शनिवार, 26 दिसंबर 2009

बाउ और मरा हुआ सिध्धर -1 : लंठ महाचर्चा

समय: सुखरिया की हत्या के करीब पन्द्रह बीस साल बाद                                              परम्परा: श्रौत 
(अ) 
 जिसे देखो वही खलिहान की तरफ भागा चला जा रहा था। वहाँ बुढ़वा पीपल के नीचे एक मेहरारू बेहोश पड़ी हुई थी। बाउ के मामा जीवधन सिंघ जब तक पहुँचते, अच्छी खासी भींड़ जमा हो गई थी। पेंड़ के नीचे लेटी बेहोश थुलथुल मेहरारू के शरीर पर लदर लदर मास - वहाँ मौजूद लोगों में से किसी ने पहले वैसा नहीं देखा था।... 
पेचिस का मरीज सोहिता हरदम लोटे का पानी ले कर ही बाहर निकलता था। मामा ने उसके हाथ से लोटा छीन बेहोश औरत के चेहरे पर छींटा मारना शुरू किया। कुछ ही देर में औरत होश में आ गई और बड़बड़ाती हुई उठ कर बैठने की कोशिश करने लगी तो लोगों के मन में सवाल उठने लगे - कौन है? ये यहाँ तक आई कैसे?
 खैर, जैसे तैसे कर के उसे पेंड़ का आसरा दे बैठाया गया और अचानक जीवधन बाबू के मन का कुहासा साफ हुआ जैसे सबेरे की टरेन पकड़ने जाते हुए रास्ते में अन्हरिया बारी से निकलते ही अचानक दिन का उजाला आ धमका हो !
" अरे ई त परबतिया के माई ह !" (अरे! यह तो परबतिया की माँ है।)
"परबतिया के माई ?" पास में मौजूद कई बुजुर्गवार लोग लुगाइयों के मुँह से एक साथ ही सवालनुमा अचरज निकला था। शंका और कौतुहल नपत्ता हो गए...
व्याधिग्रस्त परबतिया के माई काला पानी की सजा पूरी कर लौट आई थी। साबूत जिन्दा। उस जल्लाद जगह से भी जीते लौटना बदा था। लोग लुगाई स्तब्ध थे! 
नाटी शरीर में जैसे मास और पानी ही बचे थे। भूख के मारे बोलने की कोशिश भी फुसफुसाहट थी और साँस जैसे धौंकनी। बेरिया की अजिया सासु लाठी ठेकते गुड़ का रस अपने नाती के हाथ में थमाए उसके पास आई। रस पीने के बाद परबतिया के माई की इन्द्रियों ने काम करना शुरू किया और फिर बैस्कोप के माफिक गए जमाने की घटनाएँ एक एक कर आती चली गईं... मन जुड़ा गया। अपने गाँव जवार में आखिर वह पहुँच ही गई थी !
बाउ के मामा को देखते ही बनमानुख याद आया। याद आई वह करिखही रात और फिर जीवधन बाबू के पैर पकड़ वह पुक्का फाड़ रो पड़ी। आवाज नहीं, हाँफ, सिसकी और विलाप का अजीब मिश्रण पूरी शरीर के मास परतों में हिचकोले खा रहा था। 
मामा ने मुँह में अंगोछा ठूँसा और फफक पड़े। पास की जमा औरतों ने साथ दिया और मरद आँखें पोंछते अपने को रोकने की कोशिश करते भी हिचकने लगे। .. खलिहान पर हरनाचिघार मच गया था।
(आ) 
मामला शांत हुआ तो लोगों के दिमाग अशांत हुए। सैकड़ो सवाल लेकिन परबतिया के माई कुछ कहने सुनने की स्थिति में हो तब न ! फुसफुसाती आवाज में उसने अपने घर जाने की इच्छा जताई तो मामा ने बैकुंठा और बहोरन को सहारा देने का इशारा किया। लद लद देह ऐसे चल रही थी जैसे पोरसा भर भूसा का बोझा लिए गाड़ा डगर रहा हो। पन्द्रह बीस कदम पर ही रुक कर फफनाती हाँफ को आराम देती, मास से लगभग बन्द हो गई आँखों में उतर आए पसीने को साफ करती और फिर चल पड़ती...एक एक कदम जैसे गुजरे दिनों का हिसाब कर रहा था। 
उसकी ग़ैरहाजिरी में मामा ने परबतिया के माई के घर को वैसा ही छोड़ दिया था। कोर्ट कचहरी पुलिस का मामला, कौन बिना बात फँसे !...
परबतिया के माई दुआर के बीच में खड़ी आँखों पर हाथ दिए निहारने लगी जैसे अपनी बाट जोहते घर की नजरों से  जामा तलाशी ले रही हो। 
..उँड़ासी हुई खटिया का ढाँचा भर बचा था। सुतरी कब की गल बिला गई थी। जिस टाट के सहारे उसे कभी खड़ा किया गया था, उसकी बस रेख सी झाँक रही थी। उसके दोनो ओर मोथे की जाने कितनी पीढियाँ पैदा हो लापता हो चुकी थीं। दोनों मड़इयों की जगह दो ढूह से दिख रहे थे जिन पर रत्ती  पसरी थी। दोनों ढूहों से झाँकते दो दो खम्भे आसमान को बता रहे थे कि इंतजार बहुत ऊँचे दर्जे की चीज होती है। एक खम्भे पर काई जाने कितनी बार जमी थी सूखी थी। दुवार तो जैसे मूज,कूसा, भचकटया का बगैचा हो चला था।...
गले में कुछ अटक गया था। लगा कि सुखरिया सामने से आ रहा है। एक पल को आँखों के आगे अन्धेरा छाया और फिर घम्म से जमीन पर बैठ परबतिया के माई ने दारुण विलाप शुरू कर दिया। मामा ने इशारा किया। लोग लुगाई अपने अपने घरों को चल दिए। जितने मुँह उतनी बातें। 
"अरे बचि कइसे गइल?" (अरे ! कैसे बच गई?)
"देक्ख केतना मोटाइलि बा!"(देखो कितनी मोटी हो गई है!)
"है बुरधुधुर, बेमारि बा। पूरा देंहि पानी हो गइल बा"(धत्त बेवकूफ! बीमार है। पूरी देह पानी हो गई है।)
"कुच्छू होखे काला पानी से बँचि त गइलि !"(कुछ भी हो काला पानी से बँच तो गई।) 
(इ) 
मधया बिन माँ बाप का किशोर। मैभा महतारी उसकी पालनहार थी।  रूढ़ लोकमान्यता के विपरीत वह देवी थी। मधया को अपने बच्चे की तरह पाला था लेकिन बेटा नालायक निकल गया। दिन भर घूमता रहता था। उस दिन पहली बार मधया गम्भीर हुआ था। 
खलिहान से ही परबतिया के माई के पीछे पीछे लगा वह उसके दुवार तक आया था। जब उसे रोता छोड़ सब चल दिए तो भी दूर बैठा चुपचाप देखता रहा था। शाम होने पर जब वह चुप हुई तो दौड़ता अपने घर गया और परई भर दूध लाकर उसे पिलाया। 
