गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

कूर्म पुराण, स्वच्छ भारत अभियान, अंतरिक्ष यात्रा एवं रामानुजाचार्य निर्मित मानचित्र

कूर्म पुराण में मल मूत्र त्याग कहाँ न करें, इसकी पूरी सूची दी हुई है : 

'व्यासगीता' से : 
छायाकूपनदीगोष्ठचैत्याम्भः पथि भस्मसु ।
अग्नौ चैव श्मशाने च विण्मूत्रे न समाचरेत्॥२,१३.३६॥
न गोमये न कृष्टे वा महावृक्षे न शाड्वले ।
न तिष्ठन् वा न निर्वासा न च पर्वतमस्तके ॥ २,१३.३७॥
न जीर्णदेवायतने न वल्मीके कदाचन ।
न ससत्त्वेषु गर्तेषु न गच्छन् वा समाचरेत् ॥ २,१३.३८॥
तुषाङ्गारकपालेषु राजमार्गे तथैव च ।
न क्षेत्रे न विले वापि न तीर्थे न चतुष्पथे ॥ २,१३.३९ ॥
नोद्यानोदसमीपे वा नोषरे न पराशुचौ ।
न सोपानत्पादुको वा छत्री वा नान्तरिक्षके॥२,१३.४०॥
न चैवाभिमुखे स्त्रीणां गुरुब्राह्मणयोर्गवाम् ।
न देवदेवालययोरपामपि कदाचन ॥ २,१३.४१ ॥
न ज्योतींषि निरीक्षन्वानसंध्याभिमुखोऽपिवा ।
प्रत्यादित्यं प्रत्यनलं प्रतिसोमं तथैव च ॥ २,१३.४२ ॥
...
संक्षेप में कहूँ तो मार्ग, वृक्ष के नीचे, घास वाली भूमि, जोती हुई भूमि पर भी मल मूत्र त्याग का निषेध है। 
एक रोचक पाठभेद है जो दर्शाता है कि कैसे पुराण श्लोक दूषित किये गये, यह क्षेपकों से इतर प्रवृत्ति है: 
पाठ 1:

न सोपानत्पादुको वा छत्री वा नान्तरिक्षके
पाठ 2:
न सोपानत्पादुको वा गंता यानांतरिक्षग:
...
दूसरा वाला पाठ गीताप्रेस संस्करण में है जिसका अर्थ दिया है - यान में अंतरिक्षगामी हो कर (मल मूत्र त्याग न करे)। पहले वाले से सीधा अर्थ निकलता है कि अंतरिक्ष की ओर ऊर्ध्व हो कर न करे (समझ ही सकते हैं कि क्या स्थिति होगी! )
...
अब दूसरे श्लोक को लेकर यदि कुछ उत्साही लोग यूरी गगारिन से सहस्राब्दियों पहले ही अंतरिक्ष में भारतीय मनुष्यों की आवाजाही का प्रमाण प्रस्तुत करने लगें तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा।
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महाभारत वर्णित सुदर्शन द्वीप के रूप में विश्व का मानचित्र, चंद्रमा में, दो खरहों तथा पीपल की पत्तियों वाला, प्रतिबिम्बित एवं कथित रूप से रामानुजाचार्य द्वारा निर्मित घूम ही रहा है! 
घोर कलियुग यही है! 
महाभारत के भीष्म पर्व में एक प्रकरण है जिसमें यह बताया गया है कि 'सुदर्शन द्वीप' का प्रतिबिम्ब चंद्रमण्डल में वैसे ही दिखता है जैसे किसी पुरुष द्वारा दर्पण में देखा गया अपना मुख। आगे पीपल के दो पत्तों और द्विरंशे शशो महान् की चर्चा है।
... 
बताया जा रहा है कि पंद्रहवीं या सोलहवीं शताब्दी में किसी आचार्य ने इन श्लोकों के आधार पर विश्व का मानचित्र खींच दिया था जो कि चित्र में बायीं ओर दर्शाया गया है। उसे उलट देने पर वैसे ही विश्व का मानचित्र बन जाता है जैसे दर्पण में दिखने वाला चेहरा उलट दें (180 अंश) तो सीधा चेहरा बन जाता है।
दायीं ओर उलटने पर बना मानचित्र दर्शाया गया है।
...
आप उछ्ल पड़े न? अरे! चार सौ वर्ष पहले ही भारतीय जन विश्व का मानचित्र खींच दिये थे तथा पाँच हजार वर्ष पहले भी उन्हें ज्ञात था!
... ठीक यही प्रचारित किया जा रहा है। इसमें कितनी सचाई है? विश्लेषण करते हैं।

