिषेक हुआ। भाई भरत ने सेवा का प्रेष्य प्रतिनिधि भाव छोड़ते हुये राम की पादुका स्वयं उनके पाँवों में पहनाई, सेवाप्रवीण भाई ने  भावी भूपति के पाँवों से भूमि का सम्बन्ध जोड़ा - 
पादुके ते तु रामस्य गृहीत्वा भरतः स्वयम् 
चरणाभ्यां नरेन्द्रस्य योजयामास धर्मवित् 
और दायित्त्व को उतारने की भूमिका में कृताञ्जलि हो बोल पड़े -
एतत्ते रक्षितं राजन्राज्यं निर्यातितं मया  
अद्य जन्म कृतार्थं मे संवृत्तश्च मनोरथः 
यस्त्वां पश्यामि राजानमयोध्यां पुनरागतम् 
राजन् ! जो राज्य आप मुझे सौंप कर गये थे, उसकी मैंने रक्षा की है। आज मेरा जन्म कृतार्थ हुआ, मनोरथ पूरे हुये जो आप को अयोध्या लौट आया देख रहा हूँ। 
पाँवों में पादुकायें पहना दीं, मैंने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया, आप मेरे राजा हैं। राजा हैं तो सम्पदा व शक्ति होनें चाहिये न!   
अवेक्षतां भवान्कोशं कोष्ठागारं पुरं बलम् 
भवतस्तेजसा सर्वं कृतं दशगुणं मया 
देख लें, कोश, कोठ-कोठार, सैन्य बल सभी आप के तेज से मैंने दसगुने कर दिये हैं (मैंने १४ वर्ष तप किया है, ऐसे ही नहीं बैठा रहा! ) 
पूजिता मामिका माता दत्तन् राज्यमिदं मम 
तद्ददामि पुनस्तुभ्यन् यथा त्वमददा मम 
मेरी माता का सम्मान करते हुये यह राज्य आपने मुझे दिया था, उसे मैं आपको उसी प्रकार दे रहा हूँ जिस प्रकार आपने मुझे दिया था (अभिवृद्धि तो बता ही चुका हूँ, कोई हानि या न्यूनता नहीं होने दी!) 
धुरमेकाकिना न्यस्तामृषभेण बलीयसा 
किशोरवद्गुरुं भारं न वोढुमहमुत्सहे  
वारिवेगेन महता भिन्नः सेतुरिव क्षरन् 
दुर्बन्धनमिदं मन्ये राज्यच्छिद्रमसन्वृतम् 
(बहुत हो गया) आप सँभालिये अब। जिस प्रकार बली वृषभ के साथ एक ओर नाध दिया गया किशोर बछड़ा उसके साथ भार का वहन नहीं कर सकता, वही स्थिति मेरी है, आप ही राजा रहें, मैं नहीं। 
राजकाज सँभालना उसी प्रकार कठिन है जिस प्रकार बड़ी धारा से छिद्रित होने से रिसते बाँध को सँभालना।  
गतिं खर इवाश्वस्य हन्सस्येव च वायसः 
नान्वेतुमुत्सहे देव तव मार्गमरिन्दम 
हे अरिन्‍दम! मैं आप की भाँति इस कठिन मार्ग पर नहीं चल सकता जैसे एक गधा अश्व की भाँति नहीं चल सकता, जिस प्रकार एक कौवा हंस की चाल नहीं चल सकता। 
भाव भरे भरत ने सम्भवत: अनुभव किया कि उदाहरणों और उपमाओं की दिशा ठीक नहीं जा रही। उन्होंने जोड़ा - 
यथा च रोपितो वृक्षो जातश्चान्तर्निवेशने 
महांश्च सुदुरारोहो महास्कन्धः प्रशाखवान् 
शीर्येत पुष्पितो भूत्वा न फलानि प्रदर्शयेत् 
तस्य नानुभवेदर्थन् यस्य हेतोः स रोप्यते 
एषोपमा महाबाहो त्वमर्थन् वेत्तुमर्हसि 
यद्यस्मान्मनुजेन्द्र त्वं भक्तान्भृत्यान्न शाधि हि 
घर के पिछवाड़े में रोपा गया वृक्ष पाल पोस कर बड़ा कर दिया जाय, इतना विशाल हो जाय कि उस पर चढ़ा न जा सके, उसका तना बहुत मोटा हो जाय, शाखायें प्रशाखायें बढ़ जायें, सब हो किंतु फुलाने के पश्चात बिना फल दिये सूख जाये, उस स्थिति में रोपने वाले के साथ जैसा होगा, वैसा ही कुछ हमारे साथ होगा यदि आप ने राज्य स्वीकार नहीं किया। यह रूपक आप के ही लिये है, आप समझें।  
अनुज भरत आगे ऐसे कहते चले गये मानों बड़े भाई पर शुभाशंसाओं की झड़ी लगा रहे हों, जन जन की शुभेच्छायें एक हो उनकी जिह्वा पर विराजमान हो गईं -  
जगदद्याभिषिक्तन् त्वामनुपश्यतु सर्वतः
प्रतपन्तमिवादित्यं मध्याह्ने दीप्ततेजसं 
तूर्यसङ्घातनिर्घोषैः काञ्चीनूपुरनिस्वनैः 
मधुरैर्गीतशब्दैश्च प्रतिबुध्यस्व शेष्व च 
यावदावर्तते चक्रन् यावती च वसुन्धरा 
तावत्त्वमिह सर्वस्य स्वामित्वमभिवर्तय 
मध्याह्न में अपने तेज से दप दप दीप्त होते सूर्य की भाँति आज समस्त संसार को आप स्वयं को अभिषिक्त होता हुआ देख लेने दें। भरत ने सूर्यवंशी की उपमा सूर्य से ही दी। 
आप तूर्य, नृत्यनूपुर ध्वनि, मधुर गीतों की ध्वनि के साथ विश्राम करें तथा उन्हें सुनते हुये ही जागरण करें। जब तक यह कालचक्र घूम रहा है, जहाँ तक इस वसुन्‍धरा का प्रसार है, हे स्वामी आप शासन करते हुये देखभाल करें। 
वाल्मीकि के घुमन्तू  कुशीलव गायन वाली वसुन्धरा से आरम्भ हुआ आख्यान भर्त्ता भरत की मङ्गलकामना से युक्त वसुंधरा तक पहुँच अपनी पूर्ण परिणति प्राप्त कर चुका।  
... 
लौटते राम की सूचना देने वाले मारुति से संवाद से ले कर श्रीरामपट्टाभिषेकम् से कुछ पूर्व तक भरत ही भरत हैं।
आश्चर्य सा होता है कि रामायण अनूठी कृति है तो भाइयों के परस्पर प्रेम के कारण।
रामरूपी सूर्य का अयन जिन दो सीमाओं के बीच है, वे लक्ष्मण और भरत हैं। एक ग्रीष्म का चरम, तो दूसरा शीत का और इनके बीच है रामेन्द्र की वह वज्रवर्षा जिससे सारा मानस भर भर फुला उठता है, आठ ब्राह्मणश्रेष्ठों ने राम का उसी प्रकार अभिषेक किया, जिस प्रकार कभी आठ वसुओं ने वासव इन्‍द्र का अभिषेक किया था। प्रजापति मनु की परम्परा मानवोत्तम, नरोत्तम, पुरुषोत्तम को पा कर रामराज्य हुई, वसुधा तृप्त हुई -
वसिष्ठो वामदेवश्च जाबालिरथ काश्यपः 
कात्यायनः सुयज्ञश्च गौतमो विजयस्तथा 
अभ्यषिञ्चन्नरव्याघ्रं प्रसन्नेन सुगन्धिना 
सलिलेन सहस्राक्षन् वसवो वासवं यथा 
ब्रह्मणा निर्मितं पूर्वं किरीटं रत्नशोभितम् 
अभिषिक्तः पुरा येन मनुस्तं दीप्ततेजसम्
तस्यान्ववाये राजानः क्रमाद्येनाभिषेचिताः
...
रामो रामो राम इति प्रजानामभवन् कथाः
रामभूतं जगाभूत् रामे राज्यं प्रशासति
नित्यपुष्पा नित्यफलास्तरवः स्कन्धविस्तृताः
कालवर्षी च पर्जन्यः सुखस्पर्शश्च मारुतः
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा लोभविवर्जिताः
स्वकर्मसु प्रवर्तन्ते तुष्टा: स्वैरेव कर्मभिः
आसन् प्रजा धर्मपरा रामे शासति नानृताः
सर्वे लक्षणसम्पन्नाः सर्वे धर्मपरायणा: 

