गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

कुरुक्षेत्र में ..क्या उखाड़ लोगे ?

जागरूक व्यक्तियों के अपने अपने कुरुक्षेत्र होते हैं । उनसे छुटकारा नहीं। चाहे कर्ण की तरह घुटते हुए लड़ें, अर्जुन की तरह मोहनिवृत्त हो लड़ें, अश्वत्थामा की तरह प्रतिशोध में लड़ें, भीष्म की तरह सिकुड़ी मर्यादाओं के पालन के लिए लड़ें .... लड़ना होता ही है।
घर के सामने का पार्क मेरे लिए कुरुक्षेत्र जैसा है। kuru लगभग चार एकड़ में फैला यह पार्क प्रशासन की दरियादिली और उपेक्षा दोनों का उदाहरण है। 600 पौधों का रोपण चहारदीवारी के साथ, पानी के लिए बोरवेल अगर दरियादिली के उदाहरण हैं तो इस घोर गर्मी में पानी देने के लिए स्थायी व्यक्तियों का न होना उपेक्षा का। ठीकेदार के भरोसे पौधे वैसे ही जीते, मरते, जीते, मरते के चक्र में पड़े हैं जैसे सरकारी खजाने को खाली करने से बनी हुई कोई भी चीज होती है।
जब आया तो इस विशाल पार्क में गाजर घास का बोलबाला था। एलर्जी की बिमारी के कारण घास के पौधों को छूते भी घबराता था। लेकिन आँखों की चुभन कुछ ही दिनों में एक अलग ही बिमारी हो गई। नई बिमारी से छुटकारा पाने को एक दिन अकेले ही इस घास के पौधों को उखाड़ने लगा। पहले दिन तो नहीं लेकिन दूसरे दिन से देखादेखी तीन चार लोग और धर्मप्राण माली भी आ जुटे। देखते ही देखते सात दिनों के भीतर ही पार्क गाजर घास से खाली हो गया। ...
पार्क के एक किनारे खाली प्लॉट पड़े हैं। अन्य एकांत जगहें होने पर भी सुविधा (?) और साफ जगह पर हगने के सनातन भारतीय चरित्र को चरितार्थ करते हुए आम जनता उन में सुबह शाम हगने का दैनिक देहकर्म सम्पन्न करती थी। कॉलोनी के लोग बदबू को सहते थे । महिलाएँ निर्लज्ज नंगई के कारण टहलने नहीं आती थीं। मुझे बड़ा अजीब लगता था कि कोई उन्हें टोकता नहीं था। एकाध से बात की तो ये सद्विचार आए:
- इस परम गोपनीय (खुले में हगना ?) कार्य करते हुओं को टोकना बेशर्मी होगी (गोया लाज शरम का हम ठेका लिए हैं और वे बेशर्मी का)
- अरे भाई, टोकने से सटक जाती है। बहुत स्वास्थ्य समस्याएँ पैदा हो जाती हैं।(जन स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता ?)
- कोई व्यवस्था नहीं है, कहाँ जाएँ सब ? ( तो यह है व्यवस्था! थोड़ी दूर जाएँ तो प्रकृति की व्यवस्था ही व्यवस्था है लेकिन कौन चल कर दूर जाय जब बगल में ही हगने की व्यवस्था है? व्यवस्था के वाहक झेल लेंगे लेकिन व्यवस्था बनाए रखेंगे ?) ...
हार कर(?) अर्जुन ने गांडीव उठाया। रोकना, डाँटना, समझाना, लानत भेजना .. तुणीर के शस्त्रास्त्र निकलने प्रारम्भ हुए। एक बार फिर उन्हीं तीन चार लोगों ने साथ देना शुरू किया और दस दिनों में ही हगने वाले दूर दीवार के पीछे सिमट गए। ..
जाड़ा आया। मेरे लिए प्रकृति का अभिशाप। घर की ऊष्मा के सुरक्षा कवच में मैं दुबका रहा। बचा रहा। डाक्टर की सलाह को मानते हुए मार्च और करीब पूरा अप्रैल सुबह शाम पुष्प पराग सुवासित वायु से बचता रहा। पिछ्ले सप्ताह से निकलना प्रारम्भ किया तो देखा कि कुरुक्षेत्र फिर से तैयार है। गाजर घास के सफेद फूल अपने चरम पर हैं। यही समय है कि उन्हें नष्ट किया जाय। श्रीमती जी कहती रहती हैं - एक अकेला क्या कर लेगा? कोई पुरुष मेरी बैचैनी देखता तो कहता - अकेले क्या उखाड़ लोगे ?
मुझे सेतु बन्ध की गिलहरी के गुण गाते विवेकानन्द याद आते रहते हैं। .. अभियान का प्रारम्भ घर के सामने की सड़क के लम्बे गलियारे से हुआ। एक सौ रूपए और दो दिनों में यह इलाका गाजर घास से साफ हो गया।  ये रूपए तो किसी मद में बचाए ही जा सकते हैं।    path
पार्क के भीतर से माली ग़ायब हो गया है। गाजर घास बढ़ी हुई है और पौधे दो तीन दिनों के अंतराल पर पानी पा रहे हैं - कैजुअल व्यवस्था। लिहाजा जी रहे हैं, मर रहे हैं। पानी के लिए तो शिकायत ही की जा सकती है। इतना बड़ा पार्क कोई लॉन तो है नहीं कि पाइप उठाया और सींचने लगे! park
एकड़ों में पसरी गाजर घास ने पहले तो हिम्मत पस्त कर दी लेकिन गिलहरी कहाँ बाज आती है ! लिहाजा कल से अकेले उखाड़ रहा हूँ । आज अनुमान लगाया कि करीब आठवाँ हिस्सा साफ हो गया। दाईं ओर एक छोटे भाग का चित्र लगा है। आज फिर से दो लोगों ने वाह वाही दी है और कल से हाथ बँटाने का वादा किया है। तो आशा कर रहा हूँ कि एक सप्ताह में पार्क गाजर घास से मुक्त हो जाएगा।