भारत और दक्षिण पूर्व एशिया दर्शाने के लिये कथित शशक की पीठ पर दो विचित्र आकार के कूबड़ निकाल दिये गये हैं (लाल घेरा) और ऑस्ट्रेलिया के लिये एक तीसरी पत्ती (श्वेत घेरा) भी जोड़ दी गयी है जो कि उक्त श्लोकों में नहीं है। 'शशो द्विरंशे' कैसे? पता नहीं। ग्रीनलैण्ड, अण्टार्कटिक और आर्कटिक तो तब भी लुप्त हैं। छल समझ में आया?
...
भारतीय ज्ञान विज्ञान बहुत आगे बढ़ा हुआ था। इन सबके बिना भी महान था। उसे अपनी महानता दर्शाने के लिये ऐसे भौंड़े प्रयासों की आवश्यकता नहीं है।
उन पूर्वजों को सच्ची श्रद्धांजलि यह होगी कि आधुनिक ज्ञान विज्ञान में हम आगे हों, झण्डे गाड़ें, न कि विश्वविद्यालयों को चुनावी राजनीति के दलदल में डाल अकादमिकी की ऐसी तैसी करें और गाल बजायें।
सच में ऐसी बातों से मुझे बहुत कष्ट होता है। देखिये तो, भारत के सर्वोत्तम विज्ञान संस्थान वैश्विक श्रेष्ठता श्रेणी में कहाँ हैं?
अपने विश्वविद्यालय या महाविद्यालय को ही देखिये। मुझसे नहीं, स्वयं से पूछिये कि क्या वास्तव में हमारे अकादमिक कर्म उन महान पूर्वजों के पासंग भी हैं?

रविवार, 10 दिसंबर 2017

इसाई अत्याचार एवं मिथ्याचरण : सेण्ट थॉमस की झूठी कब्र तथा कपालीश्वर शिव मंदिर का विध्वंस

महाभारत, कालिदास के रघुवंश सहित अनेक प्राच्य प्राचीन स्रोतों में वर्णित प्राग्ज्योतिषपुर (कामरूप नाम से भी प्रसिद्ध) के बारे में दो मत हैं – एक पश्चिमी तटीय क्षेत्र में कहीं तो दूसरा उत्तर पूर्वी क्षेत्र में वर्तमान गौहाटी के निकट। यह भी सम्भव  है कि एक नाम के दो क्षेत्र रहे हों। प्राचीन भारत की पश्चिमी सीमा कभी वर्तमान अफगानिस्तान एवं ईरान की सीमा के निकट थी, इसके लिये परोक्ष प्रमाण हमें पूरब के प्राग्ज्योतिष से मिलता है। वह क्षेत्र भारत का कभी पूर्वी सीमांत था।
पूरब से सम्बंधित कालिका पुराण में एक उल्लेखनीय संदर्भ है – अत्रैव हि स्थितो ब्रह्मा प्राङ् नक्षत्रं समर्ज ह। ततः प्राग्ज्योतिषाख्येयं पुरी शक्रपुरीसमा॥ ब्रह्मा द्वारा प्राग्ज्योतिष क्षेत्र में नक्षत्रों के सृजन की कथा उस बहुत पुरानी ज्योतिष परम्परा का सङ्केत देती है जिसके अवशेष सूर्य पूजा के रूप में इस क्षेत्र में मिलते हैं। मार्कण्डेय पुराण महाशैल कामरूप के गुरुविशाल नामक वन का उल्लेख सूर्य आराधना के क्षेत्र के रूप में करता है – तस्माद्गुरुविशालाख्यं वनं सिद्धनिवेषितं। कामरूपे महाशैले गम्यतां तत्र वै लघु॥ गुरुविशाल की पहचान आज के गुरुदाचल से की गयी है। 
भारत मुख्यभूमि के लगभग मध्य से जाती कर्क रेखा के आस पास तो प्राचीन ज्योतिष प्रेक्षण के कई केंद्र थे किंतु उज्जैन को ही प्राथमिकता क्यों दी गई? इसका उत्तर उसके देशांतर में है जोकि लगभग 75.75 है। पुराने प्राग्ज्योतिष-कामरूप का देशान्तर लगभग 91.75 अंश लिया जा सकता है। अंतर हुआ - 16 अंश। उज्जैन से 16 अंश पश्चिम हुआ 59.75 अंश जो कि वर्तमान अफगानिस्तान ईरान की सीमा से किञ्चित ही आगे है।
यह निश्चित हुआ कि अफगान ईरान सीमा से लेकर असम तक के भौगोलिक भाग के केंद्र पर उज्जैन स्थित है अर्थातजब उज्जैन को इस रूप में मान दिया गया तो भारतवर्ष की निजी पश्चिमी मानसिक सीमा में आज के अफगानिस्तान ईरान सीमा वाला क्षेत्र था, खुरासान का क्षेत्र।
समुद्री व्यापार और सैन्य अभियान देखें तो आज का बंदर-ए-अब्बास यहाँ से बहुत दूर नहीं है। 

इतिहास बता रहा है कि पर्सिया के राजा दारा का सेनापति सिलाकस इसी पत्तन से भारत अभियान को निकला था। 


