बुधवार, 29 सितंबर 2010

राम की शक्तिपूजा... चुने हुए अंश



..आज का तीक्ष्ण-शर-विधृत-क्षिप्र-कर, वेग-प्रखर
शतशेल सम्वरणशील, नील नभ-गर्जित-स्वर,
प्रतिपल परिवर्तित व्यूह - भेद-कौशल-समूह
राक्षस-विरुद्ध-प्रत्यूह, - क्रुद्ध-कपि-विषम-हूह,
. .है अमानिशा, उगलता गगन घन-अन्धकार;
खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार;
अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल;
भूधर ज्यों ध्यान-मग्न; केवल जलती मशाल।
स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर-फिर संशय
रह-रह उठता जग जीवन में रावण जय भय;
जो नहीं हुआ है आज तक हृदय रिपुदम्य-श्रान्त,
एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त,
कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार-बार,

. .सिहरा तन, क्षण भर भूला मन, लहरा समस्त,
हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त,
..फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आयी भर,
वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत, -
फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत,
देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर,
ताड़का, सुबाहु, बिराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर;

.. उद्वेग हो उठा शक्ति-खोल सागर अपार,
...शत घूर्णावर्त, तरंग-भंग, उठते पहाड़,
जल-राशि राशि-जल पर चढ़ता खाता पछाह,
तोड़ता बन्ध-प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत -वक्ष
दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,
शत-वायु-वेग-बल, डूबा अतल में देश-भाव,
जल-राशि विपुल मध मिला अनिल में महाराव
वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश
पहुँचा, एकादश रूद्र क्षुब्ध कर अट्टहास।

रावण-महिमा श्यामा विभावरी, अन्धकार,
यह रूद्र राम-पूजन-प्रताप तेज:प्रसार;
...रावण? रावण - लम्पट, खल कल्मष-गताचार,

...अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।" कहते छल-छल
हो गये नयन, कुछ बूँद पुन: ढलके दृगजल,
रुक गया कण्ठ, चमक लक्ष्मण तेज: प्रचण्ड
धँस गया धरा में कपि गह-युग-पद, मसक दण्ड
स्थिर जाम्बवान, - समझते हुए ज्यों सकल भाव,
व्याकुल सुग्रीव, - हुआ उर में ज्यों विषम घाव,

...आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर,
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सका त्रस्त
तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त;
शक्ति की करो मौलिक कल्पना; करो पूजन,

... "मात:, दशभुजा, विश्व-ज्योति; मैं हूँ आश्रित;
हो विद्ध शक्ति से है महिषासुर खल मर्दित;
जनरंजन-चरण-कमल-तल, धन्य सिंह गर्जित!
यह, यह मेरा प्रतीक मात: समझा इंगित;
मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनन्दित।"

...सब चले सदय राम की सोचते हुए विजय।
निशि हुई विगत : नभ के ललाट पर प्रथमकिरण
फूटी रघुनन्दन के दृग महिमा-ज्योति-हिरण;
हैं नहीं शरासन आज हस्त-तूणीर स्कन्ध
वह नहीं सोहता निविड़-जटा-दृढ़ मुकुट-वन्ध;
सुन पड़ता सिंहनाद रण-कोलाहल अपार,
उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार;

...संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवी-पद पर,
जप के स्वर लगा काँपने थर-थर-थर अम्बर;
...हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण, देवता स्तब्ध;
हो गये दग्ध जीवन के तप के समारब्ध;

... जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय,
कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय,
बुद्धि के दुर्ग पहुँचा विद्युत-गति हतचेतन
राम में जगी स्मृति हुए सजग पा भाव प्रमन।

...काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय -
...देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्कर
वामपद असुर स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर,
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध-अस्त्र सज्जित,
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित

"होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।"
कह महाशक्ति राम के बदन में हुई-लीन।

____________________________________


रचयिता - महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

सोमवार, 27 सितंबर 2010

27 सितम्बर पर


दिल दे तू इस मिज़ाज का परवरदिगार दे
जो ग़म की घड़ी को भी खुशी से गुज़ार दे।
________:      *       :________
सजा कर मय्यत-ए-उम्मीद नाकामी के फूलों से
किसी हमदर्द ने रख दी मेरे टूटे हुए दिल में। 
________:      *       :________
छेड़ ना ऐ फ़रिश्ते! तू ज़िक्रे ग़मे जानाँ
क्यों याद दिलाते हो भूला हुआ अफसाना? 
________:      *       :________

भगतसिंह की जेल नोटबुक (1929 - 31) ,  पृष्ठ  24(27)
आभार: शहीदेआज़म की जेल नोटबुक 

आज 'अद्भुत प्रेमी' भगतसिंह का जन्मदिन है (27 सितम्बर 1907)

रविवार, 19 सितंबर 2010

चुपचाप सो जाओ।

"सुनो जी! मेरे पाँवों में बहुत दर्द है।"
"लेट जाओ, पाँव दबा देता हूँ।"
"धत्त! लोग क्या कहेंगे?"
"लोग? कहाँ? बताएगा कौन? तुम भी न!"
"छोड़ो ठिठोली। वह दवा दे दो। तुमसे पैर दबवा कर नरक में नहीं जाना।"
"नरक? इतने दिनों से मेरे साथ रहते हुए भी मानती हो?"
"नहीं...
हाँ...वह दवा दे दो। और चुपचाप सो जाओ।"

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

तुम्हें सच बोलना भी नहीं आता।

आज भीतर बाहर जूझते
वह सुबहें याद आई हैं -
जब पृथ्वी पर होते थे
बस मैं और तुम जीवित।

सब कुछ सिमटा था बस दो साँसों के बीच
 होठों पर नहीं, नथुनों में थे चन्द शब्द
उनके उच्चारण एक ही थे - प्रेम।
आसक्त मन कितना अनासक्त था!
किसी की फिकर ही नहीं।
तुमसे जाना कि अनासक्ति क्या होती है!
सारी आसक्ति जो सिमट गई थी - बस तुममें।

पाखंड बिखरा है सब ओर
सच कहूँ तो कहते हैं झूठ।
भीतर बाहर
झूठ ही झूठ।
ऐसे में याद आता है,
वो जो तुम कहती थी
"तुम्हें सच बोलना भी नहीं आता।"
तुम कितनी सच थी!

 इन बीत गए वर्षों में
कितने ही दिन रहे
जब तुम्हें याद ही नहीं किया।
उन दिनों किसी न किसी से
हमेशा सुनना पड़ा -
तुम पढ़ते क्यों नहीं?
किसके लिए पढ़ता?
क्या पढ़ता?
अक्षर नहीं, शब्द नहीं
बस दिखती रहीं
टेढ़ी मेढ़ी रेखाएँ।
उन रेखाओं से क्या वास्ता ?
जो गढ़ नहीं सकते थे तुम्हारे बिम्ब।

सदियों बाद तुम
जो याद आई हो
अनुष्टुप बरसने लगे हैं
सॉनेट सजने लगे हैं
गीत बजने लगे हैं
अचानक
टेढ़ी मेढ़ी रेखाएँ
बनने लगी हैं -
अक्षर, शब्द।
मैं पढ़ने लगा हूँ
लिखने लगा हूँ।

किसी ने कहा है-
तुम फिर से प्रेम में हो।
मैंने उसे प्रेम भर चूमा है।
कहा है -
"तुम सच हो।"
कानों में तुम फुसफुसाई हो
"तुम्हें सच बोलना भी नहीं आता।"