  हगने वाले फिर से अपने कर्म में लग गए हैं। कल से टोका टोकी, समझाना और लानत मलामत शुरू कर दिया है। प्रभाव पड़ रहा है। आज टहलते दो अजनबियों ने भी मेरे साथ मोर्चा सँभाला।  उम्मीद है कि  कुछ दिनों में ही कौरव सेना समाप्त तो नहीं लेकिन पीछे जरूर हट जाएगी।
एक प्रश्न है - क्या आप भी कहीं उखाड़ते हैं ? यदि हाँ, तो यहाँ अपने अनुभव बताइए। यदि नहीं तो nice, सुन्दर प्रयास, लगे रहो जैसी फालतू टिप्पणियों के बजाय कहीं उखाड़ना शुरू कीजिए। आप के आस पास कुरुक्षेत्र अवश्य होगा।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

एक देहाती बोध कथा

घने डरावने जंगल से एक धुनिया (रुई धुनने वाला) जा रहा था। मारे डर के उसकी कँपकँपी छूट रही थी कि कहीं शेर न आ जाय !
धुनिए को एक सियार दिखा । पहले कभी नहीं देखा था इसलिए शेर समझ कर भागना चाहा लेकिन भागने से अब कोई लाभ नहीं था - खतरा एकदम सामने था। सियार को धुनिया दिखा जिसने अपना औजार कन्धे पर टाँग रखा था, हाथ में डंडा भी था। सियार की भी वही स्थिति, हालत पतली हो गई -
 राजा शिकार करने आ गया, अब मार देगा !
दोनों निकट आए तो उनके डर भी आमने सामने हुए। सियार ने जान बचाने के लिए चापलूसी की:
"कान्हें धनुष  हाथ में बाना, कहाँ चले दिल्ली सुल्ताना"
कन्धे पर धनुष और हाथ में बाण लिए हे दिल्ली के सुल्तान! कहाँ जा रहे हैं?
धुनिए ने उत्तर दिया:
"वन के राव बड़े हो ज्ञानी, बड़ों की बात बड़ों ने जानी" 
हे जंगल के राजा ! आप बड़े ज्ञानी हैं। बड़ों की बात बड़े ही समझते हैं । ...

