रविवार, 24 फ़रवरी 2019

Kashmir - First 150 Years of Islamic Rule कश्मीर : मुसलमानी शासन के आरम्भिक 150 वर्ष


कश्मीर में 1313 जूलियन में पहले मुसलमान शासक की भूमिका बनने लगी। 1320 में रिञ्चन पहला इस्लामी सुल्तान हुआ तथा 1420 तक के सौ वर्षों में इस्लाम ने पूर्ण प्रसार पा लिया। रिञ्चन कश्मीर का नहीं था, लद्दाख की जनजाति भौट्ट से था तथा कश्मीर में शरणार्थी के रूप में आया था। उसके पुरखे कभी बौद्ध रहे थे। उसने धीरे धीरे अपनी शक्ति बढ़ा ली। राजा बनने के पश्चात उसने शैव या इस्लाम मत में दीक्षित होने हेतु दोनों के धर्मगुरुओं से सम्पर्क किया। राजसभा में वाद विवाद भी हुये किंतु जैसा कि होता ही रहा है, शैव हिंदुओं ने उसे अपने मत में दीक्षित नहीं किया तथा वह मुसलमान बन कर कश्मीर का पहला इस्लामी सुल्तान हुआ। कहते हैं कि उसे एक सूफी बुलबुल शाह ने मुसलमान बनाया था।
1389 जूलियन में सत्तासीन हुये सिकन्दर 'बुतशिकन' ने हिंदू मंदिरों एवं परम्पराओं का प्राय: सम्पूर्ण विनाश कर दिया, मतांतरण एवं जजिया तो चले ही।
 ध्वस्त या लूट कर विरूपित कर दिये गये कुछ मुख्य मन्दिर ये थे :
  • मार्तण्ड विष्णु सूर्य - मटन के निकट
  • विजयेशान या विजयेश्वर) - व्याजब्रोर
  • चक्रभृत या विष्णु-चक्रधर - त्स्कदर उडर
  • त्रिपुरेश्वर - त्रिफर
  • सुरेश्वरी या दुर्गा सुरेश्वरी - इशिबार
  • विष्णु-वराह - वरामुल (बारामुला)

द्वितीय राजतरङ्गिणी का रचयिता जोनराज लिखता है कि उनका प्रभाव ऐसा विनाशक था मानों टिड्डीदल उर्वर खेत पर छा गया हो !

ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी, लौकिक संवत 4489 तदनुसार 1413 जूलियन में सिकन्दर की मृत्यु तक कश्मीर का पारम्परिक सनातन स्वरूप ध्वस्त हो चुका था। आगे के सात वर्ष सत्ता संघर्ष में बीते ।
1420 जू. में सुल्तान बने जैनुल आबिदीन ने जजिया की मात्रा घटा कर, कुछ अल्पप्रसिद्ध मंदिरों का जीर्णोद्धार करा कर तथा पण्डितों को कुछ छूट दे कर भ्रम में डाला। इन सबके बीच कश्मीरी भाषा संस्कृत एवं शारदा के प्रति निष्ठा तज फारसीमय होती गयी। जैनुल आबिदीन ने लगभग पचास वर्ष तक शासन किया।
जब अत्याचार चरम पर हो तो किञ्चित मुक्ति भी बहुत बड़ी लगती है| जिन कश्मीरी पण्डितों ने यवन आक्रमण के प्रतिरोध हेतु प्रथम बार कराधान का विरोध अनशन कर प्राण त्यागने से किया था, उन्हों ने ही जैनुल आबिदीन को नारायण का अवतार बता दिया !