... एक झोंपड़ी मामा ने छवा दी और जिन्दगी धीरे धीरे चल निकली। परबतिया आई, एकाध महीने रही भी लेकिन घर गिरहस्ती और आसक्त मरद के कारण वापस ससुरा चली गई।
मधया को जैसे मरी माँ मिली तो परबतिया के माई को सहारा। थोड़े ही दिनों में दोनों को गाँव ने एक ही घर का सा मान लिया। परबतिया के माई अब मधया के काकी हो गई थी। हालाँकि उमर के हिसाब से उसे ईया होना चाहिए था लेकिन बनाए गए रिश्ते समय के कर्ज से मुक्त होते हैं। इसमें गाँव वाले कुछ नहीं कर सकते थे।   
मैभा महतारी भी खुश थी, मधया अब खेत डाँड़ और ढोरों की खोज खबर रखने लगा था। 
... काकी की बिमारी यथावत बनी रही। दस कदम से ज्यादा चलने पर काकी हाँफने लगती। जमीन पर बैठ सुस्ता लेती फिर चलती। खेत गोड़ार या तो परती थे या बटाई लेकिन घूमने फिरने और लोगों से मिलने जुलने की साध पूरी न होती।  दुखिया काकी मधया से अपने मन की बात कहती और सुबक लेती। 
एक दिन मधया ने पूछा," ए काकी, पइसा रखले बाड़ू ?" (काकी, कुछ पैसे रखी हो?)
" का होई रे? केतना चाहीं?"(क्या होंगे रे? कितने चाहिए?) 
"रेक्शा कीने के बा"(रिक्शा खरीदना है।)
"का होई रे?"(क्या करेगा उसका?)
"अरे काकी तोहके घुमाइब।"(अरे काकी! तुम्हें घुमाना है।) 
 काकी की आँखें भर आईं, जैसे डूबते को तिनका मिला हो। उसी दिन उसने मामा को बुलवाया। मामा और मधया बड़की शहर गए और चौथे दिन रिक्शा लेकर लौटे। मधया चलाना भी सीख गया था। शायद मामा को बैठा कर लाया भी था। 
गाँव के लिए रिक्शा अजूबा था। साइकिल बस गजकरन सिंघ के यहाँ थी जिसमें दो पहिए थे लेकिन इसमें तो तीन पहिए थे। कोई भी थोड़ी देर में चला सकता था। मधया छूने दे तब न !
परबतिया के माई को जैसे पाँव मिल गए हों। मधया रिक्शे पर बैठाए उसे खेत खलिहान घुमाता। खाली रहता तो किसी को नाता रिश्ते में छोड़ आता, फिर ले आता। कुछ कमाई भी हो जाती थी।...
(ई)
आज मौसम बहुत सुहावन था। काकी ने मधया को रिक्शा पक्की सड़क पर ले चलने को कहा। चिकनी सड़क, मन्द मन्द बयार और रिक्शे के अगल बगल से गुजरती हवा! काकी की जाने कब आँख लग गई। 
धड़ाम !...
आँख खुली तो पाया कि मधया उसे जमीन से उठाने की कोशिश कर रहा था और शरीर का पोर पोर दुख रहा था। उसने मधया को सौंह दिलाई कि किसी को नहीं कहेगा।
मधया था तो किशोर ही न ! उस समय तो मुश्किल से हँसी रोका लेकिन घर आ कर खूब हँसा और अपनी महतारी को भी बताया। बात मशहूर हो गई। रिक्शे की बरजन से चिढ़े लोगों को एक मसाला मिल गया। लोग काकी से पूछते और चिढ़ने के बजाय काकी तफसील से सुनाने लगती।
"सुनलीं हे तू रेक्शा से गिरि गइल रहलू। कइसे ? मधया लँड़हेर हे, सारे कहीं गड़हा में कुदा देहले होई। घाव त नाहिं लागल न?"(सुना है कि तुम रिक्शे से गिर गई थीं। कैसे ? मधया बदमाश है, साले ने कहीं गड्ढे में कुदा दिया होगा। चोट तो नहीं लगी थी न ?)
"अरे बचवा, वोकर कौनो दोष नाहीं। रेक्शवा पर एतना निम्मन बयार लागत रहल के हमार आँखि लागि गइल। भारी देंहि नाहिं रोकाइल। भहरा गइलीं। एतना उपर से गिरब त घाव लगबे करी लेकिन ठीक हो गइल।"(अरे बेटा, उसका कोई दोष नहीं था। रिक्शे पर इतनी अच्छी हवा लग रही थी कि मेरी आँख लग गई। भारी शरीर सँभल नही ंपाई, गिर गई। इतने उपर से गिरने पर चोट तो लगनी ही थी लेकिन ठीक हो गई।)
लोग बाद में यह कह कर कहकहे लगाते कि उसकी देंह तो गुलगुल्ला है। चोट कैसे लगती? अजीब तरह का क्रूर चिढ़ाऊ  मनोरंजन था यह जिसमें चिढ़ना नहीं था फिर भी करीब रोज यह बात काकी से कोई कर ही जाता।..
..ऐसे ही एक दिन जब खलिहान पर बहोरना काकी से वही पुराना रिक्शे वाला घटना क्रम पूछ कर मजे ले रहा था, बाउ गाड़ा लिए ममहर करने आ पहुँचे। ( ...जारी) 
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शब्द सम्पदा: 
सिध्धर - एक प्रकार की छोटी मछली, उससे भी छोटी को सिधरी कहते हैं। 
(1) मेहरारू-औरत; (2)  थुलथुल - अत्यंत स्थूल, मोटी (3) लदर लदर मास - मोटी शरीर पर का अस्ंतुलित मांस (4) टरेन - ट्रेन (5) अन्हरिया   बारी - देसी आमों का पुराना, बहुत बड़ा और घना बागीचा जिसमें दिन में ही रात जैसा अन्धेरा रहता था। (6) नपत्ता - लापता (7) अजिया सासु - सास की सास (8) रस - शरबत (9) नाती - पोता (10) बैस्कोप -  बाइस्कोप (11) करिखही - बहुत काली (12)  हरनाचिघार - आर्त्तनाद  (13) लद लद देह - ऐसी शरीर जिसमें मांस की परतें शरीर छोड़ झूलती रहती हैं (14) पोरसा भर - बहुत ऊँचा (15) गाड़ा - बैलगाड़ी (16) फफनाती - उफनती (17) बाट जोहते - प्रतीक्षा करते (18) उँड़ासी हुई - खड़ी की हुई (19)  सुतरी - सुतली (20) गल बिला - सड़ गल कर गायब हो चुकी,(21) रत्ती - एक तरह की लता जो खेतों में फैलती है। (22) कूसा - कुश घास (23) भचकटया -नरम पत्ते वाला छोटा कँटीला पौधा, (24) बगैचा - बागीचा,(25) मैभा महतारी - सौतेली माँ (26)गिरहस्ती - गृहस्थी,(27)  ईया - दादी ,(28)  बड़की शहर - गोरखपुर ,(29) चिढ़ना - जो चिढ़ाने पर चिढ़े । 