रविवार, 11 अप्रैल 2010

प्रसन्न होऊँ ? अपने केश नोचूँ ? निर्लज्जता जारी रखूँ ?

नौ महीनों की ज़िद्दी निर्लज्जता के बाद जब मेरे पड़ोसी खुले सीवर मैनहोल पर चैम्बर बना कर ढक्कन लगाने के कार्य का श्रीगणेश हुआ तो मैं अति प्रसन्न हुआ। अब यह टेंसन खत्म होना था कि कोई भैंस सरीखा जानवर या बच्चा उसमें फिर से गिर जाएगा ।
लेकिन अब मुझे समझ में नहीं आ रहा कि:
- प्रसन्न होऊँ ?
- अपने केश नोचूँ ?
- निर्लज्जता जारी रखूँ ?
या
उपर सुझाए तीनों काम करूँ ?
आप स्वयं देख लीजिए।
11042010   
यह वही लखनऊ है जहाँ तीन हजार करोड़ की लागत से पथरीले पार्क बनाए गए हैं लेकिन मैनहोल का ढक्कन उपलब्ध नहीं है। मुझे यह अभी तक समझ में नहीं आया कि जब ढक्कन गोल था तो फ्रेम आयताकार क्यों लगवाया गया ? अनजाने में ही जल संस्थान ने मॉडर्न शिल्पकार का काम कर दिया है।
भारत की व्यवस्था का इससे अच्छा स्कल्प्चर नहीं हो सकता - आयताकार छेद पर गोलाकार ढक्कन जो ढक कर भी न ढक पाए। अन्दर की बजबजाहट दिखती रहे और काम पूरे होने की घोषणा भी हो जाय।
राष्ट्रीय दुर्व्यवस्था को हमारा शासकीय तंत्र ऐसे ही ढके हुए है। 

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

इतने निकट न आएँ कि आप की साँसों की दुर्गन्ध सताने लगे

कल मेरे एक अति प्रिय शिल्पी ब्लॉगर घोषित रूप से ब्लॉगरी छोड़ गए। इससे पहले एक ब्लॉगर जिन्हें मैं अन्ना कहता था, चुपचाप ब्लॉगरी छोड़ गए। कल रात खिन्न होकर मैंने भी एक कविता रच मारी। आज के दो तीन और लेख भी कहीं न कहीं इस समस्या से साक्षात्कार करते दिखते हैं।  
केंकड़ा शृंखला (दाहिनी ओर इस अधूरी लेखमाला की विभिन्न प्रविष्टियों के लिंक लगे हैं) का प्रारम्भ इस प्रवृत्ति और दूसरी नकारात्मक प्रवृत्तियों से लड़ने और एक अलग सी सकार लीक बनाने के लिए किया था, चल नहीं सका लेकिन लगता है कि चलना चाहिए - अकेले चलना हो तो भी, लेंठड़े को एकला चलो रे पर अमल करना होगा। 
आभासी ब्लॉग संसार की स्वतंत्रता, उन्मुक्तता और सक्रिय हिन्दी ब्लॉगरों की कम संख्या - इन यथार्थों ने 'आभासी' से जुड़ी सुविधाओं, सहूलियतों को तनु किया है। नियमित ब्लॉगर मिलन से अलग तरह के मित्र मंडल तैयार हुए हैं। कई ब्लॉगर पहले से एक दूसरे को जानते रहे हैं। स्वाभाविक ही है कि नजदीकियाँ प्रगाढ़ हों, दूरियाँ घटें लेकिन एक नकारात्मक पक्ष सामने आया है - वस्तुनिष्ठता का क्षय। वास्तविक दुनिया का नकार पक्ष यहाँ भी मुखरित हो चला है। हो भी क्यों न, अधिक मीठे में कीड़े लगते ही हैं। 
प्रगाढ़ आत्मीयता बस 'चरम प्रेम' में ही अनुभवहीन हो जाती है अन्यथा अधिक निकटता होने पर व्यक्तित्त्व के खोटे पहलू दिखने लगते हैं, आप के व्यवहार को प्रभावित करने लगते हैं। सच्ची मित्रता मित्र के दोषों को भी स्वीकारती है। मित्र को सम्पूर्ण रूप से स्वीकारती है - सदोष। लेकिन क्या इस आभासी संसार में भी वैसा हो सकता है? 
आप की मित्रता यदि ब्लॉग माध्यम से जुड़ने के बाद घटित हुई है तो एक अपील है कि समग्र हित में थोड़ी दूरी, थोड़ा अलगाव बनाए रखें ताकि वस्तुनिष्ठता बनी रहे। व्यक्ति निष्ठा, प्रेम, घृणा आदि आप की अभिव्यक्ति पर ऐसे न सवार हों जाँय कि उनके बोझ तले आप की अभिव्यक्ति घुटे और फिर एक दिन आप साजो समान बाँध कर चलते बनें। व्यक्तिगत रूप से निर्णय आप का होगा, आप स्वतंत्र हैं लेकिन जरा उस निर्वात, कूड़े  और अवसाद की कल्पना कीजिए जो आप अपने पीछे छोड़े जा रहे होंगे !
जो लोग हैं, बने हुए हैं, बने रहना चाहते हैं उनसे एक निवेदन है -   इतने निकट न हों कि आप के साँसों की दुर्गन्ध एक दूसरे को सताने लगे।  साँसों की दुर्गन्ध स्वाभाविक है, प्राकृतिक है लेकिन आप की निज है उससे दूसरों को दु:खी न करें और उन्हें भी इसकी अनुमति न दें कि आप को दु:खी करें।      

