शनिवार, 22 सितंबर 2012

लंठ महाचर्चा : बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 18

पिछले भाग से आगे ...

(ल)
माघ पुर्नवासी का दिन बड़ा सुहावन था। सग्गर सिंघ के आदि पुरखे आसमान में ऊँचे चढ़ आये थे। गुनगुने घाम की गरमी सुखदायी थी। एक ओर सईस, दूसरी ओर भचकता जुग्गुल और आगे पगहा थामे बैपारी दूर से आते दिखे। उनके बीच में चलता घोड़े का बच्चा पड़वे जैसा लगा तो नमो नरायन कहते हुये सग्गर बाबू ने आसमान की ओर देखा। चमकते पिंड में उन्हें बाप की अंगुली पकड़ घोड़ा सवार रैवत देवता दिखे और वे निहाल हो गये। मंगलम मंगलाय जैसा कुछ बुदबुदाते हुये चौकी पर पालथी मार राजमुद्रा में सीधे हो गये। गोंयड़े के मेड़ तक आते आते घोड़ौना के पीछे उत्सुक भीड़ जुट चुकी थी नाक पोंछते आपस में खोदा खोदी करते बच्चे, चुप निहारते कुछ मनई और रह रह पल्लू सँभालती रमयनी काकी। जंत्री सिंघ ने गौर किया कि घोड़ौना चितकबरा था उज्जर करिया।
सामने पहुँच कर बैपारी ने बाकायदे सलामी बजाई। मगन सग्गर सिंघ ने पुकारा ए मन्नी बाबू! हे आव! और जनावर को निहारने लगे। मन्नी बाबू यानि बाल गोपाल मान्धाता सिंह उछलते कूदते आये तो लेकिन घोड़ौना और भीड़ को देख कुछ सहम से गये। उसका पूरा सिर काला था लेकिन मस्तक पर एक गोलाकार भाग उजला था जंत्री सिंघ ने रुख फेर लिया। चेहरे पर ईर्ष्या की राख पुत गई थी और मन में गाली चूतियन के भागि बड़वार!
बच्चे को गोद में उठा कर सग्गर सिंघ थोड़ा झुक कर उसका हाथ घोड़े के मस्तक पर लगाये तो वह चिहुक कर पीछे हटा लेकिन बच्चे को मजा आ गया। मन्नी बाबू ताली पीट खिलखिलाने लगे जिसे ओट से निहारती उनकी महतारी ने सुभ सगुन समझा। जुग्गुल के थरिया आज रोटी दूध का खास होना पक्का हो गया खोआ आ सोहारी!
मन्नी के हाथ में गुड़ का छोटा सा टुकड़ा दे घोड़े को खिलाने को कहा गया लेकिन घोड़े ने मुँह फेर लिया। बैपारी ने हाथ जोड़ कर अर्ज किया मालिक! बहुते भागि ले के ई रउरे दुआरे आइल बा। एकर ठीक से देख भाल करब। हमार बिदाई आ सिरफल देईं, अब हम चलीं। बैपारी के हाथ में सिरफल थमाते सग्गर बाबू ने घोड़े का नामकरण किया चित्तनसिंघ, चितकबरा तन और चेतन मन।
सिंघ लगा कर उन्हों ने घोड़े को परिवार का अंग बना लिया था जिसे घर वालों से अधिक पट्टीदारों और गाँव वालों को समझना था कि सींघधारीइस चितकबरे घोड़े की इज़्ज़त कैसी होनी चाहिये।
उठते हुये जंत्री बाबू ने मुस्कुरा कर सग्गर से आँखें चार कीं और जमीन पर एँड़ी घुमा कर गोला सा बनाया जैसे बड़े प्यार से किसी को कुचल रहे हों। उस समय जुग्गुल मन्नी को घोड़े पर बिठा कर एँड़ लगाने के लिये इशारे से बताने की कोशिश कर रहा था और सँभालता सईस मुहम्मद उर्फ मद्दी मियाँ उसे बरज रहा था।

पिछवुड़ होते ही रमयनी काकी बुदबुदाई मिलजुमला रंग माने गरहन!