सिकंदर बुतशिकन से अधिक जिहादी जुनून वाला उसका सेनापति सूहा भट्ट था जो कि मतांतरित हो मुसलमान बना पण्डित था। जितने भी मंदिरों के ध्वंस या अत्याचार हुये, उनमें उसकी बड़ी भूमिका रही।

सिकन्‍दर को बुतशिकनी (हिन्‍दू प्रतिमा भञ्जन) हेतु प्रेरित कर कश्मीर को दारुल इस्लाम बनाने हेतु बड़ी प्रेरणा एक सूफी जैसे इस्लामी मीर सैय्यद मुहम्मद की भी रही जो अरबी मूल का था तथा कश्मीर में मात्र 22 वर्ष की आयु में वहाँ आया था। उसकी विद्वता से सिकंदर बहुत प्रभावित हुआ था।

 जैनुल आबिदीन के समय श्री भट्ट नाम के प्रभावशाली पण्डित ने राजा से उन पण्डितों के शुद्धिकरण की अनुमति ले ली थी जो मुसलमान बना दिये गये थे या जिनके दादा, पिता आदि पण्डित थे किंतु पण्डित समाज ने स्पष्ट मना कर दिया।
एक स्वर्णिम अवसर भक्तिधारा ले कर मुख्य भारत से पहुँचे वैष्णव संन्यासी नारायण स्वामी के पहुँचने पर भी आया था जिसे पण्डितों ने गँवा दिया। 

इन वर्षों में स्त्रियों की भूमिका भी विचित्र विध्वंसक रही तथा इस्लाम के इस विजय अभियान में उनका बहुत चतुराई से उपयोग किया गया। आरम्भिक वर्षों में इस्लामी सुल्तानों ने पास पड़ोस के अन्य जातीय राजाओं (डामर आदि) से अपने बेटियाँ ब्याह दीं जिससे कि उनकी राजनीतिक स्थिति सुदृढ़ हो सके । एक आरम्भिक सुल्तान शाह मीर इस प्रकार के वैवाहिक सम्बंधों को करने में अग्रणी रहा। जोनराज लिखते हैं कि डामर वंशी शाह मीर की बेटियों को माला की भाँति धारण किये हैं, वे नहीं जानते कि वे सब घोर विषैली नागिनें हैं।
ये नागिनें भी कश्मीर में इस्लाम स्थापना की कारण बनीं। 
सिकन्दर की एक हिंदू रानी शोभा थी जिससे उसका सबसे बड़ा बेटा फिरोज हुआ था किंतु सिकंदर ने यह सुनिश्चित किया कि सबसे बड़ा होते हुये भी एक हिंदुआनी की कोख से उपजा सुल्तान न बने तथा अपनी मुस्लिम रानी से उत्पन्न मीर खान को उत्तराधिकारी बना गया। 