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

पुरानी डायरी से - 13: 'ईश्वर' नहीं

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भठ्ठर मन, सर्व व्यर्थता बोध - कुछ लिखा नहीं जा रहा। पुरानी डायरी की शरण गया तो पंजाब आतंकवाद के चरम के समय की यह कविता दिख गई। यह वह दौर था जब मेरा ईश्वर से मोहभंग हो रहा था। मनुष्य की सारी समस्याओं की जड़ विभिन्न पंथ और मजहब हैं - यह विश्वास पुख्ता हो चला था। ऐसे में मार्क्सवाद का अध्ययन प्रारम्भ हुआ । मार्क्सवाद और बौद्ध दर्शन के अध्ययन से वैचारिक स्पष्टता आई। इसका परिणाम यह हुआ कि मार्क्सवाद भी एक 'अलग तासीर का अफीम' लगने लगा - विषस्य विषमौषधम् जैसा। औषधि की एक सीमा होती है ...उससे भी मुक्त हुआ।  
आज पंजाब में आतंकवाद नहीं है लेकिन देश के कई भागों में जन दु:ख के प्रति उपेक्षा, निर्मम दमन और शोषण ने हिंसा को एक विकल्प की तरह कायम रखा है। हिंसा - जिससे कोई समाधान नहीं आता लेकिन मनुष्य अपने मन को बहलाता है यह सोच कर कि शायद खून के छींटों से आँखों पर पड़ा पर्दा धुल कर बह जाय । कितनी सम्मोहक और कितनी निरर्थक है यह सोच ! लेकिन सार्थक क्या है ? क्या मानव सभ्यता इस तरह के दुश्चक्रों के आवागमन के लिए अभिशप्त है? हिंसा, शांति, हिंसा, शांति ... तो क्या अंतत: सोचना भी निरर्थक ही है - मानव समाज सुख के स्वप्न क्या निरर्थक ही हैं ? मुझे अब भी लगता है - नहीं ।   
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प्रचुर निरंतर शामें 
यहाँ आती हैं 
चली जाती हैं
उजाला तो लगता है 
अँधियारों के भ्रम जैसा
सूर्योदय तो श्रम जैसा
लड़ कर आने वाला।
इन शामों में
उदासी के कागज पर
चिंता की लेखनी में
पंजाबी खून की स्याही भर
लिख देता हूँ
तुम्हारा नाम
तुम तानाशाह हो
ईश्वर नहीं।
जिसके 'स्वर'
इतने कमजोर हों
गुरुओं की वाणी में
ऋषियों की ऋचाओं में
वह 'ईश्वर' नहीं है। 

