बुधवार, 29 दिसंबर 2010

स्त्री जीवन हाय...

टाइम्स ऑफ इंडिया के आज के फ्रंट पेज पर एक समाचार है: 
SC woman judge lists daughters as 'liabilities'. 
समाचार के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय की एक न्यायाधीश ने सर्वोच्च न्यायालय की आधिकारिक वेबसाइट पर सम्पत्ति घोषणा करते हुए लायबिल्टी कॉलम के अंतर्गत 'दो विवाह योग्य पुत्रियाँ' भी दिखाया है। सर्वोच्च न्यायालय की वेबसाइट पर इसे यहाँ देखा जा सकता है: 
वहाँ यह भी लिखा है: The above declaration of assets is purely on voluntary basis.

कल ही किसी से चैट पर मैं एक काल्पनिक स्थिति पर बात कर रहा था कि अगर कोई स्त्री मित्र साथ में हो, होटल में एक ही कमरा मिल रहा हो तो क्या उस कमरे में स्त्री मित्र के साथ रात उसी सहजता से बिताई जा सकती है जैसे पुरुष मित्र के साथ बिताई जा सकती थी? तब जब कि स्वयं स्त्री को कोई आपत्ति न हो? 
मुझे असहज सी स्थिति लगी और  नकार गया। चैट के दौरान ही यह स्पष्ट हुआ कि ऐसा इसलिए था कि 'भेद खुलने' पर समाज की स्त्री के प्रति प्रतिक्रिया और उसकी स्थिति के बारे में सोच कर मैं भयभीत था। 
इस समय मन में 'अबला जीवन हाय ...' नहीं 'स्त्री जीवन हाय...' आ रहा है।  

गुजर रही है जिन्दगी डरते डरते 
ये जीना भी कोई जीना है प्यारे? 

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

न कहना कि मैं मौन रहा

अभी अभी लखनऊ की हसीन सड़कों पर ड्राइविंग कर के लौटा हूँ। स्टेशन से घर तक बिना ब्रेक लगाए बिना गेयर बदले 45-50 की स्पीड, आराम से आलस का आनन्द लेते हुए। दुनिया चाहे जितनी ही हलकट कमीनी हो जाय, अच्छाई अपनी जगह बना ही लेती है। मेरे भीतर बैठे इंजीनियर को सड़कों की सुन्दरता के नीचे दफन गन्धाते भ्रष्टाचरण भी दिखते हैं लेकिन नगर के हृदयस्थल में दसियों किलोमीटर यूँ ड्राइविंग करना सुहाता भी है। साली अजीब स्थिति है!

गौतम राजऋषि (रिशि वालों से क्षमा) की इस पोस्ट को अभी अभी पढ़ा हूँ और यह भाग मन से जा ही नहीं रहा: 
 ब्लौग-जगत में भी जैसे ये कश्मीर वाला चिल्ले कलाँ अपनी अपरिभाषित-सी मनहूसियत लिये पसरा हुआ है। इन्हीं किसी भ्रमण के दौरान कलम का एक सिपाही कहीं कोई सच्ची बात कहता नजर आता है और फिर नजर आती है पूरे ब्लौग-जगत की तिलमिलाहट। चलो, इसी तिलमिलाहट के बहाने ये पसरी हुई मनहूसियत थोड़ी खिलखिलाती दिखाई देती है...संग-संग दस्ताने में छुपी ऊँगलियों को भी हँसी आती है और हँसते हुये वो की-बोर्ड पर लड़खड़ा कर कुछ संभलती हुई, कलम के उस सिपाही को और उसकी सच कहने की जिद्दी-सी जिद को सैल्यूट करती हैं।

ब्लॉग माफियाओं के विरुद्ध इन लेखों को नमन - सतीश पंचम की पोस्ट   और अमरेन्द्र त्रिपाठी की पोस्ट  
इन लेखों ने नकली खालों को उतारने का काम किया है। 
पाले हुए गुर्गे जिनके बारे में मुझे शक है कि वे असल में गुर्गे नहीं, खुद माफिया ही हैं; टिप्पणियों और लेखों के माध्यम से वमन करने में लगे हुए हैं। जाने कितना कूड़ा भरा हुआ है जो विरेचन इतना लम्बा खिंच रहा है? वे अखाद्य खाना न छोड़ें न सही, वैद्यकी अपना काम करती रहेगी। पंचम या अमरेन्द्र न सही कोई और सही। 
एक आदत सी हो गई है - सोचने में बेईमानी की। अमाँ आप का सोचना कोई थोड़े सुनता है? वहाँ तो तमीज से काम लो!  
न! न सोचना की कोई राजनीति या गुटबाजी है। हम तो बस ऐसे ही हैं। अपनी कठौती के पास जूते सिलते रहते हैं लेकिन  क्या करें? कभी कभी नज़र राजपथ की तरफ भटक ही जाती है। इस बार कुछ अधिक ही ... 
आखिर में अपनी एक _विता