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2019

अभिमन्यु वध के पश्चात श्रीकृष्ण की वैकल्पिक योजना Plan - B

श्रीराम एवं बाली का प्रसङ्ग तो लगाया ही था। अब देखिये एक दूसरे अवतारी श्रीकृष्ण को जिन्हों ने महाभारत युद्ध में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की थी। सम्भावित आपदा काल हेतु क्या योजना बनाये थे?     
....
कुरुवंश की नयी पीढ़ी के सबसे योग्य कुमार अभिमन्यु का छल पूर्वक वध किया जा चुका था। अधर्मपूर्वक उन्हें घेर कर मारने वाले छ: महारथियों में आचार्य द्रोण एवं कर्ण भी थे। अन्य चार थे - कृपाचार्य, कृतवर्मा, बृहद्वल एवं अश्वत्थामा। अभिमन्यु के संतप्त पिता अर्जुन ने प्रतिज्ञा कर ली कि जिस जयद्रथ ने व्यूह में अभिमन्यु की रक्षा हेतु मेरे भाइयों को प्रवेश नहीं करने दिया, यदि उसने,
- मारे जाने के भय से धृतराष्ट्रपुत्रों का त्याग नहीं कर दिया,
या
- मेरी, श्रीकृष्ण या महाराज युधिष्ठिर की शरण में नहीं आ गया,
तो कल मैं उसका वध अवश्य कर डालूँगा।
न चेद्वधभयाद्भीतो धार्तराष्ट्रांप्रहास्यति 
न चास्माञ्शरणं गच्छेत्कृष्णं वा पुरुषोत्तमम्
भवन्‍तं वा महाराज श्वोऽस्मि हन्ता जयद्रथम् 
इसमें असफल होने पर अपने ऊपर संसार भर के ढेर सारे विविध पापों के पड़ने की बात करते हुये अर्जुन ने जोड़ दिया :
यद्यस्मिन्नहते पापे सूर्योऽस्तमुप्यास्यति 
इहैव सम्प्रवेष्टाहं ज्वलितं जातवेदसम् 
यदि पापी जयद्रथ को मारे बिना ही सूर्य अस्त हो गये तो मैं यहीं प्रज्वलित अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगा।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन के क्रोध में साथ देते हुये उस समय अपना पाञ्चजन्य शङ्ख फूँक दिया। अर्जुन ने अपना देवदत्त शंख फूँका। सेना उत्साह में भर गयी। पाण्डव पक्ष का सिंहनाद उस अतीव शोक के समय में भी समस्त अवनी को पाताल सहित कम्पित करने लगा - जगत् सपाताल ... प्रकम्पयामास !
[युद्ध में स्थायी शोक के लिये न समय होता है, न अवसर। हृदय पर पत्थर रख कर भी सेना का मनोबल बना रहे, ऐसा करने रहना पड़ता है। जो नेतृत्त्व में हैं, उन्हें तो दैन्य कदापि नहीं प्रदर्शित करना चाहिये।] 
दुर्योधन के पक्ष ने सुना तो सभी का उत्साह क्षीण हो गया। जयद्रथ तो मारे भय के काँपने लगा। द्रोण ने उसे आश्वस्त किया कि तुम्हारी रक्षा मैं करूँगा तथा जिसकी रक्षा मैं करूँ उस पर देवताओं का भी वश नहीं चलना - अहं हि रक्षिता तात भयात्त्वां नात्र संशय:, न हि मद्बाहुगुप्तस्य प्रभवन्‍त्यमरा अपि
...
सब हो गया तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को झिड़का, बिना मुझसे मंत्रणा किये तुमने यह बड़ा भारी भार उठा लिया। ऐसी स्थिति में हम सम्पूर्ण लोकों के उपहास के पात्र कैसे नहीं बनेंगे (यदि असफल हुये तो) - असम्मन्त्र्य मया सार्धमतिभारोऽयमुद्यत:, कथं तु सर्वलोकस्य नावहास्या भवेमहि ? 