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

सम्मान

चित्राभार: अमर उजाला 
 (यदि अमर उजाला के व्यवस्थापक वर्ग को आपत्ति हो तो कृपया यहाँ बताएँ, पोस्ट हटा दी जाएगी। ) 
उस पत्रकार को सैल्यूट जिसने यह फोटो ली। 
ऑटो के फर्श पर ठूँसी गई घायल युवती और उसके उपर पैर रख कर सीट पर बैठे पुलिस वाले की निजता का सम्मान करते हुए मैंने यह फोटो धुँधली कर दी है (हालाँकि इसे आप आज के अमर उजाला में देख सकते हैं।) लेकिन प्रशासन 'मानवता' का सम्मान करना कब सीखेगा?

प्रश्न उठते हैं:
(1) क्या घायलों को त्वरित मेडिकल या एम्बुलेंस मुहैया कराने की व्यवस्था है ?
(2) यदि नहीं तो पुलिस वाले यदि उन्हें जल्दी से हॉस्पिटल ले जाना चाहें तो क्या उन्हें स्वतंत्रता है कि हुए खर्च की परवाह न करें? क्या हुए खर्च का भुगतान त्वरित और उचित ढंग से होगा?
(3) विधि, तंत्र की व्यवस्थाएँ और माहौल क्या ऐसे हैं कि पुलिस ऐसे मामलों में परिणति की परवाह किए बिना संवेदनशीलता और त्वरा के साथ निर्णय ले?  
(4) मृत हो या जीवित, मानव शरीर को सम्मान देना चाहिए, इस बात की ट्रेनिंग (संस्कार की बात तो आजकल दकियानूसी मानी जाती है) क्या प्रशासनिक कर्मचारियों को दी जाती है?

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

झिरी से झाँक


तुम जो आए हो आज सुबह सुबह खिड़की की झिरी से झाँक रहे हो। मुझे सरसराहट सी लगी है। सुबह सुबह ऐसा होता है क्या कि दिन दुपहर सा लगे? सिल पर जमी धूल से गुजरती आँखें बोगेनविलिया के निर्गन्ध गुलाबी फूलों पर टिकी हैं। सुना है कार्बन मोनो आक्साइड को ऑक्सीजन समझ रक्त सोख लेता है तो गुलाबी हो जाता है - पूरब की अरुणाई लाली होती है क्या ? तुम ऐसे समय क्यों आते हो ? जानते हो अभी अभी आँखों की लाली से खीझ कर मैंने ब्लॉग फीड से अपनी यात्राओं के सारे निशाँ मिटा दिए हैं - जागूँ , प्रतीक्षा करूँ, देखूँ कि रोऊँ ? लाली के इतने अवसर ज़िन्दगी को दुरूह बनाते हैं।
हवा की ठंडक सुबह को ताज़ी बना देती है। कुत्ते तक मालिकों को खींच बाहर निकालते हैं, हगना होता है, घूमना होता है और शायद बिजली के खम्भे पर ... सुबह सुबह करते मैंने नहीं देखा। 
तुमने घंटी बजाई और झाँक रहे हो। घुटने के दर्द कहाँ घूमने देंगे बाबा? आज कल भाग दौड़ बहुत बढ़ गई है और ज़िन्दगी ज़िद किए ठहरी हुई है अड़ियल टट्टू की तरह .. कल देखा था कि दाढ़ी के बाल श्वेत होने लगे हैं - भरी भींड़ में से हँसते झाँकते कुछ चेहरे। उन्हें पता है कि मेरे घुटने अब जवाब देने लगे हैं। न चलने से पेट निकलने लगा है और अब आँखों को कागज से दूर करना पड़ता है - अक्षर साफ नहीं दिखते तो उनसे दूरी बनानी पड़ती है। आलमारी में रखी पुस्तकों पर जो धूल जम गई है उसका कारण बिमारी नहीं दूरी है। 
याद है एक बार तुमने मेरी हॉबी पूछी थी और मैंने बताया था पढ़ना - ढेर सारा और सब कुछ। तुम ने व्यंग्य भरे अन्दाज़ में देखा तो मुझे तुम्हारी आँखों में चौसठिया के वाक्य दिख गए थे - शायद तुम्हारे लिए 'सब कुछ' वैसा ही होता है।
 तुमने पूछा था क्यों पढ़ते हो? मैं तो तुम्हारे आस पास ही हूँ हमेशा। मुझे अक्षरों में क्यों ढूढ़ते हो ?
 मैंने समझा था  कि तुम प्रलाप कर रहे हो । 
मुझे लगता है कि तुम पूरे कभी मेरे पास नहीं रहे और अब भी लगता है कि पढ़ने से तुम पूरे पास रहने लगोगे लेकिन इन आँखों का क्या करूँ, जिनमें नींद नहीं, दम नहीं केवल लाली है जो लील गई है तुमको मुझसे?...
सिल पर जमी धूल से गुजरती आँखें बोगेनविलिया के निर्गन्ध गुलाबी फूलों पर अभी भी टिकी हैं। तुम लौटे जा रहे हो। सामने बिजली के खम्भे पर एक कुत्ते का मालिक .... दिन श्वेत हो चला है।
...खखार रहा हूँ, आँखों को धो रहा हूँ, वाश बेसिन का पानी लाल गुलाबी हो रहा है... गले से टपक रहा है या आँखों से