शनिवार, 18 अप्रैल 2020

Ramayan Notes रामायण वार्त्तिक - २

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गदहा रावण 
राक्षसो रावणो मूर्खो। खर अर्थात गदहे से रावण का सम्बन्ध है। काश्मीर तन्त्र के विद्वान रावण को नाम व लक्षण साम्यता के आधार पर राक्षस रावण बना दिया गया प्रतीत होता है - लगे हाथ खरानना देवी कुलदेवी भी हो गयीं उसकी, ससुराल भी, वहीं बसते उसके श्रीमाली वंशज भी।
भारत कथा प्रधान देश है और उत्तर भारत मनोरञ्जन प्रधान, कोढ़ में खाज। नाम साम्यता के आधार पर ही पुराणियों ने शान्ता को राम की बहन घोषित कर दिया।
पाणिनि खर/खारी जाति का उल्लेख किये हैं। खर और आनणा जाटों के गोत्र हैं। खर+आनणा का भी खरानना हुआ हो सकता है। योद्धा जातियाँ थी हीं।
राक्षस रावण के यहाँ अश्व उतने सुलभ नहीं थे। सीताहरण व युद्ध में भी उसने खर जुते रथ का प्रयोग किया। युद्ध गहन होने पर अश्व भी जोते गये। (मार्क्सवादी जन अश्व को ass बनाने में विशेष प्रवीण होते हैं, राक्षस रावण भी वाममार्गी ही था। वाम अर्थात सामान्य से विपरीत रीति। )
वाल्मीकि जी राक्षस रावण के रथ हेतु बताते हैं कि चीपों चीपों करते गधे तो जुते ही थे, पहियों की ध्वनि भी गधों की ही भाँति थी - खरश्वन!
मय का दामाद बना दिये गये राक्षस रावण हेतु अब कोई यह स्वीकार नहीं करेगा कि उसकी तकनीकी बहुत आदिम थी जो लकड़ी के पहियों व धुरों की रगड़ की ध्वनि पर भी विराम नहीं लगा सकती थी। उच्च तकनीकी का पुष्पक तो उसने कुबेर से छीना था।
आज जिस प्रकार पाकिस्तान परमाणु आयुध सम्पन्न है, वैसे ही तब लंका रही होगी। लाहौर, कराँची आदि के समृद्ध क्षेत्रों में जिस प्रकार आज भी खच्चर जुते रथ दौड़ते हैं, उसी प्रकार त्रिकूट से सुन्दर पहाड़ी तक खररथ दौड़ते रहे होंगे। कुल मिला कर हर प्रकार से लंका आज के पाकिस्तान समान ही रही होगी, रावण इमरान समान व राक्षस मोहमदी जनता समान।
सावधानीपूर्वक पढ़ने पर सकल रूप में लंका वह देश लगती है जिसे आजकल rogue state कहते हैं, जबर की जबरी खूब चलती रही होगी।
लंका में मुर्गी-पालन भी होता रहा होगा। भैंसा भात के साथ रावण ऑमलेट भी खाता रहा हो तो आश्चर्य नहीं। ऐसा मनई वेद तो पढ़ने से रहा। वह वेदपारग नहीं था, वेदपाठी ब्रह्मराक्षस अवश्य उसके यहाँ रहते रहे होंगे। बिना ज्ञान के विधान थोड़े चलता है! पाकिस्तान में भी ज्ञानी होते ही होंगे।
कुल मिला कर भौकाल ही बचा था उसका, जब परायी नार हर लाया। सहमा भी हुआ था। उसके विरुद्ध सब ने राम को सहयोग दिया, समुद्र तटनायक, इन्द्र, वैनतेय, गीध, वानरादि जातियाँ सभी। सभी के भीतर इतनी पीड़ा सञ्चित थी कि अवसर मिलते ही....
हाँ, रावण ब्राह्मण नहीं था।
॥हरिः ॐ॥
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परिष्पन्द
इस शब्द का अर्थ होता है, समूह में नियम व व्यूहबद्ध हो एक साथ वाहनों पर चलना। ट्रेन हेतु भी इसका प्रयोग हो सकता है।
सार्थवाह (वैश्य यात्रायें) व युद्ध में (अङ्गरक्षक टुकड़ी के साथ मुख्य योद्धा) में परिष्पन्द का प्रयोग होता रहा है। कुबेर बहुत धनी, यक्ष दिक्पाल थे। युद्ध कर के तो धनी होने से रहे तथा मोहमदी लूटमार का कोई प्रमाण नहीं। वे मूल्यवान वस्तुओं के व्यापारी गण के प्रमुख रहे होंगे जो परिष्पन्द में चलते होंगे। मरुस्थली मोहमदियों की भाँति ही उन पर आक्रमण कर कर रावण ने लूटा होगा तथा अन्ततः दुर्गम कैलास क्षेत्र में सिमटने को विवश कर दिया होगा। कुबेर की परिष्पन्द तकनीक ही उसने अपना ली होगी, परिष्पन्द से पुष्पक हुआ होगा। अनुमान ही है।
