शनिवार, 24 सितंबर 2016

चीनी घेरा CPEC और विकासवादी खादी

कुछ संयोग जो संयोग लगते नहीं!
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(1) इस्लाम आधारित विभाजन के दौर में कश्मीर का मुद्दा राष्ट्रसंघ में ले जाया गया। कब्जे वाली भूमि पाकिस्तान की हुई।

(2) नदी जल बँटवारे की सन्धि कर पाकिस्तान को सदा के लिये निश्चिंत कर दिया गया।

(3) चीन ने आक्रमण कर अक्षय चिन अपने अधिकार में किया। तिब्बत पहले ही अधिकृत किया जा चुका था।














(4) पाकिस्तान ने कराकोरम क्षेत्र की कुछ भूमि चीन को दे दी।


(5) तिब्बत को काट छाँट कर कुछ भाग स्वायत्त बना कर बाकी चीन में मिला लिया गया। अब चीन की पाकिस्तान तक  पहुँच  थल मार्ग से सुनिश्चित हो गयी।





(6)  इसके साथ ही चीन कराकोरम मार्ग के काम पर लग गया।

पाक अधिकृत कश्मीर और बलूचिस्तान के रास्ते अरब सागर के पत्तन तक अपनी पहुँच सुनिश्चित करने के लिये चीन ने एक बहुत ही महत्त्वाकांक्षी योजना बनाई है CPEC (China Pakistan Economic Corridor)। तेल और अन्य व्यापारिक सहूलियतों के कारण चीन को भारी लाभ होगा। बचत का कुछ भाग पाकिस्तान में आधारभूत ढाँचे के विकास में लगाया जायेगा।

... और हम सिन्धु जल बँटवारा समझौते को सँजोते मोहनदासी चरखे पर बुनी विकासवादी खादी के उत्पादन से पुन: 'पंच'शील राष्ट्र बनने के लिये प्रयास करते रहेंगे। एक दिन 'अब्राहमियों के वर्चस्व की लड़ाई का क्षेत्र' कब बन जायेंगे, पता ही नहीं चलेगा।

लगभग सभी बहुराष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद जैसे लैपटॉप, टैब, मोबाइल आदि चीन में बनते हैं, उनसे आप बच ही नहीं सकते। उनसे हानि नहीं, आप के देश को कराधान से आय भी होती है, वैध राह से आते हैं।

हानि उन कचरा उत्पादों से है जो अवैध राह से आ कर अर्थव्यवस्था को पंगु बना रहे हैं और देसी उद्यमों को मिटा रहे हैं। उन्हों ने आप के घर और हर पर्व पर कब्जा जमा लिया है। उदाहरण के लिए पिचकारी, रंग, अबीर, दीपक, मोमबत्ती, पटाखे, खिलौने, मच्छरमार, स्टेशनरी आदि आदि। इनका बहिष्कार कीजिये। नागरिक के तौर पर यह न्यूनतम है जो किया जा सकता है, सरकार तो जो है, हइये है! 