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

प्रात: से चुराए क्षणों में कुछ असहज बातें..

(1) 
वित्तीय वर्ष के अंत ने बहुत व्यस्त कर दिया है। कुछ लिखना नहीं हो पा रहा। कल एक पृष्ठ की फोटोकॉपी करने में तीन बार समझाने के बाद भी एक महिला प्रशिक्षु ने 10 पृष्ठ खराब किए। उन्हें फाड़ कर फेंकना पड़ा क्यों कि गोपनीय दस्तावेज था। मैं इस मामले में कुछ अधिक ही संवेदनशील हूँ, इतना कि मेरी टेबल पर 'प्रयुक्त लेकिन एक तरफ सादे कागज' पड़े रहते हैं जिनका उपयोग मैं ड्रॉफ्ट प्रिंट लेने के लिया करता हूँ । ... मैं बड़बड़ाया - एक और पेंड़ कटा !
मेरे एक वरिष्ठ ने सुन कर कहा," अरे इतना ही पेंड़ों को बचाना चाहते हो तो अखबार लेना बन्द कर दो..."
यह अप्रत्याशित था। ग्लॉसी और निहायत ही फालतू होने के कारण मैंने टाइम्स बन्द कराया था तो आशा के अनुरूप कायदे की सामग्री न होने के कारण जागरण (पत्रकार मित्रों से क्षमा)। लेकिन इंडियन एक्सप्रेस और अमर उजाला लेता हूँ। प्रात:काल 15 मिनट इंडियन एक्सप्रेस पढ़ता हूँ। उसकी रिपोर्टिंग और अन्य सामग्री अच्छी लगती है। अमर उजाला श्रीमती जी के लिए है और इसलिए मैं भी पढ़ता हूँ कि अपने स्तर और अज्ञान के प्रति ईमानदार लगता है (पुन: पत्रकार मित्रों से क्षमा)। ... वरिष्ठ महोदय का यह प्रस्ताव क्रांतिकारी लगा लेकिन मैंने प्रतिवाद किया । उन्हों ने प्रत्युत्तर दिया, " नेट है, टी वी है, रेडियो है - देखो, सुनो। यह आलस ही है कि नेट पर पता नहीं क्या क्या ढूढ़ लेते हो लेकिन ऑनलाइन अखबारों को नहीं पढ़ते। टीवी को गरियाने का शौक चल पड़ा है। देखने का सऊर तो है नहीं । जरा सोचो अखबार छपने बन्द हो जाँय तो कागज की कितनी बचत हो। अखबार तो ऑनलाइन छप ही रहे हैं। " उस जनता की सोच जिसे नेट नहीं उपलब्ध, अखबारों की छपाई बन्द करने का विचार मैंने 13 नम्बर फाइल में डाल दिया लेकिन हम जैसे तो अखबार बन्द करा ही सकते हैं। 
यह विचार मन को मथे जा रहा है।
(2) 