नितान्त भौतिक स्तर पर विचारने पर लगता है कि रावण वध पश्चात राम वानर भालुओं की परिष्पन्द सुरक्षा में अयोध्या लौटे होंगे। रावण का एक पूरा लूट व भोग का तन्त्र था, वैसी सुरक्षा आवश्यक रही होगी। विचारने पर यह भी ठीक लगता है कि विजयादशमी के दिन रावण मरा होगा, आश्विन में तथा थल मार्ग से राम चैत्र में अयोध्या पहुँचे होंगे। द्रुतगति वाले आञ्जनेय को किञ्चित पहले राम भेज दिये होंगे।
दीपावली राम से भी बहुत पुरातन पर्व है। महान मर्यादा पुरुषोत्तम के सम्मान में उस वर्ष अनूठे व नवोन्मेषी ढंग से मनाई गई हो तो आश्चर्य नहीं!
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श्रीराम अयोध्या में नौ हजार वानरों के परिष्पन्द, व्यूह संरक्षण में लौटे थे, पुष्पक विमान अनुमान। वे सभी वानर राज्याभिषेक पूर्व श्रीराम की शोभायात्रा में नौ हजार हाथियों पर आरूढ़ हो सम्मिलित हुये थे। विष्णु के चक्र से जो चक्रव्यूह है, वही उनके करस्थ पद्म से पद्मव्यूह के नाम से भी जाना जाता है। पद्मपुष्प से पुष्पक व्यूह रहा होगा जिसका ज्ञान यक्षों को था तथा जिनसे राक्षसों ने वह विद्या छीन ली रही होगी। रामायण काल में पद्मव्यूह में नौ हजार योद्धा लगते होंगे। पुष्पक विमान को सात स्तरों वाला बताया गया है, पुष्पव्यूह में भी सात द्वार होते हैं। सात स्तरीय भवन भी विमान कहलाता है। ... नवनागसहस्राणि ययुरास्थाय वानराः मानुषन् विग्रहन् कृत्वा सर्वाभरणभूषिताः
...
रामायण आख्यान अति प्राचीन है तथा रामायण काव्य में अनेक भाषिक स्तर हैं। इस कारण ही भाषिक या अन्य आधुनिक विधियोंं से मैं राम के काल निर्धारण को शक्य नहीं मानता। महाभारत का कर लें तो कर लें, रामायण का असम्भव है।
पतङ्ग शब्द को लें, जिसका अर्थ उड़ने से है। आकाश में सूर्य उड़ता हुआ प्रतीत होता है अत: पक्षियों की भाँति ही पतङ्ग कहलाता है। इस शब्द की धातु से ही पतन शब्द बना है, गिरना या डूबते जाना। कहाँ उड़ना, कहाँ गिरना, मूल धातु एक।
रामायण में सागरसन्तरण व आकाशचारण को एक ही भाँति दर्शाया गया है। वाल्मीकि की काव्य कला के इस पक्ष पर सम्भवत: लोगों का ध्यान ही नहीं गया है कि किस प्रकार आञ्जनेय के अभियान में दोनोंं एक हो गये हैं!
उड़ना वेग से सम्बंधित है, निर्बाध गति से। पुरातन काल में जलमार्ग से यात्रा की गति थल मार्ग की तुलना में अति तीव्र होती थी। व्यापार व सैन्य अभियान जहाँ शक्य हो, जलमार्ग से ही होते थे।
दक्षिण से किष्किन्धा होते हुये अयोध्या तक नदियों के जाल को देखें। श्रीराम ने लौटते समय अधिकतर जल पर तैरते व्यूह पुष्पक विमान का ही प्रयोग किया होगा, ऐसी सैन्य व्यूह रचना जो पानी पर पुष्प की भाँति तैरती दिखे। विमान का तीव्र गति से तैरना उसका उड़ना था जिस प्रकार मारुति का सागर सन्तरण चट्टानों से उछलते मानो आकाश में उड़ते एवंं तैरते पूरा हुआ था।
इस भाषिक अनूठेपन के कारण भी रामायण बहुत प्राचीन रचना सिद्ध होती है, भले उसका परिष्कार आगामी शताब्दियों में किया जाता रहा हो।
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युद्धकाण्ड में ही राज्याभिषेक पश्चात श्रीराम द्वारा पुत्रों एवं बंधुओं के साथ दस हजार वर्षदिन राज्य करना बताया गया है -
राघवश्चापि धर्मात्मा प्राप्य राज्यमनुत्तमम्
ईजे बहुविधैर्यज्ञैः ससुतभ्रातृबान्धवः

सीतात्याग का कहींं उल्लेख नहीं, समापन तक। यदि ऐसा कुछ हुआ होता तो इतनी महत्वपूर्ण बात को पुत्रों सहित राज्य करना बताने से पूर्व अवश्य लिखा जाता।
राम नाम/कथा की महिमा भी है -
निरामया विशोकाश्च रामे राज्यं प्रशासति
रामो रामो राम इति प्रजानामभवन् कथाः
नित्यपुष्पा नित्यफलास्तरवः स्कन्धविस्तृताः
कालवर्षी च पर्जन्यः सुखस्पर्शश्च मारुतः
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा लोभविवर्जिताः