रविवार, 18 सितंबर 2016

रामायण से दो कथायें: गङ्गावतरण और कार्तिकेय जन्म

(1) गङ्गावतरण:   
सगर=स+गर, जो गर यानि गरल (विष) के साथ उत्पन्न हुआ हो।
गर्भ में ही थे तो विमाता ने माता को (गर्भपात कराने हेतु) विष दे दिया। घबरायी माँ गयी भृगुकुल - क्या होगा मेरे गर्भ का भविष्य?
"जाओ रानी, तुम्हारे पुत्र को कुछ नहीं होगा। वह प्रतापी विष के साथ ही जन्म लेगा, सगर कहलायेगा।"
.... 
सगर की दो रानियाँ - विदर्भ की राजकन्या केशिनी और दूसरी गरुड़ की बहन सुमति। भृगु पुन: कथा में आते हैं -  एक को साठ हजार पुत्र होंगे और दूसरी को वंश चलाने वाला बस एक।
केशिनी को एक ही पुत्र हुआ - असमञ्ज। असमञ्ज दुष्ट अत्याचारी निकल गया। प्रजा के बालकों को पकड़ सरयू में फेंक देता, डूबते हुये आर्तनाद करते तो अट्टहास करता मोद मनाता। सगर ने उसे देशनिकाला दे दिया लेकिन वह योग्य युवराज अंशुमान के रूप में पुत्र छोड़ गया। उसके पश्चात क्षरित होते यथास्थितिवादियों और विस्तार लेती नवोन्मेषी इक्ष्वाकुओं के बीच संघर्ष प्रारम्भ हुआ।
...
 विन्ध्य और हिमवान के बीच के क्षेत्र में खनन का प्रारम्भ होता है:
विन्ध्यपर्वतमासाद्य निरीक्षते परस्परम्।
तयोर्मध्ये समभवद् यज्ञ: स पुरुषोत्तम॥
 आख्यान कहता है - यज्ञीय अश्व को इन्द्र चुरा ले गया था, उसकी खोज में ऐसा हुआ। सगर के साठ हजार पुत्र खंती, हल आदि ले 'मेदिनी' खोदने लगते हैं - खनत मेदिनीं। मेदा शरीर की एक अंतर्भाग होती है। कहते हैं कि पृथ्वी कभी मेदा से ढकी हुई थी।
खनन में क्या होता है? पूरा जम्बूद्वीप ही खोदा जा रहा है! - जम्बूद्वीपं खनंतो नृपशार्दूल सर्वत: परिचक्रमु।  देवता, नाग, यक्ष, गन्धर्व, पिशाच आदि सब मनुष्यों के इस वृहद अभियान से त्रस्त हो उठते हैं। कितने ही उनके हाथों मारे जाते हैं।
नागानां वध्यमानानामसुराणां च राक्षसानां दुराधर्षां सत्त्वानां निनदो... देवदानवरक्षांसि पिशाचोरगपन्नगा:!
वाल्मीकि लिखते हैं - वसुधा। वसुधा तो वासुदेव की महिषी है जिसकी रक्षा वह कपिल रूप धारण कर करते हैं। उनके कोप से ये दुस्साहसी भस्म हो जायेंगे, धैर्य धरो - यस्येयं वसुधा कृत्स्ना वासुदेवस्य धीमत:। महिषी माधवस्यैषा स एव भगवान् प्रभु:॥ ...
... कभी उपजाऊ रही मेदिनी अब अल्प उपजाऊ हुई पड़ी थी। सगर पुत्रों का अभियान उसके दोहन का पहला संगठित अभियान था। कपिल बहुत पुराने हैं और धरा को एक बार बन्ध्यत्त्व से मुक्त करा उपजाऊ बनाने के लिये जाने जाते हैं। राजा पृथु की सहायता से यह काम तब सम्पन्न हुआ था, धरा पृथ्वी कहलायी थी।
कपिल संरक्षित पृथ्वी के संकट से इक्ष्वाकुवंशी टकराते हैं और भस्म होते हैं। स्पष्ट है कि कपिल ने पहले जो कुछ भी किया था, वह अब पर्याप्त नहीं रह गया था। संकट सामने था। साठ हजार सगरपुत्रों की गाथा जाने कितनों के पानी के उद्योग में मर खप जाने की गाथा है।   
... अंशुमान चाचाओं को ढूँढ़ते कपिल के आश्रम पहुँचते हैं। उन्हें भस्म पा शोकग्रस्त कुमार तर्पण हेतु जल ढूँढ़ते हैं और तर्पण तक के लिये पानी नहीं! 
क्या है यह? भूजल के चुकते जाने की गाथा नहीं है क्या? कितना भी खोदो, पानी रसातल में जा चुका है, नहीं मिलने वाला!
 मृतकों के मामा गरुड़ जो कि ऊँचाई से धरा पर दृष्टि रखते हैं, कुमार को समझाने आते हैं। कहते हैं - वधोयं लोकसम्मत:। इनका वध तो लोक कल्याण के लिये हुआ है। कपिल की आग से ये दग्ध हुये हैं, इनके तर्पण के लिये लौकिक जल! कत्तई नहीं - सलिलं नार्हसि प्राज्ञ दातुमेषां हि लौकिकम्!
... और तब गरुड़ उस स्वप्न को अंशुमान की आँखों में उकेरते हैं, ऐसा स्वप्न जिसने आगामी पीढ़ियों की भी नींद उड़ा दी।
अंशुमान खप गये, उनके पुत्र दिलीप भी और बारी आई नि:संतान भगीरथ की। उन्हों ने भी पुरखों की परम्परा आगे बढ़ायी - इस स्वप्न को तो पूरा करना ही है।
