शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

फुरसत के दो कप . .. .

प्रात: का 07:45 का समय हमारे घर थोड़े अंतराल की फुरसत का होता है। बच्चे स्कूल जा चुके होते हैं । हम पति पत्नी दोनों प्रात: भ्रमण से मुक्त हो दंत धावन कर चुके होते हैं और मैं समाचार पत्रों पर सरसरी मार चुका होता हूँ। बच्चों के कमरे में एक निश्चित स्थान पर श्रीमती जी जमीन पर बैठ तरकारियाँ काटती हैं और मैं सामने ही पर्यंक पर पेट के बल लेटा ब्लॉग के पोस्ट पढ़ रहा होता हूँ। इसके पहले चाय साथ साथ समाप्त की जाती है- वहीं पर. . । 
फुरसत के ये दो कप रूटीन में सेट हो चुके हैं। 
सब कुछ पूर्व निर्धारित सा यंत्रवत होता है:
" सुनिए जी ब्रश कर लीजिए।"
"हूँ.."
"चलिए, जल्दी करिए। पानी दे चाय चढ़ा दूँ।
मैं ब्रश करता हूँ। दो छुहारे, पाँच बादाम और दस पन्द्रह मुनक्कों या किशमिश के साथ दो गिलास पानी गटकता हूँ। लैप टॉप खोलता हूँ और ब्लॉगवाणी के खुलने के कुछ क्षणों के भीतर ही श्रीमती जी सब्जियों को प्लेटों में लिए चाय के साथ जमीन पर सामने आ विराजती हैं। दोनों धीरे धीरे चाय समाप्त करते हैं। बीच बीच में दैनन्दिन बातें होती हैं - एक लाइना और एकवर्णी।  जैसे:
"आज ऑफिस से आते वक़्त सौ का फुटकर लेते आइएगा - दस दस का।"
"हूँ।"
"हूँ नहीं, कन्या भोजन कराना है - दक्षिणा देनी पड़ेगी।"
"हूँ।"
"सुन भी रहे हैं कि नहीं?"
"...." 
मुझे पता है कि दिन में रिमाइण्डर मिलेगा सो हूँ हाँ करता रहता हूँ और ब्लॉग पढ़ता रहता हूँ। रिमाइण्डर नहीं मिलता तो काम भी नहीं होता। कभी कभी श्रीमती जी खुद कर लेना पसन्द करती हैं और कभी कभी फॉलो अप कर करवा भी लेती हैं.....।
आधा से पौन घण्टे के बाद कटी सब्जियों के साथ ही फुरसत के ये दो कप धुलने को उठ जाते हैं। इस दौरान घंटी बजे तो अटेण्ड करने की 100% ज़िम्मेदारी मेरी होती है। 
.......
मेरा अवचेतन इस समय की प्रतीक्षा सा करता रहता है। मौन संवाद और साहचर्य के ये क्षण बड़े सुकून दायक होते हैं। कोई घिच पिच नहीं - शुद्ध फुरसत । यहाँ तक कि परिवेश भी इनका अनुशासन मानता है। घण्टी कभी भी ऐसा कुछ नहीं ले कर आती जिसमें भंग भाव हो - साहचर्य के वर्षों ने इन क्षणों को कितनी शक्ति दे दी है !

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

बाउ, क़ुरबानी मियाँ और दशहरा : पूर्वपीठिका का अंत

पिछले भाग बाउ, क़ुरबानी मियाँ और दशहरा : पूर्वपीठिका से जारी :



(ऊ)
दाऊ जू ने जंगल के किनारे रहते हुए अंग्रेज सेना पर आत्मघाती हमले की जब योजना रची थी तो कहीं मन में विजय की छोटी ही सही आशा थी। बनाफर और वनवासियों के सदियों से चले आ रहे साथ ने छिपे रहते हुए अचानक ही तीव्र हमला कर जीतने की कला चन्देलों को खूब सिखा दी थी। लेकिन ये भारी सेनाक्षण भर को उनका दिल बैठ गया।समय नहीं था। त्वरित निर्णय लेना था।हमलावर अगर यहाँ तक आ गए हैं तो जंगल जरूर छानेंगे। कुलदेवी का मन्दिर तो प्रसिद्ध था !