मैंने दुर्योधन के शिविर में गुप्तचर भेजे थे तथा वे वहाँ का समस्त समाचार मुझे बता गये हैं। जयद्रथ तो भाग जाना चाहता था किंतु उसकी रक्षा हेतु द्रोण ने विशेष प्रबंध किये तो रह गया।
कर्ण, भूरिश्रवा, अश्वत्थामा, वृषसेन, कृपाचार्य एवं शल्य; ये छ: महारथी कल उसकी रक्षा में उससे आगे रहेंगे। द्रोण ने शकट-कमल व्यूह रचने का निर्णय लिया है। पिछले कमल व्यूह के मध्य की कर्णिमा के बीच सूचीव्यूह होगा तथा उसके पार्श्व में अन्यान्य वीरों से रक्षित जयद्रथ रहेगा।
अर्जुन ने सुना तथा वीर वचन कहने लगे कि मधुसूदन, जिन छ: के नाम आप ने गिनाये हैं उनका बल मेरे आधे जितना भी नहीं है - तेषां वीर्यं ममार्धेन न तुल्यमिति मे मति: । केशव ! उस दुर्मति पापी जयद्रथ की रक्षा का बीड़ा उठाये जो द्रोण हैं न, पहले उन्हीं पर आक्रमण करूँगा - यस्तु गोप्ता महेष्वासस्तस्य पापस्य दुर्मते:, तमेव प्रथमं द्रोणम् अभियास्यामि केशव
आप की कृपा से इस युद्धस्थल में कौन सी ऐसी शक्ति है, जो मेरे लिये असह्य हो !  तव प्रसादाद्भगवन्‍किमिवास्ति रणे मम !  जिस प्रकार यज्ञ में लक्ष्मी का होना ध्रुवसत्य है, उसी प्रकार जहाँ आप नारायण विद्यमान हैं, वहाँ विजय भी अटल है - श्रीर्ध्रुवापि च यज्ञेषु ध्रुवो नारायणे जय: । अर्जुन ने श्रीकृष्ण को रात बीतते ही सर्वसज्ज रथ प्रस्तुत करने का निर्देश भी दे दिया - संदिदेशार्जुनो नर्दन्‍वासवि: केशवं प्रभुम्, यथा प्रभातां रजनीं कल्पित: स्याद रथो मम। 
अर्जुन के कहने पर श्रीकृष्ण अपनी बहन सुभद्रा एवं अभिमन्यु पत्नी उत्तरा सहित अन्य स्त्रियों को ढाँढ़स बँधाने चले गये।
...
श्रीकृष्ण के मन में बहुत कुछ चल रहा था। लौट कर अर्जुन के शिविर पहुँचे, जलस्पर्श किये, कुश की शय्या बना कर अक्षत, गंध, माला सहित उस पर समस्त शस्त्रास्त्र रखे तथा अर्जुन से आचमन करवाया। परिचारकों ने उन्हें दिखाते हुये त्र्यम्बक निशा बलि पूजन किया - नैशं त्रैयम्बकं बलिम् । अर्जुन ने समस्त पूजा उपहार श्रीकृष्ण को अर्पित कर दिये। श्रीकृष्ण ने उन्हें शयन करने को कहते हुये यह भी बताया कि मैं अब तुम्हारा कल्याण साधन करने जा रहा हूँ - सुप्यतां पार्थ भद्रं ते कल्याणाय व्रजाम्यहम्
सोना कहाँ था, उस रात शिविर में कोई सो न सका, सब में जागरण का आवेश हो गया था - प्रजागर: सर्वजनं ह्याविवेश विशाम्‍पते
अर्द्धरात्रि हुयी तथा अर्जुन की प्रतिज्ञा का स्मरण करते हुये श्रीकृष्ण जाग उठे। अपने सारथी दारुक से बोले कि कल जयद्रथ की रक्षा हेतु समूचा दुर्योधन पक्ष लग जायेगा। दैत्यों एवं दानवों के दर्प का दलन करने वाले त्रिलोकी में एकमात्र वीर इंद्र हैं परंतु वे भी द्रोणाचार्य से रक्षित जयद्रथ को नहीं मार सकते - एको वीर: सहस्राक्षो दैत्यदानवदर्पहा, सोऽपि तं नोत्सहेताजौ हन्तुं द्रोणेन रक्षितम्। मैं कल कुछ ऐसा करूँगा कि सूर्यास्त के पूर्व अर्जुन जयद्रथ का वध कर दें। मित्रता से भीने भगवान कहते चले गये :
 न हि दारा न मित्राणि ज्ञातयो न च बान्धवाः
 कश्चिन्नान्यः प्रियतरः कुन्तीपुत्रान्ममार्जुनात्
 अनर्जुनमिमं लोकं मुहूर्तमपि दारुक