ढूढ़ा किए दौरे जहाँ कि तिलस्म का राज खुले
देख लेते तुम्हारे अक्षर तो यूँ क्यूँ भटकते?
न भटकते तो कैसे होती हासिल ये शोख नजर
देखा तो पाया, आखराँ न होता कोई आखिरी मंजर।

चुप हैं खामोशी से भी नीचे तक
कैसा खामोश मंजर कि सब कहने लगे हैं
थके पाँवों के नीचे सरकते ग़लीचे
थमने की बातें करने लगे हैं।

तुम न कहते तो जाने क्या बात होती
जो कह गए हो तो जाने क्या बात होगी
जो कहना था न तुम कह पाए न हम कह पाए
अब इशारों इशारों में क्या बात होगी ।

चलो आज छोड़ें इशारे
कह दें जो कहनी थी पर कह न पाए -
देखो सड़क किनारे वो बूढ़ा सा पीपल
उसके पत्ते हवा में खड़कने लगे हैं
बैठें कुछ देर छाए में किनारे
न कहना कि ऐसे में क्या बात होगी।

समझो न होता आखराँ कोई आखिरी मंजर
बैठें पीपल तले, शफेखाने, मयखाने या मन्दर
कोई सूरमा ऋषि हो या अजनबी सिकन्दर
हो जाती है बात जो होनी है होती
ग़र दिल के कोने कहीं लगावट है होती।

माना कि तुम हो परेशाँ और मैं भी हैराँ
जिनके जिन्दा निशाँ हैं जुबाँ पर हमारे
दिल ताने हुए है सख्त सी धड़कन 
फिर कैसी ये तड़पन जो न तुम भूल पाते
न हम भूल पाते !

एक बात जो है तुमको बतानी
एक उलझी जुबानी
कि थी ही नहीं इतनी काबिल परेशानी
जो न हम मोल पाते न तुम तोल पाते
जो न हम तोल पाते न तुम मोल पाते।

चलो छोड़ो ये मोल तोल की बातें
देखो पीपल तले वो भुट्टे की भुनाई
खाएँगे भुट्टे और पिएँगे एक लोटे पानी
एक गमछे से पोंछेंगे हाथ और आँखें
चल देंगे धीमे से हँसते ।

मानो कि वो बहुत बात होगी
न होंगे गलीचे न होंगे वो मंजर -
मैंने कहा था कि नहीं ?
न होता आखराँ कोई आखिरी मंजर। 