  

गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

प्रिंटर की धूल और मोटी रोटियाँ ...

प्रिंट लेने को प्रिंटर ऑन करता हूँ और पाता हूँ कि उस पर धूल नहीं है ....अचानक मन में हथौड़ा बजता है- अम्माँ गाँव वापस चली गईं!
मायके से श्रीमती जी का आना उस धूल को साफ कर गया है जिसे देख मैं उनको याद करता था। अजीब धूल ! होना एक याद, न होना दूसरी याद। यादें धूलधुसरित होती हैं, मुई फिर झाड़  पोंछ कर खड़ी हो जाती हैं।
कैसा है यह आलस जो धूल को खुद साफ नहीं करने देता? यादों से प्रेम है इसे ..धूल की एलर्जी जो न गुल खिला दे। रोग भी कमबख्त मुझे कैसा लगा !
मैं शुद्ध हिन्दुस्तानी बेटा - माँ और पत्नी के बीच अपनी चाह को बाँटता! चाह बँट भी सकती है क्या? धुत्त !
लेकिन आज जो प्रिंटर पर धूल नहीं, अम्माँ याद आ रही हैं।
.. पिताजी डाइनिंग टेबल पर बैठे हैं और अम्माँ रसोई से आवाज लगा रही हैं। पिताजी के उपर रची जाती कविता को अधूरा छोड़ टेबल पर आता हूँ तो खाना लगा ही नहीं है !
अम्माँ ई का?
बइठ, रोटिया सेरा जाइ एहिसे पहिलही बोला देहनी हें (बैठो, पहले ही परोस कर रख देने से रोटी ठंडी हो जाती, इसलिए पहले ही बुला लिया IMG0087Aहै)।
बैठता हूँ और फिर याद आती है आवाज, "टेबल पर आ जाइए, खाना लगा दिया है।"
पत्नी को रोटी ठंडी हो जाने की चिंता नहीं, अपना काम खत्म करने की चिन्ता है। ... यह तुलना मैं क्यों करता हूँ ?
अम्माँ! तुमने प्रवाह भंग कर दिया। अब पिताजी के उपर रची जाती कविता अधूरी ही रह जाएगी! सम्भवत: मुझे तुम पर पहले लिखना था। सगुन अच्छा रहता।
अम्माँ, रोटिया मोट मोट काहें बनवले हे (अम्माँ, रोटियाँ मोटी क्यों बनाई हैं?)
अरे बाबू बना देहनी हे गोनवरे गोनवरे जल्दी से (बेटा, जल्दी से मोटी मोटी बना दिया है।)
.. यह जल्दी क्यों अम्माँ? गठिया की बिमारी के कारण तुमने गाँव पर रसोई घर खुद 'डिजाइन' कर दुबारा बनवाया और यहाँ गैस चूल्हे को प्लेटफॉर्म से उतारने नहीं देती ! बहू आएगी तो जाने कौन सी गड़बड़ी मिले! कल पुर्जे की चीज !
लेकिन तुम्हारी शरीर के कल पुर्जे तो उम्र की घिसान झेल रहे हैं। रोटी बनाने के लिए कितनी देर खड़ी रह पाओगी ? क्यों मैं तुम्हें रोक नहीं पाता? रोटियाँ तो बाहर से भी आ सकती हैं। लेकिन पिताजी तन्दूरी रोटी चबा नहीं पाएँगे और वह लालच तुम्हारे
हाथ की रोटियाँ खाने का ! भावुकता, स्वार्थी !...
..अम्माँ क्या वाकई यही बात थी रोटी मोटी बनाने के पीछे !
पहले दिन खिलाते हुए तुमने रोटियाँ गिनी थीं। मैंने दो के बाद ना कर दिया था।
अम्माँ, खेत में फावड़ा थोड़े चलाना। ऑफिस में दिन भर बैठना ! आजकल हजार बिमारियाँ हो जाती हैं। कम खाना, सुखी रहना।
दूसरे दिन से ही रोटियाँ मोटी होने लगी थीं। मैं समझ गया था लेकिन पूछा नहीं। आज क्यों पूछ बैठा? वह पहले वाली बात मिस कर गया था न !
..कमाल है तुमने कुछ नहीं कहा और मैंने सब सुन लिया !
श्रीमती जी तीसरी तक तो खिला देती हैं लेकिन सब्जी के लालच में चौथी माँग बैठो तो टोकारी ! .. आज कल 'भोंय भाँय' बन्द है, फिर से ... हुस्स।
... बाबू! हेत्तत देंहि, एतना बड़हन दिन। कइसे एतना कम खइले से चली? (बेटा! इतनी बड़ी शरीर, इतना बड़ा दिन! इतना कम खाने से कैसे चलेगा?)। अधिक या भारी काम हो तो पौने छ: फुटा बेटा माँ को 'दुब्बर अब्बर' दिखने लगता है। खिलाना हो तो वही
शरीर ऊँची और पहलवान दिखने लगती है - खुराक अधिक चाहिए ! धन्य अम्माँ, यह कौन सा पैमाना है? 
अम्माँ, पेट खराब हो जाला (अम्माँ, पेट खराब हो जाता है।)
चूरन ले आइल बानीं - हर्रे, मंगरइल, अजवाइन, काला नमक..... खुदे बनवले बानी। रोज राति के एक चम्मच फाँकि लेहल कर, सब ठीक हो जाई (चूरन ले आई हूँ। ... खुद बनाया है। रोज रात को सोते समय एक चम्मच फाँक लिया करो। सब ठीक हो
जाएगा।)
रोटियाँ या तो मोटी खानी पड़ेंगी या अधिक संख्या में - भले चूरन खा कर पचानी पड़ें। 
... रात में रोटियाँ कम खाइए। पेट ठीक रहेगा।
दो स्नेह। निठल्ला मैं - कितने टाइप के और कितने सारे स्नेह का बोझ सँभालता हूँ! विपरीत स्नेह !!
.. श्रीमती जी अम्माँ से मोबाइल पर बात कर रही हैं। सास की हिदायतों पर हूँ हाँ कर रही हैं ।
साफ हो चुकी धूल की अंगुलियों के निशान प्रिंटर पर जोहते मैं पतली रोटियों के पुकार की प्रतीक्षा कर रहा हूँ ..

