रविवार, 17 नवंबर 2019

सबरीमाला अय्यप्पा मण्डलपूजा वृश्चिक संक्रांति


आज भोर के आकाश में अद्भुत छटा थी। चंद्रमा पुनर्वसु नक्षत्र (मिथुन राशि) पर आर्द्रा व पोलक्स तारकों को मिलाने वाली सरल रेखा पर थे।
आज ही वृश्चिक सङ्क्रान्ति है। मलयालम सौर पञ्चाङ्ग में महीनों का आरम्भ सूर्य की राशि सङ्क्रांतियों से होता है अत: आज वृश्चिक मास का पहला दिन है। आज ही मण्डल पूजा हेतु प्रसिद्ध सबरीमला या सबरीमाला मन्दिर खुल गया है।

४१ दिनों के तप के पश्चात आज लाखो श्रद्धालु धर्मशास्ता अय्यप्पा के दर्शन करने अपने भक्ति अर्पण को पहुँचेंगे। भारत के अन्य बड़े पर्वों की ही भाँति यह पर्व भी ग्रह गति व नाक्षत्रिक घटनाओं से जुड़ा हुआ है। इस मन्दिर का एक अन्य आकर्षण मकरज्योति है। मकर संक्रांति से जुड़े महत्त्वपूर्ण नाक्षत्रिक प्रेक्षण हेतु इस लेख को पढ़ें -

सबरीमाला, शीत अयनांत, मकर संक्रांति और वाम-इस्लाम-ख्रिस्तान आक्रमण 



   

सोमवार, 28 अक्तूबर 2019

आलिङ्गन भर गोवर्द्धन


कृष्ण ने भर अँकवार उस शिला को पकड़ा और उपाटने लगे...
... कान्हा जाने कितने कष्ट में था, साँवली देह की प्रत्येक पेशी उभर आई थी, उसे सहायता देने को भी स्थान नहीं था। रक्त वाहिनियाँ जैसे विद्रोह कर बाहर आ जाना चाहती थीं, स्निग्ध सुचिक्कण रक्ताभ वदन और श्याम लोहित हो चला।
विवश राम का रोम रोम हाहा कर उठा। क्रोध में भर उसने अपनी मुट्ठी शिला पर दे मारी। जैसे संकेत हो, अनेक गोपों ने अपनी लाठियाँ अड़ा दीं और तब जैसे चमत्कार हुआ। शिला श्लथ हुई। उसके श्लथ होते ही पाँवों तले धरा बैठने लगी मानो उस कुञ्जिका शिला ने पूरा धरातल ही थाम रखा था।
सब नीचे धसने लगे, लगा जैसे कि गोवर्धन उठ रहा हो। वह शिला गुहा द्वार पर अड़ी थी जिसे कान्हा ने जाने कब अपनी बाँसुरी से ठुक ठुक कर जान लिया था।
विराट कन्दरा निकल आई थी, अरे, इसमें तो सारा व्रज शरण पा सकता है!
विह्वल राम अपने कान्ह से लिपट गया। हास या अश्रु या दोनों? राम के नयनों से देवकी यशोदा बह चलीं - कान्ह, तुमने कर दिखाया। तुमने तो गोवर्धन पर्वत को ही उठा दिया कान्ह!
... और तब राम का भीमादेश स्वर तड़ित झञ्झा को विलीन करता गूँजा - सभी गुहा में चलो, शीघ्रता करो।
रुको राम! भीतर हिंस्र पशु हो सकते हैं, सर्प भी - सावधान कृष्ण ने अपनी साँसों को थामते हुये अनुनय किया किन्‍तु अप्रतिहत राम के उत्साह को अब कौन थाम सकता था - मैं हूँ न!
समवेत स्वर में गोपों ने जयध्वनि की - जय कान्ह!
मघवा की पराजय निश्चित थी। गिरियज्ञ पूर्ण हो चुका था।
..

अद्याहमिममुत्पाट्य सकाननवनं गिरिम्
...
एवं सचिन्तयित्वा तु कृष्ण: सत्यपराक्रमः
...
दोर्भ्यामुत्पाटयामास कृष्णो गिरिरिवापर:
...
स लम्बमान: कृष्णस्य भुजाग्रे सघनो गिरिः
...
शैलोत्पाटेनभूरेषा महती निर्मिता मया
...
प्राविशन्त ततो गावो गौपैर्यूथप्रकल्पिता:
...
तस्य शैलस्य विपुलं प्रदरं गह्वरोदरम्

रविवार, 29 सितंबर 2019

माँ - १ : द्यौ: माता पृथिवी

दीप्त आकाशीय द्यौ: ऋग्वेद में पिता से अधिक माता है, पृथिवी के बिना तो यह शब्द प्रदीप्त आकाश अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। द्यौ व पृथिवी समस्त पादप व जंतु संसार के जनक हैं - 
मिस्र 

मही । द्यावापृथिवी इति । इह । ज्येष्ठे इति । रुचा । भवताम् । शुचयत्भिः । अर्कैः । यत् । सीम् । वरिष्ठे इति । बृहती इति । विमिन्वन् । रुवत् । ह । उक्षा । पप्रथानेभिः । एवैः ॥
देवी इति । देवेभिः । यजते इति । यजत्रैः । अमिनती इति । तस्थतुः । उक्षमाणे इति । ऋतवरी इत्यृतवरी । अद्रुहा । देवपुत्रे इति देवपुत्रे । यज्ञस्य । नेत्री इति । शुचयत्भिः । अर्कैः ॥



दोनों ही देवी मातायें हैं -
ते । हि । द्यावापृथिवी इति । मातरा । मही । देवी । देवान् । जन्मना । यज्ञिये इति । इतः । उभे इति । बिभृतः । उभयम् । भरीमभिः । पुरु । रेतांसि । पितृभिः । च । सिञ्चतः ॥
द्यौ: माता -
जापान 

पुनः । नः । असुम् । पृथिवी । ददातु । पुनः । द्यौः । देवी । पुनः । अन्तरिक्षम् । पुनः । नः । सोमः । तन्वम् । ददातु । पुनरिति । पूषा । पथ्याम् । या । स्वस्तिः ॥
द्यौ का पिता रूप इंद्र के पुत्र रूप में भी है। इंद्र ने अपने माता पिता को जन्म दिया -
जनिता । दिवः । जनिता । पृथिव्याः । पिब । सोमम् । मदाय । कम् । शतक्रतो इति शतक्रतो । यम् । ते । भागम् । अधारयन् । विश्वाः । सेहानः । पृतनाः । उरु । ज्रयः । सम् । अप्सुजित् । मरुत्वान् । इन्द्र । सत्पते ॥
के । ऊँ इति । नु । ते । महिमनः । समस्य । अस्मत् । पूर्वे । ऋषयः । अन्तम् । आपुः । यत् । मातरम् । च । पितरम् । च । साकम् । अजनयथाः । तन्वः । स्वायाः ॥
द्यौ: देवी जननी -
मिमातु । द्यौः । अदितिः । वीतये । नः । सम् । दानुचित्राः । उषसः । यतन्ताम् । आ । अचुच्यवुः । दिव्यम् । कोशम् । एते । ऋषे । रुद्रस्य । मरुतः । गृणानाः ॥
और द्यौ देवी अदितिमाता के साथ साथ माता हुआ - 
द्यौ: अदिति:
विश्वा । हि । वः । नमस्यानि । वन्द्या । नामानि । देवाः । उत । यज्ञियानि । वः । ये । स्थ । जाताः । अदितेः । अत्भ्यः । परि । ये । पृथिव्याः । ते । मे । इह । श्रुत । हवम् ॥
येभ्यः । माता । मधुमत् । पिन्वते । पयः । पीयूषम् । द्यौः । अदितिः । अद्रिबर्हाः । उक्थशुष्मान् । वृषभरान् । स्वप्नसः । तान् । आदित्यान् । अनु । मद । स्वस्तये ॥
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नवरात्र में माता के ९ संकेत। अगले अंक में देवमाता अदिति।
चित्र विविध सभ्यताओं में अंतरिक्ष आधारित माता के विविध रूप दर्शाते हैं।

रविवार, 15 सितंबर 2019

शाक साग वनस्पति भाजी सब्ज़ सब्ज़ी व आहार


गाँव गिराम से ले कर नगर तक 'उत्त भदेस' में 'भाजी' हेतु 'सब्ज़ी' शब्द का 'मूसलाधार' प्रयोग हमारी पीढ़ी में आरम्भ हुआ तथा बपुरा 'भाजी' शब्द पहले 'शाक' 'साग' हेतु रूढ़ हुआ एवं आगे प्राय: प्रयोगबाह्य हो गया। 

पारसी भाषा में 'सब्ज़' हरे (ताजे एवं भले भी) अर्थ में प्रयुक्त है। सब्ज़ी वही होगी जो 'हरी' हो अर्थात आलू की 'सब्ज़ी' नहीं हो सकती। इसके विपरीत यदि औषधि, वनस्पति आदि शब्दों के आयुर्वेदिक पारिभाषिक अर्थ न ले कर प्रचलित अर्थ लें तो वनस्पति शब्द पादप या पादपस्रोत अर्थ में चलता है। पौधा पादप से ही है। जो पाद अर्थात पाँव एक ही स्थान से बद्ध किये हो, स्थित स्थावर जिसमें गति न हो। 

भाजी शब्द वनस्पति से है, लोकसंक्षिप्ति। इसका प्रयोग पुन: आरम्भ करें क्यों कि यह आलू से ले कर पालक तक, सबके लिये उपयुक्त होगा। आप का अपना शब्द है, पर्सिया फारस से आयातित नहीं जिसने अपनी सभ्यता आक्रांता अरबी के बान्हे रख दी! 

भाजी शब्द प्रयोग न तो पिछड़े होने का चिह्न है, न ही सब्जी प्रयोग से आप सभ्य नागर हो जाते हैं। 

शाकाहार अपनायें, स्वस्थ रहें किंतु साग का उसके 'मांस' सहित प्रयोग अल्प करें क्यों कि आयुर्वेद इसे पशुमांस समान ही गरिष्ठ बताता है। सूप लें।

यहाँ शाकाहार मांसाहार का युद्ध आरम्भ न करें। आहार का सम्बंध परिवेश, सभ्यता, संस्कृति, उपलब्धता, मूल्यदक्षता, मान्यताओं आदि से है।
बृहद हिंदी क्षेत्र हेतु शाकाहार पर्याप्त उपलब्ध है, पोषक है, मूल्यदक्ष है, धरा के स्वास्थ्य हेतु भी उत्तम है, अत: पथ्य है। 
वैविध्य बनाये रखें। जिन भाजियों को पिछड़ा मान कर आप छूते तक नहीं, उनमें अनमोल तत्व हैं। प्रयोगधर्मी बनें, भारत के अन्य प्रांतों का शाकाहार अपनायें, टन के टन टमाटर उदर में हूरना व भखना तो आप ने विदेशियों से सीखा न, वे तो अपने हैं! 
सदैव ध्यान रखें कि खाद्यविशेष का चयन उसकी गुणवत्ता से करना होता है। कोई खाद्य न पिछड़ेपन का चिह्न होता है, न आभिजात्य का। जिन कोदो, मड़ुवा, साँवा, टाङ्गुन, जौ आदि को आप मोटा अन्न एवं पिछड़ा मान कर त्याग दिये, थरिया भर भर भात एवं तीन समय गेहूँ की रोट्टी सोट्टी खा स्थायी रूप से अपानवायूत्सर्जन के रोगी हो गये; उन्हीं मोटो झोटों को अब नागर अभिजन Organic Stores से चौगुने मूल्य में ले कर धन्य धन्य हो रहे हैं। आप खेती करते हैं तो उनकी बुवाई करें, मोटा अन्न, मोटा दाम। 
हाँ, टमाटर सांस्कृतिक संकट भी है। अपने व्यञ्जनों से इसके प्रदूषण को शनै: शनै: हटा ही दें। मुआ बचा रह गया अंग्रेज है!