जंगल के बीच से पगडंडी मन्दिर को जाती थी। दोनो ओर विशाल वृक्षझाड़ियाँ और जीव जंतु !दाऊ जू ने लड़वैयों को पगडण्डी के दोनों तरफ जमीन और फन्दे के साथ पेंड़ों पर तैनात करने का निर्णय लिया। इतने संकरे रास्ते और घने जंगल में अंग्रेजों के हथियार कैसे चलेंगेअगर चल भी गए तो सीमाएँ बहुत रहेंगी....

एक खास इशारा और झाड़ियों में ही छिपे छिपे स्थितियाँ बदल कर सज गईं। पेंडों पर छलांग मारते दाऊ के लंगूर नए विन्यास में फिर डँट गए।

 (ए)
फौज के पहुँचने की निकट आती आवाजों को मन ही मन विश्लेषित करते दाऊ जू की नजर दूर मन्दिर के कुएँ के चारो ओर पसरे बच्चों और नारी शरीरों पर पड़ी। 
इतना बड़ा दण्ड! मां किस लिए ?
यह बलिदान हमें ही करना था !! 
कलेजा मुँह को आ गया कि मृत शरीरों के बीच वीर वेष में घूमती कुसुम को देख कर चौंक गए।  
छोटकी ने ये क्या किया ? देवी की शपथ तोड़ दी! 
अंग्रेज इतने निकट आ गए थे कि कुछ किया भी नहीं जा सकता था। दाऊ जू को ननिहाल गए पट्टीदार भतीजों छोटे और बड़े की याद आई। निश्चित सम्पूर्ण विनाश को स्वीकार चुके मन में आशा की छीड़ सी लीक खिंच गई. . .बागीचे के लिए एक बिरवा ही काफी होगा ।  
मन में कहीं देवी का स्वर गूँजा," तुम अपना काम कर मूढ़! दैवी विधान में विघ्न डालने वाला तू कौन ?" दाऊ जू ने झाड़ी में छिपे छिपे ही मिट्टी को उठा कर सिर से लगाया - माँ जैसी तेरी मर्जी... 
(ऐ)
नवेली बाला। कुसुम ने दूर से ही दाऊ जू की आत्मघाती योजना को भाँप लिया। 
 ... तेग चलाती रानी, चुनिन्दा बालाओं को शस्त्र दीक्षा। उनका गीता पाठ मन में गूँजने लगा:
अशोच्यानंवशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे
गतासूनगतासुनश्च नानुशोचंति पंडिता: ...
रानी तुम तो देवी का अवतार थीं । इस अबोध को किस महाकसौटी पर कस दिया ? पूरे गाँव का नाश देखने को मैं ही बची थी ? नहीं माँ मुझसे न होगा। ....
बहिना गई , ननद सहेलियाँ गईं । वह बच्चे गए जिन्हें दुलराती थी और अब दाऊ जू भी पूरे गाँव के साथ ? ... नहीं माँ मुझसे नहीं होगा। मैं भी लड़ मरूँगी ।... 
मन प्रयाग हो चला। आंधियों के बीच त्रिवेणी संगम। उदात्तता की त्रिवेणी से विषपायी आत्मघात की सरस्वती तो लुप्त हो गई थी। यमुना बची थी संहार के साँवलेपन को समेटे। दाऊ जू मय कुनबे छलांग लगाने को तैयार.. 
मैं भी लड़ मरूँगी। ... 
जीवनदायिनी गंगा की धार उमगी । याद आई बहिना की बात और प्रीतम ... 
जीवन की आश अभी शेष है मूर्खा”  लगा जैसे दाऊ जू और देवी एक साथ डाँट रहे हों। 
.. बाहर कोलाहल निकट आ रहा था तो मन में भयानक अन्धड़ ...। लगा जैसे बेसुध हो जाएगी, कुसुमावत मन्दिर के गर्भगृह की ओर भाग चली ।
गुप्त द्वार ही अब बचा सकता था। 