(व)
भउजी भोर का सपना देख रही है बिसाल समुन्दर में वह डोंगी असवार है। जटा लटा धरे फटहा जोगी खेवनहार है और डोंगी सरर सरर बही चली जा रही है। आकाश में सूरुज देव भी हैं और जोन्ही भी। चन्दरमा अस्त हो रहे हैं। उनके नीचे उतरते ही जोगी उसकी ओर दौड़ा है। भौजी को डर लगने लगा है। डोंगी तेजी से नीचे बैठने लगी है जैसे समुन्दर का पानी खतम हो रहा हो! भउजी ने जोगी को लात मारी है परे हट! कि ठक्क! डोंगी बैठ गई है। नीचे बैठकी की छान्ह है और नीचे गिरा जोगी किसी छाया से छीना झपटी कर रहा है। अरे! ऊ त हमार सुग्गा हे! अबहिन त जनमो नाहिं भइल!!
आतंकित भउजी चीख कर जाग गई। ढेबरी जल रही थी और गुमसुम सोहित उसे निहारे जा रहा था।
बबुना! ई का?”
चोरी पकड़ी गई, सोहित मारे डर के भागता सा घर के बाहर हो गया। पता नहीं क्या सोच भउजी खुश हो गई। ढेबरी ले जँतसार में प्रवेश कर गई और हर हर आवाज़ के साथ जाने कौन किसिम का गीत पिसने लगा:
हे सइयाँ चँवरे पूरइन बन फूले, एगो फुलवा हमार हे
लाउ सइयाँ फुलवा आनहु जाई, पाँखुर जइहें कुम्हलाइ हे
पाँखुर भीतर कार भँवरवा, लीहें रस रसना लगाइ हे
हे सइयाँ फुलवा महादेव देवता, पाँखुर गउरा सराहि हे!

फुलवा कौन, सइयाँ कौन? भँवरा कौन, महादेव कौन, गौरा कौन? लेकिन अबूझ गीत के पीछे जो स्वर था उसमें आह्लाद, ममता और पीर के ऐसे मिले जुले गहरे भाव थे कि दिसा मैदान को जाते खदेरन के पाँव ठिठक गये। सामने डाल पर गुरेरवा उन्हें घूरे जा रहा था। छू कह कर उन्हों ने बाँया हाथ हवा में चलाया कि पीछे से जुग्गुल ने पुकारा अरे ए तरे नाहिं भागी पंडित! सार बड़ा हरामी हे! ढेला फेंकते जुग्गुल को देख खदेरन को लगा जैसे खुद उन्हें और जुग्गुल को उल्लू की आँखें लग गई थीं लेकिन दोनों स्थिर बैठने के बजाय अन्धेरे होड़ में अनजान राह भागे जा रहे थे जिसका कोई अंत नहीं था, कोई नहीं!

भउजी ने आखिरी गाया:
दुसमन फुलवा खाँच भर दुनिया, आनहु देवता दुआर हे!
और जाँत की हर हर बन्द हो गई, देवता जो जाग गये थे!


मंगलवार, 18 सितंबर 2012

दो लम्मर बाति

लम्मर - 1 
"अबे चिरकुट! खुद की प्रशंसा भी न कर सकूँ तो दूसरे की क्या खाक कर पाऊँगा? व्यक्तित्त्व विकास का पहला कदम है - आत्मप्रशंसा और दूसरा है - फेसबुक।"
"उसके आगे कुछ नहीं?"
" तीसरा कदम लेते ही मनुष्य वामन से अवतार हो जाता है और संसार 'असार' या 'वामन'!"
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लम्मर - 2

लोक और देसज प्रभाव के कारण हुये विपर्यय का अपना सौन्दर्य होता है। 'चहुँपने' में जो बात है वह 'पहुँचने' में नहीं! आखिर वर्णमाला में 'च' 'प' के पहले जो आता है। लोक को भले वर्ण क्रम न पता हो लेकिन ऐसे संस्कार कर ही देता है चाहे शब्द बाहर से ही क्यों न आया हो? 
आप लोग विपर्यय के कुछ ऐसे उदाहरण बता सकते हैं 'नखलऊ' के अलावा! वह मुझे पता है।
'पहुँच' देसज शब्द है या 'अरबी', 'फारसी', 'तुर्की' आदि मूल का?

बुधवार, 12 सितंबर 2012

रघुवीर बाबू बच गये थे! अरे अपने सहाय जी!!