क्या था वह स्वप्न, कैसे उद्योग की प्रस्तावना था?
गङ्गा हिमवतो ज्येष्ठा दुहिता पुरुषर्षभ।
तस्यां कुरु महाबाहो पितृणां सलिलक्रियाम्॥
.. कुमार अंशुमान! गंगा तो इस लोक की थी, हिमवान की बड़ी पुत्री। लोक कल्याण का बहाना ले देवता स्वर्ग ले गये। उतार लाओ उसे पृथ्वी पर, उसकी अब यहाँ आवश्यकता है। उसी के जल से तुम्हारे पितरों का तर्पण होगा।
...
पीढ़ियों तक चले उद्योग के आगे ब्रह्मा पिघले, शिव की जटायें आश्रय बनीं, गंगा का भी अहंकार चूर्ण हुआ, जटायें खुल गयीं, जह्नु का आश्रम अवरोध समाप्त हुआ। धरा को, पृथ्वी को पुन: उसका दाय मिला। पुरखे तृप्त हुये और आने वाली पीढ़ियों को युगों युगों तक के लिये जलसंकट से मुक्ति मिली। धरा को पुन: बंध्यत्व से मुक्ति मिली और कठिन कर्म के साधकों के लिये एक उपमा ने जन्म लिया - भगीरथ। 
'सप्तसैन्धव' एक ऐसी अवधारणा रही जिसे किसी क्षेत्र विशेष में सीमित कर देना उपयुक्त नहीं। अग्नि केन्द्रित पश्चिमी और ओषधि केन्द्रित पूर्वी वैदिक धाराओं के बारे में बताता रहा हूं, यह भी कि ऋग्वेद का कवि जह्नुक्षेत्र से परिचित है, कार्य व्यापार भी बताता है और संकेत भी देता है कि वह प्राचीन समांतर क्षेत्र था।
सा तस्मिन् पतिता पुण्या पुण्ये रुद्रस्य मूर्धनि
हिमवत्प्रतिमे राम जटामंडल गह्वरे
भगीरथ के तप से धरा का ताप मिटाने को गंगा शूलिन की जटाओं में अवतरित हुईं। महर्षि वाल्मीकि विरोधी शब्दों को साथ रख कर अद्भुत गरिमा से संयुत कर देते हैं - नीचे आ कर पतिता हो गईं गंगा किन्तु पुण्या हैं 'पतिता पुण्या'। नीचे आईं तो किन्तु इतना पुण्य ले कर आईं कि रुद्र की जटाओं में स्थान मिला! कैसा पुण्य? लोक कल्याण हेतु पतिता होने का पुण्य।
बिन्दुसर में रुद्र ने गंगा जी को सात धाराओं में मुक्त किया  - यह सप्तसैंधव का पूर्वी संस्करण है।  तीन मंगलमयी धाराएँ प्राची की ओर बह चलीं - ह्लादिनी, पावनी और नलिनी। तीन धाराएँ प्रतीचि (पश्चिम) की ओर - सुचक्षु, सीता और सिन्धु महानदी। सातवीं धारा भगीरथ के पीछे पीछे चली, उनके पुरखों को तारने के लिए।
ह्लादिनी पावनी चैव नलिनी च तथैव च।
तिस्र: प्राचीं दिशं जग्मुर्गङ्गा: शिवजला: शुभा:॥
सुचक्षुश्चैव सीता च सिन्धुश्चैव महानदी।
तिस्रश्चैता दिशं जग्मु: प्रतीचीं तु दिशं शुभा:॥
सप्तमी चान्वगात् तासां भगीरथरथं तदा।
भगीरथोsपि राजर्षिदिव्यं स्यन्दनमास्थित:॥ 
तिस्र से बरबस ही ध्यान ऋग्वेद की तिस्रो देवियों सरस्वती, इळा और भारती पर चला जाता है। साथ ही अथर्वण संहिता के त्रिसप्ता तो ध्यान में आते ही हैं।
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आगे गंगा प्रवाह का सरल सहज वर्णन मुग्ध कर देता है। वाल्मीकी जी इस प्रकरण का महात्म्य बताना नहीं भूलते:
धन्यं यशस्यमायुष्यं पुत्र्यं स्वर्ग्यमथापि च
... प्रीयंते पितरस्तस्य प्रीयंते दैवतानि च
इदमाख्यानमायुष्यं गंङ्गावतरणं शुभं
य: शृणोति च काकुत्स्थ सर्वान् कामानवाप्नुयात्
सर्वे पापा: प्रणश्यंति आयु: कीर्तिश्च वर्धते
इस आख्यान के सुनने से यश, आयु, पुत्र, स्वर्गसुख और कीर्ति में वृद्धि होती है।  सभी कामनायें पूरी होती हैं, पाप नष्ट हो जाते हैं।
'सुनना' बहुत कम समझा गया शब्द है। एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देना सुनना नहीं है, hearing और listening में अंतर है कि नहीं? सुनेंगे तो कर्मप्रवृत्त होंगे, यदि नहीं होते तो बस सुनी सुनाई बातें hearing भर है!  वेदों को श्रुति कहा गया है। श्रुति का 'योजन' यजु: कर्मकांड है, गायन साम है और अंग लगाना आंगिरस। बस सुन कर नहीं रह गए, कर्मरत हुये, जीवन में उतार लिए, ऐसे कि तन्मय हो गा उठे अंग अंग रससिक्त हो गया। वेदसम्मत जीवनाचार तो तब हुआ न!