॥इति॥
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बुधवार, 1 अप्रैल 2020

Ramayan Notes रामायण वार्त्तिक - १

माता कौसल्या का औषधि ज्ञान
इक्ष्वाकु हों या अन्य, क्षत्राणियाँ भिषग विद्या में पारङ्गत होती थीं। क्षत होने पर प्राथमिक चिकित्सा करने में कुशल, जड़ी बूटियों की ज्ञाता।
कौसल्या तो अथर्वण विदुषी थीं। जिस विशल्यकरणी औषधि का उल्लेख युद्ध में क्षत विक्षत राम लक्ष्मण को स्वस्थ करने हेतु हुआ है, उसे देवी कौसल्या ने वनगमन के पूर्व राम के हाथों में मन्त्र पढ़ते हुये रक्षासूत्र में पिरो कर बाँधा था -
इति पुत्रस्य शेषाश्च कृत्वा शिरसि भामिनी, गन्धांश्चापि समालभ्य राममायतलोचना 
ओषधीम् च अपि सिद्ध अर्थाम् विशल्यकरणीम् शुभाम्, चकार रक्षाम् कौसल्या मन्त्रैः अभिजजाप च

(वसागोलकों से पूछ कर देखें, उत्तर मिलेगा कि स्त्री को वेद का अधिकार नहीं है।)
कविहृदय लक्ष्मण
लक्ष्मण कविहृदय थे। उन्होंने अद्भुत ऋतुवर्णन किये हैं । 
[क्या आप को उनके इस गुण से किसी वसागोलक कथावाचक ने कभी परिचय कराया? कथावाचक आप को १४ वर्ष न सोने का गल्प सुनायेगा, लक्ष्मणरेखा बतायेगा, शबरी के जूठे बेरों पर मुँह बिचकाना बतायेगा और हास्यास्पद रूप में उग्रता भी। कथावाचकों ने समस्त इतिहास की निर्मम हत्या करुणा व प्रेम के आँसू बहाते हुये कर दी! यही सच है।]
'कवि' लक्ष्मण का हेमंत ऋतु वर्णन -
अयम् स कालः संप्राप्तः प्रियो यः ते प्रियंवद
 अलंकृत इव आभाति येन संवत्सरः शुभः
नीहार परुषो लोकः पृथिवी सस्य मालिनी
जलानि अनुपभोग्यानि सुभगो हव्यवाहनः
नव आग्रयण पूजाभिर्भ्यर्च्य पितृ देवताः
कृत आग्रयणकाः काले सन्तो विगत कल्मषाः
प्राज्यकामा जनपदाः संपन्नतर गो रसाः
विचरन्ति महीपाला यात्र अर्थम् विजिगीषवः
सेवमाने दृढम् सूर्ये दिशमन्तक सेविताम्
विहीन तिलका इव स्त्री न उत्तरा दिक् प्रकाशते
प्रकृत्या हिम कोश आढ्यो दूर सूर्याः च सांप्रतम्
यथार्थ नामा सुव्यक्तम् हिमवान् हिमवान् गिरिः
अत्यन्त सुख संचारा मध्याह्ने स्पर्शतः सुखाः
दिवसाः सुभग आदित्या: छ्हाया सलिल दुर्भगाः
मृदु सूर्याः सनीहाराः पटु शीताः समारुताः
शून्य अरण्या हिम ध्वस्ता दिवसा भान्ति सांप्रतम्
निवृत्त आकाश शयनाः पुष्यनीता हिम अरुणाः
शीता वृद्धतर आयामः त्रि यामा यान्ति सांप्रतम्
रवि संक्रान्त सौभाग्यः तुषार अरुण मण्डलः
निःश्वास अन्ध इव आदर्शाः चंद्रमा न प्रकाशते
ज्योत्स्ना तुषार मलिना पौर्णमास्याम् न राजते
सीता इव च आतप श्यामा लक्ष्यते न तु शोभते
प्रकृत्या शीतल स्पर्शो हिमविद्धाः च सांप्रतम्
प्रवाति पश्चिमो वायुः काले द्वि गुण शीतलः
बाष्पच्छ्हन्नानि अरण्यानि यव गोधूमवंति च
शोभन्ते अभ्युदिते सूर्ये नदद्भिः क्रौञ्च सारसैः
खर्जूर पुष्प आकृतिभिः शिरोभिः पूर्ण तण्डुलैः
शोभन्ते किंचिद् आलंबाः शालयः कनक प्रभाः
मयूखैः उपसर्पद्भिः हिम नीहार संवृतैः
दूरम् अभ्युदितः सूर्यः शशांक इव लक्ष्यते
अग्राह्य वीर्यः पूर्वाह्णे मध्याह्ने स्पर्शतः सुखः
संरक्तः किंचिद् आपाण्डुः आतपः शोभते क्षितौ
अवश्याय निपातेन किंचित् प्रक्लिन्न शाद्वला
वनानाम् शोभते भूमिर् निविष्ट तरुण आतपा
स्पृशन् तु सुविपुलम् शीतम् उदकम् द्विरदः सुखम्
अत्यन्त तृषितो वन्यः प्रतिसंहरते करम्
एते हि समुपासीना विहगा जलचारिणः
न अवगाहन्ति सलिलम् अप्रगल्भा इव आवहम्
अवश्याय तमो नद्धा नीहार तमसा आवृताः
प्रसुप्ता इव लक्ष्यन्ते विपुष्पा वन राजयः
बाष्प संचन्न सलिला रुत विज्ञेय सारसाः
हिमार्द्र वालुकैः तीरैः सरितो भान्ति सांप्रतम्
तुषार पतनात् चैव मृदुत्वात् भास्करस्य च
शैत्यात् अग अग्रस्थम् अपि प्रायेण रसवत् जलम्
जरा जर्जरितैः पत्रैः शीर्ण केसर कर्णिकैः
नाल शेषा हिम ध्वस्ता न भान्ति कमलाकराः