 दाऊ जू ने देखा और फिर माटी को माथे से लगाया।
(ओ)
अंग्रेज आए तो साथ में अग्नि भी लाए। कमाण्डर के पहले आदेश का पालन हुआ। जंगल के सामने वाले सिरे को आग लगा दी गई - काले हिन्दुस्तानी, छिपे हिन्दुस्तानी अगर हों तो जल मरें। 
कोई प्रतिरोध न होना आश्चर्यजनक था । मन्दिर को जाती पगडण्डी दिखी और कमाण्डर का चेहरा विकृत हो उठा - गीदड़ वहीं छिपे बैठे होंगे। पीठ से पीठ जोड़ मन्दिर की ओर कूच का हुक़्म दिया ताकि छ्पि कर किए गए वार का प्रतिरोध किया जा सके। आधी सेना बाहर ही रख छोड़ी। 
आओ ललमूहों, आज पता चलेगा।“ – दाऊ जू बुदबुदाए थे। मन में आल्ह उठने लगा:
मानुस देही जा दुरलभ है आहै समै न बारबार ।
पात टूट कें ज्यों तरवर को कभउँ लौट न लागै डार।।
मरद बनाये मर जैबे को खटिया पर कें मरै बलाय ।
खटिया पर कें जे मर जैहें नाँउ डूब पुरखन कौ जाय ।।
जे मर जेहैं रनखेतन मा साखै चलो अँगारुँ जाय ।
(औ)
जंगल का सन्नाटा जैसे झाँय झाँय कर रहा था। पेंड़ों और लताओं से छ्न आती हवा उस घनेपन में सरसराहटों को भर रही थी। ठीक मध्य में सेना पहुँची कि कोयल कूकी ...  
पगडण्डी के दोनों किनारों से जंगल ने उत्तर दिया....  चिर्र अरर अरर ..तड़ड़ड़ sss हड़ हड़ ...
पेंड़ों की शाखाओं ने पाश उछाले और दाऊ जू के पचासों लंगूर एक साथ जमीन की ओर कूद पड़े। ... सेना जब तक समझे पचीसों अंग्रेज शाखाओं पर फांसी चढ़ फड़फड़ा रहे थे। 
तेग और कटार चल पड़े । संगीनों को हटा कर उस सीमित स्थान में जब तक भौंचक्का अंग्रेज सेना तलवारों को काम में लाती तब तक जमीन पर पड़े सैकड़ों मुंड जंगल की हरियाली पर लाली पोत चुके थे। 
घने जंगल में तेग तलवारों की भी एक सीमा थी। लड़ाई बहुत जल्दी हाथापाई और कटारों पर आ गई। कमाण्डर ने आदेश दिया और एक पर चार चार अंग्रेज सैनिक भिंड गए। इस तरह की लड़ाई में अनभ्यस्त होने से कुछ समय तो लगा लेकिन संख्या बल ...!
मोहमदीन दाऊ के साथ तीन अंग्रेजों से गुथ्थम गुथ्था था। मोहमदीन पैंतरा बदल थोड़ा दूर हुआ कि तभी दाऊ के सामने संगीन लिए चौथा आ गया ... अब कुछ नहीं हो सकता था। 
या अली SSs” –छलाँग लगा कर दाऊ के सामने पहुँचा लेकिन देर हो चुकी थी । संगीन के एक ही वार में दाऊ और दीनू के दिल एक साथ बिंध गए। अगहरी का खून मुसहरी के खून से मिल जमीन पर बह चला।
....
कमाण्डर ने जब कुएँ के चारो ओर पसरी नारियों और बच्चों की लाशें देखी तो सब कुछ समझ वह भी द्रवित हो उठा। हाथ में टोप को ले बस बोल पाया ,” ओ गॉड . .
आदेश दिया कि मन्दिर और जंगल की तलाशी लो । एक घड़ी तक भी कुछ न मिलने पर आधी सेना को वापस भेज घेरा डाल रुक गया। अंतिम संस्कार करने हिदेन ज़रूर आएँगे। 
(अं) 
घोड़ों को पानी पिलाने जब बड़े और छोटे मुसहरी में रुके तो अगहरी की तरफ आसमान में धुएँ की कालिमा दिखी। अभी कुछ सोच पाते कि मोहमदीन का बेटा इस्माइल आया और बड़े को पकड़ फफक कर रोने लगा। 
अब्बा बोल कर गए थे कि तिजहरिया तक न आ पाऊँ तो समझना कि अगहरी के साथ मैं भी शहीद हो गया। मन्दिर वाले कुएँ के पास ही मुझे दफना देना। खबरदार पक्की कबर मत बनाना।“....
आँखों के आगे अंधेरा सा छा गया। बड़े वहीं भहरा कर गिर पड़ा।
अब क्या हो सकता था? छोटे ने धीरज न खोया। भाई को झोंपड़ी में लिटा इस्माइल को ढाँढ़स बँधाया । देखना तो होगा ही कि हुआ क्या ? तय हुआ कि घोड़े और अस्त्र छोड़ कर तीनों साँझ ढले गुप्त रास्ते मन्दिर में जाएँगे। ...
उस पहाड़ी अधमन्दिर में क्या मिलता ? देवी तो सबकी बलि ले चुकी थी। गाँव भस्मीभूत हो चुका था ।
तम्बू तान मसाल जला गोरे मन्दिर और जंगल के चारो ओर पहरा दे रहे थे।
भारी कदमों से तीनों उसी गुप्त रास्ते वापस चल पड़े। आधी गुफा पहुँचते ही छोटे को आहट मिली और फिर झिंगुरों की आवाज ..एक एक ..दोदो .. तीन ..दो .. एक लय। रुक गया। बड़े भी समझ चुका था ।
अगला कूट तीन. . तीन दो दो एक..। यह तो दाऊ जू का सिखाया हुआ है।
कोई है।...छोटे ने कूट दुहराया।
अकस्मात ही अँधेरे से कुसुम भागती, मर्यादा लाँघती आ छोटे से लिपट गई। स्पर्श को पहचान छोटे ने सहारा दिया तो वह बेसुध हो चुकी थी।