रविवार, 26 दिसंबर 2010

समझ

दोनों अपने अपने ब्लॉग पर प्रेमकहानियाँ लिखते थे। जब वह लिखता तो लड़के की तरह ही लिखता था - अपनी देखी हर खूबसूरत समझदार लड़की से कुछ कुछ चुरा कर एक सुन्दरी को गढ़ता और आह भरते सोचते हुए लिख देता कि काश! उसे कोई लड़की अपनी जैसी मिली होती तो पूरे संसार को आसमान पर टाँग आता और धरा पर सब कुछ फिर से शुरू करता - मनु और श्रद्धा की तरह। 
उसकी कहानियों में वे संवाद होते जो उसने उन लड़कियों से किए थे जो कभी उसकी प्रेमिकायें हुआ करती थीं। बहुधा दर्पण के पास जाकर स्वयं से पूछता - यार! तुम इतने हैंडसम तो न थे जो उन्हों ने तुम्हें इतना भाव दिया और फिर हौले से मुस्कुरा देता। उस पर जान छिड़कने वाली पत्नी पीछे से आकर कोंच जाती - अकेले अकेले मुस्कुराये जा रहे हो, कोई फिर याद आई क्या? वह फिर मुस्कुराता और तब तक टीवी खोल चुकी पत्नी को स्क्रीन पर किसी इश्किया गाने में डूबा देख सोच बैठता, इसने कभी किसी से इश्क़ किया भी होगा शादी से पहले? उस समय उनके बच्चे पढ़ रहे होते थे। ऐसा करीब रोज ही होता था... 
...जब वह लिखती तो कभी लड़के की तरह लिखती और कभी लड़की की तरह।
जब वह लड़के की तरह लिखती तो इतनी जान डाल देती थी कि सभी पुरुष वाह वाह कर उठते और स्त्रियाँ आहें भरतीं कि काश! कोई ऐसा चाहने वाला मिला होता। जब ऐसी कोई कहानी लिखना समाप्त करती तो चश्मा उतार कर आँखों को सहलाती और मुस्कुरा देती - पुरुष तो वैसे भी पढ़ते, वाह वाह करते। ये स्त्रियाँ इतनी सेंटी क्यों हो जाती हैं? 
संसार में ऐसे चाहने वाले लड़के एक तो होते ही कम हैं और जो होते हैं वे ग़जब के मूर्ख! वह फिर से मुस्कुराती - अगर यही बात किसी पुरुष ने कही होती तो उसे तुरन्त 'मेल शोविनिस्ट' जैसी किसी उपाधि से नवाजती और वह बेचारा या तो सफाइयाँ देता या गालियाँ देने लगता (चुपचाप का विकल्प उसकी सोच में नहीं होता।)। वह फिर मुस्कुराती कि ऐसा कर के वह उसकी उपाधि को प्रूव कर रहा होता। मार्के की बात यह कि अगर वह यही बात लड़कियों के लिए कहती तो भी दोष पुरुषों का ही होता। 
जब वह लड़की की तरह लिखती तो चार पाँच बार लिखना रोक कर आईने में खुद को निहारती। चेहरे की लकीरों को निगाहों से मसल कर सलवटों को भूल जाती। उसे अपने बच्चे की सुध भी आती और अपने पति को चिल्ला कर उसे एक बार देख लेने को कहती। उस समय वह उसे 'जानू' कह कर नहीं बुलाती थी। पति, जो कि क्रिकेट का रिकार्डेड मैच देख रहा होता, सबकॉंसस में 'जानू' की कमी को नोटिस करता और अपनी जगह से हिलता तक नहीं। वह उठती, बच्चे को देखती, पति के पास आकर पूछती,"जानू! बहुत धाँसू गेम है क्या?"। 'जानू' सुन कर वह आँखें उठाता, मुस्कुराता और पूछता,"कहानी पूरी हो गई?" वह 'नहीं' कहती और फिर से दोनों अपने काम में लग जाते। उस समय दोनों  के दिमाग ऑफिस के टेंसन से फ्री होते थे।...
एक दिन पुरुष ने स्त्री का ब्लॉग ऐसे ही पढ़ा और कुछ टिप्पणी लिख कर चला आया। कुछ ही सेकेंड बाद उसे अपनी बेध्यानी का अहसास हुआ और वह चिल्ला उठा - अरे! वह तो एकदम उसी की तरह लिखती है! वह उसे पढ़ती है क्या? चालाकी तो देखो, कितनी बारीकी से उसने उड़ाया है और अपनी मौलिकता जोड़ अलग ही फ्लेवर दे दिया है! 
वह 'मौलिकता' पर अटक गया। क्या पता वह उसी की तरह हो? वह फिर अटक गया - वह उसे क्यों नहीं मिली? 
वह उलझ गया। स्त्री का प्रोफाइल देखा, कुछ और पढ़ा तो वह विवाहिता निकली। 
उसने उसे मेल किया - बस एक प्रश्न, क्या आप मुझे पढ़ती हैं? 
दो दिनों बाद उसे उत्तर मिला - 
नहीं। मेल के बाद तुम्हें पढ़ा। समझ गई कि तुम क्या सोच रहे हो। यू मेल शोविनिस्ट! कभी लड़की की तरह लिख कर दिखाओ। 
...पुरुष ने यह आह भरना छोड़ दिया है कि काश! उसे कोई लड़की अपनी जैसी मिली होती तो पूरे संसार को आसमान पर टाँग आता और धरा पर सब कुछ फिर से शुरू करता - मनु और श्रद्धा की तरह।
आज कल अपनी पत्नी से पूछता रहता है - जानू! जब तुम लड़की, मेरा मतलब कॉलेज में थी तो कैसे सोचती थी?
उसकी पत्नी 'जानू' को नोटिस करते सोचती रहती है - मैं अब तक इस पर इतनी जान क्यों छिड़कती रही?
दूसरी तरफ क्रिकेट, कहानी, जानू और बच्चे की केमिस्ट्री वैसे ही है। घर में ऑफिस का टेंसन तो अब भी नहीं लेकिन स्त्री आईना देखते हुए चश्मा लगाने लगी है।
...यह कहानी ही है, कुछ और नहीं, इसे पुरुष की तरह लिखा है और मुझे स्त्री मन की कोई समझ नहीं है।          
     