 उदीक्षितुं न शक्तोऽहं भविता न च तत्तथा
 अहं ध्वजिन्यः शत्रूणां सहयाः सरथद्विपाः
 अर्जुनार्थे हनिष्यामि सकर्णाः ससुयोधनाः
 श्वो निरीक्षन्तु मे वीर्यं त्रयो लोका महाहवे
 धनंजयार्थं समरे पराक्रान्तस्य दारुक
 श्वो नरेन्द्रसहस्राणि राजपुत्रशतानि च
 साश्वद्विपरथान्याजौ विद्रविष्यन्ति दारुक
 श्वस्तां चक्रप्रमथितां द्रक्ष्यसे नृपवाहिनीम्
 मया क्रुद्धेन समरे पाण्डवार्थे निपातिताम्
 ... 
 ज्ञास्यन्ति लोकाः सर्वे मां सुहृदं सव्यसाचिनः
 यस्तं द्वेष्टि स मां द्वेष्टि यस्तमनु स मामनु
 इति संकल्प्यतां बुद्ध्या शरीरार्धं ममार्जुनः
मुझे स्त्री, मित्र, ज्ञाति, बंधु तथा अन्य कोई भी कुन्तीपुत्र अर्जुन से अधिक प्रिय नहीं है। मैं अर्जुन से रहित इस संसार को दो घड़ी भी नहीं देख सकता। ऐसा हो ही नहीं सकता (कि मेरे रहते अर्जुन का अनिष्ट हो)।
मैं अर्जुन के लिये हाथी घोड़े, कर्ण एवं दुर्योधन सहित समस्त शत्रुओं को जीत कर सहसा उनका संहार कर डालूँगा। तुम कल देखोगे कि मैंने समराङ्गण में कुपित हो कर पाण्डव अर्जुन हेतु सारी शत्रु राजसेना को चक्र से प्रमथित कर मार गिराया है। कल सभी जानेंगे कि मैं अर्जुन का सुहृद हूँ। जो अर्जुन से द्वेष करता है, वह मुझसे द्वेष करता है और जो अर्जुन का अनुगामी है, वह मेरा अनुगामी है, तुम अपनी बुद्धि से निश्चय कर लो कि अर्जुन मेरा आधा शरीर है।
 यथा त्वमप्रभातायामस्यां निशि रथोत्तमम्
 कल्पयित्वा यथाशास्त्रमादाय व्रतसंयतः
 गदां कौमोदकीं दिव्यां शक्तिं चक्रं धनुः शरान्
 आरोप्य वै रथे सूत सर्वोपकरणानि च
 स्थानं हि कल्पयित्वा च रथोपस्थे ध्वजस्य मे
 वैनतेयस्य वीरस्य समरे रथशोभिनः
 छत्रं जाम्बूनदैर्जालैरर्कज्वलनसंनिभैः
 विश्वकर्मकृतैर्दिव्यैरश्वानपि च भूषितान्
 बलाहकं मेघपुष्पं सैन्यं सुग्रीवमेव च
 युक्त्वा वाजिवरान्यत्तः कवची तिष्ठ दारुक
कल प्रात:काल तुम शास्त्रविधि के अनुसार मेरे उत्तम रथ को ससुज्जित करके सावधानी के साथ ले कर युद्धस्थल में चलना। कौमोदकी गदा, दिव्य शक्ति, चक्र, धनुष, बाण तथा अन्य समस्त सामग्रियों को रथ पर रखकर उसके पिछले भाग में समराङ्गण रथ पर शोभा पाने वाले वीर विनतानन्‍दन गरुड़ के चिह्न वाले ध्वज के लिये भी स्थान बना लेना। उसमें मेरे चारो श्रेष्ठ अश्वों - बलाहक, मेघपुष्प, शैव्य तथा सुग्रीव को जोत लेना और स्वयं भी कवच धारण कर विराजमान रहना।
श्रीकृष्ण ने वह सङ्केत भी बताया जिसके होने पर दारुक को बड़े वेग से उनके पास पहुँचना था - पाञ्चजन्य शङ्ख का ऋषभ स्वर में नाद। वह भैरव नाद जब सुनाई दे तब बड़े वेग से मेरे पास सज्जित युद्धक रथ ले कर पहुँच जाना।
पाञ्चजन्यस्य निर्घोषमार्षभेणैव पूरितम्
 श्रुत्वा तु भैरवं नादमुपयाया जवेन माम्   
...
यह बात और है कि इसकी आवश्यकता नहींं पड़ी किन्‍तु श्रीकृष्ण अपने कर्म के बारे में, कर्तव्य के बारे में पूर्णत: निश्चित थे तथा परिणाम की गुरुता को देखते हुये उसके लिये अपनी प्रतिज्ञा को भी तोड़ने हेतु सन्नद्ध थे।