शनिवार, 7 सितंबर 2019

चंद्रयान 2 : आकाश देखें, आसमान नहीं ... क्षितिज निहारिकाओं से भी आगे है!

रश्व(1) निरभ्र(2) स्थिति में देखा था, चंद्र को गुरु के निकट जाते हुये। कल नभ(3) स्थिति थी, नहीं दिखे किंतु पिछले प्रेक्षण से जान गया था कि बहुत निकट पहुँच चुके होंगे, ज्येष्ठा नक्षत्र(4) पर एक साथ, जिसके देवता ज्येष्ठराजा इंद्र हैं। वस्तुत: दोनों एक दूसरे से बहुत दूर हैं, भिन्न संसार के वासी, किंतु हमें आकाश में जैसा धरती से दिखता है, कहते हैं। नभ स्थिति पर मन में एक आशङ्का ने सिर उठाया जिसे मैंने झटक दिया।
घरनी सङ्गिनी ने पूछा कि आज तो चंद्रयान वहाँ उतरने वाला है, मैंने हूँ हाँ कर के बात टाली दी। प्रात: चंद्रतल से २.१ किलोमीटर ऊपर मृदु-अवतरण के चरण में 'विक्रम' घटक से सम्पर्क टूट जाने का दु:खद समाचार मिला।

मैंने लिखा है आकाश देखें, आसमान नहीं। इन शब्दों का अंतर बहुत महत्त्वपूर्ण है। आकाश हमारी जातीय परम्परा का शब्द है जिसमें प्र'काश' निविष्ट है। आसमान विदेशी स्रोत का शब्द है जिसकी सङ्गति अश्म से बैठती है - पत्थर, जड़, औंधे कटोरे सा ऊपर धरा। दृष्टि का अंतर है।
सीमाओं के होते हुये भी यह आत्मविश्वास से भरा भारत है जिसका ढेर सारा श्रेय उस 'पंतप्रधान' को जाता है जो अप्रतिहत ऊर्जा, कर्मठता, समर्पण एवं निश्चय का स्वामी है, जो गहराती रात में भी वैज्ञानिकों के साथ उनका उत्साह बढ़ाता वहाँ उपस्थित था। यह वह भारत है जो दुर्घटनाओं पर वक्षताड़न करता रुकता नहीं है, उपाय कर आगे बढ़ लेता है। आश्चर्य नहीं कि जनसामान्य भी कल रात जगा हुआ था। ऐसे अवसर एक कर देते हैं।
पुरी के शंकराचार्य की प्रक्षेपण पूर्व 'आशीर्वाद यात्रा' हो या प्रक्षेपित होते चंद्रयान को उत्सुकता के साथ निहारते सद्गुरु जग्गी वासुदेव; पुरी के प्रवक्ताओं की हास्यास्पद कथित वैदिक गणितीय बातों के होते हुये भी, धर्म व आध्यात्म से जुड़े गुरुओं का इस अभियान से जुड़ाव ध्यातव्य है। सामान्य घरनी से ले कर धर्मपीठ तक चंद्रयान अभियान ने समस्त भारत को जोड़ दिया। तब जब कि विघटनकारी शक्तियों का वैचारिक विषतंत्र अपने उच्च पर है, राष्ट्र को एक सूत्र में जोड़ता ऐसा कोई भी अभियान अभिनंदन योग्य है। लखनऊ से ले कर बंगलोर तक, पूरब से ले कर पश्चिम तक, समस्त भारतभू से आते वैज्ञानिक इस अभियान में लगे। त्वरित उद्गार एवं सामाजिक सञ्चार तंत्र के इस युग में यह वह समय भी है जब गोद में पल रही भारतद्वेषी एवं भारतद्रोही शक्तियाँ नग्न भी होंगी, कोई सूक्ष्मता से कलुष परोसेगा तो कोई स्थूल भौंड़े ढंग से, नंगे वे सब होंगे। ऐसे अवसरों का भरपूर उपयोग तो होना ही चाहिये, इन्हें भविष्य हेतु चिह्नित भी कर लिया जाना चाहिये।
क प्रश्न उठता है कि इसरो को चंद्रयान प्रेषित करने हेतु इतने लम्बे समय एवं जटिल प्रक्रिया की आवश्यकता क्यों पड़ी? बहुत सरल ढंग से कहें तो इस कारण कि हमारे पास अभी भी उतनी शक्तिशाली प्रणोदयुक्ति नहीं है जो सीधे चंद्रमा पर उतार दे। वर्षों पहले क्रायोजेनिक इञ्जन का परीक्षण हुआ था किंतु आगामी वर्षों में जो उपलब्धि मिल जानी चाहिये थी, नहीं मिली। वास्तविकता यह है कि हार्डवेयर के क्षेत्र में हम अभी पीछे हैं। उस पर काम किया जाना चाहिये। आशा है कि इस घटना के पश्चात शक्तिशाली प्रणोद युक्ति के विकास पर ठोस काम किया जायेगा।
सीमित हार्डवेयर के होते हुये इस अभियान में जो प्रक्रिया अपनाई गई, उसके द्वारा चंद्र के इतना निकट पहुँचा देना अपने आप में महती उपलब्धि है तथा प्रतिद्वन्द्वी महाशक्तियाँ मन ही मन ईर्ष्या कर रही होंगी।
इस प्रक्रिया में गुरुत्वाकर्षण एवं प्रणोद का सम्मिलित उपयोग किया जाता है। यान को पहले धरती की परिक्रमा करते हुये संवेग प्राप्त कराया जाता है। मोटा मोटी प्रक्रिया को कुछ कुछ वनवासी गोफन से समझा जा सकता है, जिसमें वे अपने यंत्र में पत्थर रख कर घुमाते घुमाते उसे संवेग देते हैं तथा उपयुक्त समय पर, पर्याप्त गति प्राप्त कर लेने पर छोड़ देते हैं।
निश्चित संवेग की वह मात्रा हो जाने पर जब कि यान पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से मुक्त हो कर चंद्र की कक्षा तक पहुँचने योग्य हो जाता है, उसे धक्का दे पृथ्वी के आकर्षण से मुक्त कर दिया जाता है तथा वह आगे चंद्र के गुरुत्व के आकर्षण में उसके 'उपग्रह' समान हो जाता है। परिक्रमा करते यान से प्रेक्षकयन्त्र युक्त घटक चन्द्र धरातल पर उतारा जाता है। यह प्रक्रिया भी चरणबद्ध होती है। पूरी प्रक्रिया बहुत ही जटिल, सूक्ष्म एवं परिशुद्ध गणना एवं कार्रवाई की माँग करती है। कोण में या समय में सेकेण्ड की विचलन या विलम्ब भी यान को सदा सदा के लिये अंतरिक्ष में व्यर्थ यायावर बना सकते हैं।           
असफलता में भी ऐसा बहुत कुछ है जो भासमान है। हम सक्षम हैं, सीमित हार्डवेयर के होते हुये भी हमने पूर्णत: देसी तकनीक से वह कर दिखाया है जो हार्डवेयर सक्षम देश कर पाते हैं, असफलतायें तो लगी ही रहती हैं।
अमेरिका का अपोलो १३ न भूलें जब कि उससे पूर्व के सफल अभियान अनुभव होते हुये भी एक चूक ने असफलता के साथ साथ यात्रियों के प्राण भी संकट में डाल दिये थे तथा उन्हें जीवित लौटा लाने की प्रक्रिया में बहुत कुछ सीखने को मिला।
न भूलें वह घटना जब कि विण्डोज के नये संस्करण के लोकार्पण को मञ्च पर चढ़े बिल गेट्स को कुछ ही मिनटों में असफलता के कारण उतरना पड़ा था। माइक्रोसॉफ्ट रुका नहीं, आगे बढ़ गया।
इस अभियान को धन का नाश बताते हुये रोटी एवं निर्धनता को रोते जन को जानना चाहिये कि ऐसे अभियानों की ऐसी सैकड़ो पार्श्व उपलब्धियाँ होती हैं जो जन सामान्य के कल्याण में काम आती हैं। ये भविष्य में एक निवेश की भाँति भी होते हैं।
सफलता नहीं उपलब्धियाँ देखें। अंधकार नहीं, उस प्रकाश पर केंद्रित रहें जो भेद दर्शा रहा है। जड़ नहीं चैतन्यबुद्धि बनें। आसमान नहीं, आकाश देखें! उड़ाने आगे भी होंगी।
हमारा क्षितिज निहारिकाओं के पार तक पसरा है और हमारी गुलेलें, हमारे गोफन भी समर्थ हैं!
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शब्द : 
(1) - परश्व - परसो 
     
(2),(3),(4) - अभ्र कहते हैं बादल को, निरभ्र अर्थात जब बादल न हों, आकाश में नक्षत्र दिख रहे हों। भ को भासमान, प्रकाशित से समझें, चमकते नक्षत्र पिण्ड आदि। नभ अर्थात भ नहीं, जब बादल हों तथा नक्षत्र आदि न दिख रहे हों। जिस पथ पर सूर्य वर्ष भर चलता दिखाई देता है उसे क्रान्तिवृत, भचक्र नाम दिये गये हैं तथा उसका कोणीय विभाजन २७ भागों में किया गया है जिससे कि धरती से देखने पर ज्ञात होता है कि कौन से भाग 'नक्षत्र' में सौर मण्डल के सदस्य ग्रह, उपग्रहादि हैं। नक्षत्र का एक अर्थ न क्षरति जिसका क्षरण न होता हो, है अर्थात जो बने रहते हों। चंद्रमा धरती की परिक्रमा २७+ भू-दिनों में करता है। आकाशीय कैलेण्डर के सबसे चलबिद्धर पिण्ड चंद्र की दैनिक गति के प्रेक्षण हेतु ही २७ विभाग किये गये थे जिन्हें आलंकारिक रूप में कहा गया कि उसकी २७ पत्नियाँ हैं जिनके साथ वह एक एक रात बिताता है। 

शुक्रवार, 23 अगस्त 2019

मैं मैं ही हूँ



जानते हो?
मेरे पाँव तले अनन्त काल शेष रह जाता है।
जानते हो?
वह नाद जिस पर नृत्य कर रही निहारिकायें, नक्षत्र, विवर, सूर्य, ग्रह, चन्द्र,
जिसकी प्रतिध्वनि ही काल की सीमा है,
वह उस कइन की पोर में एक साँस मात्र है जिससे,
तुम्हारा यह कान्ह उस गइया को हाँकता है जिसे तुम भूमा कहते हो!
जानते हो?है वसुन्धरा का वसु मेरी छिंगुरी पर टँगे भूधर में,
जिसे निज कर से बरसाती लक्ष्मी ने,
बना रखा है सृष्टि को निज भ्रूविलास का विषय।
जानते हो?
मैं अनन्तशायी हूँ।
अनन्त कुछ नहीं, यश:दा यशोदा के स्तनों से झरते
क्षीरसर का पान करते
मेरे मन का है ठाँव मात्र।
मैं मैं ही हूँ!