..अजवाइन, काला नमक, हरड़ और मँगरैल के डिब्बे अम्माँ के साथ ही चले गए हैं। 
.. गाँव , इस समय पिताजी की 'और रोटियों की माँग' को ठुकराया जा रहा होगा ...



सोमवार, 21 दिसंबर 2009

दूसरा भाग: अलविदा शब्द, साहित्य और ब्लॉगरी तुम से भी..(लंठ महाचर्चा)

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पिछले भाग से जारी...
प्रवचन के बीच में ही पुस्तकालय के द्वार खुल गए। बाहर घूमते अद्भुत प्राणी एक साथ द्वार की ओर भागे तो लेंठड़े को उत्सुकता हुई। वह भी घुस गया और स्तब्ध रह गया ! उन्नत मेधा के उस जीव ने जो देखा वह अलौकिक था। यह सभ्यता तो बहुत विकसित थी ! जिस अतीन्द्रिय क्षमता का उस सनातन बर्तन के भीतर कोई काम नहीं था, उसका उसने यहाँ प्रयोग किया और अद्भुत प्राणियों, जिन्हें मानव कहा जाता था, की सभ्यता के सारे पृष्ठ कुछ क्षणों में ही उसके लिए ऐसे हो गए जैसे उसके पंजों के पकड़। विस्मित सा वह सोचता ही रह गया - कितने उलट पुलट, कितनी यात्राएँ, कितने विमर्श, कितने ज्ञान, विज्ञान, कितने घात प्रतिघात.... यह सभ्यता कितनी रोचक थी !
    विस्मय से बाहर आ लेंठड़े ने दृष्टि फिराई तो मानव चुपचाप बेंचों पर पढ़ने और नोट करने में लगे थे। इतनी शांति ! उफ। उसे उस बर्तन से अपना अभिगमन याद आ गया। उस समय कितना कोलाहल मचा था। उसे यह इंगिति हुई कि ये मानव विभिन्न प्रकार के थे, क्या नर क्या मादाएँ - वैज्ञानिक, गणितज्ञ, साहित्यकार, पत्रकार, विद्यार्थी, शोधार्थी, प्रबन्धक, प्रशासक, प्रोफेसर, इंजीनियर, वास्तुशास्त्री, अनुवादक, निठल्ले .... जाने कितने! उसे निठल्ले सबसे अनूठे प्राणी लगे। इन्हें सब कुछ आता था और कुछ नही आता था। ये जटिल थे क्यों कि कभी गम्भीर बहस में पड़ सकते थे तो साथ ही कभी भी बीच से ही अपनी अज्ञानता बघार कर चलते बन सकते थे। 

  असल में रास्ते में चलते ही उसे शब्द जैसे विराट वस्तु की प्रतीति हुई थी और उसने अपने प्रवचन का उसे ही विषय बनाया था लेकिन पुस्तकालय में आने के बाद वह 'शब्द' की विराटता से अभिभूत रह गया था। उसने तय किया कि इनमें से एक एक को चुन कर अपनी बात कहेगा। पहली बार के लिए उसने कोने में हैट लगाए बैठे चुपचाप समीकरण बैठाते गणितज्ञ को पकड़ा। बात शुरू करने के लिए उसने फुसफुसा कर पूछा ," दो और दो चार क्यों होते हैं?" गणितज्ञ पहले ही उसका प्रवचन बाहर सुन हैरान हो गया था। उसने नज़र उठाई तो लेंठड़े ने बाहर आने का इशारा किया। सम्मोहित सा गणितज्ञ उसके साथ बाहर आ गया। बाहर आते ही लेंठड़े ने उसे बिना अवसर दिए अपना प्रवचन चालू कर दिया:
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क्या ऐसा नहीं है कि दो और दो चार उसी तरह होते हैं जैसे 'नृत्य' का मतलब नाचना होता है खाना नहीं? दो और दो चार से ज्यादा महत्वपूर्ण है: 'नृत्य' शब्द का उद्भव कैसे हुआ या फिर 'एक, दो... इत्यादि' का उद्भव कैसे हुआ? किस तरह से अक्षर, ध्वनि और मानव मन में उपजे विचारों ने 'शब्द' को जन्म दिया होगा.?