तीसरी सदी में भी वर्तमान अफगान-ईरान की सीमा  तक पहुँचना ग्रीको-रोमनों द्वारा ΙΝΔΙΕ India पहुँचना कहा जाता था। एक समय उस क्षेत्र एवं आज के अफगानिस्तान में पारसी भी रहते थे।

मेरो: पार्श्वमहं पूर्वे वक्ष्याम्यथ...दक्षिण के पूजा संकल्प में 'मेरो: दक्षिणपार्श्वे' सुन कर जिज्ञासा जगी कि मेरु कैसे? क्यों? घूम फिर कर महाभारत पहुँचा जिसमें भीष्मपर्व में भौगोलिक साक्ष्यों के साथ कल्पना विस्तार भी खूब हुआ है। मूलत: पूरा विवरण भारत केंद्रित ही रहा होगा किंतु कालांतर में पौराणिक विस्तार प्रकृति ने सबको गड्डमगड्ड कर दिया हो तो आश्चर्य नहीं। एक स्थान का वर्णन आता है - कालाम्र। काला अम्ब नाम से एक पुराना स्थान हिमांचल प्रदेश में मिलता है जिसकी संगति कालाम्र से लगाई जा सकती है (महाभारत का चित्र में संलग्न विवरण देखें)। पानीपत में भी काला अम्ब है किंतु वह उतना पुराना नहीं लगता। हिमाचल के काला अम्ब के बारे में वहाँ के लोगों का विवरण महाभारत से मिलता जुलता पाया है। अब कल्पना कीजिये एक विशाल 'मेरु' की जो लगभग कर्क रेखा पर स्थित प्राचीन नक्षत्र विद्या केंद्र उज्जैन पर केंद्रित रहा हो और उससे चारो दिशाओं में एक एक देशांतर और अक्षांश रेखायें निस्सृत हों। मध्य क्षैतिज रेखा विंध्य पर्वत माला के आसपास ही होगी। आर्यावर्त के केंद्रीय भाग को यदि इस कल्पित 'मेरु पर्वत' शंकु का आधारक्षेत्र मानें तो उसके आधार पर महाभारत में बताये सारे क्षेत्र पहचाने जा सकते हैं, चाहे उत्तरकुरु हो, चाहे जम्बूद्वीप, चाहे इळावर्त, चाहे और कोई वर्ष। उल्लेखनीय है कि जो लंका ज्योतिष के पुराने ग्रंथों की गणना का आधार रही, वह पुराने सिंहल द्वीप या आज के श्रीलंका से मेल नहीं खाती। जब हम इस तथ्य पर ध्यान देते हैं कि नीचे वाली रेखा केरल के पास है और केरल गणित एवं ज्योतिष का स्वनामधन्य केंद्र रहा है तो बातें और स्पष्ट तो होती ही हैं, तमिळ क्षेत्र में रह गया संकल्प शेष 'मेरो: दक्षिणपार्श्वे' भी स्पष्ट हो जाता है। उसी पर्व में अन्यत्र समानता देखिये:  06007011 तस्य पार्श्वे त्विमे द्वीपाश्चत्वारः संस्थिताः प्रभो। भद्राश्वः केतुमालश्च जम्बूद्वीपश्च भारत॥ 06007011e उत्तराश्चैव कुरवः कृतपुण्यप्रतिश्रयाः 06007012a विहगः सुमुखो यत्र सुपर्णस्यात्मजः किल। स वै विचिन्तयामास सौवर्णान्प्रेक्ष्य वायसान्॥ 06007013a मेरुरुत्तममध्यानामधमानां च पक्षिणाम्। अविशेषकरो यस्मात्तस्मादेनं त्यजाम्यहम्॥06007029a मेरोस्तु पश्चिमे पार्श्वे केतुमालो महीपते। 06007040c हिरण्यशृङ्गः सुमहान्दिव्यो मणिमयो गिरिः। 06007041a तस्य पार्श्वे महद्दिव्यं शुभं काञ्चनवालुकम्। 06008002a दक्षिणेन तु नीलस्य मेरोः पार्श्वे तथोत्तरे। 06008002c उत्तराः कुरवो राजन्पुण्याः सिद्धनिषेविताः। 