मित्रता हेतु सीख : 

- संकट की स्थिति में साथ बना रहे,
- युद्ध में साथी योद्धा द्वारा सहसा निर्णय लेने पर भी सबके सामने उत्साह बढ़ाये,
- जब एकान्‍त हो तो उसकी करनी की गुरुता बताये,
- उसकी सुने, विश्वास बनाये रखे,
- वह मनोवैज्ञानिक रूप से सबल रहे, इस हेतु उपाय करे,
तथा
- विचार कर के ऐसी वैकल्पिक योजना Plan B बना कर नियोजित रखे कि आवश्यकता पड़ने पर तुरन्‍त प्रयोग में लाई जा सके।
    

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2019

शत्रु कपटी हो, शक्तिशाली हो तो कपट से या छिप कर मारें


श्रीराम ने बाली को छिप कर मारा। रामायण में बाली ने उन्हें बहुत खरी खोटी सुनाई है। स्वयं क्या किया था उसने? भाई को निर्वासित कर एक निश्चित घेरे में रहने पर विवश कर दिया था। पुत्रवधू समान अनुजवधू से बलात संसर्ग करता था, मारा गया तो धर्म की बातें करने लगा।
बाली के चरित्र को आजकल के कम्युनिस्टों एवं मुसलमानों का प्रतिनिधि समझें, अपने तो सारे कुकर्म करेंगे किंतु जब प्रतिकार होगा तो स्वयं को धर्मात्मा बताते हुये सामने वाले पर टूट पड़ेंगे। मीडिया से ले कर नेता अभिनेता तक जो कुछ हो रहा है, बाली कर्म ही है।
बाली ने क्या बातें कहीं हैं! पठनीय हैं -
राजा के गुण गिनाते हुये श्रीराम की भर्त्सना करता है - दम: शम: क्षमा धर्मो धृति: सत्य पराक्रम: । पार्थिवानां गुणा राओजन् दण्डश्चाप्ययकारिषु॥
तुमको तो बड़ा धर्मात्मा सुना था, बड़े अधर्मी निकले ! तुम्हारी बुद्धि मारी गयी है - विनिहतात्मानं। तुम्हारा आचार पापपूर्ण है - पापसमाचारम्। तुम घास फूस से ढके कुँये के समान धोखा देने वाले हो - तृणै: कूपमिवावृतम्। साधुओं के वेश में पापी हो - सतां वेषधरं पापं, राख से ढकी अग्नि समान हो, धर्म का छ्द्माभ्यास करते हो - धर्मच्छद्मानिसंवृतम्
मैं तो तुम्हारे राज्य में कोई उपद्रव नहीं कर रहा था, तब भी मुझ निरपराध को क्यों मारा? - विषये वा पुरे वा ते यदा पापं करोम्यहम् ... कस्मात् तं हंस्य?
महान क्षत्रियकुल में जन्मा, धर्म ज्ञाता बताते हुये उसने उन्हें क्रूरकर्मा कह कर ग्लानि से ग्रस्त करने का प्रयास भी किया, जैसे आज कल बरखा से रबिश तक सभी हिंदुओं पर लगे हुये हैं - धर्मलिङ्गप्रतिच्छन्न: क्रूरं कर्म समाचरेत् ! अखलाक के वध पर जैसी प्रतिक्रियायें आई थीं, इस अंश को पढ़ते हुये वे सभी ध्यान में आती हैं।
तुम्हें नीति एवं विनय नहीं ज्ञात, दण्ड एवं अनुग्रह का राजधर्म भी नहीं पता, तुम तो बड़े संकीर्ण, क्रोधी अमर्यादित हो - कोपनश्चानवस्थित:, संकीर्ण:। जहाँ कहीं भी बाण चलाते फिरते हो - शरासनपरायण:। तुम्हारी बुद्धि स्थिर नहीं है।
मुसलमानों की ही भाँति विक्टिम कार्ड भी खेलने लगा -
हत्वा बाणेन काकुत्स्थ मामिहानपराधिनम् ।
किं वक्ष्यसि सतां मध्ये कर्म कृत्वा जुगुप्सितम् ॥
मुझ निरपराध को बाण से मारने का जुगुप्सित कर्म कर तुम सत्पुरुषों के बीच में क्या कहोगे?