रविवार, 4 अगस्त 2019

Met Museum New York Vishnu-s न्यूयॉर्क संग्रहालय के दो विष्णु

(१) केशव 
केशव Keshava
विष्णु के विविध रूप नाम चार हाथों में चार अस्त्रों/उपादानों के क्रम से आते हैं। यह केशव रूप है। न्यूयॉर्क संग्रहालय The Met, 1000 Fifth Avenue, New York, NY 10028 में स्थित इस प्रतिमा का विवरण इस प्रकार है :
Artist:Dasoja of Balligrama
Period:Hoysala period
Date:first quarter of the 12th century
Culture:India (Karnataka, probably Belur)
Medium:Stone
Dimensions:H. 56 1/2 in. (143.5 cm); W. 28 in. (71.1 cm); D. 9 1/4 in. (23.5 cm)
Classification:Sculpture
Credit Line:Rogers Fund, 1918
Accession Number:18.41
दशावतार विकास के अनेक चरण रहे हैं तथा दक्षिण भारत का इसमें योगदान अधिक रहा। साम्प्रदायिक आग्रह, मतभेद, श्रेष्ठता की भावना आदि के कारण दाशरथि राम के पश्चात तथा वराह के पूर्व के क्रम एवं उपस्थिति, दोनों में विविधता रही। आज जो मान्यता है उसमें वराह, नृसिंह, वामन, दाशरथि राम एवं कल्कि को ले कर कभी समस्या नहीं रही।
मत्स्य, कूर्म, जामदग्न्य राम, संकर्षण राम, बुद्ध; इन पाँच को लेकर समस्यायें हैं जो कृष्ण को मिला कर जटिल हो जाती हैं। 
१३०० वि. का यह केशव विष्णु शिल्प होयसल राजाओंं के समय का है। यह बल्लिग्राम के दसोजा नामक शिल्पकार द्वारा निर्मित है। 
ऊपर पाँच पाँच कर दशावतार दिये गये हैं। दाशरथि राम के पश्चात हलधर संकर्षण राम, तब परशुधारी जामदग्न्य राम, तब बुद्ध एवं सबसे अंत में कल्कि हैं। श्रीकृष्ण को सर्वोच्च मान कर केशव में ही समाहित माना गया है अर्थात यह एक विशेष वैष्णव सम्प्रदाय से सम्बंधित कृति है। उल्लेखनीय है कि राम जामदग्न्य संकर्षण राम के पश्चात दर्शाये गये हैं तथा बुद्ध दशावतार में हैं।

(२) महाविष्णु 
महाविष्‍णु Mahavishnu
महाविष्णु। तोमर काल। वर्तमान के पञ्जाब, हरयाणा एवं दिल्ली क्षेत्र। प्रतिमा अब न्यूयॉर्क संग्रहालय में, विवरण इस प्रकार है : 
Date:10th–11th century 
Culture:India (Punjab)
Medium:Sandstone 
Dimensions:H. 43 1/2 in. (110.5 cm); W. 25 5/8 in. (65.1 cm); D. 10 in. (25.4 cm) 
Classification:Sculpture 
Credit Line:Rogers Fund, 1968
Accession Number:68.46
विचार करें कि प्रतिमा किसी मन्दिर में ही रही होगी। कहाँ गया वह मन्दिर? उत्तर भारत के प्राय: समस्त बिखरे महालय मुसलमानों ने नष्ट कर दिये, उन पर मजार, मकबरा, मस्जिद बना दिये। परमर्दिदेव द्वारा निर्मित एवं जयपुर शासकों द्वारा परिवर्द्धित वह मन्दिर एक उदाहरण मात्र है जिसे आज ताजमहल कहते हैं।लोद़ियों से ले कर हुमायूँ के मकबरे तक, किसी की भी खुदाई हो, मन्दिर अवशेष मिलेंगे। भूचुम्बकीय सर्वेक्षण से भी जाना जा सकता है।
सभी बड़े मन्दिर शिक्षा के केन्द्र भी हुआ करते थे। अग्रहार या ग्रामदेय व्यवस्था के कारण शिक्षक वृत्ति हेतु शासन पर निर्भर नहीं रहता था तथा धर्मानुशासन उसे नियन्त्रण में रखता था, न कि आज के सब धान २२ पसेरी जैसा दण्डविधान।
सब समाप्त हो गया। आज इन क्षेत्रों की अधिकांश जनसंख्या अर्द्ध व्यञ्जन का उच्चारण तक नहीं कर पाती!
समझें कि शिक्षा एवं संस्कृति की लड़ी जब विछिन्न होती है तो युगीन दुर्घटनायें होती हैं। पीढ़ियाँ भ्रष्ट हो अपनी ही शत्रु हो जाती हैं।
कश्मीरी पत्थरबाजों के पुरखे सिकन्दर बुतशिकन के पूर्व वाजश्रवाओं के तुल्य होते थे।
शारदा देवी को आप वीणावादिनी तक सीमित जानते हैं। वृत्रहन्ता वाजिनी सरस्वती का वास्तविक रूप कश्मीर में सुरक्षित था।
... सब नष्ट हो गया। 

रविवार, 21 जुलाई 2019

देवता : वीर भोग्या वसुंंधरा Prime Numbers

चेतना के उच्चतम स्तर तक पहुँचे एवं सहस्राब्दियों में पसरे सनातन वाङ्मय का देवता वैविध्य भौतिक एवं आध्यात्मिक, दोनों स्तरों पर समेकित चिंतन एवं अभिव्यक्ति का द्योतक है।
द्यौ, भू एवं आप: (जल), विराट परिवेश के इन तीन स्पष्ट क्षेत्रों में ग्यारह ग्यारह देवताओं की उद्भावना के साथ कुल ३३ देवता बताये गये - त्रयादेवाऽएकादश त्रयस्त्रिंसासुराधस
पाँच तत्त्वों का अभिज्ञान रहा ही। ऋग्वेद से ले कर उपनिषदों तक संख्याओं के बारे में बहुत कुछ है ही, उनके विविध विभाजनों को ले कर भी बहुत कुछ है। प्रतीत होता है कि अविभाज्यता उनकी चेतना में रही होगी। एक ब्रह्म, दो पुरुष प्रकृति, तीन लोक, पाँच तत्व (पञ्चजन भी)। यहाँ तक आते आते इन अभाज्य संख्याओं (Prime Numbers) का योग ग्यारह हो जाता है। पाँच एवं ग्यारह के बीच सप्तमात्रिकायें ही अभाज्य बचती हैं, जिनका अपना तन्‍त्रमार्ग है।
३३ देवताओं को आगे पाँच तत्त्वों के समूह में बाँटे गये द्वादश आदित्य, एकादश रुद्र, अष्ट वसु एवं भूत भूतेतर को दर्शाते प्रजापति-इन्‍द्र या दो अश्विनीकुमारों का युग्म।
आदित्य पृथ्वी पर जीवन के कारक हैं, बारह महीनों में सूर्य के विविध रूप। रुद्र सम्पूर्ण भूतों का समन्‍वित रूप है, मानव सहित सभी पशु कहे गये हैं जिनकी बलि सृष्टि का विराट यज्ञपुरुष लेता रहता है, एकीकृत रुद्र पशुपति है। याज्ञिक बलि की इस प्रतीकात्मकता को न समझ पाने के कारण या नितान्‍त स्थूल शब्दार्थ लेने के कारण बहुत से अनर्थ हुये। आठ वसु धरा की सम्पदायें हैं। ज्येष्ठराजा इन्‍द्र की वासव संज्ञा हो या वीर राजन्यों हेतु कहा गया वीर भोग्या वसुंंधरा ; वसुओं का रूप स्पष्ट होता है।
छंदों को देवताओं का छाजन कहा गया जिनमें 'मृत्यु के भय' से देवता शरण लेते हैं। ध्यान दें तो १२, ११ एवं ८ की संख्यायें क्रमश: जगती, त्रिष्टुप एवं गायत्री छंदों से जुड़ती हैं जो क्रमश: (उत्पादक) वैश्य, (रक्षक) क्षत्रिय एवं (मन्त्री) ब्राह्मण छन्‍द कहे गये हैं। 
इन्‍हें घेरे दो सीमान्‍त प्रतीक, सत एवं असत, ऋग्वेद के प्रसिद्ध नासदीय सूक्त से समझे जा सकते हैं। अश्विनों में नासत्य जहाँ दयालु एवं पोषक है, वहीं दस्र भयङ्कर एवं संहारक। प्रजापति एवं इन्‍द्र को भी ऐसे ही जाना जा सकता है। पूर्वी बौद्ध देशों की यिन-यान संकल्पना हो या ऊपर बताये पुरुष प्रकृति, चक्रीय क्रम में ऐसे समझे जाने चाहिये।
अंत में समस्त देवताओं के एक रूप विश्वेदेवा देवता को समर्पित एक मन्त्र का अंश देखें, वीरभोग्या वसुन्‍धरा का मर्म अधिक प्रतिभाषित हो जायेगा :
आहुतयो मे कामान्त्समर्धयन्‍तु भू: स्वाहा। 
आहुतियाँ मेरी समस्त कामनाओं को समृद्ध करें। भू मेरे लिये सु-वह हो। 
ःःःःःःःःःःःःःःःःः
(उद्धरण अंश शुक्ल यजुर्वेद से हैं।) 

(३३ करोड़ देवताओं का सम्बन्ध संवत्सर गणना के क्रमश: सूक्ष्म एवं परिशुद्ध होते जाने से है। उस पर कभी लिखेंगे।) 
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रविवार, 14 जुलाई 2019

गुरु आधारित संवत्सर चक्र एवं पञ्चाङ्ग संशोधन की आवश्यकता - दैत्यगुरु शुक्र, देवगुरु बृहस्पति एवं शनि