ऐसे आचरण से ही कामनायें पूरी होती हैं। धूमेनाग्निरिवावृताः  - कर्म तो सदोष होता ही है लेकिन शुभ के लिये है तो कृत पाप भी नष्ट होते हैं, आयु और कीर्ति बढ़ते हैं। पीढ़ियों तक चला गंगा अवतरण अभियान  साक्षी है।     
भगीरथ का तप और गङ्गावतरण 
(2) कार्तिकेय का जन्म: 

सम्भव है, कार्तिकेय का जन्म भूले बिसरे युग में आकाश'गंगा' से हिमालय और कैलास क्षेत्र में हुये किसी उल्कापात और उसके कारण हुये विविध वृहद परिवर्तनों का क्लिष्ट रूपक हो।

रुद्र (आकाश का लुब्धक तारा?) का तेज स्खलित होता है , अग्नि देवता (कृत्तिका नक्षत्र के) 'आकाशगंगा' में उसे स्थापित करते हैं: 
इयमाकाशगङ्गा च यस्यां पुत्रम् हुताशन:

जनयिष्यति देवानां सेनापतिमरिन्दमम्॥ 

 गंगा उसे धारण करने में अपने को असमर्थ पाती हैं - अशक्ता धारणे देव तेजस्तव। इसके दाह से जली जा रही हूँ; ... 

अग्नि उसे हिमालय के पार्श्वभाग में स्थापित करने को कहते हैं। कैसा है वह तेज (उल्कापिंड?) कंचन के समान चमकता हुआ, उसके प्रभाव से बहुतों के रंग बदल कर रजत हो जाते हैं, दूरवर्ती क्षेत्र की वस्तुयें ताँबा और लोहा हो जाती हैं - ताम्रं कार्ष्णायसं चैव तैक्ष्ण्यादेवाभिजायत।

उस तेज की जो मैल है उससे सीसा और रांगा और अन्य कई धातुयें होती हैं:

