शुक्रवार, 26 जून 2020

नारदपुराण में भगवान जगन्नाथ

नारदपुराण में भगवान जगन्नाथ , यह पुराण पुरी में पाञ्चरात्र उपासना का भी उल्लेख करता है।
naradpuran-puri-jagannath

यदत्र प्रतिमा राजन् राजपूज्या सनातनी
यथा तां प्राप्नुया भूप तदुपायं ब्रवीमि ते
गतायामद्य शर्वर्यां निर्मले भास्करोदये
सागरस्य जलस्यान्ते नानाद्रुमविभूषिते
जलं तथैव वेलायां दृश्यते यत्र वै महत्
लवणस्योदधे राजंस्तरङ्गैः समभिप्लुतम्
कूलालम्बी महावृक्षः स्थितः स्थलजलेषु च
वेलाभिर्हन्यमानश्च न चासौ कम्पते ध्रुवः
हस्तेन पर्शुमादाय ऊर्मेरन्तस्ततो व्रज
एकाकी विहरन् राजन्यं त्वं पश्यसि पादपम्
इदं चिह्नं समालोक्य च्छेदय त्वमशङ्कितः
शात्यमानं तु तं वृक्षं प्रांशुमद्भुतदर्शनम्
दृष्ट्वा तेनैव सञ्चिन्त्य तदा भूपाल दर्शनम्
कुरु तत्प्रतिमां दिव्यां जहि चिन्तां विमोहिनीम्
...
अयं तव सहायार्थमागतः शिल्पिनां वरः
विश्वकर्मसमः साक्षान्निपुणः सर्वकर्मसु
मयोद्दिष्टां तु प्रतिमां करोत्येष तटं त्यज
श्रुत्वैवं वचनं तस्य तदा राजा द्विजन्मनः
सागरस्य तटं त्यक्त्वा गत्वा तस्य समीपतः
तस्थौ स नृपतिश्रेष्ठो वृक्षच्छायां सुशीतलाम्
ततस्तस्मै स विश्वात्मा तदाकारां तदाकृतिम्
शिल्पिमुख्याय विधिजे कुरुष्वेत्यभ्यभाषत
कृष्णरूपं परं शान्तं पद्मपत्रायतेक्षणम्
श्रीवत्सकौस्तुभधरं शङ्खचक्रगदाधरम्
गौरं गोक्षीरवर्णाभं द्वितीयं स्वस्तिकाङ्कितम्
लाङ्गलास्त्रधरं देवमनन्ताख्यं महाबलम्
देवदानवगन्धर्वयक्षविद्याधरोरगैः
न विज्ञातो हि तस्यान्तस्तेनानन्त इति स्मृतः
भगिनीं वासुदेवस्य रुक्मवर्णां सुशोभनाम्
तृतीयां वै सुभद्रांं च सर्वलक्षणलक्षिताम्
श्रुत्वैतद्वचनं तस्य विश्वकर्मा सुकर्मकृत्
तत्क्षणात्कारयामास प्रतिमाः शुभलक्षणाः
कुण्डलाभ्यां विचित्राभ्यां कर्णाभ्यां सुविराजिताः
चक्रलाङ्गलविन्यासहताभ्यां भानुसम्मताः
प्रथमं शुक्लवर्णानां शारदेन्दुसमप्रभम्
सुरक्ताक्षं महाकायं फटाविकटमस्तकम्
नीलाम्बरधरं चोग्रं बलमद्भुतकुण्डलम्
महाहलधरं दिव्यं महामुसलधारिणम्
द्वितीयं पुण्डरीकाक्षं नीलजीमूतसन्निभम्
अतसीपुष्पसङ्काशं पद्मपत्रायतेक्षणम्
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्पीतवाससमच्युतम्
चक्रकम्बुकरं दिव्यं सर्वपापहरं हरिम्
तृतीयां स्वर्णवर्णाभां पद्मपत्रायतेक्षणाम्
विचित्रवस्त्रसञ्छन्नां हारकेयूरभूषिताम्
विचित्राभरणोपेतां रत्नमालावलम्बिताम्
पीनोन्नतकुचां रम्यां विश्वकर्मा विनिर्ममे
स तु राजाद्भुतं दृष्ट्वा क्षणेनैकेन निर्मिताः
दिव्यवस्त्रयुगाच्छन्ना नानारत्नैरलङ्कृताः

सर्वलक्षणसम्पन्नाः प्रतिमाः सुमनोहराः

गुरुवार, 11 जून 2020

restoration of broken lingam Agni puran दुष्टलिङ्ग जीर्णोद्धार



काशी के पण्डों के एक वर्ग ने बहुत बवाला मचाया हुआ है कि शिवलिङ्ग एक बार स्थापित हो गया तो हटाया नहीं जा सकता।
वास्तविकता क्या है?

इस प्रश्न से पूर्व उनसे यह पूछा जाना चाहिये कि सोमनाथ हो या विश्वनाथ, जो लिङ्ग भङ्ग कर दिये गये, उनके स्थान तक हड़प लिये गये, उनके लिये शास्त्र मर्यादा क्या है?