गुरुपत्नी राजपत्नी मित्रपत्नी तथैव च ।
पत्नीमाता स्वमाता च पञ्चैताः मातरः स्मृताः ॥  
(गुरु, राजा, मित्र, पत्नी की मातायें एवं अपनी माता, इन पाँच को माता माना जाता है।) 
... 
सुदर्शन एवं दिव्यरूपधारी चन्द्र ने अपने गुरु बृहस्पति की पत्नी तारा को लुभा लिया। वह आश्रम तज अपने प्रेमी के घर आ गई। बड़ी पञ्चायतों एवं देवासुर सङ्ग्राम के पश्चात चंद्र ने उसे लौटाया तो वह गर्भवती पाई गई। पूछने पर उसने बताया कि भावी संतान के पिता बृहस्पति नहीं, चंद्र हैं। उसके गर्भ से बुध का जन्म हुआ। बुध से ही आगे चन्द्रवंश चला।
(इस कथा को अभिधात्मक सत्य मानने वाले आगे न पढ़ें क्योंकि उनका मन नहीं रमेगा, व्यर्थ के प्रश्न उठेंगे। )
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बृहस्पति का वर्ष पृथ्वी के लगभग बारह वर्षों के तुल्य होता है अर्थात वह किसी नक्षत्र पर लगभग 27/12 = सवा दो वर्ष रहते हैं। चंद्र के दैनिक नक्षत्र परिवर्तन की दृष्टि से या सूर्य के किसी नक्षत्र पर मात्र सवा दो महीने रहने की दृष्टि से यह लम्बी अवधि है।
कथा किसी ऐसे नाक्षत्रिक कूट की है जब बृहस्पति किसी नक्षत्र तारा के साथ पतिभाव में थे तथा अपनी दैनिक गति में चंद्र वहाँ पहुँचा। यह वह समय था जब सामान्यतया सूर्य से बहुत निकट होने के कारण आँखों से ओझल बुध का अभिज्ञान पूर्ण हुआ था। उस समय ही धरा पर सूर्यवंशियों अर्थात पूर्णत: सूर्यकेंद्रित वर्ष ज्योतिष अनुसार चलने वाले राजाओं के साथ साथ सूर्य एवं चंद्रसमन्वित वर्ष ज्योतिष मानने वाले चंद्रवंशियों का भी अभ्युदय हुआ। विमर्शों के लम्बे एवं अनेक सत्र चले होंगे, मतभेद आदि भी हुये होंगे।
तारा कौन हो सकती है? अनुमान लगायें?
पुष्य नक्षत्र के देवता गुरु बृहस्पति हैं तथा स्वामी शनि। बृहस्पति देवों की प्रज्ञा को दर्शाते हैं तो शनि स्थिरता का। राजन्यों में पुष्य की प्रतिष्ठा थी तथा महत्त्वपूर्ण अभियान पुष्य नक्षत्र देख कर किये जाते थे। रामायण एवं महाभारत में भी इसके संदर्भ हैं।
एक अन्य नक्षत्र ज्येष्ठा ध्यान में आता है जिसक देवता देवराज इन्‍द्र हैं तथा स्वामी बुध। मूल एवं ज्येष्ठा, इन दो नामों से परोक्ष रूप से किसी बहुत ही पुरातन काल में नक्षत्रमाला के आरम्भ के संकेत मिलते हैं। 'तारा' का अभिज्ञान स्वतन्‍त्र अध्ययन की माँग करता है किन्‍तु मेरा अनुमान पुष्य या ज्येष्ठा में से किसी के होने का है। 
कहा गया है कि चंद्र ने लालन पालन हेतु बुध को रोहिणी एवं कृत्तिका को सौंप दिया।
महाभारत युद्ध के समय वसंतविषुव रोहिणी पर था।
यदि आप नक्षत्रों के प्रारम्भ परिवर्तन को देखेंगे तो पायेंगे कि 'प्रागैतिहासिक' आरम्भ नक्षत्रों मूल एवं ज्येष्ठा के पश्चात पहला वैदिक प्रमाण इस उक्ति में मिलता है कि वत्सर आरम्भ श्वान नक्षत्र से है। आरम्भ नक्षत्र का अगला परोक्ष उल्लेख मिलता है मृगशिरा में। यह भी सम्भव है कि तब श्वान एवं मृग तक एक बड़ा नक्षत्रक्षेत्र माना जाता रहा हो।
मृगशिरा के पश्चात स्पष्ट प्रमाण रोहिणी छोड़ कृत्तिका के मिलने लगते हैं। उससे आगे भरणी तज आज कल अश्विनी से आरम्भ है। बीच बीच के छोड़े नक्षत्र सङ्क्रमण काल को दर्शाते हैं। वेदविभाजन एवं पुराण 'पुनर्रचना' वाला महाभारत काल सङ्क्रमण काल तो था ही।
बुध को रोहिणी एवं कृत्तिका को सौंपा जाना भी एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन को दर्शाता है। धरा एवं आकाश को मिला कर कहने की पौराणिक प्रवृत्ति के कारण ऐसी कूट कथायें प्रचलित हुईं।
शुक्र ग्रह एवं पृथ्वी के वर्षों में लगभग स्वर्णिम अनुपात का सम्बंध है।
कथित स्वर्णिम अनुपात होता है, φ = (√5+1)/2 ≈ 1.6180.
π तो जानते ही हैं ≈ 3.1416।
इन दोनों का लगभग सम्बन्ध है,
π ≈ 6/5×φ²
...
स्वर्णिम अनुपात की व्युत्पत्ति इससे है कि ऐसी संख्या जो अपने विलोम में एक जोड़ने पर पुन: अपना रूप प्राप्त कर ले :(1/φ)+1=φ
..
स्वर्णिम अनुपात में आकार आँखों को तुलनात्मक रूप से अधिक भाते हैं किन्तु ऐसा नहीं है कि केवल उसी अनुपात में होने पर ही आकार अच्छे लगें।
इस अनुपात को ले कर आधुनिक काल में बहुत टण्टा किया जाता रहा है, खींच तान, मिथ, असत्य, छल आदि सब। परन्तु इस अनुपात का प्रयोग कर वस्तुयें सुगढ़ तो बनाई ही जा सकती हैं यथा यदि घर बना रहे हों तो शयन कक्ष की लम्बाई एवं चौड़ाई का अनुपात 1.6 के निकट रखें।
जितने समय में पृथ्वी सूर्य की आठ परिक्रमायें करती है, उतने में शुक्र तेरह कर लेता है। पृथ्वी एवं सूर्य के मध्य केवल दो ग्रह हैं - बुध एवं शुक्र। बुध सूर्य के अति निकट होने के कारण प्रेक्षण दुर्लभ है जब कि प्रात: (भुरकुवा, भोर का तारा) एवं साँझ के 'तारे' के रूप में दैदीप्यमान सुंदर शुक्र सबका परिचित है।
पृथ्वी से देखने पर शुक्र एक ऐसा चक्र दर्शाता है जिससे रहस्यमय पञ्चकोण बनता है। इस पञ्चकोण की भुजायें भी एक दूसरे को स्वर्णिम अनुपात में बाँटती हैं।
शुक्र, स्वर्णिम अनुपात एवं इनके अनुसार ज्योतिषचक्र पर दृष्टि  रखने दितिपुत्र दैत्य (कालांतर के असुर) थे। वास्तु एवं शिल्प आदि सुंदर रचनाओं में ये निष्णात होते थे। इनकी संततियाँ इसाइयत द्वारा लुप्त कर दी गयी पगान जनसंख्या में थीं।
इसके विपरीत अपेक्षतया स्थिर बृहस्पति हैं, देवगुरु। इनके अनुसार संवत्सर पर दृष्टि रखने वाले देव। बृहस्पति की सूर्यपरिक्रमा अवधि के बारह पृथ्वीवर्ष देव सभ्यता में बड़े महत्त्वपूर्ण रहे। बारह वर्ष तपस्या, बारह वर्ष पश्चात संन्यासी का अपने जन्मस्थान पर एक बार लौटना, बारह वर्ष के प्रयाण अभियान आदि आज भी जाने जाते हैं।
शनै: चर शनैश्चर सूर्य की परिक्रमा लगभग तीस पृथ्वी वर्ष में करता है। इन दोनों का ल.स. है साठ अर्थात यदि आज शनि एवं गुरु किसी नक्षत्र पर एक साथ हैं तो साठ वर्षों पश्चात पुन: उसी पर एक साथ होंगे या आज उनकी जो सापेक्ष स्थिति है, साठ वर्ष पश्चात यथावत होगी।
यह बड़ा चक्र गणना संशोधन एवं प्रेक्षण की दृष्टि से बड़ा उपयोगी है। इसमें सौर अधिवर्ष संशोधन के पंद्रह चक्र पूरे हो जाते हैं तथा चंद्र मेटॉनिक उन्नीस वर्षीय चक्र के तीन, यद्यपि दो से तीन वर्ष शेष रहते हैं किंतु उसे अन्य प्रकार से समायोजित किया जा सकता है।
कलियुग सोया है, द्वापर उठ बैठा, त्रेता खड़ा हुआ एवं कृत चल पड़ा!
प्रत्येक ४ वर्ष पर अधिवर्ष वैदिक वाङ्मय में भी है। 365 दिन तथा एक बटे चार और अर्थात 6 घण्टे।
कलि आरम्भ सूर्यास्त से - साँझ से 6 घण्टे आगे आधी रात तक शयन।
वर्ष बीतने के पश्चात आगे 6 घण्टे और अधिक, द्वापर, अर्द्धरात्रि से प्रात:काल तक दूसरा पाद, उठ बैठा। दूसरे के पश्चात तीसरा वर्ष त्रेता, 6 घण्टे आगे बढ़ा, उठ खड़ा हुआ प्रातःकाल से मध्याह्न तक।
तीसरा वर्ष बीता चौथा आया, मध्याह्न पश्चात चलता रहा साँझ तक, चक्रपूर्ति कर ली गयी - कृतयुग।
विष्णु के त्रिविक्रम को समझें कि तीन चरण पश्चात बलि रूपी सिर से चक्र पूरा हुआ।
प्रत्येक 19 वर्ष पर सौर दिनांक एवं चन्द्र तिथि का सम्पात अपने को दुहराता है।
कलि-द्वापर-त्रेता-कृत; प्रत्येक 4 वर्ष पर सौर अधिवर्ष होता है।
19×4=76, 76 वर्षों पर दुहराव और सटीक होना चाहिये। इस चक्र के पूर्ण होने के अगले 19 वर्ष पश्चात 95 वर्षों का एक वैदिक चक्र पूरा होता है। कहाँ लिखा यह?
76 का एक गुण देखें।  76ⁿ ≈ φ, जहाँ n = 1/9

साठ वर्षों का आज भी प्रचलित बृहद संवत्सर चक्र इस प्रकार गुरु प्रेरित है, बारह पचे साठ! अनेक जटिल समांतर परम्पराओं के कारण साठ वर्षीय संवत्सर चक्र का आरम्भ भी अब जटिल हो चला है, दक्षिण एवं उत्तर में अंतर हैं तथा चक्र आरम्भ का भौतिक प्रेक्षण रूप से गुरु-शनि वास्तविक युति का उन आरम्भों से मेल नहीं लगता। क्यों न नये से पुनरारम्भ करें?
वैदिक वाङ्मय में इसके पर्याप्त प्रमाण हैं कि एक साथ दो संवत्सर पद्धतियाँ चलती थीं। जन सामान्य हेतु सूर्य का उत्तरायण होना नववर्ष आरम्भ होता तथा ज्योतिर्विदों हेतु वसन्तविषुव का दिन।
आगामी 21 दिसम्बर 2020 ग्रे. को जब कि मूल नक्षत्र विराजमान सूर्य वार्षिक उत्तरायण यात्रा आरम्भ करेंगे, गुरु एवं शनि साठ वर्षों के पश्चात एक साथ उत्तराषाढ़ नक्षत्र पर होंगे तथा दोनों छायाग्रह क्रमश: मृगशिरा एवं ज्येष्ठा पर, क्यों न पञ्चाङ्ग संशोधन सहित नये संवत्सर चक्र की आधारशिला रखी जाय!