गणित भी तो एक भाषा की तरह ही है जिसमें अक्षर है, शब्द हैं और साहित्य भी है. प्रिन्सीपिया मैथेमेटिका में एक सिद्धांत है जो दो और दो के चार होने को एक मूल नियम से जोड़ता है. पर दो और दो चार तो उसके पहले भी होते थे. ठीक वैसे ही जैसे बिन व्याकरण के भी शब्द होते थे. व्याकरण तो संभवतः शब्दों के समूह को समझने के लिए उन्हें एक नियम में बांधने के लिए बाद में बनाया गया प्रिन्सीपिया मैथेमेटिका की तरह.

अक्षर, शब्द, वाणी, भाषा, साहित्य... इनके उद्भव और गणित के विकास में बड़ी समानता है. बस गणित में सब कुछ तर्क और एक परिभाषित संरचना के अंतर्गत होता है साहित्य में आजादी अधिक है. गणित की अपनी सुंदरता है... साहित्यिक और कवितामयी ! ठीक साहित्य की तरह ही गणितीय साहित्य कुछ के लिए बस गणितीय शब्दों का संकलन होता है... ये संकलन सुंदर क्यों होता हैं ये तो कोई संभवतः कोई गणितज्ञ नहीं बता पाता लेकिन जो ये सुंदरता देख पाते हैं उनके लिए अगर इस शब्द विन्यास में सुंदरता नहीं तो संसार में फिर कुछ भी सुंदर नहीं.

गणितीय शब्दों के बिना गणितीय सोच संभव नहीं है. ठीक वैसे ही जैसे शब्दों के बिना सोचना संभव नहीं. एक रोचक स्वाभाविक तार्किक प्रश्न उठता है: क्या हम इसलिये सोचते हैं क्योंकि हमारे पास शब्द है? या फिर हम सोचते हैं इसलिये हमारे पास शब्द हैं? या फिर उत्तर कहीं इन दोनों के बीच में आता है? सोच पाना संभवतः मानव को ईश्वर द्वारा दिया गया सबसे बड़ा वरदान है. हर मनुष्य सीखने की क्षमता के साथ इस संसार में आता है और सब कुछ यहीं सीखता है. इस प्रक्रिया में सोच का माध्यम बनते हैं शब्द. वैसे क्या मानव सोच तब नहीं होगी जब शब्द नहीं थे? संभवतः कुछ दृश्य और ध्वनि के जरिये. लेकिन शब्दों ने सोच और सोच ने शब्दों को जो गति दी होगी उसी से तो क्रांतिकारी परिवर्तन आया होगा. गणित के हिसाब से सोचें तो शब्दों, अंकों और गणितीय अक्षरों, के पहले भी संभवतः मनुष्य के पास सीमित गणितीय सोच का तरीका होगा, गिनती करने का. लेकिन क्या ऐसा नहीं है कि आज जो भी गणितीय साहित्य है उसे गणितीय शब्दों ने ही गति दी. आज क्या गणितीय सोच बिना उन शब्दों के संभव है?

सोच और शब्दों का आपसी सहयोग और एक दूसरे पर निर्भरता तो मानव के विकास की कहानी ही लगती है. क्या संसार में कोई शब्द विहीन मानव समाज है कहीं? गणित की अलग अलग शाखाओं की ही तरह भिन्न समाजों के शब्द भले अलग रहे लेकिन उद्देश्य तो एक ही था. गणित की अलग अलग शाखाओं में आपसी संबंध की ही तरह भाषाओं में आपसी संबंध ने भी नए सोचों का संगम कराया. शब्द जितने समृद्ध हुए मानव सोच भी उतनी ही समृद्ध होती गयी.

गणितीय अक्षरों और शब्दों का साथ मिलने पर गणितीय सोच की धारा बह निकली. बिना इन शब्दों के गणितीय सोच और साहित्य की परिकल्पना असंभव है. अगर अंकों से बढ़ें तो शुरू में केवल प्राकृतिक संख्याएँ ही थी और इसे ही पूर्ण समझा गया. शून्य, भिन्न, दशमलव और अनंत जैसे नए विचारों का जुड़ना कइयों की गणितीय सोच के लिए झटका था. उन्हें लगा कि ये गणित की पूर्णता को समाप्त कर देंगे. ये नए अंक उनकी समझ की सीमा से बाहर थे. उन्हें ये प्राकृतिक संख्याओं के लिए ख़तरा जैसे लगे. पर वास्तव में इनसे गणितीय साहित्य को जो समृद्धि मिली वो जगजाहिर है पर प्राकृतिक संख्याएँ आज भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है. आज भी एक नवजात शिशु उन संख्याओं से ही गणितीय सोच की तरफ कदम बढ़ाता है.

इस नजरिये से शब्द तो सोच का प्रतिबिंब है एक ऐसा माध्यम जिसकी सहायता से सोच को संचारित किया जा सके. गैलीलियो ने कहा कि गणित एक ऐसी भाषा है जिसमें भगवान ने ब्रह्मांड लिखा है. अगर इसे मानें तो अपने विचार को आकार देने के लिए भगवान तक को एक भाषा और शब्दों की जरूरत पड़ी. और फिर मानवीय शब्दों और वाचिक परंपरा ने संसार को बदल डाला. अगर ये मान भी लिया जाय कि शब्दों के अलावा कोई और तरीका था मानव सोच का तो ये तो मानना ही पड़ेगा कि वो प्रभावी नहीं था और विकास प्रक्रिया में शब्दों ने जब आकार ग्रहण किया तब सब कुछ बदल गया.