शीर्षक देख एवं अब तक के लिखे को पढ़ कर आप आश्चर्य कर रहे होंगे कि किसी दूसरे विषय का लेख त्रुटि वश लग गया है क्या? उत्तर है नहीं। इसाई-मिशनरी-जोशुआ-मतांतरण का छल भराखेल है ही ऐसा कि उसे उजागर करने के लिये इतनी गहराई तक जाना पड़ेगा। यह दर्शाना होगा कि यूरोप के लुटेरों के लिये India शब्द का अर्थ वह नहीं था जो आज की भौगोलिक सीमा में सङ्कुचित हो सके। यह आवश्यक है ताकि आप एक गहरे छल  को समझ सकें।
इस तथ्य से आगे वह झूठ आकार लेता है जो तमिलनाडु में आज ब्राह्मण द्वेष तथा इसाई धर्म प्रचार का आधार बना हुआ है।
210 ई. में लिखी गल्प पुस्तक Acts Of Thomas में इसा
Christ का जुड़वा भाई थॉमस उसके द्वारा दासत्व में बेच दिया जाता है, वह अन्द्रोपोलिस नामक पश्चिम एशियाई नगर में आता है, राजा को धोखा देता है, सुन्दर लौण्डे के लिये शैतान से भिंड़ जाता है, बोलने वाले गदहे से इसा का नाम बुलवाता है तथा अन्त में स्त्रियों के प्रति किये अपराधों के कारण लम्बी विधिक प्रक्रिया के पश्चात मृत्युदंड पाता है।
उसकी कब्र उसी क्षेत्र के एडेसा नामक स्थान पर लाई जाती है। पर्सिया, अफगान एवं सीरिया में उसके अनुयायी इसाई पैदा हो जाते हैं। 
उस क्षेत्र से भगाये जाने पर चौथी सदी में वे एक दूसरे 'थॉमस काना' के नेतृत्व में सीरियाई इसाईभारत में शरण लेते हैं।
सदियाँ बीतती हैं तथा दक्षिण भारत के कुछ भागों पर पुर्तगाली अधिकार होता है। तब कृतघ्नता की अब्राहमी परम्परा का निर्वाह करते हुये झूठ का संचार आरम्भ होता है जिसके दो उद्देश्य होते हैं -–एक, पुर्तगालियों द्वारा मन्दिर ध्वंस एवं धार्मिक अत्याचारों को छिपाना तथा दूसरा, लोगों को मसीही बनाना।
थॉमस के नाम का एक मालाबरी (वर्तमान केरल) चर्च दिखा उसे 52 ई. में भारत आया बताया जाने लगता है। मालाबार से पूर्वी तट पर आ तमिळ क्षेत्र में घुसपैठ कर मइलापुर के प्रसिद्ध प्राचीन कपालीश्वर शिव मन्दिर को पुर्तगाली तोड़ देते हैं तथा उस पर चर्च बना कर वहाँ थॉमस को शहीद हुआ बता उसकी कब्र भी बना दी जाती है!
उसे मारने वाला किसे बताया जाता है? एक ब्राह्मण को!
जो थॉमस तीसरी सदी का गल्प है, जो दक्षिण भारत कभी नहीं आया, जो कहानी में भी सदियों पहले भारत के पश्चिमी सीमांत अफगान के पारसियों के सम्पर्क में आया बताया गया जिसकी पुष्टि स्वयं पोप वेनेडिक्ट करता है, वह सुदूर दक्षिण में सदियों पश्चातएक ब्राह्मण द्वारा मारा जा कर मन्दिर के गर्भ गृह में शहीद हो विराजमान हो जाता है! नेहरू सहित समस्त वामपंथी इतिहासकार उसे 52 ई. का भारतीय बताने लगते हैं! सदियों की दूरी के एक कल्पित एवं एक समनामधारी, दो थॉमसों मिला, एक बना कर जटिल तथा ऐसा लुभावना मिथक गढ़ा जाता है जो भारत की आत्मघाती सेकुलर शिक्षा तंत्र से निकले लोगों को जँचे, जिस पर वे सहज ही विश्वास कर लें।
गल्प में थॉमस को भाले द्वारा वधित बताया गया था जिसे उनकी भाषा में लिखा गया है -
‘be ruhme’ । वही ‘be ruhme’, ‘brahmin’ अनुवादित हो गया। मक्कारी आई समझ में?
कपालीश्वर मन्दिर के ध्वंस की कोई बात ही नहीं करता, थॉमस शहीद बना इसाई सहानुभूति बटोर रहा है तथा दक्षिणी ब्राह्मण आर्य अत्याचारी ब्राण्डेड हो अपनी ही धरती पर आक्रान्ता धर्म का विस्तारक बना घृणित है। इसाई पंथ तमिळ धर्म है तथा हिन्दू धर्म बाहरी आरोपण!!
यह आज के तमिलनाडु का यथार्थ है। समूचा तमिलनाडु इसाई मिशनरियों की चपेट में है। एक दूसरी कहानी भी चल रही है आदि शङ्कर द्वारा नागार्जुनकोण्डा के बौद्धों के कथित विनाश की। उस पर अन्य समय लिखूँगा।