... 
(चित्र में  गत तेरह जुलाई की रात बृहस्पति एवं चन्द्र पास पास! निकट ही जो वृश्चिक राशि का तारा दिखता है वह है - Antares (α scorpii), वैदिक ज्येष्ठराजा इन्द्र इसके देवता हैं।)

गुरुवार, 20 जून 2019

नववर्ष के पूर्व दिवस शुभकामनायें

कल २१ जून को ग्रीष्म अयनांत है अर्थात शीत अयनांत के दिन से उत्तरायण होते सूर्य कल अपनी उत्तरी यात्रा के चरम पर होंगे। उत्तरी गोलार्द्ध में सबसे बड़ी अवधि का दिन होगा। इस दिन भारत के मध्य से जाती कर्क रेखा पर सूर्य लम्बवत होंगे। प्रेक्षण आधारित ज्योतिष हेतु ये समय एवं स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। आश्चर्य नहीं कि पुरातन काल से ही उज्जैन, ऐरण आदि स्थानों पर प्रेक्षण मंदिर एवं निर्माण रहे जिन्हें मुसलमान आक्रमणकारियों ने ध्वस्त कर दिया।
कर्क रेखा का यह नाम ही क्यों है? जिस समय इस रेखा का नामकरण किया गया, उस समय आज के दिन सूर्य कर्क राशि में होते थे। आज पश्चाभिगन के कारण इस समय वृष राशि में होते हैं एवं अगले ही दिन मिथुन राशि में प्रवेश कर जाते हैं। मैं पश्चिमी फलित ज्योतिष वाले राशि की बात नहीं कर रहा, आकाश में प्रेक्षणीय तारकसमूहों की बात कर रहा हूँ जो तुलनात्मक रूप से स्थिर माने जा सकते हैं। अर्थात किसी निश्चित दिनांक को सूर्य की स्थिर राशियों के सापेक्ष स्थिति कालक्रम में परिवर्तित होती रहती है। इस प्रकार किसी निश्चित अयन सापेक्ष (सायण) दिनांक को सूर्य की विविध राशियों में 'गति' का आवर्ती काल आज कल २५७७२ वर्ष पाया गया है। किसी निश्चित दिन को सूर्य जिस स्थिति में होता है उसी पर पुन: पहुँचने में इतने वर्ष लगते हैं अर्थात एक राशि से दूसरी राशि तक जाने में २५७७२/१२ = २१४७ वर्ष लगते हैं। कर्क से मिथुन तक एक राशि का अंतर है अर्थात कर्क रेखा का यह नाम आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व रखा गया था।
भारत में प्रेक्षण ज्योतिष का इतिहास बहुत पुराना है तथा ऋग्वेद में आज से नौ हजार वर्ष पूर्व के प्रेक्षण भी मिलते हैं। ऋग्वेद का जो पाठ आज मिलता है, वह इतना प्राचीन होते हुये भी अपना प्राचीनतम रूप नहीं लिये हुये है। बीच के मण्डलों में उस प्राचीनता के संकेत मिलते हैं तथा अन्य मण्डलों में 'पूर्वे', 'पूर्व' आदि शब्द उस प्राचीनता के संकेतक हैं जिसके बारे में पुराण कहते हैं कि वेद लुप्त हुये, भगवान ने उद्धार किया। अस्तु।
एक बात स्पष्ट हो जानी चाहिये कि जहाँ भी कर्क रेखा नाम मिले, वह अंश दो हजार वर्ष से पुराना नहीं हो सकता। ऐसे तथ्यों को काल निर्धारण में आंतरिक प्रमाण कहा जाता है।
प्राचीनतम उपलब्ध ज्योतिष ग्रंथ वेदांग ज्योतिष के आज से लगभग तीन हजार तीन सौ वर्ष पुराने होने के आंतरिक प्रमाण हैं।
ग्रीष्म अयनांत से शीत अयनांत तक छ: महीने की अवधि होती है। शीत अयनांत वही है जिसे आज उत्तरायण संक्रांति से मनाया जाता है। किसी समय शीत अयनांत एवं मकर संक्रांति सम्पाती थे, आज नहीं हैं।
वेदांग से सैद्धांतिक ज्योतिष पर आते समय शीत अयनांत का वैदिक महाव्रत संक्रांति संक्रमित हो गया। शीत अयनांत जहाँ ज्योतिष विद्वानों हेतु नववर्ष होता, वहीं वसंत विषुव जब कि वसंत ऋतु में सम पर दिन रात समान अवधि के होते, ऋतु सुखद होती, जनसामान्य का नववर्ष होता। चंद्रआधारित मास नाम से समन्वय होने पर इसे वर्ष प्रतिपदा, गुड़ी पड़वा, युगादि नामों से मनाया जाता है।
शीत अयनांत से कल के ग्रीष्म अयनांत तक की अवधि गवां अयन कहलाती थी। अयन का अर्थ गति है, यथा रामायण राम की अयोध्या से लंका एवं लंका से पुन: अयोध्या तक की गति है। शीत अयनांत से छ: महीने की दूरतम झुकाव तक अर्थात पुनरावर्तन के बिंदु ग्रीष्म अयनान्त को विषुवंत कहा जाता था। विषुव एवं विषुवंत में अंतर है।
प्रश्न यह उठता है कि क्या दो विषुव एवं दो अयनांत, इन चारो बिंदुओं से नववर्ष आरम्भ होते थे? उत्तर सकारात्मक है। ग्रीष्म अयनांत से ही वर्षा का आरम्भ ब्रह्मावर्त में होता। अत: एक वर्ष वर्षा से भी आरम्भ होता था। वर्ष नाम से वर्षा को मिला कर देखें। उस प्राचीनतम वर्ष को हम भुला चुके हैं। 
बच गया सितम्बर का विषुव, शरद विषुव। क्या उससे भी नववर्ष आरम्भ होता था? यहीं वे विश्वामित्र ध्यान में आते हैं जिन्होंने समांतर विश्व 'रच' दिया था। रचना को बनाने से न समझ एक नयी व्यवस्था के चलन से समझें। इस बात के उल्लेख मिलते हैं कि विश्वामित्र से श्रावण नक्षत्र से नववर्ष बताया। यदि इस पर शोध हो कि शरद विषुव कब श्रावण नक्षत्र पर था तो इस बात के काल पर किसी परिणाम पर पहुँचा जा सकता है। आजकल २३ सितम्बर के शरद विषुव पर सूर्य उत्तरा फाल्गुनी पर हैं। उत्तरा फाल्गुनी से श्रावण दस नक्षत्र की दूरी पर है अर्थात यह बात २५७७२/२७ x १० = ९५४५ वर्ष पुरानी बैठती है। सम्भव है कि उस समय अभिजित को ले कर २७ के स्थान पर २८ नक्षत्र रहे हों, ऐसी स्थिति में अभिजित की स्थिति महत्त्वपूर्ण होगी तथा यह समय १०१२४ वर्ष पूर्व तक हो सकता है, यह इस पर निर्भर है कि अभिजित को श्रावण से पूर्व मानते हैं या नहीं। इसकी संगति ऊपर ऋग्वेद के बारे में बताये गये से भी बैठती है। महाभारत में अभिजित के पतन की कथा है, उस पर पुन: कभी। यह सदैव ध्यान रखें कि पोषण सबसे महत्त्वपूर्ण है तथा कोई भी नववर्ष आरम्भ कृषि चक्र के किसी महत्त्वपूर्ण बिंदु से ही जुड़ा होगा। वर्षा का कृषि हेतु महत्त्व बताना होगा क्या?
नववर्ष के पूर्व दिवस पर शुभकामनायें। प्यासी धरा पर्जन्य को जोह रही है। वर्षा हेतु कल सामूहिक प्रार्थना करें। भूजल का दोहन नियंत्रित करें तथा उसकी पूर्ति हेतु उपाय करें।
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यस्यां पूर्वे भूतकृत ऋषयो गा उदानृचुः ।
सप्त सत्त्रेण वेधसो यज्ञेन तपसा सह ॥ 
सा न: पशून् विश्वरूपां दधातु दीर्घमायुः सविता कृणोतु ।
यस्यामन्नं व्रीहियवौ यत्रेमा: पञ्च कृष्टयः ।
भूम्यै पर्जन्यपत्न्यै नमोस्तु वर्षमेदसे ॥ 
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(अथर्ववेद पैप्पलाद शाखा, १७.४.११-१२) 

रविवार, 26 मई 2019

वैदिक छन्द : ब्राह्मण-शूद्र, क्षत्रिय-वैश्य | गायत्री-अनुष्टुभ, त्रिष्टुभ-जगती।

समस्त छन्दों के मूल में स्तुति (√स्तु - प्रशंसापरक उद्गार, गान आदिहै, छन्द देवताओं के छाजन हैं जिनमें वे मृत्यु के भय से शरण लेते हैं अर्थात स्तुति नहीं करेंगे तो आप के देवता मर जायेंगे अर्थात आप के भीतर से देवत्व समाप्त हो जायेगा।
स्तुति गुणगान मात्र नहीं है, देवता के ब्याज से अपनी शक्तियों का आह्वान है जिनसे जीवन का हर क्षण जुड़ा है।
मूल शब्द है - स्तुभ्। आह्लाद भरा गान। आह्लाद भी कोई साधारण शब्द नहीं।
गान से गायत्री हुई - स्तुति मूल। ८ वर्णों के तीन चरण। गायत्री ब्राह्मण है।
गायत्री में ८ का एक चरण जुड़ा तो अनुष्टुभ हुआ - ३२ का। अनुष्टुभ से आगे श्लोक हुआ।
त्रि+स्तुभ, प्रत्येक चरण में ३ वर्ण जोड़ दिये गये तो ११x४=४४ का हुआ त्रिष्टुभ। त्रिष्टुभ क्षत्रिय है।
क्षात्र धर्माख्यान रामायण एवम महाभारत श्लोक एवं त्रिष्टुभ में रचे गये।
जगत प्रजा है, विश् प्रजा है। विश् से वैश्य है। उसके लिये त्रिष्टुभ के चरणों में एक एक वर्ण जोड़ दिये गये तो ४८ का हुआ जगती छन्द।
...
हाँ, आठ आठ के सात का ५६ वाला शक्वरी भी होता है! सात पग साथ चलना मित्रता का उत्स है।
५६ वाला मित्र है  यह महानाम्नी है, वसन्ततिलका जैसे छन्द का मूल ४x१४ =५६.

तो आगामी युग वासन्ती होगा या नहीं? भारत के भाल मधुमासी राम का तिलक लगेगा या नहीं?

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इतना लिखने के पश्चात यह सोचते हुये सो गया कि किसी भी छंद को शूद्र से क्यों नहीं जोड़ा गया? ऐसा तो नहीं हो सकता।
आज की विकृत शिक्षा पद्धति, जातिवादी द्वेष एवं श्रेष्ठता भाव, नारी-वाम-मूलनिवासी वादों एवं अनध्ययन-समासित-औचित्य-स्थापनाओं के कोलाहल में मेरी मति यदि सबकी उपेक्षा की रही है तो उसका कारण थोड़ा बहुत मूल ग्रंथों का अध्ययन है।
मुझे लग रहा था कि कुछ रह गया या कुछ भूल रहा हूँ क्यों कि वर्ण का मनोवैज्ञानिक विभाजन शूद्र हेतु शून्य नहीं रख सकता।
अर्द्धनारीश्वर हो या पुराणों की वह बात कि सृष्टि सत एवं असत दोनों से है या अन्य बौद्ध/प्राचीन एशियाई मतों में यिन यान का संतुलन; ब्राह्मण-शूद्र एवं क्षत्रिय-वैश्य के दो युग्म 'भारत' रूपी 'वर्ष' के दो अयनों की भाँति हैं। अस्तु।

प्रात:काल जगा तो जैसे चमत्कार हुआ। मन में युग्म था, जाने क्यों मिथुन राशि का अंग्रेजी नाम Gemini ध्यान में आया तो केवल ध्वनि साम्य से मैं जैमिनीय ब्राह्मण खोल बैठा और सत्य ने दर्शन दिये :
'...उसने इच्छा की कि मैं और आगे करूँ वृद्धि।
निज पाँवों रूपी प्रतिष्ठा से इक्कीस स्तोम किया प्रकट, 
अनुष्टुभ छन्द, यज्ञायज्ञीय साम, देवताओं में कोई न एक, 
मनुष्यों में शूद्र, पशुओं में भेड़। 
अत: अनुष्टुभ है शूद्र छंद तथा वेश्मपति है देव।' 
... 
गायत्री छंद ब्राह्मण में एक पाद और जोड़ कर बना छंद अनुष्टुभ शूद्र है। 
त्रिष्टुभ छंद राजन्य के प्रत्येक पाद में एक अक्षर जोड़ कर बना छंद जगती वैश्य है। 
ब्राह्मण-शूद्र एवं राजन्य-वैश्य का मनोवैज्ञानिक छंद शोध पूर्ण हुआ। इन स्थापनाओं को समझने की तर्क पद्धति जानने हेतु शतपथ पढ़ें। 
... 