बाली ने इतना तक कह दिया कि अरे !  तुम शठ हो, अपकारी हो, क्षुद्र हो,  मिथ्या ही अपने को शांतचित्त दिखाते रहते हो। महात्मा जैसे राजा दशरथ से तुम्हारे जैसा पापी कैसे उत्पन्न हो गया !
शठो नैकृतिक: क्षुद्रो मिथ्याप्रश्रितमानस: । कथं दशरथेन त्वं जात: पापो महात्मना !
श्रीराम आज कल के मोहनदासी हिंदू होते तो पानी पानी हो गये होते!

श्रीराम ने उत्तर देना आरम्भ किया - धर्म, अर्थ, काम एवं लौकिक आचार को तो तुम स्वयं नहीं जानते, बालोचित अविवेक से ग्रस्त हो मेरी निंदा करते हो? - अविज्ञाय कथं बाल्यान्मामिहाद्य विगर्हसे ! यह समस्त पृथ्वी इक्ष्वाकुओं की है, वे पशु पक्षी सहित समस्त मनुष्यों पर दया करने एवं दण्ड देने के अधिकारी हैं।
धर्मात्मा राजा भरत इस पृथ्वी का पालन करते हैं - तां पालयति धर्मात्मा भरत: सत्यवानृजु:। भरत की ओर से हमें तथा अन्य पार्थिवों को यह आदेश प्राप्त है कि जगत में धर्म पालन एवं प्रचार का यत्न किया जाय। अत: हमलोग धर्म का प्रसार करने की इच्छा से इस पृथ्वी पर विचरते हैं :
तस्य धर्मकृतादेशा वयमन्ये च पार्थिवा: ।
चरामो वसुधां कृत्स्नां धर्मसंतानमिच्छव: ॥
राम ने भरत की महिमा बताई तथा आगे वह कारण गिनाये जिनके कारण बाली को उन्हें मारना पड़ा, तुलसीदास ने अनुवाद किया - अनुजबधू भगिनी सुतनारी  ...
राम ने पापकर्म का दण्ड भरत के प्रतिनिधि होने के कारण दिया।
तदेतत्कारणं पश्य यदर्थं त्वं मया हतः
भ्रातुर्वर्तसि भार्यायां त्यक्त्वा धर्मं सनातनम्
अस्य त्वं धरमाणस्य सुग्रीवस्य महात्मनः
रुमायां वर्तसे कामात्स्नुषायां पापकर्मकृत्
तद्व्यतीतस्य ते धर्मात्कामवृत्तस्य वानर
भ्रातृभार्याभिमर्शेऽस्मिन्दण्डोऽयं प्रतिपादितः
न हि धर्मविरुद्धस्य लोकवृत्तादपेयुषः
दण्डादन्यत्र पश्यामि निग्रहं हरियूथप
औरसीं भगिनीं वापि भार्यां वाप्यनुजस्य यः
प्रचरेत नरः कामात्तस्य दण्डो वधः स्मृतः
भरतस्तु महीपालो वयं त्वादेशवर्तिनः
त्वं च धर्मादतिक्रान्तः कथं शक्यमुपेक्षितुम्
गुरुधर्मव्यतिक्रान्तं प्राज्ञो धर्मेण पालयन्
भरतः कामवृत्तानां निग्रहे पर्यवस्थितः
वयं तु भरतादेशं विधिं कृत्वा हरीश्वर
त्वद्विधान्भिन्नमर्यादान्नियन्तुं पर्यवस्थिताः
श्रीराम ने यह भी बताया कि दण्ड देने में प्रमाद करने पर राजा को दूसरों के पाप भोगने पड़ते हैं। भारत की समस्या यही है कि राजदण्ड या तो है ही नहीं या मोहनदासी प्रभाव में चलता ही नहीं।
लोकतंत्र में तो लोक ही राजा है न? सरकार उसकी प्रतिनिधि। प्रतिनिधि दण्ड नहीं देगा तो राजा पाप भोगेगा अर्थात लोग कष्ट भोगेंगे। भारत की जनता भोग रही है।
victim card ख़ेल कर आजकल के वामपंथी प्रयासों की भाँति उन्हें अवसाद एवं पछतावे, ग्लानि आदि से भर देने के बाली के कथनों पर श्रीराम ने बहुत स्पष्ट कह दिया :
न मे तत्र मनस्तापो न मन्युर्हरिपुङ्गव ।
वागुराभिश्च पाशैश्च कूटैश्च विविधैर्नरा :॥
इस कार्य के लिये मेरे मन में न तो संताप होता है और न खेद ही। मनुष्य जाल बिछा कर, पाश पसार कर तथा नाना प्रकार के कूट उपाय कर मृगों को पकड़ लेते हैं, तू तो शाखामृग (उत्पाती) है - यस्माच्छाखामृगो ह्यसि !
...
शत्रु कपटी हो, शक्तिशाली हो तो कपट से या छिप कर मारें । मन में कोई अपराध भाव या ग्लानि न रखते हुये दुरात्माओं को येन केन प्रकारेण नष्ट करने वाले क्षात्रधर्म की आवश्यकता है।  