विश्वेश्वर के मूल स्थान पर तो आज रजिया की मस्जिद है। ज्ञानवापी विश्वनाथ की तो कहानी ही कारुणिक है!

वास्तविकता यह है कि जीर्णोद्धार का प्रावधान है तथा दुष्टलिङ्ग जैसी सञ्ज्ञा भी है। या तो वे पण्डे सूक्ष्म विधान समझ नहीं पा रहे या स्वार्थवश वितण्डा में लगे हैं।

अग्निपुराण में बहुत विस्तार से जीर्णोद्धार का विधान है किंतु शब्दावली ऐसी है जो ऐसा करने को बहुत ही असामान्य स्थिति में अनुमति देती है। सारा बखेड़ा चालन शब्द को ले कर है जिसका अभिधा अर्थ ले कर कि लिङ्ग को उसके स्थान से नहीं हटाया जा सकता, वितण्डा चल रहा है। चालन शब्द प्रस्तर प्रतिमा हेतु नहीं, मूल स्थान हेतु है अर्थात मूल स्थान वही रहेगा, वहाँ स्थापित लिङ्ग यदि दुष्टलिङ्ग अर्थात दोषयुक्त हो गया हो तो उसे चलायमान कर नया स्थापित किया जा सकता है।

शास्त्रकार लिङ्ग को पाषाण प्रतिमा न मान कर शम्भु की बात कर रहा है जबकि ये पण्डित लिङ्गप्रतिमा को ही सबकुछ माने बैठे हैं।

स्थानभङ्ग, वज्रपात, झुकाव व केंद्रस्थ स्थापना आदि दोषों की स्थिति (दुष्ट को दोष से समझें) में पुन: वही लिङ्ग स्थापित किया जा सकता है यदि क्षत या व्रणचिह्न न हों - निर्ब्रणञ्च। आगे बताता है कि विधिसम्मत ढङ्ग से पुन:स्थापित लिङ्ग अपने स्थान से नहीं हटाया जाना चाहिये -

ततोऽन्यत्रापि संस्थाप्य विधिदृष्टेन कर्म्मणा । सुस्थितं दुस्थितं वापि शिवलिङ्गं न चालयेत् ॥

इस श्लोक की दूसरी अर्द्धाली मात्र को ले कर पण्डे गाल बजा रहे हैं - अधूरी बात। ऐसे कर्म काशी में बहुत पहले से होते रहे हैं, कोई नई बात नहीं। अगला श्लोक देखें -

शतेन स्थापनं कुर्य्यात् सहस्रेण तु चालनं । पूजादिभिश्च संयुक्तं जीर्णाद्यमपि सुस्थितं ॥

यदि स्थापना हेतु सौ (पूजार्पण आदि) करना है तो चालन हेतु हजार का। इस प्रकार की पूजा से संयुक्त होने पर जीर्ण हुआ लिङ्ग भी सुस्थापित हो जाता है। जीर्ण का अर्थ जिसकी स्थिति बिगड़ गयी हो परंतु जिसमें दोष न आये हों।

व्रण, टूट, भङ्ग आदि दोष होने पर क्या करें?

विधाय द्वारपूजादि स्थण्डिले मन्त्रपूजनं
मन्त्रान् सन्तर्प्य सम्पूज्य वास्तुदेवांस्तु पूर्ववत्
दिग्बलिं च वहिर्दत्वा समाचम्य स्वयं गुरुः
ब्राह्मणान् भोजयित्वा तु 
शम्भुं विज्ञापयेत्ततः

दुष्टलिङ्गमिदं शम्भोः शान्तिरुद्धारणस्य चेत्
रुचिस्तवादिविधिना अधितिष्ठस्व मां शिव
एवं विज्ञाप्य देवेशं शान्तिहोमं समाचरेत्

लम्बी प्रक्रिया है। संक्षेप में जानें कि विधि सम्मत मंत्रपूजा कर, तर्पण कर, वास्तुदेव को संतुष्ट कर, दिग्बलि दे, ब्राह्मण भोजन आदि करा कर स्वयं शम्भु को विज्ञापित करे -

हे शम्भु! यह लिङ्ग दोषयुक्त हो गया है, इसका उद्धार करना है (उद्धार शब्द की व्युत्पत्ति निरुक्त व पाणिनि अनुसार काशी के पण्डों को पढ़नी चाहिये)। हे शिव! यदि आप को रुचे तो इन विधियों के द्वारा आप मुझमें अधितिष्ठ हों! (यजमान स्वयं के भीतर शिव को स्थित रहने को कह रहा है।)
इसके पश्चात उसे शांतिहोम करना चाहिये।

इससे आगे अनेक विधि विधान वर्णित हैं तथा -

सत्त्वः कोपीह यः कोपिलिङ्गमाश्रित्य तिष्ठति
लिङ्गन्त्यक्त्वा शिवाज्ञाभिर्यत्रेष्टं तत्र गच्छतु
विद्याविद्येश्वरैर्युक्तः स भवोत्र भविष्यति

जो भी सत्त्व इस लिङ्ग मेंंआश्रय लिये हुये हैं, शिव की आज्ञा से इस लिङ्ग का त्याग कर जहाँ जाना चाहें, जायें। विद्या व विद्येश्वर से युक्त भव अर्थात शिव यहाँ बने रहेंगे।