अब गणित के संदर्भ में ही एक सिद्धांत जो इस तरह लिखा जाता था 'एक गोले के सतह का क्षेत्रफल उस पर बनने वाले सबसे बड़े वृत्त के क्षेत्रफल का चार गुना होता है' गणितीय अक्षरों और शब्दों के आने के बाद इसे इस तरह लिखा गया एस = ४पाईआर^२. इस तरह विचारों को प्रकट और संप्रेषित कर पाने से ही सारा गणितीय साहित्य और सोच समृद्ध हुए. ऐसे समीकरणों ने गणितीय साहित्य और सोच को त्वरित किया. इस उदाहरण में गणित को व्यक्त करने के लिए फिर भी शब्द थे, बस ये शब्द गणितीय नहीं थे. पर जब शब्द ही नहीं थे अगर ऐसी स्थिति थी भी तब मानव अगर सोच भी पाता होगा तो वो सोच प्रक्रिया कितनी जटिल और कितनी कम लाभकर होती होगी? गणितीय शब्दों के उपयोग से पहले गणित में परिणाम इतनी जल्दी नहीं आते थे और प्रभावी भी नहीं होते थे. क्योंकि सोचने के लिए औज़ार नहीं थे. शून्य, अनंत, अज्ञात के लिए एक अक्षर का प्रयोग जैसे नए प्रयोगों ने गणित को जिस गति से समृद्ध किया क्या वो किसी और तरीके से संभव था?

गणित में निराकार और अमूर्त की बात होती है पर क्या ये सचाई नहीं है कि अंततः शब्दों के माध्यम से ही वो व्यक्त किए जाते है. हम किसी भी युग में जायें शब्द गौण हो जायें ऐसा होता नहीं दिखता. शब्दों का स्वरूप भले बदल जाये पर समाप्त तो नहीं हो सकते. बिना समीकरण और गणित के क्या आइन्सटाइन रिलेटिविटी पर कुछ कर पाते? या फिर क्या क्वांटम फिजिक्स जैसी कोई चीज संभव थी? ठीक वैसे ही जैसे तुलसी बाबा के मानस की कल्पना बिना शब्द विन्यास के नहीं की जा सकती.

कई बार नयी सोच को संप्रेषित करने के लिए शब्द पहले से ही तैयार रहते हैं. कई बार नयी सोच के साथ नए शब्द आते हैं. कई बार साहित्य ने एक नयी सोच को जन्म दिया तो कई बार नयी विचारधारा ने साहित्य को जन्म दिया. ठीक वैसे ही जैसे भौतिकी के कई आविष्कारों में गणित उपयोग के लिए पहले से ही मौजूद था तो कई बार इस सिलसिले में नया गणित ही बन गया. विज्ञान की कई शाखाओं में गणित सोचने का वैसा ही एक उपकरण है जैसे शब्द हमारे दैनिक सोच के लिए. भौतिक विज्ञानी वैसे ही उपयुक्त गणितीय औज़ार चुनते हैं जैसे साहित्यकार शब्द. जब सोच को उपयुक्त शब्दों का माध्यम मिल जाता है तो सोच को नयी उड़ान मिलती है साथ में सृजनात्मकता भी आती है.

शब्दों में कई बार विचारों को अपने नियंत्रण में लेने और उन्हें प्रभावित करने की क्षमता भी होती है. इस शब्द विन्यास में एक जादू है जो सोच को संवेग प्रदान करता है. भौतिक विज्ञानी और इंजीनियर गणितीय समीकरणों में सोचने लगते हैं. सोच गौण हो जाता हैं माध्यम (शब्द) के सामने. जैसे उन वैज्ञानिकों के पास गणित के अलावा कोई और विकल्प नहीं वैसे ही हमारे पास भी शब्दों के अलावा और क्या विकल्प है? नए गणित की तरह नए शब्द आते रहेंगे लेकिन बिना उनके क्या हम सोच सकते हैं?

मौलिक गहरे मानवीय सोच तथा दैनिक कार्यकलाप अक्षरों और गणितीय सोच के उद्भव का स्रोत दिखते तो हैं पर स्वयं मानवीय सोच का इन पर आश्रित होना और उस पर इनका असर विरोधाभास की स्थिति पैदा करता है. शब्द और सोच दोनों का साथ-साथ उद्भव ही क्या संभव उत्तर नहीं लगता? वर्तमान भाषाई स्वरूप और विविधता को आधार बनाकर एक भाषा विज्ञानी ने सांख्यिकीय शोध किया तो शब्दों के उद्भव का काल मानव सभ्यता के ज्ञात शुरुवाती दिनों तक गया. तो क्या यह शोध शब्दों के उद्भव या उससे पहले कि स्थिति को समझा पाता है? नहीं... पर इतना तो दर्शाता ही है कि मानव सोच और शब्दों का उद्भव साथ-साथ ही हुआ.

और शब्दों का भविष्य? क्या मशीन इंटेलिजेंस से शब्दों पर ख़तरा नहीं दिखता? ख़तरा? मानव सोच तो शब्दों पर निर्भर रहेगी ही. शब्द के स्वरूप भले बादल जायें वर्तमान भाषा की जगह बिट्स का संप्रेषण भी होने लगे तो शब्द तो बाइनरी स्वरूप में रहेंगे ही. संभव है बिट्स की जगह क्वांटम बिट्स (क्यूबिट्स) आ जाएँगे. गणित की नयी शाखाओं की तरह नए शब्द जुडते रहेंगे, कॅटेगरी थियोरी की तरह सारी भाषाओं को भले एक नियम के अंतर्गत लाने की 'कोशिश' भी हो... जो गणित में की गयी कोशिश की ही तरह पूर्ण रूप से सफल भी नहीं हो सकती. लेकिन बदले रूप में शब्द तब भी रहेंगे ही. (जारी...)