 महिला प्रशिक्षु ने यह ग़लती क्यों की? न तो हमारे ऑफिस का वातावरण महिला विरोधी है और न ही बाहर इतनी अराजकता है कि एकाध घंटे अतिरिक्त रुक कर काम तसल्ली से निपटा दिए जाँय लेकिन इन्हें जाने क्या जल्दी रहती है कि आधे घंटे पहले से ही पैक अप की तैयारियाँ चलने लगती है। जाने के समय से आप घड़ी मिला सकते हैं। वित्तीय वर्षांत की क्लोजिंग ई आर पी सिस्टम होने के कारण अतिरिक्त काम ले कर आती है। लेकिन इन महिलाओं ने एक भी दिन अतिरिक्त समय नहीं दिया। एक से दो बजे तक लंच है तो है। ऐसा नहीं कि ये बहुत सुगढ़ या प्रवीण हैं। होता यह है कि अनजाने ही पुरुष कर्मी बढ़े कार्यभार को भी सहेज लेते हैं। 
हाँ, यह बता दूँ कि उनके बाल बच्चे नही हैं।  बढ़े हुए कार्य दबाव में भागीदार होने की पहल ये कभी नहीं करतीं। स्वत: प्रेरणा नहीं होती, हाँ कहने पर अनिच्छा पूर्वक अवश्य लग जाती हैं।  जिनके रात को देर तक माल में घूमने से घर वालों को आपत्ति नहीं उन्हें ऑफिस में विलम्ब होने से तो नहीं ही होगी। कहीं ऐसा तो नहीं कि महिलाएँ कार्य स्थल पर लैंगिक कारणों से अनुचित लाभ ले रही हैं ?  जब मैं यह लिख रहा हूँ तो आशा करता हूँ कि आप मेरी बात को नारीवादी चश्मे से नहीं देखेंगे और निष्पक्ष विचार करेंगे। अपवादों की बात नहीं, मैं एक सामान्य प्रवृत्ति की बात कर रहा हूँ। 
(3) 
सानिया मिर्ज़ा का पाकिस्तान में विवाह तय हुआ है। उसने घोषणा की है विवाहोपरांत 2012 में वह ओलम्पिक में भारत का प्रतिनिधित्व करेगी। कई प्रश्न उठ रहे हैं:
(क) किसी विदेशी से विवाह करने के बाद नारी की भारतीय नागरिकता स्वत: समाप्त हो जाती है । क्या एक पाकिस्तानी  ओलम्पिक जैसे वैश्विक स्तर के खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व कर सकता/ती है? हो सकता है मेरा ज्ञान पुराना, गलत या अधूरा हो। जानकार लोग सही बात बताएँ और साथ ही उत्तरांश का उत्तर दें।  
(ख)   सानिया को ऐसी क्या आवश्यकता पड़ी है कि अभी से इस तरह की घोषणा कर रही है? ओलम्पिक को अभी दो वर्ष हैं। 
(ग) ऐसी परिस्थिति में भारत का क्या रुख होना चाहिए? मंगल कामना है कि उसका विवाह सफल हो लेकिन यदि खुदा न खास्ता उसकी शादी ओलम्पिक के पहले टूट जाती है तो क्या उसे ओलम्पिक में भारत की तरफ से खेलने के लिए दुबारा भारत की नागरिकता लेनी होगी?