हम अपनी ओर से कुछ नहीं कहेंगे, न जोड़ेंगे, न घटायेंगे। आप लोग खुदे समझिये और समझाइये:

राष्ट्रगीत में भला कौन वह

भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है।


मखमल टमटम बल्लम तुरही

पगड़ी छत्र चँवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है।


पूरब-पच्छिम से आते हैं

नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा, उनके
तमगे कौन लगाता है।


कौन-कौन है वह जन-गण-मन-

अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज़ बजाता है।
******


ई हमार रचल नाहिं, रघुवीर सहाय के रचल हेs।
ए हरचरना! पढ़ु जोर जोर से!
ऐ सँवारू, रटि लs, अगिला विधान दिवस पर गा के सुनइहs। 

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

कोणार्क सूर्य मन्दिर - 18 : पश्चिमी तट से विदिशा की ओर ...

भाग 1,  2345678910111213141516 और 17 से आगे... 


पश्चिमी तटक्षेत्र का विशाल भूदृश्य है। एक कैनवस जिसमें मैं साक्षी हूँ, कोने पर स्थिर, नभ निहारता तूलिका के दो तीन स्पर्श भर अस्तित्त्व हूँ। जहाँ बैठा हूँ, चट्टान नहीं झूलता कालखंड है। नभ की नीलिमा विलुप्त है। साँवरे कारे मेघ घिरते नीचे उतर आये हैं। दृष्टिपटल पर दूर लघु पर्वतमालाओं का आभास है। मुझे लगता है कि धरा से क्षितिज छिन चुका है।

 निर्जन एकांत में कहीं से उमस भरी गहिमणी गीली पुकार उभरी है – तुम हो? स्वरहीन महीन झींसे की झीनी तैरती सी बूँदें काँप काँप मुझे घेरने लगी हैं – तुम हो?
‘नहीं, मैं नहीं हूँ ... यहाँ नहीं हूँ, दूर पूर्वी तट पर हूँ।‘
मौन भर पुलकित धीमी हँसी। गीली झीनी कँपकँपाती अदृश्य बूँदे, भीगती देह और नभ में छाने लगे हैं कितने घुले वर्ण – गैरिक, रक्त, पीत, केसर। चन्द्रभागा के प्रात:कालीन तट की स्मृति हो आई है... ईर्ष्यालु बूँदे सिमट गईं।
 मेघों के पीछे से प्रभापुरुष झाँक रहा है ... हविषा विधेम! चित्र स्थिर है। यह लाली! अरुणोदय है क्या?
‘नहीं, तुम विक्षिप्त हो!’
काले मेघ नहीं, ये बेचैन प्रश्नों के अंधेरे हैं। इतने बड़े विद्रोही निर्माण में इतना सरल आयोजन कि विषुव दिनों में प्रात: के कुछ क्षणों तक रश्मियाँ गर्भगृह के अंधेरे तक पहुँचें? ऐसा तो मोदेरा के सूर्यमन्दिर और दक्षिण के पूर्वाभिमुख कई मन्दिरों में होता है, अर्कक्षेत्र के मित्रवंशी इतने से ही संतुष्ट हो गये होंगे?
बाहर का झुटपुटा वैसे ही है लेकिन भीतर अचानक उत्तरों के प्रकाशपुंज दीप्त हो उठे हैं।
मुझ मनुष्य पर भारी घिर आये गज स्वरूप मेघ और उन पर सवारी गाँठता नरसिंह स्वरूप सूर्य! - कोणार्क में आगंतुकों का स्वागत करती सिंहद्वार की विशाल नर-गज-सिंह प्रतिमायें।
अरुणोदय -  अब जगन्नाथ पुरी के पूर्वी द्वार पर विराजमान कोणार्क से ले जाया गया अरुण स्तम्भ।...मन्दिर नहीं रे! वह विशाल छायायंत्र था!! शंकुयंत्र। संक्रांतियों और सूर्यगतियों के प्रेक्षण की धर्म वेधशाला थी वह!
अरुण स्तम्भ ही नहीं विमान का शिखर, पीछे कोने पर बना रहस्यमय छायादेवी का मन्दिर, रथाकार मन्दिर के पहिये, सब, सभी सौर प्रेक्षण के यंत्र थे। अंशुमाली सूर्य का महागायत्री महालय आराधना स्थल के अतिरिक्त वेधशाला भी था। रथाकृति में बने महागायत्री महालय के 6,4,2 के युग्म में स्थापित 24 पहिये कालगति के प्रतीक हैं।
..तट की चट्टान तपने सी लगी है, पाँवों के नीचे कालचक्र उग आये हैं। भागते हुये अपने कक्ष में पहुँच कर मैंने संगणक को ऑन कर दिया है - इंटरनेट और साइट www.sunearthtools.com। यहाँ मैं सूर्य की गति को, छायाओं को, रश्मियों को वर्ष के किसी दिनांक और किसी समय पर देख सकता हूँ। Konark sun temple टंकित कर ध्वंसावशेषों में प्रवेश कर गया हूँ। मेरे साथ हैं – प्रो. बालसुब्रमण्यम, एलिस बोनर, के. चन्द्रहरि, सदाशिव रथ और उनके कई शिष्य।