मलं तस्याभवत् तत्र त्रपु सीसकमेव च।
तदेतद्धरणीं प्राप्य नानाधातुरवर्धत॥
पर्वत श्वेत सुवर्णमय जगमगाने लगता है। तृण, वृक्ष, लता और गुल्म सब काञ्चन।
और तब देवता उसे नहलाने और दूध पिलाने को कृत्तिकाओं को नियुक्त करते हैं। उन छ: माताओं का दूध पी वह शिशु बड़ा होता है, कार्तिकेय कहलाता है। उसके नेतृत्त्व में देवता दैत्यों पर विजय प्राप्त करते हैं। दैत्य कौन? दिति के पुत्र।
धातुयें, अयस्क, देवताओं द्वारा शोधन कर उन्नत शस्त्रास्त्रों का निर्माण और विरोधियों पर विजय। कब हुई यह घटना? तब तो नहीं जब महाविषुव कृत्तिका नक्षत्र पर पहुँचा?? 
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संश्लिष्ट जटिल बिम्ब पुरातन सभ्यताओं के अपने ढंग रहे हैं - पीढ़ी दर पीढ़ी घटित की सीख को पहुँचाने को। मिस्र की कहानियाँ सुनाऊँ, यवनों की की?? 
भद्र!
उन गाथाओं की शक्ति पहचानो, जानो कि कितनी दीर्घजीवी हैं। आधुनिक समय में तो तुम्हें यह तक नहीं पता कि नेता जी कब तक और कहाँ कहाँ रहे
पुरनिये जानते थे कि 'यथार्थ' दीर्घजीवी नहीं होता। होना भी नहीं चाहिये, उसकी सीख होनी चाहिये।

मंगलवार, 13 सितंबर 2016

सभ्यता संकट में Occupation of public space

चेन्नई महानगर की साधारण लोकल ट्रेन में यात्रा करना भी एक अच्छा अनुभव होता है। शांत, अनुशासित और संवेदनशील यात्री, अपने अपने राम, अपने अपने काम।

आज एक विचित्र बात दिखी। तीन चार स्टेशनों पर किशोर वय के लड़कों के झुण्ड झुण्ड बिना टिकट यात्रा करते, हो हल्ला करते यात्रा करते दिखे। राह में कन्नड़ दुकानों पर अभूतपूर्व सुरक्षा दिखी थी, मन प्रसन्न हुआ था कि नदी जल विवाद पर कर्नाटक में इतना कुछ हो जाने पर भी तमिळनाडु सरकार नागरिक सुरक्षा और विश्वास के प्रति कृतसंकल्प है लेकिन स्टेशन पर ...??

उत्सुकता हुई कि आखिर ये किशोर कौन हैं, कहाँ से अचानक? थोड़ी देर में ही मुँह पर रुमाल बाँधे बोगी के हर द्वार पर दो एक युवकों को देख समझ में आ गया कि अरब श्रेष्ठवादी आन्दोलन के कार्यकर्ताओं का क़ुरबानी के अवसर पर प्रशिक्षण चल रहा है – सार्वजनिक स्थानों पर कब्जा करने की, पहचान स्थापित करने की रणनीति का, अंग्रेजी में कहें तो Occupation of public space. प्राय: हर नगर कस्बे के प्रसिद्ध क्षेत्रों में यही काम मिनारें और मजारें करती हैं। पता भी नहीं चलता और लैण्डस्केप बदल जाता है। कई लोगों को यह बात बहुत छोटी लग सकती है कि उससे क्या होता है?

मस्तिष्क का अनुकूलन होता है, अभ्यास होता है, सहानुभूति होती है, भय बैठता है, अधिकार बढ़ता है और स्वीकार्यता भी। जहाँ पहले कुछ नहीं था, वहाँ माना जाने लगता है, हर शुक्र खयाल कर सड़क खाली की जाने लगती है, ऊँट क़ुरबानी के इलाके बनाये जाने लगते हैं और नगर प्रशासन कुछ निर्णय लेने से पहले राय लेने लगता है। एक निहायत ही बर्बर जहालत वाली सभ्यता बैठ जाती है, मन में भी और हवा में भी – भय बन कर। चुपचाप वह बढ़ती रहती है और 1:2 का अनुपात होते ही यलगार होने लगते हैं – मेरे मौला बुला ले दर पे ‘इन्हें’, वरना कर दे इशारा ...।

संसार के लगभग समस्त लोकतांत्रिक उदार समाज में मोहमदी मजहब और साम्यवाद एक थैली के चट्टे बट्टे नजर आते हैं, जानते हैं क्यों? क्यों कि दोनों मूलत: एक हैं। यह कहें कि साम्यवाद ग़रीब के पसीने से भीगी कोट का आभास देता वह डिजाइनर चोगा होता है जिसके भीतर मोहमदी ढील, चिल्लर और पिस्सू पनपते और फलते फूलते हैं तो अत्युक्ति नहीं होगी। यह चोगा सुविधा के अनुसार कभी टँगा होता है तो कभी पहना हुआ लेकिन बू वही, बू के सयाने वही।

