पिछली कड़ियाँ:
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अघोरियों और अत्रि-अनुसूया के पुत्र दत्तात्रेय की अवधूत परम्परा बहुत प्राचीन रही है। ऋक्, साम और वाजसनेयि संहिता में इनके संकेत मिलते हैं। सांसारिकता को तज चुके और सामाजिक व्यवस्था के उलट रहने और व्यवहार करने वाले अवधूत संन्यासी पश्चिम में दूर गान्धार देश (वर्तमान अफगानिस्तान) से ले कर पूरब में कामरूप अहोम (असम) देश तक और उत्तर में कश्मीर से ले कर दक्षिण में महाराष्ट्र तक विचरते और लोक जीवन को गहराई तक प्रभावित करते पाये जाते रहे हैं। पंजाब की जालन्धर नगरी योगी जलन्धरनाथ की कर्मभूमि थी। इनके प्रमाण इतने प्रबल हैं कि गुजराती कन्हैयालाल मुंशी ने अपने उपन्यास भगवान परशुराम में परशुधारी राम जामदग्नेय(परशुराम) को अघोरियों के साथ जीते, उनसे अतीन्द्रिय शक्तियों को ग्रहण करते और अंतत: उन्हीं शक्तियों के प्रयोग द्वारा सहस्रबाहु का वध करते प्रदर्शित किया है।
इसी परम्परा विकास की एक कड़ी है हठयोगी नाथपंथियों की। सनातन मान्यताओं और सामाजिक संस्कारों को चुनौती देते, संझा सधुक्कड़ी उजड्ड बानी बोलते, चमत्कार दिखाते, वीभत्स गालियों को बकते और लोकरंजन करते पूर्वी उत्तरप्रदेश के जोगीड़े और कबीरे आज भी हैं। कबीरों से वैरभाव रखने वाली जोगी परम्परा अपने को महायोगी शिव से जोड़ती है। ‘नाथ’ शब्द का अर्थ शरण देने वाले शिव से लिया जाता है।
हठयोग द्वारा शरीर को साध पंचमहाभूत काया का अतिक्रमण कर प्रकृति के पाँच तत्त्वों क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर पर विजय और तत्पश्चात कुंडलिनी जागरण द्वारा महासमाधि – नाथों की क्षात्र परम्परा बहुरंगी रही है। एक ओर ये वाममार्गी पंचमकारों का निषेध करते हैं तो दूसरी ओर दो महासिद्धों मछिन्दर(मत्स्येन्द्रनाथ) और गोरखनाथ के रूप में तिब्बती महायानी और बज्रयानी बौद्ध परम्परा में भी स्थान पाते हैं। गोरखपुर की गोरखनाथ पीठ आज भी सक्रिय है और समस्त पूर्वी उत्तरप्रदेश और नेपाल में इसका प्रभाव है। यह परम्परा जाति पाति में विश्वास नहीं रखती। नाथ गुरु द्वारा दीक्षित योगी नाद परम्परा के माने जाते हैं तो गृहस्थ योगियों के पुत्र बिन्द(दु) परम्परा के।
जगविख्यात त्रिशतकों शृंगार, नीति और वैराग्य के रचयिता राजा भर्तृहरि(लोक में भरथरी नाम से प्रसिद्ध) नाथ परम्परा से जुड़े हैं। उनके भांजे राजा गोपीचन्द उनके साथ नौ महासिद्धों में स्थान रखते हैं। लोक में इनका बहुत प्रभाव रहा है। आश्चर्य होता है जब संतों की निर्गुण और सगुण भक्तिधारा भी इनसे निकसती दिखाई देती है। गुरु गोरखनाथ (गो = इन्द्रिय, रख – रखवाला अर्थात इन्द्रिय संयमी) को साधना की नई तकनीकों के आविष्कार का श्रेय प्राप्त है। त्रियाराज में अखंड भोग भोगते पतित हो चुके अपने गुरु मछिन्दरनाथ का उन्हों ने उद्धार किया:
‘चेत मछिन्दर गोरख आया, अगम निगम हिय हेला जी
एतियो नींद में सोया नाथ जी, आप गुरू हम चेला जी।‘
उनका प्रभाव इतना व्यापक रहा है कि ओशो रजनीश ने कहा है:
“बिना गोरख के न कबीर होते और न नानक, न दादू होते, न वाजिद, न फरीद और न मीरा।“