काल और स्थान की सीमायें छिन्न भिन्न हो गई हैं। वे सभी मुझे  पकड़ कर पश्चिमी तटक्षेत्र से दूर उज्जयिनी क्षेत्र की ओर ले उड़े जा रहे हैं। उस क्षेत्र में लगभग कर्क वृत्त पर पड़ती है विदिशा नगरी – अक्षांश 23° 32' 0" उ., देशांतर 77° 49' 0" पू.।

मेरी उलझन को भाँप कर प्रो. बालसुब्रमण्यम ने बताया है – कोणार्क के ध्वंशावशेषों में शंकुयंत्र का सन्धान करने से पहले वह तो देख लो जो अभी भी ध्वस्त नहीं हुआ है, जहाँ विष्णुस्तम्भ वैसे ही है जैसे लगा था। हाँ, उसमें भी अष्टकोण और षोडषकोण हैं जैसे तुम्हारे कोणार्क के अरुण स्तम्भ में हैं। प्रोफेसर ने ‘तुम्हारे’ पर वात्सल्य भरा जोर दिया है। मैं मान गया हूँ। 
 (जारी) 

                           

शनिवार, 8 सितंबर 2012

मनधुन/प्रश्न एक, दो, तीन ....ऐंवे, गैंवे, सैंवे :)

(1)  खंडवा जिले में नर्मदा नदी पर बने ओंकारेश्वर बांध के जलाशय के पानी में डूबने के खतरे को भाँप कर ग्रामीणों का अनूठा विरोध आन्दोलन कितने ही सप्ताहों से जारी है और मीडिया या अखबारों की चुप्पी/चलताऊ उल्लेख भी जारी हैं। मुझे यह स्वीकारने में झिझक नहीं कि मेरा विश्वास उठ चुका है और धीरे धीरे मैं किसी निहायत ही नकारात्मक परम सत्ता के अस्तित्त्व में विश्वास करने लगा हूँ। 
लिखने को बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन क्या होना उससे? अब तो अपने आप पर भी शक़ होने लगा है। किसानों और ग्रामीणों की पीड़ा को मेरा समर्थन है। शायद किसी कोने कहीं सत् शक्ति कुछ कर दे! 
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(2) ये फालतू का गाना और फोटो सोटो देखना छोड़ दो। अब अधेड़ हो गये हो। थोड़े गम्भीर बनो। ...गम्भीर कैसे बना जाता है?

(3) साँभर, उपमा आदि दक्षिण भारतीय व्यंजनों में पड़ने वाले कड़ी पत्तों को खा लेना चाहिये या थाली प्लेट में किनारे टरका देना चाहिये? अधेड़ हो गये लेकिन अभी तक किसी से पूछने का साहस नहीं कर पाये।

(4) वाश बेसिन होते हुये भी फिंगर बाउल यानि गरम पानी में निचोड़े नींबू में हाथ डाल धोने का क्या मतलब? गुद्दी चिरई गरम धूल में लोटती हो...कुछ वैसा! अगर उस पानी को पी लें तो पाचन और मुख शुद्धि की दृष्टि से कैसा रहेगा? ... आज पूछ ही लेता हूँ। 

(5) गंजा पुरुष आईने में इतनी देर क्या निहारता है? वह सिर पर हाथ क्यों फेरता रहता है? ... अपन भी उस श्रेणी में आ चुकने वाले यानि आसन्न हैं। जानना और सीखना आवश्यक है। 

(6) नाक में उंगली करने के बाद लोग बिना हाथ धोये किसी से हाथ कैसे मिला लेते हैं? हाथ जोड़ कर बिना स्पर्श किये नमस्कार की प्रथा का व्यक्तिगत सफाई से कोई सम्बन्ध है क्या?  