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

..जिस स्पिरिट के साथ मैं लिख रहा हूँ वह आप लोगों में नहीं है।


"मेरी सोगवार माँ, भाइयों, बहनों और अजीजों !
यह खत जब तुम्हारे हाथ में पहुँचेगा तब न मालूम तुम्हारा हाल क्या होगा। न मालूम उस वक्त मैं जिन्दा या राही-ए-अदम हो चुका होउँगा। मुझे पूरा इतमिनान है कि जेल के हुक्काम यह खत जरूर रवाना कर देंगे। जबकि यह मरने वाले की ख्वाहिश है। बहरहाल मैं लिख रहा हूँ, अब खुदा आलिम है कि क्या हो।
 खैर, आखिरी हुक्म आ गया है, अब दो-एक रोज के मेहमान हैं। इसमें कोई शक नहीं कि मैं तख्त-ए-मौत पर खड़ा हुआ यह खत लिख रहा हूँ, मगर मैं मुतमइन व खुश हूँ कि मालिक की मर्जी इसी में थी। 
बड़ा खुशकिस्मत है वह इंसान जो कुर्बान गाहे वतन पर कुर्बान हो जाए। गो कि यह फिकरा जिस स्पिरिट के साथ मैं लिख रहा हूँ वह आप लोगों में नहीं है। 
यूँ आप को तकलीफ महसूस होगी। 
मेरी गजलियात मकान पर मौजूद होंगी। वह आज से बहुत पहले की लिखी हुई हैं, उनको पेशीनगोई समझिएगा और वैसा ही होना था जो कलम से निकला। 
मेरे सुकून की वजह मेरी बेगुनाही है और यकीन रखिए कि अशफाक का दामन इंसानी खून के धब्बों से पाक साफ है। "
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यह आखिरी खत है भारत भू के अमर सपूत क्रांतिकारी अशफाक उल्ला खाँ वारसी का जिन्हें 27 वर्ष की आयु में ही ब्रिटिश साम्राज्यवादी सत्ता ने काकोरी ट्रेन डकैती और हत्या के अभियोग में 19 दिसम्बर 1927 को फैजाबाद जेल में फाँसी पर लटका दिया था।  
आज नमन और श्रद्धांजलि । 
मृत्यु के साये में भी 'अपने शब्दों' से इतना जुड़ाव, उनकी इतनी फिक्र ! सचमुच हममें वह स्पिरिट नहीं है। 
जाने क्यों आँखें नम हो रही हैं ...
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आभार अमर उजाला  उनकी याद दिलाने के लिए।  

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

लंठ महाचर्चा: अलविदा शब्द, साहित्य और ब्लॉगरी तुम से भी...

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...  लेंठड़ा सनातन पात्र से बाहर आ चलते चलते थक गया था। सुस्ताने के लिए वह जहाँ छाये में रुका, वह जगह पुस्तकालय भवन कहलाती थी। भवन का द्वार बन्द था लेकिन उसके बाहर बहुतेरे अद्भुत प्राणी टहल रहे थे। अपना परिचय देने के लिए और उनकी प्रतीक्षा को फलदाई बनाने के लिए लेंठड़े ने यह प्रवचन दिया था। स्पष्ट है कि मैं भी उन अद्भुत प्राणियों की भीड़ में सम्मिलित था। बहुत सी बातें समझ में नहीं आईं। जो आईं उन्हें किसी तरह यहाँ दे रहा हूँ। एक बात तो एकदम समझ में नहीं आई - लेंठड़ा अपने को 'हम' में शामिल कर बात कर रहा था। कहाँ केंकड़ा, कहाँ मनुष्य !
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(10) काल:सार्वकालिक                                           परम्परा: भ्रमित परंतु जागृत मन की