গিরিজেশ রাও
ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी, धनिष्ठा, २०७६ परिधावी

शनिवार, 13 अप्रैल 2019

रामनवमी, नववर्ष सतुआन, बैसाखी एवं नव लोकसभा चुनाव - नियति की इङ्गिति समझें


जन जन में रमने वाले पुरुषोत्तम श्रीराम का जन्म चैत्र माह की शुक्ल नवमी को पुनर्वसु नक्षत्र में हुआ था अर्थात धरती से देखने पर क्रान्तिवृत्त के २७ भागों में से जो भाग पुनर्वसु कहलाता है अर्थात जिसमें पुनर्वसु तारकमण्डल पड़ता है, उनके जन्म के समय चन्द्रमा वहाँ स्थित थे।
पुनर्वसु नक्षत्र में चंद्रमा आज ०८.५९ तक हैं, अर्थात सूर्योदय के समय भी चंद्रमा पुनर्वसु नक्षत्र में हैं किंतु सूर्योदय की तिथि अष्टमी ही है अत: आज उदया तिथि अष्टमी मानी जायेगी। कल का सूर्योदय पुष्य नक्षत्र में है जब कि सूर्योदय की तिथि नवमी है। कल पुष्य नक्षत्र में चंद्रमा केवल ०७.४१ तक हैं तब भी उदया तिथि अनुसार नवमी कल ही मनाई जायेगी, जब कि नवमी कल केवल ०९.३६ तक ही है।

सूर्योदय से निरपेक्ष चंद्रमा की तिथि नवमी एवं मध्याह्न के सङ्गम पर श्रीराम का जन्मोत्सव होना चाहिये, ऐसा मानने वाले आज ही रामनवमी मनायेंगे।

संयोग देखिये कि कल सौर नववर्ष भी है - सौर संक्रांति पर्व सतुआन- नये अन्न के सत्त्व का पर्व जब सूर्य मीन से मेष राशि में संक्रमित होंगे अर्थात क्रांतिवृत्त के १२ राशि विभाजनों में से आज मीन नामक अंतिम क्षेत्र में हैं, कल ०२.२५ अपराह्न में मेष राशि में प्रवेश करेंगे। राशि चक्र के इस प्रथम क्षेत्र में सूर्य के प्रवेश से सौर नववर्ष होता है। कल भारत के अन्नक्षेत्र में पञ्जाबी बैसाखी होगी।
घट घट जीव पोषक विष्णु अवतारी श्रीराम के जन्म पर जगज्जननी सिद्धिदात्री के सान्निध्य में अन्नपूर्णा बनी महिलायें नये अन्न से 'नवमी के नौ रोटी' बना पूजन करती हैं।

मेरी माता जी स्वास्थ्य लाभ करने आई हुई हैं, उनके विवाहित जीवन की यह पहली रामनवमी है जब वह उस घर में नवमी पूजन नहीं कर पायेंगी जिसमें डोली से उतरी थीं। वह विशेष पूजन कहीं और नहीं किया जाता। उनकी व्यग्रता देख समझ रहा हूँ, साथ ही सहस्राब्दियों पुरातन सनातन समाधान को भी कि चैत में न पूज पायें तो बैसाख की शुक्ल नवमी भी पूजी जा सकती है, ऐसा विधान है। गँवई महिलाओं के इस विधान में मैं उस प्रवाहित ज्ञानसरि को देख पा रहा हूँ जिसने पञ्चनद नववर्ष को बैसाखी नाम दिया होगा, मैं देख पा रहा हूँ कि पश्चिम के बैसाखी से पूरब के सतुआन तक भारत एक है - पश्चिमी समुद्र से पूर्वी समुद्र तक पसरी धरा - पुराण ऐसा ही कहते हैं। मनु भी आर्यावर्त का प्रसार ऐसा ही बताते हैं :
रामनवमी एवं नववर्ष सदा एक साथ नहीं पड़ते, इस वर्ष संयोग ही है कि दोनों साथ पड़े हैं। क्या आप जानते हैं कि जन्मदिन के ही दिन श्रीराम को युवराज पद पर अभिषिक्त करने की अपनी इच्छा उनके पिता ने बताई थी तथा अगले दिन पुष्य नक्षत्र में उनका अभिषेक होना था? पुनर्वसु एवं पुष्य के संधि काल एवं रजनी को श्रीराम एवं देवी सीता ने विशेष व्रत एवं उपवास के साथ बिताया था। होनी कुछ और ही होनी थी, अभिषेक के स्थान पर श्रीराम का वनवास हो गया!

कितना सांकेतिक है इस बार का पुनर्वसु-पुष्य काल कि लोकसभा के चुनाव चल रहे हैं अर्थात जिसका अभिषेक होना है, उसके चयन की प्रक्रिया है। इस नववर्ष पगे चुनाव अभियान में इस प्रकार मतदान करें कि कोई अनर्थ न हो।

मतदान अवश्य करें। आलस्य एवं प्रमाद वश उससे विरक्त हो छुट्टी या पिकनिक न मनायें। धूप से न घबरायें, नववर्ष माह के सूर्य का आतप अच्छा ही होता है।
(1) राष्ट्रहित शतप्रतिशत मतदान करें।
(2) उसके पक्ष में करें जिससे राष्ट्र का गौरव बढ़ता हो, जनसामान्य आयुष्मान होता हो।

शनिवार, 6 अप्रैल 2019

मीन मेख निकालना


बहुत ही सूक्ष्म विश्लेषण आदि के लिये एक मुहावरा प्रचलित है - मीन मेख निकालना। उसका सम्बन्ध सौर-चंद्र समन्वित पंचांग के नववर्ष के आज के पहले दिन से ले कर 14 अप्रैल को सौर पंचांग अनुसार नववर्ष के पहले दिन (सतुआन/ बैसाखी पर्व) से है।
राशि चक्र मेषादि है अर्थात मेष से गणना आरम्भ कर मीन पर अंत होता है तथा आगे पुन: मेष से आरम्भ होता है। ऐसे ही चक्र चलता रहता है।
आज सौर-चंद्र समन्वित नववर्ष है चंद्र मीन राशि में हैं तथा सूर्य भी। ऋतुओं की कारक सूर्य गति है। अत: जब सूर्य मीन राशि से मेष राशि में प्रवेश करें तब राशि चक्र आरम्भ से सम्पात होने के कारण सौर नववर्ष होना चाहिये। 14 अप्रैल के दिन यही होता है, जब सूर्य मीन राशि से मेष राशि में प्रवेश करेंगे - मेष संक्रांति, सौर नववर्ष का आरम्भ।
राशि संक्रांति को नाक्षत्रिक परिशुद्धता के साथ मिला कर देखें तो नववर्ष आरम्भ का निर्धारण सूक्ष्म विश्लेषण की माँग करता है। वही है मीन मेख निकालना। 

बुधवार, 13 मार्च 2019

इस समाचार हेतु तुम्हें क्या दूँ हनुमान? [पौरुषन् विक्रमो बुद्धिर्यस्मिन्नेतानि नित्यदा]

अपने समय का सबसे गर्हित दुरात्मा रावण मारा गया। श्रीराम के आदेश पर लक्ष्मण ने विभीषण का राज्याभिषेक किया। उसके पश्चात राम ने हनुमान ने देवी सीता के पास संदेश भेजा तथा कहा कि क्या कहती हैं, आ कर सुनाओ, सीधे ले आने को नहीं कहा। कदाचित उस राष्ट्र के नये राजा के निर्णय के बिना ले आना नीति की दृष्टि से उचित नहीं होता।
देवी सीता ने हनुमान को देखा किंतु तत्काल कोई प्रतिक्रिया नहीं दीं, चुप रहीं। स्मृति तंतुओं को झङ्कृत करने में दुखिया के मन को किञ्चित समय लगा - तूष्णीमास्त तदा दृष्ट्वा स्मृत्वा हृष्टाभवत्तदा
हनुमान ने देवी को जिस शब्द से सम्बोधित किया, वह उस स्थिति हेतु उपयुक्त था - वैदेही। पिता विदेह का नाम ज्ञान के कारण था किंतु पुत्री तो अपने प्रिय के बिना विदेह स्थिति में थीं।
हनुमान कह उठे - वैदेहि कुशली रामः ससुग्रीवः सलक्ष्मणः । कुशलं चाह सिद्धार्थो हतशत्रुररिन्दमः ...निहतो रावणो देवि ... 
राम सुग्रीव एवं लक्ष्मण के साथ सकुशल हैं, अपनी कुशलता एवं शत्रु के मारे जाने की आप को सूचना देते हैं। देवी ! रावण मारा गया।
आप विगतज्वर हो स्वस्थ हों - लब्धोऽयं विजयः सीते स्वस्था भव गतज्वरा
अब समझें कि आप अपने घर में रह रही हैं - तदाश्वसिहि विस्रब्धं स्वगृहे परिवर्तसे
हर्ष से सीता का कण्ठ अवरुद्ध हो गया, पहले तो कुछ कह ही नहीं पाईं - प्रहर्षेणावरुद्धा सा व्यहर्तुं न शशाक ह
हनुमान ने पुन: विनती की, क्या सोच रही हैं देवी? कुछ कहती क्यों नहीं?
किं त्वं चिन्तयसे देवि किं च मां नाभिभाषसे ? 
गद्गद कण्ठ से सीता के मुख से बोल फूटे - अब्रवीत्परमप्रीता बाष्पगद्गदया गिरा -
प्रहर्ष वशमापन्ना निर्वाक्यास्मि क्षणान्तरम् - हर्ष के वशीभूत हो क्षण भर के लिये मैं निर्वाक हो गयी हनुमान !
इस शुभ समाचार के लिये तुम्हें क्या दूँ, कुछ तो नहीं। सोना, चाँदी, रत्न, तीनो लोकों का राज्य भी पर्याप्त नहीं।
हिरण्यं वा सुवर्णं वा रत्नानि विविधानि च
 राज्यं वा त्रिषु लोकेषु नैतदर्हति भाषितुम् 
हनुमान ने उत्तर दिया कि आप के सार भरे ये प्रेमपूर्ण वचन ही उन सब सम्पदाओं से विशिष्ट हैं :
तवैतद्वचनं सौम्ये सारवत्स्निग्धमेव च 
 रत्नौघाद्विविधाच्चापि देवराज्याद्विशिष्यते 
आगे देवी सीता ने जो सराहना की, वह उनके वैदुष्य का प्रमाण है :
अतिलक्षणसंपन्नं माधुर्यगुणभूषितम्
बुद्ध्या ह्यष्टाङ्गया युक्तं त्वमेवार्हसि भाषितुम् 
श्लाघनीयोऽनिलस्य त्वं सुतः परमधार्मिकः

अत्युत्तम लक्षणों, बुद्धि एवं माधुर्य गुण से विभूषित ऐसी अष्टाङ्ग अलंकरण युक्त वाणी तुम ही बोल सकते हो। क्या हैं वे आठ अलंकरण?
सुश्रुषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, उह, अपोह, अर्थज्ञान, तत्त्वज्ञान।
तुम वायुपुत्र परमधार्मिक हो, श्लाघनीय हो।
आगे देवी सीता ने जो दस गुण गिनाये, वे श्रीराम को भी पता लग गये।
 बलं शौर्यं श्रुतं सत्त्वं विक्रमो दाक्ष्यमुत्तमम् 
तेजः क्षमा धृतिः स्थैर्यं विनीतत्वं न संशयः 
देवी उस समय हनुमान जी को कुछ दे नहीं पाई थीं, टीस बनी रही। इसी कारण राज्याभिषेक के समय जब श्रीराम ने उन्हें परमदिव्य मुक्ताहार दिया तो देवी सीता उसे हनुमान को देना चाहती थीं किंतु सङ्कोच भी था कि जाने स्वामी क्या समझें?