आगे सत्त्व शक्तियों को हटाने की विधियाँ हैं - 

दत्वार्घं च विलोमेन तत्त्वतत्त्वाधिपांस्तथा
अष्टमूर्त्तीश्वरान् लिङ्ग पिण्डिकासंस्थितान् गुरुः
विसृज्य स्वर्णपाशेन वृषस्कन्धस्थया तथा  
रज्वा बध्वा तया नीत्वा शिवमन्तं गृणन् जनैः
तज्जले निक्षिपेन् मन्त्री पुष्ठ्यर्थं जुहुयाच्छतं 
तृप्तये दिक्पतीनाञ्च वास्तुशुद्धौ शतं शतं

इसके पश्चात महापाशुपत मंत्र द्वारा भवन को रक्षित कर गुरु नये लिङ्ग की वहाँ विधिवत स्थापना करता है -

रक्षां विधाय तद्धाम्नि महापाशुपता ततः
लिङ्गमन्यत्ततस्तत्र विधिवत् स्थापयेद् गुरुः

वितण्डावादी निम्न श्लोक का आधार ले कर शिवलिङ्गों को हटाये जाने का विरोध उचित बता सकते हैं -

असुरैर्मुनिभिर्गोत्रस्तन्त्रविद्भिः प्रतिष्ठितं
जीर्णं वाप्यथवा भग्नं विधिनापि नचालयेत्

असुरों, मुनियों वा उनके गोत्र वालों, तन्त्रविदों के द्वारा प्रतिष्ठित शिवलिङ्गों को; चाहे जीर्ण हों, चाहे भग्न हों; विधि अनुसार भी चलायमान न करे।

क्या अर्थ है इसका?

मात्र अभिधात्मक? कौन करे, जिन लोगों पर अर्थ स्पष्ट करने का दायित्त्व है, वे तो स्वार्थी वितण्डा में लगे हैं!

बहुत सीधा सा समाधान है। असुर, मुनि, गोत्र वालोंं व तंत्रविदों को हटा दें तो बचते कौन हैं? सभी सनातनी तो किसी न किसी गोत्र के ही हैं न? जिनका ज्ञात नहीं, उनके लिये कश्यप हैं। तब तो मात्र देवताओं, यक्ष, गंधर्व, किन्नर आदि के द्वारा स्थापित लिङ्ग ही भग्न होने पर हटाये जा सकेंगे! नहीं!! दलहित नवबौद्ध, इसाई व मुसलमान तो शिवलिङ्ग की स्थापना करेंगे नहीं!!!

मुनिभिर्गोत्र का अर्थ कुछ जातिवादी ब्राह्मण जाति से लगाते हैं अर्थात असुर स्थापित लिङ्ग तो रहेंगे, किंतु ब्राह्मणेतर मनुष्यों के द्वारा स्थापित दुष्टलिङ्ग हटाये जा सकते हैं। यह तो अनर्गल बात हो गई!

इसका अर्थ सरल है कि विशिष्ट जन द्वारा विशिष्ट विधानों सहित विशिष्ट स्थानों पर स्थापित शिवलिङ्ग किसी भी स्थिति में हटाये नहीं जाने चाहिये। यह अतिरिक्त सावधानी है, अति महत्त्वपूर्ण स्थलों की मर्यादा को सुरक्षित रखने हेतु जिससे कि लोग उपर्युक्त विधि विधानों का आश्रय ले मनमानी न करने लगें।

दुर्भाग्य से सोमनाथ हो या विश्वेश्वर विश्वनाथ; इसी श्रेणी के लिङ्ग थे। म्लेच्छों ने मूलस्थान तो ह‌ड़पे ही, मूल शिवलिङ्ग भी तोड़ दिये। पण्डों के अनुसार तो तब कुछ कर ही नहीं सकते थे! है न? (आपद्धर्म केवल आपदा हेतु नहीं, अभूतपूर्व स्थितियों हेतु भी प्रयुक्त होता है, उन्हें कौन समझाये?)

क्या उससे सोमनाथ या विश्वेश्वर की आराधना भी समाप्त हो गई? नहीं। सनातन ने प्रवाह को रुकने नहीं दिया। हम लड़ते रहे, पुन: पुन: निर्माण कर अपनी आस्था सँजोते रहे। इन पण्डों की चली रहती तो तीर्थ व दिव्यस्थल कब के लुप्त हो गये रहते! काशी परिक्रमा के जाने कितने हो ही गये न!

निजी स्वार्थ वश जिन्हें सँजोना था उन्हें लुप्त व विकृत कर पण्डे उनके लिये वितण्डा में लगे हैं जिनका कोई विशेष महत्त्व नहीं। यहाँ भी स्वार्थ है।

प्रश्न यह भी है कि किसके पास इतना समय है जो इनके वितण्डा प्रसार की काट समय लगा कर करता रहेगा? क्या मिलना उससे? इस कारण भी इनकी लन्तरानियाँ चलती रहती हैं।

॥हर हर महादेव॥