पञ्चवटी में जब भैया भाभी को स्नान कराने हेतु लक्ष्मण ले जाते हैं तो नदी किनारे यह वर्णन राम से करते हैं।
[विश्वामित्र का गाथा गायक गाथिन कुल हो, इक्ष्वाकुओं की घुमंतू कुशीलव गायन परम्परा हो, कुरुओं के सूत गायक हों या सहस्र वर्ष पीछे परमारों के यशगायक पँवरिये; क्षत्रियों का काव्य से प्रेम उतना ही प्रबल रहा जितना आन्विक्षिकी व ब्रह्मविद्या से। कालप्रवाह में सब समाप्त हो गया। कान्यकुब्जाधिपति महाराज जयचंद्र के यश को धूमिल करने वाला गल्पी चंद्रबरदाई चारण उस विकृत होती परम्परा का एक उदाहरण है।]
लक्ष्मण का भरत प्रेम  
लक्ष्मण कहते हैं, भैया! आप से दूर हैं भरत, राज करना था उन्हें किंतु आप ही के समान समस्त भोगों को त्याग नियताहारी तापस व्रत अपनाये हुये हैं।
आह, वे कोमल श्यामवदन कैसे हेमंत की शीत में सरयू के शीतल जल में रात रहते ही स्नान करते होंंगे, कैसे इस शीत में भुँइया सोते होंगे! ...
... हेमन्त का वर्णन करते करते कविहृदय लक्ष्मण का ध्यान दूर अपने तापस भ्राता भरत पर चला गया। शब्दप्रयोग देखेंं- शेते शीते महीतले! अंतर का दाह हृदय चीर कर शीत की ठिठुरन भरता चला जाता है!
अस्मिन् तु पुरुषव्याघ्र काले दुःख समन्वितः 
तपश्चरति धर्मात्मा त्वत् भक्त्या भरतः पुरे
त्यक्त्वा राज्यम् च मानम् च भोगांश्च विविधान् बहून्
तपस्वी नियताहारः शेते शीते महीतले
सोऽपि वेलाम् इमाम् नूनम् अभिषेक अर्थम् उद्यतः
वृतः प्रकृतिभिर् नित्यम् प्रयाति सरयूम् नदीम्
अत्यन्त सुख संवृद्धः सुकुमारो हिमार्दितः
कथम् तु अपर रात्रेषु सरयूम् अवगाहते
पद्मपत्रेक्षणः श्यामः श्रीमान् निरुदरो महान्
धर्मज्ञः सत्यवादी च ह्री निषेधो जितेन्द्रियः
प्रियाभिभाषी मधुरो दीर्घबाहुः अरिन्दमः
संत्यज्य विविधान् भोगान् आर्यम् सर्वात्मना आश्रितः
जितः स्वर्गः तव भ्रात्रा भरतेन महात्मना
वनस्थम् अपि तापस्ये यः त्वाम् अनुविधीयते

कहते कहते माता कैकेयी के लिये लक्ष्मण कटु हो जाते हैं - कथम् नु सा अम्बा कैकेयी तादृशी क्रूरदर्शिनी! 
तब राम की प्रशांत वाणी फूट पड़ती है -
न ते अम्बा मध्यमा तात गर्हितव्या कथञ्चन
ताम् एव इक्ष्वाकु नाथस्य भरतस्य कथाम् कुरु

[और मुझे कुरुक्षेत्र में अर्जुन मोह का प्रबोधन करते कृष्ण दिखने लगते हैं - कुत: त्वा कश्मलम्‌ इदम्‌ विषमे समुपस्थितम्‌ ! इतना मनोविज्ञान भरा पड़ा है किंतु कोई कथावाचक नहीं सुनायेगा, कदापि नहीं!]
अंगद अभियान
राजनीतिक दृष्टि से अंगद को भेजना उपयुक्त था - एक राजकुमार का सन्देश ले दूसरा राजकुमार तीसरे राजा के यहाँ औपचारिक रूप से भेजा गया। राम ने राजमर्यादा का पालन किया। साथ ही अङ्गद का दौत्य युद्धपूर्व मनोवैज्ञानिक आक्रमण भी था।
राम के सन्देश में रावण को सुनाया गया - वरदान बहुत हो गया, तुम्हें मार कर अब महर्षियों व राजर्षियों की गति दूँगा। मेरी पत्नी का हरण कर तुमने काल को आमन्त्रित किया है, उसे नहीं लौटाने पर मैं लङ्का को अराक्षस बना दूँगा और विभीषण भावी राजा होंगे।
संकेत था कि अभी भी जो टूट कर आना चाहते हैं, आ जायें। अपनी शक्ति व बल विश्वास दर्शा शत्रु में भय व्याप्त करना था, हुआ भी वही।
गृह्यताम् एष दुर्मेधा वध्यताम् - पकड़ो इस दुर्बुद्धि को एवं मार डालो, रावण ने अंगद हेतु यही निर्णय सुनाया।अंगद ने जानबूझकर पहले तो स्वयं को चार राक्षसों द्वारा पकड़वाया और तब उन्हें झटकते हुये कूद कर प्रासाद के शिखर पर चढ़ कर उसे ध्वस्त कर दिया। राजा का मानमर्दन तो था ही, एक वानर ने अकेले कर दिया, शक्ति प्रदर्शन भी था।
राघव द्वारा अपने शर की परीक्षा भी हो गई कि दुरात्मा रावण तो वालि का मित्र भी था, यदि अपने पिता के वध के कारण अंगद के मन में कोई चोर रह गया हो तो वहाँ भेजने का निर्णय सब प्रकट कर देता। क्रोधवश रावण ने कोई प्रयास ही नहीं किया, एक अन्य वानर हनुमान द्वारा पहले की गयी दुर्गति ध्यान में रही होगी।
अंगद लौट आये। विपुल वानर सैन्य से घिरी लंका के आतंकित निवासियों की चीख पुकार ने सिद्ध कर दिया कि राघव का अमोघ शर इस बार भी लक्ष्यसिद्ध हो लौटा।

कुम्भकर्ण उपदेश 
सुषुप्तस्त्वम् न जानीषे मम रामकृतम् भयम्, तुम सोये रहे और जाने ही नहीं कि राम ने मुझे भयाक्रांत कर रखा है!  रावण बोला -
एष दाशरथी रामः सुग्रीवसहितो बली
समुद्रम् लङ्घयित्वा तु कुलम् नः परिकृन्तति