इसलिये कबीर जब गाते हैं ‘अवधूता जुगन जुगन हम जोगी, हमहीं सिद्ध, समाधि हमहीं’, तो इसमें हमें बहुत से संकेत छिपे समझने चाहिये।
नाथ परम्परा की दीक्षा बहुत कारुणिक होती है। संन्यास लेने पर विवाहित व्यक्ति को गुदड़ी और खिचड़ी की पहली भीख अपनी पत्नी से माँगनी होती है तो कुँवारे को अपनी माँ से। घर त्याग चुके संन्यासी को जीने के लिये केवल भोजन और कपड़ों की आवश्यकता होती है जिनकी पूर्ति भीख में मिली गुदड़ी (लुगरी) और खिचड़ी (अन्न का पंचमेल) से होती है। पहली भीख से प्रारम्भ हुई यह यात्रा बारह वर्षों तक चलती है। बारह वर्ष तक जोगी दुबारा अपने गाँव नहीं आता। आता भी है तो एक बार और उसके बाद पंचमहाभूतों के इस संसार में विरम जाता है कि इससे मुक्त हो सके।
ये घुमंतू जोगीड़े अपने सिद्धों की गाथा गाते फिरते रहते हैं। घुमंतू वीरगाथाओं की परम्परा सारे संसार में पाई जाती है लेकिन संन्यासीगाथाओं की परम्परा सम्भवत: केवल भारत में ही है। इनके लोकलुभावन गीत प्राय: करुणरस प्रधान होते हैं जिनमें संन्यास ले चुके पुरुष परिवारी के दुख में सीझती स्त्रियों की मनोदशा भी वर्णित होती है। इनकी कहानियों में विरोधाभासों की विविधता होती है और लोकरंजक कौतुक चमत्कारों की बहुलता भी। गैरिक वेश, सारंगी और तप का सम्मोहन कुछ ऐसा होता है कि लोग मुँह बाये सुनते रहते हैं।
राजा भर्तृहरि की बहन मैनावती के पुत्र गोपीचन्द ने 12 वर्ष की अवस्था में ही संन्यास ले लिया। लोकमान्यता दो प्रकार से है – एक, स्वयं माँ ने उन्हें प्रेरित किया; दूसरी, उन्हें गुरु ने प्रेरित किया। उनकी गाथा ऊपर वर्णित समस्त क्षेत्र में जोगी गाते फिरते रहे हैं। देखिये सन् 1880 के दशक के पंजाब में एक अंग्रेज क्या बताता है? संन्यास लेने के पहले स्नान करते गोपीचन्द को देख माँ मैनावती की प्रतिक्रिया:
‘करन लगे अश्नान राव ने, चन्दन चौक बिछाई
चमकत बदन कनक जैसा, और मुख चन्दर की नियाई
निकसा भान गगन में, सूरज की एक जोत छिप छाई
हे मिरग नैन, कंठ कोइल, मुख ना उपमा कही जाई
मोरी बैठी, नैन निहारी, मैनावती माई
टप टप आँसू परे धरन पर, थमत नहीं थमाई।‘
... सौ से भी अधिक वर्षों के पश्चात दूर पूर्वी उत्तरप्रदेश के रामकोला कस्बे की एक दुपहर है। इंजीनियरिंग की पढ़ाई करता एक किशोर गाते हुये जोगी को अपनी माँ के साथ सुन रहा है। ...
बारह वर्ष की कच्ची अवस्था में गोपीचन्द संन्यास ले पहली भीख की गुदड़ी माँगने माँ के सामने हैं। माँ क्या करे? लुगरी बगल में दबा कर पुत्र को मनाने का अन्तिम प्रयास करती है। आज वह गर्वीली रानी नहीं, एक माँ भर है – सीधी साधी साधारण। उसके तर्क और उसकी मनावन सब आम स्त्रियों जैसे ही हैं। जोगी तर्कातीत हो गया है – रानी झोपड़ी में रहने वाली साधारण माँ रह गई है जिसने अपने पुत्र को वैसे ही पाला है जैसे कोई मजदूरन। उसे मौसमी उपद्रवों की भी चिंता है। भोजपुरी में कहते हैं – कोखियासन यानि कि कोख की ममता। ममता की अग्निस्वभावी उपमा लोक की देन है। कोख में आग और आँखों में पानी! आगी-पानी का यह संगम जाने कैसा हठयोग है!