कुछ् वर्ष पहले चोगे पहनने वाली परवर्जनशील क़ौम ने एक आन्दोलन को जन्म दिया – Occupy Movement। उनका कहना था कि संसार पर 1% का कब्जा है और 99% वंचित हैं जो कि अपना स्थान ले कर रहेंगे। टोटके वगैरह ढूँढ़े गये, भारत में भी आन्दोलन हुये।

बात उहात्मक है लेकिन सही है। मैं कहता रहा हूँ कि हम सभी एक अदृश्य मैट्रिक्स द्वारा जिलाये जा रहे हैं, हाँके जा रहे हैं लेकिन इसके अनुभव से उपजी हताश मानसिकता का जैसा शोषण और दुरुपयोग मजहबियों और साम्यवादियों ने किया और कर रहे हैं, अपने आप में अद्भुत है जी, अद्भुत!

मजहब हो या साम्यवाद, सही दिखते को कैसे गले लगा कर अपने जैसा बना देना है या नेस्तनाबूत कर देना है, इनमें दोनों निष्णात हैं। वंचना और छलना से बचने की बातें करते करते कैसे कब किसी का जीवन साफ कर दें या कब किसी की जेब काट लें, पता ही न चले! प्रशिक्षण जो कच्चे समय से ही दिया जाता है।

जो शिकार वर्ग यानि इनसे इतर वर्ग है, वह आधुनिक दिखने की ललक में उन्हें space देता मानसिक रूप से इतना समाप्त हो चुका है कि अपनी देह तक पर नियंत्रण नहीं! उसके पास उन्हीं के दिये प्रतिरोधी शब्द भर हैं जिनकी आड़ ले वह अपने ही ध्वंस को प्रायोजित करता चल रहा है।

जो चेतावनी देने वाले हैं वे भी बस बकबक करने की भूमिका का निर्वाह करते हुये हलाल हो रहे हैं – कसाई आयेगा, खँस्सी को मार खा जायेगा, बच सको तो बच लो ... खचाक!
सभ्यता वास्तव में संकट में है!                  