यह ध्यान देने योग्य है कि इसा या क्राइस्ट या जोशुआ भी एक काल्पनिक चरित्र है। उसके कश्मीर आने या वहाँ उसकी कब्र होने या पुनर्जीवन के पश्चात वहाँ उसका विवाह होने आदि आदि मिथ्या प्रचारों के पीछे भी इसाइयों का षडयंत्र है। उत्तर भारत को अपनी चपेट में वे ले ही रहे हैं, पंजाब प्रमाण है। अब तो बनारस में भी उसके आगमन के प्रचार करने लगे हैं!
यह वास्तविकता है कि काल्पनिक इसा के काल्पनिक जन्मदिन 25 दिसम्बर पर इसाइयों से अधिक हिंदू मोद मनाने लगे हैं। वे बच्चे जो सेण्ट थॉमस, सेण्ट पॉल, सेण्ट जेवियर्स आदि के प्राउड एलुमिनाइ होते हैं या होने की प्रक्रिया में होते हैं, क्रिसमस पर मारे प्रसन्नता के फूले नहीं समाते! अपनों को ही सांस्कृतिक रूप से अपनों के विरुद्ध कैसे किया जाता है, भारत में पसरता क्रिसमस उसका ज्वलंत प्रमाण है। बता दूँ कि 1953 तक सेण्ट जेवियर्स भारत का apostle था तथा थॉमस पूरब का। उस सन् थॉमस की 'पदावनति' कर उसे भारत का apostle बना दिया गया! कारण ऊपर की कथा के आधार को दृढ़ करना था। 

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संदर्भ :  
(1) मार्कण्डेय पुराण
(2) कालिका पुराण
(3) The Myth of Saint Thomas and the Mylapore Shiva Temple - Ishwar Sharan
(4) Sculpture : The True Reflector of the Society - Shodhaganga
(5) A History of Assam - E A Gait  

बुधवार, 6 दिसंबर 2017

रामजन्मभूमि रामजन्मस्थान मंदिर का इतिहास - निर्माता गहड़वाल राजा Ramjanmabhumi Temple History

Ramjanmabhumi Temple History



वंश्यन्तदेव कुलमाकुलतानिवृत्तिनिर्व्यूढम[प्रतिम] विक्रमजन्मभूमिः।
यत्रातिसाहससहस्रसमिद्धधामा मा नो जनिष्ट जगदिष्टतमोत्तमश्रीः॥
...
टंकोत्खातविशालशैलशिखरश्रेणीशिलासंहति-
व्यूहैर्विष्णुहरेर्हिरण्यकलशश्रीसुन्दरं मन्दिरम्।
पूर्वैरप्यकृतं ….. नृपतिभिर्येनेदमत्यद्भुतम्
संसारार्णवशीघ्रलंघनलघूपायान्धिया ध्यायता॥
...
उद्दामसौधविबुधालयनीमयोध्यामध्यास्य तेन नयनिह्नुत वैशसेन।
साकेतमण्डलमखण्डमकारि कूपवापीप्रतिश्रयतडागसहस्रमिश्रम्॥

...
ऊपर की पंक्तियाँ उस शिलालेख से ली गयी हैं जो 6 दिसम्बर 1992 को ध्वस्त ढाँचे में मिला था। उसके अनुसार गोविंदचंद्र गहड़वाल के सामंत मेघसुत अनयचंद्र ने रामजन्मस्थान का मंदिर बनवाया था। स्पष्ट है कि कालांतर में मुसलमानों ने उसे ही ध्वस्त किया।

गोविंदचंद्र के बाबा चन्द्रदेव गहड़वाल के चन्द्रावती अभिलेख के अनुसार वह काशी, कुशिका (कन्नौज), उत्तर कोशल (अयोध्या) एवं इन्द्रस्थानियक (?) के पवित्र स्थलों के अभिरक्षक थे (1090 ई.)।

मीर बाकी द्वारा ध्वस्त श्रीराम जन्मस्थान स्थित विष्णु हरि मन्दिर से प्राप्त अभिलेख का समय 11वीं - 12वीं सदी है। इस वंश का आधिपत्य 1237 से आगे तब तक रहा जब मुसलमानों ने आक्रमण कर काशी के मन्दिरों को ध्वस्त कर दिया।

इस वंश में अन्य राजा मदनपाल, गोविन्दचन्द्र, विजयचन्द्र, जयचन्द्र, हरिश्चन्द्र, अदक्कमल्ल हुये। जयचन्द्र पृथ्वीराज के समकालीन थे। भाँट गाथाओं के विपरीत, जयचन्द्र की कथित गद्दारी के कोई प्रमाण नहीं मिलते।
चित्र में दर्शाया गया निष्क गोविंदचन्द्र का है। साम्राज्य की समृद्धि स्पष्ट है।
एक अन्य रोचक तथ्य यह है कि बारहवीं सदी तक भी भारत धरा पर बौद्ध धर्म बना हुआ था, जनता एवं राज परिवारों द्वारा संरक्षित था। गोविंदचंद्र की चार रानियाँ थीं - नयनकेलि देवी, गोसल्ला देवी, कुमार देवी तथा वसंता देवी। कुमारदेवी बौद्ध थीं एवं वसंतादेवी महायानी बौद्ध थीं। दिल्ली राष्ट्रीय संग्रहालय में रखी हुई बौद्ध वज्रतारा की बलुये पत्थर की प्रतिमा का चित्र नीचे दिया हुआ है जो कि इन्हीं गहड़वालों द्वारा बनवाई गयी थी। 