गाता हुआ श्वेत श्मश्रुधारी गैरिकवसन घुमंतू वृद्ध जोगी जाने कितनी माताओं से अपने को जोड़ लेता है! उसके स्वर में कष्टप्रद जीवन की पीर है, घर बैठी दुख झेलती स्त्रियों की ममता है और आँखों में बैरागी सूखा पड़ा हुआ है। वह स्थितप्रज्ञ है या पीर के उस स्तर तक पहुँच चुका है जिसके आगे जो है वह अकह्य है?
माँ ने भीख वाली गुदड़ी को किनारे रख पुत्र को समझाना शुरू किया है – बेटे! माँ की कोख में आज तुमने अग्नि धधका दी। तुम्हारे निर्णय से माँ की कोख वैसे ही धधक रही है जैसे लोहार की भट्ठी । दुख की रह रह फूँक है और दाह बढ़ता है, चुकता है, बढ़ता है… बेटा भी तो बैराग की भट्ठी में तपने को जा रहा है।
अरे धइली हो गुदरिया माई, बाबू के समझाई
माइ के कोखिया अगिया हो बेटा, आज दिहल धधकाई॥1॥
जइसे धधकेले हो गोपीचन्द, लोहरा घरे लोहसाई
अरे वइसे धधकल माइ के, कोखिया तर अगिनी ॥2॥
आज माँ महलनिवासिनी नहीं, ग्राम निवासिनी है। वह कहती है – गाँव में आग लगती है तो गाँव वाले बुझा देते हैं लेकिन माँ के कोख की अग्नि को कौन बुझायेगा? किस कारण मुझसे रूठ गये बेटे? मुझे क्यों तज रहे हो? माँ से बताओ तो सही!
गँउवा के अगिया रहते हो बेटा, गाँव के लोग बुताई
बाकिर माई के कोखिया के अगिया, दुनिया में कोइ न बुताई॥3॥
कवने करनवा ए गोपीचन्द, तेजत बाड़ माई
मनवा के किरोधवा हो बेटा, देब बतलाई॥4॥
गोपीचन्द कहते हैं कि इसे विधि का लिखा मानो माँ! लुगरी दे भीख देने की रस्म का निबाह करो। बेटे को भुला दो। ऐसा समझना कि तुम्हारी कोख से कोई पुत्र पैदा ही नहीं हुआ था। इतना सुन माँ झर झर रोने लगती है – अरे बेटे! तुम्हारी सूरत मैं कैसे भुला दूँ?
कहें समझावें गोपीचन्द, जनि रोव हो माई
का करबू करमवा में ब्रम्हा, लिखलें हमरे जोगी॥5॥
बरहे बरसवा ले रजवा, लिखलें रहले हो माई
तेरहे बरसवा में जोगी, हो गइलीं हो माई॥6॥
अरे देइ द लुगरिया ए माई, बेटा के द बिसराई
अस मन जनिह कोखिया में बबुआ, पैदा भइलनि नाहीं॥7॥
झर झर झर झर रोवे लगली, गोपीचन्द के माई
अरे तोहरा सुरतिया हो बबुआ, कइसे हम बिसराईं?8॥
समझाती दुखिया माँ अब वह कहती है जिसे कोई भी माँ कहने से बचती है। क्या करे, और कोई चारा भी तो नहीं!
तुम्हें बहुत तपस्या और देवी देवता की आराधना के बाद पाया। देवस्थानों पर सिर पटकते पटकते मेरा ललाट घिस गया। नौ महीने तुम्हें मैंने गर्भ में ढोया। दसवें में तुम पैदा हुये तो तेल और उबटन लगा कर तुम्हें पोसा।
आज माँ दास दासियों की सेवा लेती रानी नहीं है, एक आम माँ है जिसने अपने पुत्र को तेल और उबटन स्वयं लगा कर पोसा है।
अरे बड़ बड़ तपेसवा क के, तोहरा के जनमाई
जहवाँ देखलीं हो देबिय देवता, सिरवा हम झुकाईं॥9॥
अरे सिरवा पटकते माइ के, लिलरा गइलें खियाई
नव महिनवा गरभ में ढोवलीं, हम असरा लगाईं॥10॥
दसवे महिनवा कोखिया में, लिहल मोर अवतार
अरे तेल अबटन लगा के, बबुआ हो तोहके पोसीं॥11॥
उसकी व्यथा हर ग़रीब माँ की व्यथा हो गई है। वह कहती है कि माघ और पूस के घनघोर जाड़े में तुम्हें आग की आँच सेंक मैंने गर्म रखा, जाड़े की ठंड से बचाया। जेठ बैसाख की तपती धूप में तुम्हारे सिर अपनी आँचल की छाँव की। तुम्हें दूध पिला इसलिये बड़ा किया कि गाढ़े दिन मेरे काम आओगे। माँ के पास अब कुछ नहीं बचा। तुमने उसका आसरा ही तोड़ दिया। हारी हुई माँ और क्या कहे?