सोमवार, 5 सितंबर 2016

देवी कौसल्या का स्वस्तिवाचन

वनयात्रा के पूर्व कौसल्या देवी का पुत्र श्रीराम के लिए स्वस्तिवाचन: 
(वाल्मीकीय रामायण, अयोध्याकाण्ड, 25) 
..
(1) सताम् क्रमे - तुम सत्पुरुषों के मार्ग पर स्थिर रहो।
(2) धर्मं तव प्रीत्या च नियमेन .... त्वामभिरक्षतु - जो धर्म तुम्हें इतना प्रिय है, जिसका नियमपूर्वक प्रसन्नता के साथ पालन करते हो, वह तुम्हारी रक्षा करे।
(3) महर्षियों के साथ देवायतनों के पूज्य देव तुम्हारी वन में रक्षा करें।
(4) तुम सद्गुणों से प्रकाशित हो, विश्वामित्र के दिये अस्त्र तुम्हारी रक्षा करें।
(5) माता पिता की सेवा के पुण्य और सत्य पालन से सुरक्षित हो तुम चिरंजीवी बने रहो।
(6) समिधा, कुश, पवित्री, वेदियाँ, मंदिर, देवपूजन स्थान, पर्वत, वृक्ष, क्षुप्र, जलाशय, पक्षी, सर्प और सिंह वन में तुम्हारी रक्षा करें।
(7) साध्य, विश्वेदेव, मरुत, धाता, विधाता मंगलकारी हों। पूषा, भग और अर्यमा तुम्हारा कल्याण करें।
(8) लोकपाल, वसुप्रमुख, ऋतुयें, महीने, संवत्सर, रात, दिन, मुहूर्त तुम्हारा मंगल करें। श्रुति, स्मृति और धर्म तुम्हारी रक्षा करें।
(9) मेरी स्तुति से प्रसन्न दिक्पाल, दिशाएँ और सिद्ध जन वन में तुम्हारी रक्षा करें।
(10) शैल, समुद्र, राजा वरुण, द्यौ, अंतरिक्ष, पृथ्वी, वायु, चराचर, नक्षत्र, ग्रहों के साथ देवता, अहोरात्र, संध्या वन में तुम्हारी रक्षा करें।
(11) कला, काष्ठा और दिशाएँ तुम्हें कल्याण प्रदान करें।
(12) देवता और दैत्य सुखदायी हों।
(13) राक्षस, पिशाच और मांसभक्षियों से तुम्हें कभी भय न हो।
(14) प्लवग, बिच्छू, डांस, मच्छर, पहाड़ी सर्प, सरीसृप, कीड़े फतिंगे तुम्हारे लिए हिंसक न हों।
(15) हाथी, सिंह, बाघ, ऋक्ष, महिष, सींग वाले जन्तु, रौद्र प्राणी तुमसे द्रोह न करें।
(16) मेरे द्वारा यहाँ संपूजित सबसे भयंकर नरमांसभोजी प्राणी वन में तुमसे हिंसा न करें।
(17) मार्ग मंगलकारी हों, पराक्रम सफल हों, संपत्तियाँ प्राप्त हों और तुम सकुशल यात्रा पूर्ण करो।
(18) पुन: पुन: आकाशचारी जीवों, भूतल के प्राणियों, देवताओं से और जो तुम्हारे शत्रु हैं उनसे भी तुम्हें कल्याण प्राप्ति होती रहे।
(19) मेरे द्वारा यहाँ पूजित हो शुक्र, सोम, सूर्य, कुबेर और यम दण्डकारण्य में तुम्हारी रक्षा करें।
(20) स्नान और आचमन के समय अग्नि, वायु, धूम और ऋषियों के मुख से निकले मंत्र तुम्हारी रक्षा करें।
(21) ब्रह्मा, परम ब्रह्म, बचे रह गए जो भी देवता हैं, वनवास में तुम्हारी रक्षा करें।
...
वृत्र का नाश करने हेतु इन्द्र को जो आशीर्वाद प्राप्त हुआ था वह तुम्हें प्राप्त हो।
विनता ने अमृत लाने के इच्छुक अपने पुत्र के लिए जो मंगलकृत्य किए थे, वे तुम्हें प्राप्त हों।
अमृत उत्पत्ति के समय दैत्यों के विनाश के लिए वज्रधारी को जो आशीर्वाद माता अदिति ने दिये थे, वे तुम्हें प्राप्त हों।
त्रिविक्रम विष्णु के लिए जो मंगलाशंसा की गई, वह तुम्हें प्राप्त हो।
ऋषि, सागर, द्वीप, वेद, लोक, दिशाएँ तुम्हें मंगल प्रदान करें।
...
पूर्णकाम हो रोगरहित जब अयोध्या लौटोगे तो तुम्हें राजमार्ग पर देख मैं सुखी होऊंगी।
दु:खपूर्ण संकल्प मिट जाएँगे, मुख पर हर्ष होगा और मैं तुम्हें पूरन के चंद्र सा देखूंगी।
पिता की प्रतिज्ञा को पूर्ण कर जब सिंहासन पर बैठोगे तो मैं पुन: तुम्हारा प्रसन्नता पूर्वक दर्शन करूंगी।
तुम सदा मेरी बहू सीता की समस्त कामनाएँ पूरी करते रहना।
मैंने जिन्हें सदा पूजा और सम्मान दिया वे शिवादि देवगण, महर्षि, भूतगण, देवोपम, नाग और दिशाएँ चिर काल तक वन में तुम्हारे हित साधन की कामना करते रहें। 

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सोचता हूँ क्या रह गया? माँ से क्या बच गया?? विदुषी पर अथर्वण परंपरा का प्रभाव स्पष्ट है और साथ ही सामान्य माता का ममत्त्व भी उफान पर है।
वर्षा के समय वन में भीगते राम, सीता और लक्ष्मण के प्रति माता के भावों का जो चित्रण लोक गीतों में मिलता है, एक राजरानी क्षत्राणी के ओज से निखरा वह यहाँ भी उपलब्ध है।