बुधवार, 13 फ़रवरी 2019

भार्गव वाल्मीकि एवं जातीय गतिशीलता

जातीय गतिशीलता को नहीं समझने से, काल की बृहद परास में घटित की विस्मृति से या उपेक्षा करने से आज कल की बहुत सी समस्यायें उत्पन्न हुई हैं। भारत तोड़क प्रचार तंत्र की भी इसमें बहुत बड़ी भूमिका है।
भार्गव कुल एवं संततियाँ नवोन्मेष हेतु जानी जाती हैं। पनही, छाता, आँवा में पकाये मृद्भाण्ड, परशु आदि कुछ ऐसे क्रांतिकारी नवोन्मेष हैं जिनका उन्हें श्रेय है। महाभारत में कुम्भकार का कर्मस्थल 'भार्गवकर्मशाला' कहा गया है। 
गत्वा तु तां भार्गवकर्मशालां; पार्थौ पृथां प्राप्य महानुभावौ।
तां याज्ञसेनीं परमप्रतीतौ; भिक्षेत्यथावेदयतां नराग्र्यौ॥
[महाभारत (बड़ौदा संस्करण), ०१.१८२.००१]
भार्गवों ने ही स्मृति, पुराण, आख्यान आदि का पुनर्सम्पादन किया, लुप्तप्राय को पुनर्जीवित किया। वाल्मीकि भी भार्गव थे। यदि अतिप्राचीन एकत्त्व से कोई वर्ग आज कहता है कि वाल्मीकि 'वाल्मीकि समाज' से थे तो उसे आज के परिप्रेक्ष्य में नहीं, सहस्राब्दियों पूर्व के एकत्त्व से समझा जाना चाहिये। क्या यह सम्भव नहीं कि कुछ भार्गवों ने शिल्प व्यवसाय चुना हो तथा उसी में रह गये हों? गोत्र की अवधारणा को ही देखिये, क्या सभी समान गोत्र वाले एक ही पुरुष की संतान हैं या एकसमान गुरु, शिक्षा एवं दीक्षा परम्परा के कारण एक गोत्र के कहलाते हैं?
विविधता एवं विविध घटित की उपेक्षा कर अपेक्षतया नये रूपों की संकीर्णता में देखेंगे तो सामाजिक विघटन ही होगा, संगठन नहीं। सनातन शत्रु यही चाहते हैं। कोई आवश्यक नहीं कि सदैव प्रतिक्रिया दी ही जाय, मौन का अपना महत्त्व है। अध्ययन की परास लम्बी अवश्य होनी चाहिये जिससे कि समझ विकसित हो सके।