मघवा पुसवा जड़वा बेटा, अगिया के आहे सेकीं
ठंढा जड़वा सितिया हो बाबू, तोहरा के बचाईं॥12॥
जेठवा बइसाख घमवा, हम अँचरा ओढ़ाईं
सात दुधवा हो गोपिचन्द, तोहरा के पियाईं॥13॥
अरे दुधवा पिया के हो बेटा, हम कइलीं सयान
जनलीं माइ के गार्हे दिनवा, बबुआ अइहें कामे॥14॥
माँ की ममता हिलोर लेती है। उसे जोगी जीवन के कष्ट ध्यान में आते हैं। समृद्धि में पले पुत्र का कोमल शरीर उन्हें झेल पायेगा?
बहुत दुख हैं बेटे इस जीवन में! किसी दिन समय कुसमय भोजन मिलेगा तो किसी दिन खेत में चने की डाल से चना तोड़ ही पेट भरना पड़ेगा। तुम्हारी कोमल देह कुम्हला जायेगी। तुम माँ के इकलौते बेटे हो, भीख माँगते द्वार द्वार भटकोगे।
माँ का कलेजा फट गया है।
तवनो हमार असरवा तुड़ल, बनि गइल हो जोगी
जोगी होके जइब हो बबुआ, बड़ा दुखवा बीती॥15॥
कहियो भोजनियाँ मीली, जुनिया कुजूनी
कहियो मुठि भर चाना फुटहा, तुरलब हो डारी॥16॥
अरे कोमल बदनिया बाबू, ओ रे जइहें कुम्हिलाई
माई के हो एकलवता बेटा, जइब केकरे द्वारे॥17॥
गायक जोगी की अपनी व्यथा मैनावती की जुबानी बह निकली है।
दूसरे की माँ को माँ कहोगे, दूसरे की बहन को बहन। कोई कड़वा बोलेगी तो कोई झुँझलायेगी। कोई प्रेम से बैठायेगी तो कोई हृदय की कठोर मिलेगी। जोगी घरदुआर पर अकेली स्त्रियों से अपनी करुणा डोर जोड़ लेता है, कहता है कि साधू का दर्द छोटा होता है और धर्म ही उसकी पूँजी होती है।
आन के माई के माई कहब, आन के बहिना के बोहिनी
केहु माई तीत बोलिहें, केहुअ झपिलाई॥18॥
केहू माई बहिनिया हो गोपीचन्द, प्रेम से बइठाई
केहु माई बहिना मिलिहें, हिरदया के कठोर॥19॥
छोटी साधु दरदिया हो बाबू, लिहलें धरमी पूँजी
माँ के इतना समझाने पर भी गोपीचन्द नहीं मानते। जो नियति में लिखा है, उसे कौन मिटा सकता है?
अरे एतना समझावेले माई, बबुआ समझेलें नाहीं
करम करे लिखलका हो माई, दुनिया में कोइ ना मेटाई॥20॥
... जोगी यह गाते हुये चला गया –
‘आगि के महलिया तोहरी, कइसे आईं हो जोगी? ...
आँखें डबडबाती रह गईं।
(इस ऑडियो को कैसेट से लिया है। गुणवत्ता ठीक नहीं है। कुछ क्षणों में पीछे किंवाड़ खुलने, बच्चों के खेलने और प्रचार के भी धीमे स्वर सुनाई देते हैं। सारंगी और उससे लगे करताल की ध्वनि शोर सी हो गई है। अपेक्षित प्रभाव और समझ के लिये हेडफोन लगा कर सुनें। Audacity सॉफ्टवेयर से जितना ठीक मुझसे हो पाया, किया। अनुज cooleditpro सॉफ्टवेयर पर प्रयास कर रहा है। कुछ बेहतर हुआ तो अवश्य लगाऊँगा। सम्प्रति इसी से काम चलाइये। क्या कोई इसे ठीक कर मेरे पास भेज सकता है?)
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