यह बलवान दाशरथि राम सुग्रीव के साथ समुद्र लाँघ कर आ पहुँचा है और हमारे कुल के विनाश में लगा है।
सेतु मार्ग से आये वानरों की अगाध राशि द्वारा लङ्का के वन उपवन आच्छादित हो गये हैं - सेतुना सुखमागत्य वानरैकार्णवम् कृतम्। उन्होंने युद्ध में मुख्य मुख्य राक्षसों को मार डाला है - ये राक्षसा मुख्यतमा हतास्ते वानरैर्युधि। लंका में केवल बाल वृद्ध बचे हैं - लङ्काम् बालवृद्धावशेषिताम्। पूरा राजकोश रिक्त हो गया है - सर्वक्षपितकोशम् (आर्थिक चोट)...
... कितना आतङ्कित है न रावण!
[यही डर, यही भय आजकल के सिंगल सोर्स राक्षसों में भी होना चाहिये किंतु ....]
कुम्भकर्ण ने सुना और अट्टहास कर उठा - प्रजहास च। उसने ध्यान दिलाया कि पहले तुम्हारे कुकर्म के परिणाम की जो चेतावनियाँ दी गई थीं, वे आन पड़ीं। आगे कुम्भकर्ण ने राजनीति का जो उपदेश दिया है, अद्भुत है। कुछ श्लोक देखें -
अनभिज्ज़्नाय शास्त्रार्थान् पुरुषाः पशुबुद्धयः
प्रागल्भ्याद्वक्त्मिच्छिन्ति मन्त्रेष्वभ्यन्तरीकृताः
अशास्त्रविदुषाम् तेषाम् कार्यम् नाभिहितं वचः
अर्थशास्त्रानभिज्ञानाम् विपुलाम् श्रियमिच्छताम्
अहितम् च हिताकारम् धार्ष्ट्याज्जल्पन्ति ये नराः
अवश्यम् मन्त्रबाह्यास्ते कर्तव्याः कृत्यदूषकाः
विनाशयन्तो भर्तारम् सहिताः शत्रुभिर्बुधैः
विपरीतानि कृत्यानि कारयन्तीह मन्त्रिणः
तान् भर्ता मित्रसम्काशानमित्रान् मन्त्रनिर्णये
व्यवहारेण जानीयात्सचिवानुपसम्हितान्
चपलस्येह कृत्यानि सहसानुप्रधावतः
चिद्रमन्ये प्रपद्यन्ते क्रौञ्चस्य खमिव द्विजाः
यो हि शत्रुमवज्ञाय नात्मानमभिरक्षति
अवाप्नोति हि सोऽनर्थान् स्थानाच्च व्यवरोप्यते

[अन्योक्तियों के प्रयोग द्वारा कुम्भकर्ण ने रावण को बहुत गरियाया है - पशुबुद्धि आदि।]

राघवों की मूर्च्छा और हनुमान के सञ्जीवनी अभियान 
जब दोनों भाइयों सहित समस्त वानरसेना आहत मूर्च्छित पड़ी थी, तब जाम्बवान ने हनुमान को औषधियों का नाम बता कर लाने को भेजा। 
श्रुत्वा हनुमतो वाक्यं तथापि व्यथितेन्द्रियः
पुनर्जातमिवात्मानं स मेने ऋक्षपुङ्गवः
...
ऋक्षवानरवीराणामनीकानि प्रहर्षय
विशल्यौ कुरु चाप्येतौ सादितौ रामलक्ष्मणौ
...
मृतसञ्जीवनीं चैव विशल्यकरणीम् अपि
सौवर्णकरणीं चैव सन्धानीं च महौषधीम्

लक्ष्मण भूमि पर पड़े थे, राघव राम ने विलाप करते हुये तीनों माताओं का नाम लिया कि मैं उन्हें क्या मुख दिखाऊँगा?
उपालम्भं न शक्ष्यामि सोढुं दत्तं सुमित्रया
किं नु वक्ष्यामि कौसल्यां मातरं किं नु कैकयीम्

...
सुषेण वानर सेना के यूथप थे, राक्षस लङ्का से अपहृत वैद्य नहीं।
एवमुक्तः स रामेण महात्मा हरियूथपः
लक्ष्मणाय ददौ नस्तः सुषेणः परमौषधम्

पर्वतों में नगाधिराज हिमालय की बड़ी प्रतिष्ठा रही। पौराणिक परम्परा में मेरु की रही। दक्षिण में आज भी संकल्प में मेरोः दक्षिणे पार्श्वे बोला जाता है। यह मेरु विराट भारत की भौगोलिक प्रसार व उसके केन्द्र का कूट है।
रामायण लोककाव्य भी रहा। घुमन्तू कुशीलव गायकों ने उस पर्वत को भी हिमालय बना दिया जहाँ से हनुमान औषधियाँ लाये थे।
सागर संतरण जैसे महान अभियान के कारण मारुति हनुमान के प्रति विशेष आदर व नायकप्रतिष्ठा का भाव बढ़ता चला गया जिसकी परिणति उनके दैवीय निरूपण में हुई। वाल्मीकीय रामायण में उनके द्वारा दो बार औषधियों हेतु पर्वत पर जाने की बात है। एक बार तब जब राम और लक्ष्मण, दोनों भाई मूर्च्छित होते हैं, दूसरी बार जब केवल लक्ष्मण।
आश्चर्य है कि दोनों बार वह औषधियों का अभिज्ञान नहीं कर पाते जबकि होना यह चाहिये कि एक समान औषधियों के होने पर दूसरी बार अभिज्ञान करने में उन्हें सक्षम हो जाना चाहिये। वास्तविकता यह है कि पहली बार जो उन्हें हिमालय पर गया बताया गया है, वह अतिशयोक्ति है। सागर संतरण में ही उन्हें बहुत समय लग गया था जबकि लंका से तो हिमालय बहुत दूर है तथा वहाँ तक पहुँच कर लौटने में जो समय लगता, वह दोनों भाइयों एवंं सैन्य हेतु घातक होता। जैसा कि महाभारत के रामोपाख्यान में एवं रामायण में ही दूसरी बार के समय संकेत है, वह कोई बहुत दूर नहीं गये थे। पहली बार की यात्रा को सागर संतरण के समान ही काव्य युक्तियों से दैवीय बना दिया गया है।
यही स्थिति लंकादहन की भी है। जब दोनों भाई मूर्च्छित थे, तब लंकादहन का एक प्रसंग मिलता है जोकि स्वाभाविक है कि सेना थी, परिस्थितियाँ वैसी थीं, विविध यूथप थे, लंकादहन सामान्य था। हनुमान द्वारा लंकादहन में भी अतिशयोक्तियाँ हैं। यहाँ तक कह दिया गया है कि विभीषण का प्रासाद छोड़ उन्होंंने अन्य सभी राक्षसों के घर जला दिये मानो उन घरों पर नामपट्टिकायें लगी थीं! रामायण विविध स्तरों में परिवर्द्धित हुआ तथा उनके इसी प्रकार अंत:प्रमाण मिलते जाते हैं। सुंदरकाण्ड में तो चालिस के लगभग श्लोकों को चमत्कारपूर्ण वर्णन को स्थान देने हेतु यथावत दुहरा दिया गया है!
औषधियों को लाने जाने हेतु हनुमान की छलांग कोई बहुत लम्बी नहीं है, न कालनेमि है, न भरत द्वारा हनुमान पर प्रहार। हनुमान उचक कर मात्र एक श्लोक में वहाँ पहुँच जाते हैं। उस शैल का नाम था - ओषधिपर्वत। ऐसा पर्वत जहाँ औषधियों का प्राचुर्य था।
सौम्य शीघ्रमितो गत्वा शैलमोषधिपर्वतम्
पूर्वन् हि कथितो योअसौ वीर जाम्बवता शुभः
दक्षिणे शिखरे तस्य जातामोषधिमानय
विशल्यकरणी नाम विशल्यकरणीन् शुभाम्
संजीवकरणीं वीर संधानीं च महौषधीम्
संजीवनार्थं वीरस्य लक्ष्मणस्य महात्मनः
इत्येवमुक्तो हनुमान्गत्वा चौषधिपर्वतम्
चिन्तामभ्यगमच्छ्रीमानजानंस्ता महौषधीः