crab2 शब्द क्यों आवश्यक हैं? हमने शब्द क्यों गढ़े? समूह में रहने और सम्बन्धों के ढीले स्वरूप में प्रारम्भ होने से संवाद की आवश्यकता आन पड़ी और उत्तरोत्तर अनिवार्यता बनती गई।  मुँह की बिचकाहट, चेहरे की लाली, भौहों और नाक की सिकुड़न, हाथों की हरकतें, आँखों के आँसू, देह की तमाम हरकतें... अपनी बात कहने और दूसरे तक पहुँचाने में जब अपर्याप्त लगने लगीं तो वाणी का 'विकसित होना' प्रारम्भ हुआ। बात और वाणी एक नहीं हैं। अगर हम किसी को आँख मारें और वह हँस दे तो यह भी एक बात हुई। सरल युग में सम्भवत: ऐसे ही कुछ से संवाद होता होगा और बहुत कुछ समझ भी लिया जाता होगा - सरलता के कारण, साथ। बात को जब वाणी का यान मिला तो वह भाग चली। उसे लगा कि अब वह श्रृंगार कर सकती है, चल सकती है, दौड़ सकती है, बढ़ सकती है, घट सकती है, छिपी रह सकती है, चुपके से अन्धेरे में फुसफुसा सकती है... उसने अपने हर 'लगाव' को बढ़ाना, बझाना और लगाना शुरू किया। इस लगावट के वाहक बने शब्द।
ध्वनि के मूल टुकड़ों को अक्षरों से अभिव्यक्त किया गया। अक्षरों से बने शब्द। ध्वनियों को शब्दों से पहचाना जाने लगा और फिर मानव मस्तिष्क की अभिव्यक्ति सरिताएँ बह चलीं। मन के हर भाव, परिवेश के हर जुड़ाव और अस्तित्त्व से जुड़ा सब कुछ शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त हो चला। सहूलियत बढ़ी, मानव इतना आदी हो गया कि भूल ही गया, शब्दों के पहले भी कुछ था, कुछ होता था और वह कुछ महत्त्वपूर्ण था। शब्दों की महत्ता के साथ ही उन्हें सहेजने की चिंताएँ भी आ जुड़ीं और शुरुआत हुई वाचिक परम्परा की। एक बार फिर आस पास फैली नित्य ध्वनियों की पड़ताल हुई और सामने आए लय, मात्राएँ, उच्चारण में विराम, यति, गति, ताल ... संगीत ने आकार लिया और शब्द सुरक्षित हो चले ग्राम गीतों में, ऋचाओं में, गाथाओं में, कथाओं में।
सम्भवत: विवादों ने शब्दों को यथावत सार्वकालिक सुरक्षित रखने की आवश्यकता को जन्म दिया। इस परम्परा के साथ ही आए चारण, पुरोहित, अभिचार.. जाने क्या क्या। हम अभी उस पर बात नही करेंगे। ...
वाचिक परम्पराएँ अपने उद्देश्य में तो सफल रहीं लेकिन कहीं आम जन जीवन से कटती चली गईं। ऐसे में निठ्ठल्ले, आलसी लेकिन जीवन को सरल बनाने को आतुर किसी पुरोहित ने लिपि का आविष्कार कर डाला और फिर तो जैसे क्रांति ही हो गई। लिपि से अक्षर, अक्षर से शब्द, शब्द से ध्वनि-उच्चारण, ध्वनि से पुन: शब्द, शब्द से अक्षर, अक्षर से लिपि और लिपि से प्रतिलिपि.. आलसी का आविष्कार बड़े काम का निकला !
बेकाबू सभ्यता अपनी जनसंख्या बढ़ाऊ कामुकता के साथ बढ़ती चली गई। बीच बीच में विराम और विनाश भी आए लेकिन शब्दों ने पुनर्निर्माण सुनिश्चित कर दिया था। शब्द महत्त्वपूर्ण होते चले गए, लिपि में लिपट आदमी की संतान को ज्ञान, विज्ञान के ककहरे सिखाते पढ़ाते रहे। तमाम अभिव्यक्तियों में जो श्रेष्ठ था उसे साहित्य कहा गया। शब्द शिक्षक भी थे जो साहित्य की कक्षा में मास्साब की भूमिका निभा रहे थे। साहित्य को यह गौरव इसलिए हासिल हुआ कि वह अभिव्यक्ति का शीर्ष था। शीर्ष पर होना बहुत रिस्की होता है। लिहाजा साहित्य की खूब जाँच पड़ताल और ठुकाई हुई। एक जमाने का साहित्य दूसरे जमाने का गँवारू गलबाजा कहलाया और इसके उलट भी बहुत कुछ हुआ लेकिन साहित्य नामधारी शीर्षस्थ बना रहा ...
और ऐसे ही सीखते पढ़ते हम पहुँच गए आज के जमाने में।
आज । संक्रमण का दौर। शब्द पर संकट सा आन पड़ा है। संवाद के लिए अब शीर्षस्थ श्रेणी के मनुष्यों को लगता है कि शब्द गौण हो चले हैं। उनकी आवश्यकता तो है लेकिन बस ऐसे ही .. । उन्हें शब्द बोझ लगने लगे हैं। क्यों? क्यों कि विकल्प सामने दिख रहे हैं। ऐसे विकल्प जो अभी आकार नहीं ले पाए हैं लेकिन कोहरे में घूमती छाया सी झाँक पड़ताल कर रहे हैं। आदमी की फितरत है नवीनता की तलाश। और शब्द तो बहुत पुराने हैं। हटाओ इन्हें ! शब्दों के प्रति इस दुराव ने बेचारे साहित्य को एक बार फिर ठुकाई पिटाई के हथौड़े तले ला दिया है। हथौड़े उनके बाएँ हाथों में हैं जिनके दाहिने हाथ कम्प्यूटर के की बोर्ड पर जम कर टाइप करने में लगे हैं। उन्हें शब्द षड़यंत्रकारी लग रहे हैं क्यों कि शब्द साहित्य के समानार्थी रूप में रूढ़ हो चुके हैं। साहित्य के मानदण्डों ने इन क्रांतिकारियों को अभिव्यक्ति से रोके रखा । मानदण्डों की खैर नहीं, साहित्य की खैर नहीं, शब्दों की खैर नहीं - अब की बोर्ड हाथ में है। बेचारे साहित्य रसिक इस स्थिति पर हाहाकार कर रहे हैं।
लेकिन दोनों वर्ग अनजान हैं कि यह तो बस रूटीन जाँच पड़ताल और ठुकाई है। अब विराट समय का रूटीन तुच्छ मनुष्यों के रूटीन से तो कदम मिला चल नहीं सकता लिहाजा भारी कंफ्यूजन है। दोनों को यह मान लेना ही श्रेयस्कर है कि चाहे रूप जैसा भी हो जाय, शीर्ष पर साहित्य ही रहेगा। या यूँ कह लें कि जो भी शीर्षस्थ होता है वह साहित्य कहलाता है। साहित्य और शब्दों के विरोधी असल में परिपाटी विरोधी भर हैं और इसलिए साहित्य समर्थकों को उनको गम्भीरता से लेना होगा। लेकिन साथ ही साहित्य और प्रतिक्रिया में शब्द विरोधी का भी बाना धारण किए क्रांतिकारियों को यह हमेशा याद रखना होगा कि साहित्य तो सत्त्व है। जो सत्त्व के पक्ष में हैं वे कुछ भी हों अभिव्यक्ति के विरोधी नहीं हो सकते। दोनों पक्षों में से कोई भी नहीं कह सकता - अलविदा साहित्य या अलविदा शब्द। यह बहुत फुसफुसी बात होगी। ...( जारी)  

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

पुरानी डायरी से - 9: शीर्षकहीन

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आज डायरी खँगालते यह कविता दिखी - विरोधाभास  उलटबाँसी सी लिए। तेवर और लिखावट से लगा कि अपेक्षाकृत नई है।
कब रचा याद नहीं आ रहा। सन्दर्भ /प्रसंग भी नहीं याद आ रहे। चूँ कि पुरानी डायरी का सम कविताएँ और कवि भी . . पर 
पूरा हो चुका था इसलिए यहाँ विषम प्रस्तुति करनी ही थी, सो कर रहा हूँ। एक संशोधन भी किया है।
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अधिकार ही नहीं यह कर्तव्य भी है 
कि ऊँचाइयों में रहने वाले  
दूसरों नीचों के आँगन में झाँकें।

ऊँचाइयाँ तभी बढ़ेंगी
और झाँकने की जरूरत समाप्त होगी।


पर कोई झाँकता नहीं।
ऊँचाई पर रहने वाला
एयरकण्डीसंड फ्लैट में बन्द है।


पुरुवा के झोंके भी तो
मशीन से आते हैं।


ऊँचाई कैसे खत्म होगी ?