सीतायै प्रददौ रामश्चन्द्ररश्मिसमप्रभम् 
 अरजे वाससी दिव्ये शुभान्याभरणानि च 
अवेक्षमाणा वैदेही प्रददौ वायुसूनवे 
 अवमुच्यात्मनः कण्ठाद्धारन् जनकनन्दिनी 
अवैक्षत हरीन्सर्वान्भर्तारन् च मुहुर्मुहुः
उस समय उनकी इच्छा की संस्तुति करते हुये श्रीराम ने वे ही दस गुण गिनाये जो देवी सीता ने शुभ समाचार ले कर पहुँचे हनुमान हेतु कहे थे।
तामिङ्गितज्ञः सम्प्रेक्ष्य बभाषे जनकात्मजाम् 
प्रदेहि सुभगे हारन् यस्य तुष्टासि भामिनि
... 
तेजो धृतिर्यशो दाक्ष्यं सामर्थ्यं विनयो नयः
पौरुषन् विक्रमो बुद्धिर्यस्मिन्नेतानि नित्यदा
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
यदि आप हनुमान जी की भक्ति करते हैं तो समझें कि उनकी प्रशंसा में जो दो श्लोक स्वयं देवी सीता एवं श्रीराम ने कहे थे, उनसे महिमामण्डन करने पर आञ्जनेय सर्वाधिक प्रसन्न होंगे :
बलं शौर्यं श्रुतं सत्त्वं विक्रमो दाक्ष्यमुत्तमम् 
तेजः क्षमा धृतिः स्थैर्यं विनीतत्वं न संशयः 
... 
तेजो धृतिर्यशो दाक्ष्यं सामर्थ्यं विनयो नयः
पौरुषन् विक्रमो बुद्धिर्यस्मिन्नेतानि नित्यदा
__________________

पढ़ते समय जो मार्मिक प्रसङ्ग अच्छे लगते हैं, उनका जो कुछ समझ में आता है, यहाँ स्वान्त:सुखाय लगा देता हूँ। आगे जैसी आप सब की इच्छा। 

रविवार, 24 फ़रवरी 2019

Kashmir - First 150 Years of Islamic Rule कश्मीर : मुसलमानी शासन के आरम्भिक 150 वर्ष


कश्मीर में 1313 जूलियन में पहले मुसलमान शासक की भूमिका बनने लगी। 1320 में रिञ्चन पहला इस्लामी सुल्तान हुआ तथा 1420 तक के सौ वर्षों में इस्लाम ने पूर्ण प्रसार पा लिया। रिञ्चन कश्मीर का नहीं था, लद्दाख की जनजाति भौट्ट से था तथा कश्मीर में शरणार्थी के रूप में आया था। उसके पुरखे कभी बौद्ध रहे थे। उसने धीरे धीरे अपनी शक्ति बढ़ा ली। राजा बनने के पश्चात उसने शैव या इस्लाम मत में दीक्षित होने हेतु दोनों के धर्मगुरुओं से सम्पर्क किया। राजसभा में वाद विवाद भी हुये किंतु जैसा कि होता ही रहा है, शैव हिंदुओं ने उसे अपने मत में दीक्षित नहीं किया तथा वह मुसलमान बन कर कश्मीर का पहला इस्लामी सुल्तान हुआ। कहते हैं कि उसे एक सूफी बुलबुल शाह ने मुसलमान बनाया था।
1389 जूलियन में सत्तासीन हुये सिकन्दर 'बुतशिकन' ने हिंदू मंदिरों एवं परम्पराओं का प्राय: सम्पूर्ण विनाश कर दिया, मतांतरण एवं जजिया तो चले ही।
 ध्वस्त या लूट कर विरूपित कर दिये गये कुछ मुख्य मन्दिर ये थे :
  • मार्तण्ड विष्णु सूर्य - मटन के निकट
  • विजयेशान या विजयेश्वर) - व्याजब्रोर
  • चक्रभृत या विष्णु-चक्रधर - त्स्कदर उडर
  • त्रिपुरेश्वर - त्रिफर
  • सुरेश्वरी या दुर्गा सुरेश्वरी - इशिबार
  • विष्णु-वराह - वरामुल (बारामुला)

द्वितीय राजतरङ्गिणी का रचयिता जोनराज लिखता है कि उनका प्रभाव ऐसा विनाशक था मानों टिड्डीदल उर्वर खेत पर छा गया हो !

ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी, लौकिक संवत 4489 तदनुसार 1413 जूलियन में सिकन्दर की मृत्यु तक कश्मीर का पारम्परिक सनातन स्वरूप ध्वस्त हो चुका था। आगे के सात वर्ष सत्ता संघर्ष में बीते ।
1420 जू. में सुल्तान बने जैनुल आबिदीन ने जजिया की मात्रा घटा कर, कुछ अल्पप्रसिद्ध मंदिरों का जीर्णोद्धार करा कर तथा पण्डितों को कुछ छूट दे कर भ्रम में डाला। इन सबके बीच कश्मीरी भाषा संस्कृत एवं शारदा के प्रति निष्ठा तज फारसीमय होती गयी। जैनुल आबिदीन ने लगभग पचास वर्ष तक शासन किया।
जब अत्याचार चरम पर हो तो किञ्चित मुक्ति भी बहुत बड़ी लगती है| जिन कश्मीरी पण्डितों ने यवन आक्रमण के प्रतिरोध हेतु प्रथम बार कराधान का विरोध अनशन कर प्राण त्यागने से किया था, उन्हों ने ही जैनुल आबिदीन को नारायण का अवतार बता दिया !

सिकंदर बुतशिकन से अधिक जिहादी जुनून वाला उसका सेनापति सूहा भट्ट था जो कि मतांतरित हो मुसलमान बना पण्डित था। जितने भी मंदिरों के ध्वंस या अत्याचार हुये, उनमें उसकी बड़ी भूमिका रही।

सिकन्‍दर को बुतशिकनी (हिन्‍दू प्रतिमा भञ्जन) हेतु प्रेरित कर कश्मीर को दारुल इस्लाम बनाने हेतु बड़ी प्रेरणा एक सूफी जैसे इस्लामी मीर सैय्यद मुहम्मद की भी रही जो अरबी मूल का था तथा कश्मीर में मात्र 22 वर्ष की आयु में वहाँ आया था। उसकी विद्वता से सिकंदर बहुत प्रभावित हुआ था।

 जैनुल आबिदीन के समय श्री भट्ट नाम के प्रभावशाली पण्डित ने राजा से उन पण्डितों के शुद्धिकरण की अनुमति ले ली थी जो मुसलमान बना दिये गये थे या जिनके दादा, पिता आदि पण्डित थे किंतु पण्डित समाज ने स्पष्ट मना कर दिया।
एक स्वर्णिम अवसर भक्तिधारा ले कर मुख्य भारत से पहुँचे वैष्णव संन्यासी नारायण स्वामी के पहुँचने पर भी आया था जिसे पण्डितों ने गँवा दिया। 

इन वर्षों में स्त्रियों की भूमिका भी विचित्र विध्वंसक रही तथा इस्लाम के इस विजय अभियान में उनका बहुत चतुराई से उपयोग किया गया। आरम्भिक वर्षों में इस्लामी सुल्तानों ने पास पड़ोस के अन्य जातीय राजाओं (डामर आदि) से अपने बेटियाँ ब्याह दीं जिससे कि उनकी राजनीतिक स्थिति सुदृढ़ हो सके । एक आरम्भिक सुल्तान शाह मीर इस प्रकार के वैवाहिक सम्बंधों को करने में अग्रणी रहा। जोनराज लिखते हैं कि डामर वंशी शाह मीर की बेटियों को माला की भाँति धारण किये हैं, वे नहीं जानते कि वे सब घोर विषैली नागिनें हैं।
ये नागिनें भी कश्मीर में इस्लाम स्थापना की कारण बनीं। 
सिकन्दर की एक हिंदू रानी शोभा थी जिससे उसका सबसे बड़ा बेटा फिरोज हुआ था किंतु सिकंदर ने यह सुनिश्चित किया कि सबसे बड़ा होते हुये भी एक हिंदुआनी की कोख से उपजा सुल्तान न बने तथा अपनी मुस्लिम रानी से उत्पन्न मीर खान को उत्तराधिकारी बना गया। 