शब्दविशारद यूथपति डॉक्टर सुषेण द्वारा लक्ष्मण का चिकित्सकीय परीक्षण
(देहलक्षण व मनोविज्ञान, बंधु का self-suggestion द्वारा प्रबोधन) 
राममेवं ब्रुवाणं तु शोकव्याकुलितेन्द्रियम् 
आश्वासयन्नुवाचेदं सुषेणः परमं वचः
शोक से व्याकुलइंद्रिय हुये राम को आश्वस्त करते हुये सुषेण ने कहा -
त्यजेमां नरशार्दूल बुद्धिं वैक्लब्यकारिणीम्
शोकसंजननीं चिन्तां तुल्यां बाणैश्चमूमुखे

हे नरसिंह! बुद्धि पर क्लैब्यता लाने वाली इस चिंता का त्याग करें जो शोक की कारक है तथा युद्ध में बाण के समान ही घातक है।
[अब शब्द प्रयोगके साथ देखें]
नैव पञ्चत्वमापन्नो लक्ष्मणो लक्ष्मिवर्धनः
नह्यस्य विकृतं वक्त्रं न च श्यामत्वमागतम्

पञ्चत्वम्‌ उसे कहा जिसमें आप की देह के पाँच तत्त्व अपने मूल में लीन हो जायें - मृत्यु। लक्ष्मिवर्धन कहा कि लक्ष्मण तो जीवनशक्ति को बढ़ाने वाले हैं। [एक अन्य निरूपण सीता को लक्ष्मी का रूप मान कर हो सकता है। वन में रहते हुये लक्ष्मण ने सीता की सेवकाई की थी, वे नहीं रहते तो सीता हेतु वन बहुत दुष्कर होता]
लक्ष्मण की मृत्यु नहीं हुई है, उनका रूप विकृत नहीं हुआ है, न ही उसमें मृत्युजनित कालिमा है।
सुप्रभन् च प्रसन्नं च मुखमस्याभिलक्ष्यते 
पद्मरक्ततलौ हस्तौ सुप्रसन्ने च लोचने
[सब ने वह स्तोत्र तो सुना ही होगा - प्रसन्नवदना सौभाग्यं ... । लक्ष्मी का एक नाम है रम्य मुख वाली। पहले लक्ष्मिवर्धन कहा, अब प्रसन्नं च कहते हैं]उनके मुख पर कांति है, वह रम्य है। पञ्जे कमलदल के समान आरक्त हैं (उनका वर्ण मलिन नहीं हुआ) और आँखें भी सुप्रसन्न हैं।
नेदृशं दृश्यते रूपं गतासूनां विशां पते
विषादं मा कृथा वीर सप्राणोऽयमरिंदम
[गतासून शब्द का प्रयोग देखें कि भगवद्गीता में भी भगवान कहते हैं - गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति। मृत्यु हेतु यह शब्द प्रयुक्त । राम 'विशां पते' हैं। विश्‌ बहुत पुराना शब्द है, जब जनसाधारण को विश्‌ कहा जाता था। वैश्य इसी से है। आरम्भ में समस्त जन वैश्य, उनमें से रक्षा हेतु निकले राजन्य क्षत्रिय और जटिल होते समाज व राजकर्म को दिशा देने हेतु हुये ब्राह्मण। श्रुति इसी को संकेतरूप में कहती है, ऋग्वेद से वैश्य, यजुर्वेद से क्षत्रिय और सामवेद से ब्राह्मण। साम बहुत ही विकसित व सूक्ष्म दशा है, जब केवल वाणी से ही नियन्त्रण व दिशा का बोध कराया जा सके। अस्तु। तो विश्‌ कहते हैं प्रजा को, प्रजा कहते हैं संतान को, राम को कौसल्या-सु-प्रजा कहा गया है। राजा हेतु समस्त प्रजा संतान की भाँति होती है। विशाम्‌ पते प्रजा को संतान के समान समझने वाला प्रजा का पति अर्थात राजा। राम को इस सम्बोधन द्वारा सुषेण उनके कंधों पर महत दायित्व का बोध कराते हैं।]हे राजन्, मृतक का रूप ऐसा नहीं दिखता।
हे अरिंदम अर्थात शत्रुओं का दमन करने वाले (पुन: एक वैद्य का मनोवैज्ञानिक संकेत कि अभी तो शत्रु बचे हुये हैं, ऐसी दशा को प्राप्त होंगे तो उनका दमन कैसे करेंगे?) लक्ष्मण प्राणयुक्त हैं। आप विषाद न करें। विषाद वह अवस्था है जब आप का नियंत्रण समाप्त हो जाता है। यह सामान्य दु:ख नहीं है। इस शब्द का प्रयोग भी संकेतक है।
आख्याति तु प्रसुप्तस्य स्रस्तगात्रस्य भूतले
सोच्छ्वासं हृदयं वीर कम्पमानं मुहुर्मुहुः