कुमार देवी के एक अभिलेख में तुरुष्कों (तुर्कों) से काशी की रक्षा हेतु गोविंदचंद्र को स्वयं हर (शङ्कर जी) द्वारा भेजा गया बताया गया है।
गोविंदचंद्र के चंदेल राजा मदनवर्मन से अच्छे सम्बंध थे जिसकी पुष्टि मदनवर्मन के अभिलेख से होती है। चंदेलों ने शैव, शाक्त एवं जैन तीन पंथों का संरक्षण किया तो गहड़वालों ने वैष्णव, शैव एवं बौद्ध सम्प्रदायों का।
बौद्ध रानी द्वारा शैव काशी की रक्षा हेतु लिखवाया गया अभिलेख तत्कालीन धर्म मान्यताओं के बारे में बहुत कुछ कह जाता है।
बौद्धों का नाश ब्राह्मणों ने नहीं, बारहवीं सदी से भीतरी भारत में घुस आये मुसलमानों ने किया, यह सिद्ध हो जाता है, साथ ही यह भी कि तब तक भारत में विभिन्न मत मतांतर सामञ्जस्य में रह रहे थे।
मार्क्सवादियों ने जान बूझ कर जाने कितने तथ्य छिपा दिये, विकृत किये या नष्ट कर दिये। उन्हें मुसलमानों को बचाने के लिये ब्राह्मणों को बौद्ध संहारक दर्शाना था।
विडम्बना ही है कि आज भीम भीम कहते नवबौद्ध अपने संहारक मीम के साथ गोटियाँ बैठाने में लगे हुये हैं। इतिहास! इतिहास!!