(7) किसी विषय में किस स्तर तक डूबना उचित है? स्तर के कितने स्तर होते हैं? नाक के ऊपर कौन सा स्तर आता है?
किस स्तर तक पहुँचने के पश्चात मनुष्य पागल घोषित कर दिया जाता है?

(8) क्या सुरूप नहीं होने का दुष्टता से कोई सम्बन्ध है? अब तक के अनुभवों से मुझे लगता है कि कोई सम्बन्ध नहीं है। फिर अक्सर फिलम सिलम में खलनायक अमूमन कुरूप अजीब सजीब टाइप के ही क्यों होते हैं? अगर ठीक ठाक होते हैं तो हरकतें अजीब सी क्यों करते दिखाये जाते हैं?

(9) अपनी बड़ाई सुन कर मनुष्य लजाने क्यों लगता है? इसमें लजाने की क्या बात होती है - बड़ाई या सुनना या कहने वाले की निर्लज्जता?
कुछ लोग लजाते हैं, कुछ फूल कर कुप्पा हो जाते हैं लेकिन असहजता सभी दर्शाते हैं। यह सीखा हुआ व्यवहार है या नैसर्गिक? 

(10) सुन्दर व्यक्ति को देखने और सराहने के बीच जाने कब 'घूरना' घटित हो जाता है! क्यों होता है? वह व्यक्ति मन ही मन सराहे जाने की सराहना करने के बजाय असहज क्यों अनुभव करने लगता है?
साथी संगी टोकने क्यों लगते हैं?

(11) मेरे WOW! और बाकियों के WOW!  में इतना अंतर क्यों होता है? माने ये कि जिस पर मैं करूँ उस पर सब सन्नाटा और जिस पर बाकी करें उस पर मैं सन्नाटा! सबके लिये समान WOW कितने होंगे? अनुमान भर? 

(12) जिसका आना पसन्द न हो या किसी समय उससे बात करना भी न पसन्द हो तब भी कोई हँसते, मुस्कुराते, आत्मीयता दिखाते कैसे बतिया लेता है? अगर कर भी लेता है तो छूटते ही नाक भौं सिकोड़ गरियाता क्यों है?

(13) हमेशा विस्मयबोधी और जोरदार प्रशंसा को ही क्यों सम्मान दिया जाता है? ऐसी छोटी छोटी बातें चोटिल सी क्यों लगती हैं?

(14) रंगों को कूटबद्ध किया जा चुका है। कोड लिख कर कोई रंगविशेष सृजित किया जा सकता है। स्वाद के भी कमोबेश कामचलाऊ भेद उपलब्ध हैं लेकिन गन्ध के मामले में मामला आदिम सा क्यों है?
कोई गन्ध किसी को सुगन्ध लगती है तो दूसरे को दुर्गन्ध या असहनीय। और तो और मैंने लोगों को नाभि में अंगुल कर उसे सूँघते देखा है।
 क्या दुर्गन्ध भी प्रिय हो सकती है या किसी को अच्छी लग सकती है?
या इस व्यवहार के पीछे गन्ध की उस नैसर्गिक समझ के अवशेष हैं जो कुछ पशु प्रजातियों में अभी भी  पाई जाती है?
Aroma का हिन्दी समानार्थी शब्द क्या है? 
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कई दिनों से इस मन्दिर ने उलझा रखा है। 
सौर और शाक्त परम्पराओं का सम्बन्ध बड़ा ही रहस्यमय है। शाक्त मत के मन्दिर पुरुष प्रधान मन्दिर वास्तु और शैली से एकदम भिन्न बनाये जाते थे। उनके प्रतीक और अर्थ भी भिन्न होते थे। प्राय: ऊँचे निर्जन स्थानों पर बने ये मन्दिर खगोलीय प्रेक्षणों और शिक्षण के लिये भी प्रयुक्त होते थे। आश्चर्य होता है कि एक ही स्थान पर निषिद्ध वाममार्गी साधना और ज्योतिर्विद्या साथ साथ सधते थे। आश्चर्य नहीं कि खगोल विद्या के साधकों को भी निकृष्ट कोटि में रख दिया गया। 
मितावली के इस चौसठ योगिनी मन्दिर को देखिये। भारतीय संसद का भवन इससे प्रेरित लगता है कि नहीं? यह बात अलग है कि संसद ज्योतिर्विद नहीं स्वार्थ में अन्धों से भरी है जिनकी एकमात्र साधना स्वार्थ साधना है। 

और अंत में उलूकता: 

सीताराम, सीताराम।