[इतना कहने के पश्चात चिकित्सक स्पष्ट लक्षणों की बात करता है। आख्यातो शब्द पर ध्यान दें, आज भी उत्तरप्रदेश में सरकारी शब्दावली का अङ्ग है - जाँच कर अपनी आख्या प्रस्तुत करें। आख्यान होता है आँखों देखी कहना, साक्षी हो कर कहना। रामायण और महाभारत आख्यान कहे गये, किसी अन्य शास्त्र को यह पद नहीं दिया है, इस कारण ही ये इतिहास हैं - इति ह आस - ऐसा ही हुआ!]
भूमि पर पड़े प्रसुप्त वीर लक्ष्मण की हृदय की मुहुर्मुह अर्थात रह रह होने वाली धुकधुक और स+उत्‌+श्वास = सोच्छवास, आती जाती साँसें अपनी आख्या प्रस्तुत कर रही हैं [कि लक्ष्मण अभी भी लक्ष्मीवर्द्धन हैं, जीवित हैं।]
सुषेण ने मृत्यु शब्द का प्रयोग तक नहीं किया।
[विचार करें कि यहाँ तो शुभ कहना था कि आहत को कुछ नहीं हुआ, तब देश, काल व परिस्थिति को देखते हुये शब्दों पर इतना ध्यान है, अशुभ समाचार सुनाते समय चिकित्सक डॉक्टर किस प्रकार की मानसिक दशा में होते होंगे! डॉक्टरों का सम्मान न करें, न हो पाये तो कटु न बोलें, अपमान न करें।
थूकने व मारने पीटने का निषेध नहीं कर रहा क्योंकि वैसा तो मुसलमान करते हैं, मनुष्य सोच भी नहीं सकते!]
केवल अनुवाद में बात बहुत ही सपाट हो जाती न? मूल शब्द महत्त्वपूर्ण हैं। संस्कृत का प्राथमिक ज्ञान प्रत्येक सनातनी हेतु आवश्यक है। सीखें।
यज्ञ परम्परा और जाली उत्तरकाण्ड 
रामायण का अंतिम युद्धकाण्ड श्रीराम द्वारा अनेक पौण्डरीक, वाजपेय, अश्वमेध एवं अन्य यज्ञों के किये जाने की सूचना देता है जिनमें अश्वमेधों की संख्या सौ है। युद्धकाण्ड में राजसूय करने का नाम से उल्लेख नहीं मिलता।
ध्यातव्य है कि आधुनिक काल में भी ये यज्ञ विविध श्रोत्रियों एवं यजमानों द्वारा सम्पन्न किये जाते रहे हैं। राजसूय कोई नहीं करता।
राजसूय का लिखित प्रमाण युधिष्ठिर से लेकर कन्नौजाधिपति जयचंद्र तक मिलता है। अश्वमेध आदि के भी प्रमाण बिखरे पड़े हैं।
जाली उत्तरकाण्ड में श्रीराम राजसूय करने का प्रस्ताव करते हैं जिसका भरत द्वारा निषेध किया जाता है। वह कारण बताते हैं - राजन्य हानि, पृथिव्यां राजवंशानां विनाशो अर्थात धरती से राजाओं का नाश हो जायेगा।
यह उस पौराणिक अंधविश्वास की प्रतिध्वनि है जिसके अनुसार युधिष्ठिर द्वारा राजसूय किये जाने के कारण ही महाभारत का महाविनाश हुआ।
पुराणों में ही कलियुग में राजसूय सहित अश्वमेधादि का भी निषेध मिलता है जो कि स्पष्टत: अर्वाचीन है। इसके कारण जनमेजय एवं वैशम्पायन के विवाद से जुड़ते हैं जिसमें याज्ञवल्क्य द्वारा शुक्ल यजुर्वेद (वाजसनेयी) आधारित समांतर यज्ञ परम्परा का आरम्भ व जनमेजय द्वारा उसका समर्थन भी कारक रहे। उत्तर भारत में आज भले वाजसनेयी अधिक मिलेंगे किंतु कभी उन्हें तिरस्कार से देखा जाता था। वाजसनेयियों का उत्कर्ष भार्गवों के अपकर्ष से जुड़ा है। अस्तु।
राजसूय अपेक्षतया नया यज्ञ प्रतीत होता है जो अश्वमेध के विकल्प में किया गया होगा। ध्यातव्य है कि इसमें क्षत्रिय का स्थान ब्राह्मण से ऊँचा होता है।
राजसूय का भरत द्वारा विशेष निषेध यह दर्शाता है कि उत्तरकाण्ड कालांतर में जोड़ा गया। कब जोड़ा गया?
यह प्रश्न शोध की माँग करता है किंतु अनुमानत: इसे उत्तर भारत में वर्द्धनों की शक्ति क्षीण होने के उपरांत जोड़ा गया माना जा सकता है जिसकी पुष्टि उत्तरकाण्ड की भाषा और शब्द भी करते हैं। जयचंद द्वारा शताब्दियों पश्चात राजसूय आयोजन उनकी शक्ति, प्रभाव और समृद्धि को दर्शाता है, साथ ही भाँड़ चंद्रबरदाई द्वारा प्रतिक्रिया में खल चित्रण भी वैसा ही है जैसा श्रीराम के चरित्र को कलंकित करने के लिये उत्तरकाण्ड का प्रणयन।
उत्तरकांडी अश्वमेध आयोजन भी उसके क्षेपक होने की पुष्टि करता है। जहाँ युद्धकाण्ड सौ अश्वमेधों का उल्लेख करता है, वहीं उत्तरक्षेपक में एक अश्वमेध में ही सब काण्ड हो जाते हैं।
अश्वमेध का अश्व श्वेतवर्णी होना चाहिये जिसके मस्तक पर कृष्णकेश चित्ति हो किंतु उत्तरक्षेपक का अश्व पूरे काले रंग का है। यह तथ्य भी किसी अन्य धारा द्वारा इसे जोड़े जाने की ओर संकेत करता है।
[दक्षिण भारत में ऐसे विद्वान मिल जायेंगे जो ब्राह्मणों पर मांसभक्षण निषेध का एक रोचक कारण बताते हैं। उनके अनुसार यज्ञ में मंत्रपूत (प्रोक्षण क्रिया) पशु की बलि का मांस ब्राह्मण ग्रहण करते थे, अन्य नहीं। कलियुग में उन यज्ञों का निषेध होने के कारण उनके द्वारा मांसभक्षण को सामान्य नियम से निषिद्ध कर दिया गया, यज्ञ होंगे ही नहीं तो मांस मिलेगा कैसे? इसकी कड़ी भी वैशम्पायन द्वारा जनमेजय को शापित किये जाने से जुड़ती है। एक बात और ध्यान देने की है, उत्तर भारत में कृष्ण यजुर्वेदियों को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता। यजुर्वेद की पुरातन मूल धारा कृष्ण थी जिसमें मंत्र भाग व ब्राह्मण भाग मिश्रित थे।]