(अ:)
गाँव मुसहरी। अर्द्ध रात्रि से एक घड़ी पहले का समय। चार जन बाँस के झुरमुट में बैठे थे।
नारी स्वर सुना रहा था और नर सुन रहे थे। ..
“...
जंगल में क्या हुआ, मुझे कुछ नहीं पता। देवी माँ और बहिना की सौंह न होती तो मैं भी ...।
नारी कंठ चुप हो सिसकियों में रुद्ध हो गया।
..
सब चुप । केवल झिंगुर बोल रहे थे।
आखिर खामोशी इस्माइल ने तोड़ी।
अल्ला की मर्ज़ी साफ है। तुम तीनों यहाँ से रुखसत करो। अब यह तुम्हारी जमीन नहीं रही।
बड़े बोला,” कैसे जाएँ । उनके अंतिम संस्कार कौन करेगा? यह क्या किया भगवान?”
देखो, अगर तुम लोग ललमुहों के सामने पड़े तो निश्चित मारे जाओगे। बहुरिया के बारे में भी सोचो। उनके ईमान धरम का क्या भरोसा ?”
इस मुसलमान पर भरोसा रखो । सबकी माटी आग पाएगी। चाहे उसके लिए जान की बाजी भी लगानी पड़े। अब्बू की सौंह, उनकी मिट्टी खाक के सुपुर्द तभी होगी जब आग अपना काम खत्म कर चुकेगी। तुम लोग बनारस की ओर तीरथ वालों का भेष बना कर पैदल निकलो। मैं सब खत्म कर पीछे पीछे आऊँगा। घोड़े और हथियार कत्तई नहीं ले जाओगे।
भरी जवानी में तीरथ?”
हाँ यह तीरथ यात्रा ही है। एक गाँव फिर से जो बसाना है । तुम दोनों भाई हो और बहुरिया तुम्हारी बहिन। शादी के पहले इसे गंगा नहलाने ले जा रहे हो। बहुरिया, तुम्हारा सेनुर मन्दिर की पिण्डी पर रहेगा। माथे से हटा देना।
छोटे ने राह चलते छोड़े जाने वाले निशानों के बारे में इस्माइल को समझा दिया।
..
तीन जन अन्हरिया में चल पड़े-अनजान भविष्य की ओर। ....दूर चाँद विहीन आसमान में कहीं तारा टूटा था।