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शुक्रवार, 1 दिसंबर 2017

ऐंवे

किसी प्रेमी ने मुझे विश्व सिनेमा से सम्बंधित एक पृष्ठ से जोड़ दिया है and I am enjoying the ride :)  लोग बहुत अच्छा लिख रहे हैं। उनकी स्मृति, विश्लेषण, अंतर्दृष्टि एवं समझ देख कर चकित हूँ। एक बात स्पष्ट होती जा रही है कि संसार में हर व्यक्ति में प्रतिभा होती है जो अनुकूलता की प्रतीक्षा में रहती है। अनुकूल वातावरण, परिस्थितियाँ एवं विषय मिल जायें तो चमत्कार घटित होते हैं। अपने भीतर की ‘अनुकूलता’ को जानने समझने की आवश्यकता है तथा समूह प्रयास द्वारा अनुकूल पारिस्थितिकी के निर्माण की भी, सर्जनात्मकता अपने विविध रूपों से साक्षात करवाती ही है!
मैं जिहादी उर्दू सिनेमा नहीं देखता, हिंदी सिनेमा जैसा संसार में कुछ है ही नहीं तथा आङ्ग्ल से इतर अन्य भाषायें आती नहीं। ले दे कर अंग्रेजी सिनेमा बचता है जिसे देखता हूँ – टी वी पर, फुल्ल एच डी। जिस किसी फिल्म पर मैं दस मिनट रुका रह गया, वह बुरी हो ही नहीं सकती! :) यही मेरी सीमा है, शक्ति भी है।
मेरी स्मृति में सिनेमा के नाम, निर्देशक, पात्र इत्यादि नहीं टिकते (ए फ्यू गुड मेन जैसी नाम की फिल्म में डेमी मूर अपवाद है, दो तीन विस्मृत नामों वाली फिल्मों का अभिनेता काला वाशिंगटन भी तथा ईश्वर की भूमिका निभाने वाला एक नामविस्मृत अश्वेत भी)। दृश्य भी नहीं टिकते जबकि तत्काल देखी फिल्म के सबसे अच्छे दृश्य के बारे में आप मुझसे पूछें तो मैं सम्भवत: ऐसा लिख सकता हूँ कि वैसा कोई अन्य न लिख पाये किंतु वह मात्र दस पंद्रह मिनट की अवधि तक ही सम्भव है, उसके पश्चात दुर्बी दुलाम दुलच्छणं, भैंस चरे मसल्लमम! :)
मैं दृश्यों में डूब कर देखता हूँ, उस समय मैं रहता ही नहीं। कितनी ही बार श्रीमती जी के कुछ पूछने पर ध्यान भङ्ग के कारण बोल ठोल भी हो जाती है। सम्भवत: विस्मृति का कारण यही है, गहरे उतर कर अनुभव करना तथा बाहर आते ही अनजानेपन की यातना से मुक्त हो जाना। माध्यम का प्रभाव है। ऐसा श्रव्य माध्यम के साथ नहीं होता, निस्पंदता की सीमा तक जा कर सुनना आँखों के स्वतंत्र रहने के कारण विराम या भङ्ग की स्थिति में विस्मृत नहीं होता। उस प्रत्येक स्वर को जहाँ गायक ने अपनी जीभ को करवट दी, गले एवं मूर्धा के मध्य की वीथि को मरुत से भर दिया या गाते गाते सहसा अलस भङ्गिमा में अक्षर मोड़ गया; मैं मन में बिठा पाता हूँ, सायास नहीं, सहज ही हो जाता है।
पढ़ते समय मैं किसी अन्य लोक में होता हूँ, उसे बता नहीं सकता। अक्षर मेरे लिये एक नई विमा रच रहे होते हैं। स्पष्ट है कि ऐसा तभी हो पाता है जब पुस्तक मुझे दस पंद्रह मिनट तक रोक ले अन्यथा संदर्भ हेतु सैकड़ों पड़ी हैं जिन्हें हाथ तक नहीं लगाता। पुस्तक न लिखना या लिख पाना या प्रकाशन में आलस करना, मेरा जो यह स्वभाव है उसके पीछे सम्भवत: गिनाये गये कारणों में से ही कुछ हो।
यदि आप पूछेंगे कि ठीक है, अपने पढ़े का कोई ऐसा बता दो जो मन पर अङ्कित हो गया हो तो मैं गोर्की के उपन्यास माँ के पहले पृष्ठ की बात करूँगा:
Every day the factory whistle bellowed forth its shrill, roaring, trembling noises into the smoke-begrimed and greasy atmosphere of the workingmen's suburb; and obedient to the summons of the power of steam, people poured out of little gray houses into the street. With somber faces they hastened forward like frightened roaches, their muscles stiff from insufficient sleep. In the chill morning twilight they walked through the narrow, unpaved street to the tall stone cage that waited for them with cold assurance, illumining their muddy road with scores of greasy, yellow, square eyes. The mud plashed under their feet as if in mocking commiseration. Hoarse exclamations of sleepy voices were heard; irritated, peevish, abusive language rent the air with malice; and, to welcome the people, deafening sounds floated about--the heavy whir of machinery, the dissatisfied snort of steam. Stern and somber, the black chimneys stretched their huge, thick sticks high above the village….
… The day was swallowed up by the factory; the machine sucked out of men's muscles as much vigor as it needed. The day was blotted out from life, not a trace of it left. Man made another imperceptible step toward his grave; but he saw close before him the delights of rest, the joys of the odorous tavern, and he was satisfied.
...
Once in a long while a stranger would come to the village. At first he attracted attention merely because he was a stranger. Then he aroused a light, superficial interest by the stories of the places where he had worked. Afterwards the novelty wore off, the people got used to him, and he remained unnoticed. From his stories it was clear that the life of the workingmen was the same everywhere. And if so, then what was there to talk about?