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2019

अभिमन्यु वध के पश्चात श्रीकृष्ण की वैकल्पिक योजना Plan - B

श्रीराम एवं बाली का प्रसङ्ग तो लगाया ही था। अब देखिये एक दूसरे अवतारी श्रीकृष्ण को जिन्हों ने महाभारत युद्ध में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की थी। सम्भावित आपदा काल हेतु क्या योजना बनाये थे?     
....
कुरुवंश की नयी पीढ़ी के सबसे योग्य कुमार अभिमन्यु का छल पूर्वक वध किया जा चुका था। अधर्मपूर्वक उन्हें घेर कर मारने वाले छ: महारथियों में आचार्य द्रोण एवं कर्ण भी थे। अन्य चार थे - कृपाचार्य, कृतवर्मा, बृहद्वल एवं अश्वत्थामा। अभिमन्यु के संतप्त पिता अर्जुन ने प्रतिज्ञा कर ली कि जिस जयद्रथ ने व्यूह में अभिमन्यु की रक्षा हेतु मेरे भाइयों को प्रवेश नहीं करने दिया, यदि उसने,
- मारे जाने के भय से धृतराष्ट्रपुत्रों का त्याग नहीं कर दिया,
या
- मेरी, श्रीकृष्ण या महाराज युधिष्ठिर की शरण में नहीं आ गया,
तो कल मैं उसका वध अवश्य कर डालूँगा।
न चेद्वधभयाद्भीतो धार्तराष्ट्रांप्रहास्यति 
न चास्माञ्शरणं गच्छेत्कृष्णं वा पुरुषोत्तमम्
भवन्‍तं वा महाराज श्वोऽस्मि हन्ता जयद्रथम् 
इसमें असफल होने पर अपने ऊपर संसार भर के ढेर सारे विविध पापों के पड़ने की बात करते हुये अर्जुन ने जोड़ दिया :
यद्यस्मिन्नहते पापे सूर्योऽस्तमुप्यास्यति 
इहैव सम्प्रवेष्टाहं ज्वलितं जातवेदसम् 
यदि पापी जयद्रथ को मारे बिना ही सूर्य अस्त हो गये तो मैं यहीं प्रज्वलित अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगा।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन के क्रोध में साथ देते हुये उस समय अपना पाञ्चजन्य शङ्ख फूँक दिया। अर्जुन ने अपना देवदत्त शंख फूँका। सेना उत्साह में भर गयी। पाण्डव पक्ष का सिंहनाद उस अतीव शोक के समय में भी समस्त अवनी को पाताल सहित कम्पित करने लगा - जगत् सपाताल ... प्रकम्पयामास !
[युद्ध में स्थायी शोक के लिये न समय होता है, न अवसर। हृदय पर पत्थर रख कर भी सेना का मनोबल बना रहे, ऐसा करने रहना पड़ता है। जो नेतृत्त्व में हैं, उन्हें तो दैन्य कदापि नहीं प्रदर्शित करना चाहिये।] 
दुर्योधन के पक्ष ने सुना तो सभी का उत्साह क्षीण हो गया। जयद्रथ तो मारे भय के काँपने लगा। द्रोण ने उसे आश्वस्त किया कि तुम्हारी रक्षा मैं करूँगा तथा जिसकी रक्षा मैं करूँ उस पर देवताओं का भी वश नहीं चलना - अहं हि रक्षिता तात भयात्त्वां नात्र संशय:, न हि मद्बाहुगुप्तस्य प्रभवन्‍त्यमरा अपि
...
सब हो गया तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को झिड़का, बिना मुझसे मंत्रणा किये तुमने यह बड़ा भारी भार उठा लिया। ऐसी स्थिति में हम सम्पूर्ण लोकों के उपहास के पात्र कैसे नहीं बनेंगे (यदि असफल हुये तो) - असम्मन्त्र्य मया सार्धमतिभारोऽयमुद्यत:, कथं तु सर्वलोकस्य नावहास्या भवेमहि ? 
मैंने दुर्योधन के शिविर में गुप्तचर भेजे थे तथा वे वहाँ का समस्त समाचार मुझे बता गये हैं। जयद्रथ तो भाग जाना चाहता था किंतु उसकी रक्षा हेतु द्रोण ने विशेष प्रबंध किये तो रह गया।
कर्ण, भूरिश्रवा, अश्वत्थामा, वृषसेन, कृपाचार्य एवं शल्य; ये छ: महारथी कल उसकी रक्षा में उससे आगे रहेंगे। द्रोण ने शकट-कमल व्यूह रचने का निर्णय लिया है। पिछले कमल व्यूह के मध्य की कर्णिमा के बीच सूचीव्यूह होगा तथा उसके पार्श्व में अन्यान्य वीरों से रक्षित जयद्रथ रहेगा।
अर्जुन ने सुना तथा वीर वचन कहने लगे कि मधुसूदन, जिन छ: के नाम आप ने गिनाये हैं उनका बल मेरे आधे जितना भी नहीं है - तेषां वीर्यं ममार्धेन न तुल्यमिति मे मति: । केशव ! उस दुर्मति पापी जयद्रथ की रक्षा का बीड़ा उठाये जो द्रोण हैं न, पहले उन्हीं पर आक्रमण करूँगा - यस्तु गोप्ता महेष्वासस्तस्य पापस्य दुर्मते:, तमेव प्रथमं द्रोणम् अभियास्यामि केशव
आप की कृपा से इस युद्धस्थल में कौन सी ऐसी शक्ति है, जो मेरे लिये असह्य हो !  तव प्रसादाद्भगवन्‍किमिवास्ति रणे मम !  जिस प्रकार यज्ञ में लक्ष्मी का होना ध्रुवसत्य है, उसी प्रकार जहाँ आप नारायण विद्यमान हैं, वहाँ विजय भी अटल है - श्रीर्ध्रुवापि च यज्ञेषु ध्रुवो नारायणे जय: । अर्जुन ने श्रीकृष्ण को रात बीतते ही सर्वसज्ज रथ प्रस्तुत करने का निर्देश भी दे दिया - संदिदेशार्जुनो नर्दन्‍वासवि: केशवं प्रभुम्, यथा प्रभातां रजनीं कल्पित: स्याद रथो मम। 
अर्जुन के कहने पर श्रीकृष्ण अपनी बहन सुभद्रा एवं अभिमन्यु पत्नी उत्तरा सहित अन्य स्त्रियों को ढाँढ़स बँधाने चले गये।
...
श्रीकृष्ण के मन में बहुत कुछ चल रहा था। लौट कर अर्जुन के शिविर पहुँचे, जलस्पर्श किये, कुश की शय्या बना कर अक्षत, गंध, माला सहित उस पर समस्त शस्त्रास्त्र रखे तथा अर्जुन से आचमन करवाया। परिचारकों ने उन्हें दिखाते हुये त्र्यम्बक निशा बलि पूजन किया - नैशं त्रैयम्बकं बलिम् । अर्जुन ने समस्त पूजा उपहार श्रीकृष्ण को अर्पित कर दिये। श्रीकृष्ण ने उन्हें शयन करने को कहते हुये यह भी बताया कि मैं अब तुम्हारा कल्याण साधन करने जा रहा हूँ - सुप्यतां पार्थ भद्रं ते कल्याणाय व्रजाम्यहम्
सोना कहाँ था, उस रात शिविर में कोई सो न सका, सब में जागरण का आवेश हो गया था - प्रजागर: सर्वजनं ह्याविवेश विशाम्‍पते
अर्द्धरात्रि हुयी तथा अर्जुन की प्रतिज्ञा का स्मरण करते हुये श्रीकृष्ण जाग उठे। अपने सारथी दारुक से बोले कि कल जयद्रथ की रक्षा हेतु समूचा दुर्योधन पक्ष लग जायेगा। दैत्यों एवं दानवों के दर्प का दलन करने वाले त्रिलोकी में एकमात्र वीर इंद्र हैं परंतु वे भी द्रोणाचार्य से रक्षित जयद्रथ को नहीं मार सकते - एको वीर: सहस्राक्षो दैत्यदानवदर्पहा, सोऽपि तं नोत्सहेताजौ हन्तुं द्रोणेन रक्षितम्। मैं कल कुछ ऐसा करूँगा कि सूर्यास्त के पूर्व अर्जुन जयद्रथ का वध कर दें। मित्रता से भीने भगवान कहते चले गये :
 न हि दारा न मित्राणि ज्ञातयो न च बान्धवाः
 कश्चिन्नान्यः प्रियतरः कुन्तीपुत्रान्ममार्जुनात्
 अनर्जुनमिमं लोकं मुहूर्तमपि दारुक
 उदीक्षितुं न शक्तोऽहं भविता न च तत्तथा
 अहं ध्वजिन्यः शत्रूणां सहयाः सरथद्विपाः
 अर्जुनार्थे हनिष्यामि सकर्णाः ससुयोधनाः
 श्वो निरीक्षन्तु मे वीर्यं त्रयो लोका महाहवे
 धनंजयार्थं समरे पराक्रान्तस्य दारुक
 श्वो नरेन्द्रसहस्राणि राजपुत्रशतानि च
 साश्वद्विपरथान्याजौ विद्रविष्यन्ति दारुक
 श्वस्तां चक्रप्रमथितां द्रक्ष्यसे नृपवाहिनीम्
 मया क्रुद्धेन समरे पाण्डवार्थे निपातिताम्
 ... 
 ज्ञास्यन्ति लोकाः सर्वे मां सुहृदं सव्यसाचिनः
 यस्तं द्वेष्टि स मां द्वेष्टि यस्तमनु स मामनु
 इति संकल्प्यतां बुद्ध्या शरीरार्धं ममार्जुनः
मुझे स्त्री, मित्र, ज्ञाति, बंधु तथा अन्य कोई भी कुन्तीपुत्र अर्जुन से अधिक प्रिय नहीं है। मैं अर्जुन से रहित इस संसार को दो घड़ी भी नहीं देख सकता। ऐसा हो ही नहीं सकता (कि मेरे रहते अर्जुन का अनिष्ट हो)।
मैं अर्जुन के लिये हाथी घोड़े, कर्ण एवं दुर्योधन सहित समस्त शत्रुओं को जीत कर सहसा उनका संहार कर डालूँगा। तुम कल देखोगे कि मैंने समराङ्गण में कुपित हो कर पाण्डव अर्जुन हेतु सारी शत्रु राजसेना को चक्र से प्रमथित कर मार गिराया है। कल सभी जानेंगे कि मैं अर्जुन का सुहृद हूँ। जो अर्जुन से द्वेष करता है, वह मुझसे द्वेष करता है और जो अर्जुन का अनुगामी है, वह मेरा अनुगामी है, तुम अपनी बुद्धि से निश्चय कर लो कि अर्जुन मेरा आधा शरीर है।
 यथा त्वमप्रभातायामस्यां निशि रथोत्तमम्
 कल्पयित्वा यथाशास्त्रमादाय व्रतसंयतः
 गदां कौमोदकीं दिव्यां शक्तिं चक्रं धनुः शरान्
 आरोप्य वै रथे सूत सर्वोपकरणानि च
 स्थानं हि कल्पयित्वा च रथोपस्थे ध्वजस्य मे
 वैनतेयस्य वीरस्य समरे रथशोभिनः
 छत्रं जाम्बूनदैर्जालैरर्कज्वलनसंनिभैः
 विश्वकर्मकृतैर्दिव्यैरश्वानपि च भूषितान्
 बलाहकं मेघपुष्पं सैन्यं सुग्रीवमेव च
 युक्त्वा वाजिवरान्यत्तः कवची तिष्ठ दारुक
कल प्रात:काल तुम शास्त्रविधि के अनुसार मेरे उत्तम रथ को ससुज्जित करके सावधानी के साथ ले कर युद्धस्थल में चलना। कौमोदकी गदा, दिव्य शक्ति, चक्र, धनुष, बाण तथा अन्य समस्त सामग्रियों को रथ पर रखकर उसके पिछले भाग में समराङ्गण रथ पर शोभा पाने वाले वीर विनतानन्‍दन गरुड़ के चिह्न वाले ध्वज के लिये भी स्थान बना लेना। उसमें मेरे चारो श्रेष्ठ अश्वों - बलाहक, मेघपुष्प, शैव्य तथा सुग्रीव को जोत लेना और स्वयं भी कवच धारण कर विराजमान रहना।
श्रीकृष्ण ने वह सङ्केत भी बताया जिसके होने पर दारुक को बड़े वेग से उनके पास पहुँचना था - पाञ्चजन्य शङ्ख का ऋषभ स्वर में नाद। वह भैरव नाद जब सुनाई दे तब बड़े वेग से मेरे पास सज्जित युद्धक रथ ले कर पहुँच जाना।
पाञ्चजन्यस्य निर्घोषमार्षभेणैव पूरितम्
 श्रुत्वा तु भैरवं नादमुपयाया जवेन माम्   
...
यह बात और है कि इसकी आवश्यकता नहींं पड़ी किन्‍तु श्रीकृष्ण अपने कर्म के बारे में, कर्तव्य के बारे में पूर्णत: निश्चित थे तथा परिणाम की गुरुता को देखते हुये उसके लिये अपनी प्रतिज्ञा को भी तोड़ने हेतु सन्नद्ध थे।

मित्रता हेतु सीख : 

- संकट की स्थिति में साथ बना रहे,
- युद्ध में साथी योद्धा द्वारा सहसा निर्णय लेने पर भी सबके सामने उत्साह बढ़ाये,
- जब एकान्‍त हो तो उसकी करनी की गुरुता बताये,
- उसकी सुने, विश्वास बनाये रखे,
- वह मनोवैज्ञानिक रूप से सबल रहे, इस हेतु उपाय करे,
तथा
- विचार कर के ऐसी वैकल्पिक योजना Plan B बना कर नियोजित रखे कि आवश्यकता पड़ने पर तुरन्‍त प्रयोग में लाई जा सके।