(क)
..दुपहरी में अकेला इस्माइल कमाण्डर के आगे जार जार रो रहा था।
दुहाई हुज़ूर। आदमी की देह ऐसे गिद्धों के लिए क्यों छोड़ दें? खुदा से डरो हुज़ूर। कोई नहीं बचा। खुद देख लें औरतें बच्चे सब ...
टुमको क्या पड़ी है?”
इस्माइल अपने बापू की बात छिपा गया।
पास का गाँव था। आना जाना था। हम तो साहब बहादुर को मानने वाले लेकिन क्या करें? पड़ोसी का फर्ज भी तो कुछ होता है।
टुम तो मुसलमान हो। बिना बरहमन के कैसे करोगे? टुमारा मजब इसकी इजाजत नहीं देता।
जैसे भी जलें नासपीटे। बरहमन की क्या ज़रूरत हुज़ूर। मज़हब तो इंसान के लिए ही होता है..
जाने क्या समझ उस अंग्रेज ने सामूहिक अग्नि संस्कार की अनुमति दे दी।
मोहमदीन भी अग्नि संस्कार को प्राप्त हुआ । बाद में थोड़ी राख ले इस्माइल ने उसे दफन किया। .. दुर्घटना में जल गया मुसलमान भी तो दफन होता ही है।
.....
.....
भटकते भटकते तीन जन वहाँ पहुँचे जो बाउ का गाँव घरौठा कहलाया। छोटे ने गाँव बसाने के लिए जंगल ही पसन्द किया था। चरवाहे जंगल में जिस जगह जानवर बाँधते थे उसे घोठ्ठा कहते थे। घोठ्ठाही बिगड़ कर और जमींदारों के तिरस्कार से संस्कारित हो घरौठा हो गया।...
बड़े ने दुबारा विवाह किया था। कुसुम की जेठानी रिश्तेदारी की एक ऐसी कन्या हुई जिसे पहले पानी में डूबने के कारण ग़ायब प्रचारित कर दिया गया था। गोपनीयता बनाए रखने के लिए जू देवउपनाम का त्याग कर दिया गया। सब कुछ स्वाहा हो जाने के बाद दुबारा बसते गाँव में गरीबी कई पीढ़ियों तक रही। अस्तित्त्व बनाए रखने के लिए आस पास के परिवेश से हुए संघर्षों ने गाँव का एक ऐसा व्यक्तित्त्व विकसित किया जिसमें आभिजात्य नदारद था।
वादे के मुताबिक इस्माइल पीछे पीछे आया और फिर पास के गाँव गड़वा में ही बस गया। उसने कसाई का धन्धा अपनाया। क़ुरबानी मियाँ उसी के घराने की संतति थे। ...
बाउ के इन पुरनियों ने वापस अगहरी को बसाने की सौगन्ध खाई थी। तब तक हथियारों की पूजा नहीं होनी थी।
...
आज भी घरौठा में दशहरे के दिन शस्त्रास्त्र पूजा नहीं होती और कुलदेवी का स्थान नहीं है। बेटियों को विवाह पूर्व गंगा स्नान अवश्य कराया जाता है। .. जारी

रविवार, 20 सितंबर 2009

या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धा रूपेण संस्थिता..