.... Noticing in the stranger something unusual, the villagers cherished it long against him and treated the man who was not like them with unaccountable apprehension. It was as if they feared he would throw something into their life which would disturb its straight, dismal course. Sad and difficult, it was yet even in its tenor. People were accustomed to the fact that life always oppressed them with the same power. Unhopeful of any turn for the better, they regarded every change as capable only of increasing their burden.
And the workingmen of the suburb tacitly avoided people who spoke unusual things to them. Then these people disappeared again, going off elsewhere, and those who remained in the factory lived apart, if they could not blend and make one whole with the monotonous mass in the village.
Living a life like that for some fifty years, a workman died. 
‘… died’ तक आते आते जैसे किसी सिम्फनी का एक विराम पूर्ण हो जाता है। इसके अमिट प्रभाव का कारण सम्भवत: यह रहा हो कि यह मेरे द्वारा पढ़ा गया पहला उपन्यास था, पहले चुम्बन की भाँति गहरे प्रभाव वाला किंतु कुछ बात तो है!
यदि आप मुझसे अपने लिखे के बारे में पूछेंगे तो बड़ी विचित बात होगी। मुझे चित्रकारी नहीं आती। शब्दचित्रों से उसकी पूर्ति करने के प्रयास करता रहा हूँ। यह अंश लिखने के पश्चात अच्छा लगा जबकि इसमें वैसी कोई जादुई बात है ही नहीं! क्यों यही अंश? इसका मेरे पास उत्तर नहीं है:
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कुआर का अँजोर । पितरपख  बीत चुका था। भितऊ  बैठके में चौकी बिछी थी। पँचलकड़ियों  से बनी चौकी पर ऐसे मौकों पर ही निकाले जाने वाले तोषक, मसनद, बनारस की धराऊ  चादर और उनके उपर विराजमान थे शास्त्र, तंत्र, मंत्र सर्वज्ञाता खदेरन पंडित। पत्रा और एक लाल बस्ते में रखे भोजपत्र के टुकड़े खुले थे। पंडित तल्लीन थे। उनकी चुप्पी माहौल में फैले तनाव को और गम्भीर बना रही थी।
कोई खास उमस न थी लेकिन सग्गर बाबू धीरे धीरे उनके उपर बेना  झल रहे थे जिसमें आदर प्रदर्शन का भाव अधिक था। उनके बाप ,रामसनेही, पंडित जी के सामने नीची और छोटी चौकी पर बैठे जनेऊ से कभी पीठ खुजाते तो कभी सग्गर बाबू को इशारा करते।
जुग्गुल की तैनाती नीम के नीचे थी। कोई ऐसा वैसा छूत छात वाला मनई  न आ जाय! घर के भीतर सग्गर की महतारी आड़ किए लतमरुआ पर बैठी थीं। हाथ में लकड़ी लिए लँगड़ी पिल्ली को डराए हुए थीं जो बार बार खिरकी  के रस्ते दुआर  की ओर जाने की कोशिश में थी।
खदेरन पंडित बड़े जोगियाह थे। सिले कपड़े नहीं पहनते थे और ऐसे मौकों पर अस्पृश्य की ओर दृष्टि पड़ जाने पर तुरंत काम बन्द कर स्नान करने चल देते थे। रमल, लाल किताब, रोमक और जाने कितने टोटके उनके बाएँ हाथ के खेल थे और सनकें मशहूर थीं।
उनके आने का कारण एक दिन पहले की घटना थी । जंत्री सिंघ बरदेखाई के लिए सुबह सुबह निकले ही थे कि सग्गर सामने पड़ गए।
"धुर बहानचो ! कौनो सुभ कार करे निकल त ई निस्संतानी जरूर समने परि जाला।"
जंत्री सिंघ ने जाना टाल दिया और घर के भीतर से जवान सोनमतिया की महतारी सग्गर को कोसने लगी। अठारह बरस से निस्संतानी सग्गर के लिए यह सब सुनना आम हो चला था लेकिन सोनमतिया पट्टीदारी की ही सही उनकी प्यारी भतीजी थी।
उसका विवाह खोजा जा रहा था और उन्हें खबर ही नही! उनके सामने पड़ जाने से निकलना तक टाल दिया जा रहा है!!
दोहरे धक्के ने कुछ अधिक ही हिला दिया। खटवासि  ले पड़ गए तो दिन भर कुछ नहीं खाए। संझा के बेरा आँख लग गई जो महतारी की फजिहत से खुली,
"ए बेरा सुत्तता। लछमी का अइहें। जाने कौन बाँझ कुलछनी घर में आइल कि एकर सगरी बुद्धी हरि लेहलसि। नाती नतकुर नाही होइहें। निरबंसे होई।"
प्राणप्यारी सोझवा पत्नी के लिए ऐसी भाखा  सुन सग्गर तमतमा उठे। पहाड़ की तरह उन्हों ने पिछले पन्द्रह वर्षों से दूसरे विवाह के दबावों को झेला था - बिना टसके मसके। लेकिन आज जाने क्या हुआ था, अमर्ष?... संझा के बेरा  फूट फूट कर रो पड़े थे। बाप ने सुना और वज्र निर्णय लिया।
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सिनेमा के दृश्य पूछेंगे तो गॉन विद द विण्ड्स के दृश्यों की चित्रकारी एवं अद्भुत सङ्गीत के संयोग के अमिट प्रभाव की बात करूँगा किंतु किसी एक दृश्य को पिन प्वाइण्ट नहीं कर पाऊँगा।
 एक ऐसा दृश्य जो मन पर अमिट रह गया, किसी अन्य फिल्म का है जो सम्भवत: अंग्रेजी भाषा की नहीं थी, मैंने डब की हुई देखी थी:
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 दुपहर का सन्नाटा है। घर के भीतर की छाँव एवं बाहर खिली ऊष्म धूप का कंट्रास्ट। नायक का मुख दर्शकों की ओर है, जबकि नायिका का दूसरी ओर, केवल केश दिखते हैं, दोनों आमने सामने, पृष्ठभूमि में खिली ऊष्म धूप जबकि घर का छाँह अन्हार उन्हें घेरे हुये है। विदाई है, सामान्य नहीं, प्रेम सम्बंध टूटने के पश्चात की। कोई संवाद नहीं, नायक की आँखें ही जैसे सभी इंद्रियों से संवादित हों तथा मंद अनिल के कारण रह रह थिरक उठती नायिका की अलकें जैसे उन्हें कुछ पड़ी ही न हो! कुछ सेकण्ड मात्र। कैमरा धीरे धीरे पीछे होता जा रहा है। वह धीरे से अपना एक हाथ उठा नायक के हाथ का स्पर्श भर करती बढ़ती चली जाती है – धूप की ओर। भीतर पसरती छाँह नायक के पूरे अस्तित्त्व को घेरते हुये तिरोहित कर देती है ...
... आप  पूछेंगे कि कौन सी फिल्म, नायक नायिका कौन? तो मैं निर्बल मुस्कान के साथ यह उत्तर दे बच निकलूँगा – मान लो कि वह फिल्म थी ही नहीं, मैंने एक सपना देखा था!