कई दिनों बाद लौटा हूँ । घमासान (जाने इस शब्द का सही प्रयोग कर रहा हूँ कि नहीं, टिप्पणियों को भी देखें) देख कर हैरान हो रहा हूँ। 
एक training पर गया था जिसे वे लोग learning कहते थे इस तर्क के साथ कि वयस्कों को train नहीं किया जा सकता उन्हें स्वयं learn करना होता है- साशय, वह भी निष्ठा के साथ।
उन लोगों ने खास उपनिषद सूत्रों को बहुत घोंटा। उलटा, पलटा, रगड़ा , मसला ..... अपनी मान्यताओं में वे इतने निश्चिंत थे कि मुझे उनके वयस्क होने में ही शंका होने लगी। मुझे लगा कि केवल बच्चे ही इतने निश्चिंत हो सकते हैं.....
संस्कृत से भय खाने वालों से क्षमा सहित पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ। चूँकि ब्लॉग जगत में अपनी मान्यता को गोड़ पटक कर(भले हड्डियाँ चरमराने लगें) कहने की प्रथा का विस्तार/प्रसार हो रहा है इसलिए मैं भी कह रहा हूँ (नौसिखिया को पता है कि कुछ ऐसी गड़बड़ हो सकती है जो दूसरों के 'गोड़ों' को उसकी पीठ और कुल्हों की ओर आकर्षित कर सकती है, फिर भी कह रहा है):
'संस्कृत या तत्सम शब्दों से डरने वाले या डरने का पाखण्ड करने वाले दोनों हिन्दी का अहित कर रहे हैं।'...मैं हिन्दी की बात कर रहा हूँ, केवल ब्लॉगिंग की नहीं - ब्लॉगिंग एक अंग भर है।
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पंक्तियाँ हैं:
"असतो मा सद्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योर्माSमृतंगमय
ॐ शांति: शांति: शांति:"
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वयस्क बच्चों से मुझे बड़ा डर लगता है। देहरादून से भी उपर एक आधुनिक जंगली गुरुकुल में जब पूरी टीम को इनवाल्व(?) कर उपर्युक्त सूत्रों को घोंटा जा रहा था तो मारे डर के मेरी घिघ्घी बँध गई थी। मैं जड़ हो गया। कुछ बोल नहीं पाया... बच्चे बड़े प्रसन्न थे।
कल नवरात्र के प्रथम दिवस के उपवास (नास्तिक भी यह सब करते हैं) के बाद आज घर लौट कर प्रसन्न था कि बहुत दिनों के बाद तसल्ली से ब्लॉग लेखों का 'पारन' करूँगा। तभी यहाँ नज़र पड़ी। अनायास ही फिर वही सूत्र मन में घूमने लगे। सोचा कि डर को भगा कर अपनी व्याख्या लिख ही दूँ....
कोई भी परिवेश विरुद्ध प्रवृत्तियों का समुच्चय होता है। किसी भी चिंतन की श्रेष्ठता का निकष होता है - इन प्रवृत्तियों का पूर्ण स्वीकार। स्वीकार के बाद ही आगे बात बढ़नी चाहिए। भारतीय चिंतन का आधार यही है (विदेशी मैंने नहीं पढ़े)। सूत्रों को देखें तो निम्न युग्म सामने आते हैं:
असत - सत
तम- ज्योति
मृत्यु - अमरत्त्व
सबमें पहले अवांछित को स्वीकारा गया है, फिर वांछित की प्राप्ति की कामना की गई है। अवांछित हमेशा रहेंगे लेकिन महत्त्वपूर्ण है कि वांछित की कामना भी हमेशा रहनी चाहिए। अवांछित और वांछित के स्वीकार और संतुलन भाव से आगे बढ़ कर चिंतन मात्र वांछित की कामना करता है। इसे सधाव कहते हैं - उन्नति की ओर, प्रखर, स्पष्ट और श्रम से पलायन न करने वाला ... इस चिंतन में अवांछित का स्वीकार मखौल में आकर उसे ही साधने नहीं लगता या उसे ही न्यायसंगत नहीं कहने लगता। उसके लिए तर्क नहीं जुटाता। यह चिंतन उससे आगे बढ़ता है...
आगे बढ़ने पर भी यह चिंतन 'अवांछित' को भूलता नहीं। उसे निरंतर पता है कि अवांछित रहेगा और इसलिए वांछित की चाहना भी शाश्वत रहेगी। इस युग्म संघर्ष में शांति की चाह भी रहनी चाहिए - तभी तो तीन युग्मों के लिए तीन बार शांति शांति शांति कहा गया है - वह भी नाद ब्रह्म का सम्पुट दे कर। शांति परिणाम ही नहीं प्रक्रिया भी है। शांत मस्तिष्क सृजन करता है। यहाँ तक कि सीजोफ्रेनिया और अन्य मस्तिष्क विकारों से ग्रस्त विभूतियाँ भी शांत हो कर ही सृजन कर पाई हैं। विश्वास मानिए ऐसा सृजन उत्कृष्ट होता है। .... मुझे लगता है कि मैंने पर्याप्त संकेत दे दिए हैं।
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नवरात्र पर्व जारी है - हिन्दी ब्लॉगर जन ! प्रार्थना करें:
"या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धा रूपेण संस्थिता"..... श्रद्धा को मानस में स्थान दें और सोचने में ईमानदार रहें। हिन्दी का हित इसी में है। अभिव्यक्ति की एक नई विधा 'ब्लॉग' के आप आदि जन हैं। अपनी जिम्मेदारियों और उनकी गुरुता के प्रति सचेत रहें....