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

मैं क्यों लिखे जा रहा हूँ?

आज लिखने बैठा तो कुछ प्रश्न मन में आये - मैं क्यों लिखे जा रहा हूँ? 
बाउ के बहाने पूर्वी उत्तरप्रदेश के एक निहायत ही उपेक्षित ग्रामक्षेत्र की भूली बिसरी गाथाओं की कथामाला हो या सम्भावनाओं की समाप्ति के कई वर्षों के बाद बीते युग में भटकता प्रेम के तंतुओं की दुबारा बुनाई करता मनु हो, मैं क्यों लिखे जा रहा हूँ? 
मैं वर्तमान पर कहानियाँ क्यों नहीं लिख रहा?
अंतिम प्रश्न - जाने कितनों ने ऐसे विषयों पर लिख मारा होगा, तुम कौन सा नया कालजयी तीर चला रहे हो?  
उत्तर भी आये हैं - तुम इसलिए लिख रहे हो कि लिखे बिना रह ही नहीं सकते। कभी वर्तमान पर भी लिखने लगोगे। कहानियाँ समाप्त कहाँ होती हैं?
अंतिम प्रश्न का तो कमाल का उत्तर आया, ऊर्मि की वाणी "तुम फालतू बहुत सोचते हो।"
तय किया कि  स्वांत:सुखाय लिखते जाना है, No further questions and no फालतू सोच। 

यह सब TED पर नाइजीरियाई उपन्यासकार Chimamanda Adichie  के व्याख्यान The danger of a single story  सुनते हुए लिख रहा हूँ। नाम रोमन में ही रहने दिया क्यों कि सही उच्चारण नहीं पता। मैं तो धोखे में पहले चिदानन्द और चिन्मयानन्द जैसा कुछ पढ़ने लगा, अभी चिमामंडा अदिची फाइनल किया है। सही जानने की जहमत कौन उठाये? अपने नाम के ग्रिजेश, गृजेश, गिर्जेश , गिरजेश, गिरीजेश, गीरिजेश आदि आदि रूपों से हर महीने एकाध बार साक्षात्कार हो ही जाता है। उन्हें ही ठीक कराने में नानी याद आ जाती है। अस्तु...  
लिंक ये हैं:

अंग्रेजी में है लेकिन मित्रों! थोड़ा श्रम कीजिए न! दो, तीन, चार, पाँच बार भी सुनने लायक है। मैंने तो धीमे नेट कनेक्शन के कारण इसे डाउनलोड कर के सुना। 
सुनाते रहेंगे यूँ दास्तान-ए-मुहब्बत 
तुम्हें फुरसत नहीं, कोई बात नहीं।


पुनश्च: कहानियों के पात्र लिखने वाले से हँसने बतियाने लगें तो उस स्थिति को क्या कहते हैं? बचपना? पागलपन? 
अभी अभी श्रीमती जी ने बताया है - रात नींद में आप हँसे जा रहे थे।
 ...मुझे कुछ याद ही नहीं! 
...और इस व्याख्यान से कुछ : I started to write about things I recognized.... 
...when we reject the single story, when we realize that there is never a single story about any place, we regain a kind of paradise. 
(...मैंने उनके बारे में लिखना शुरू किया, जिन्हें पहचानता था...
...जब हम 'अकेली कहानी' से इनकार करते हैं, जब हम यह अनुभव करते हैं कि किसी भी जगह के बारे में 'एक ही कहानी' नहीं होती, हम एक तरह के स्वर्ग को फिर से पा रहे होते हैं।)
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मूल व्याख्यान: 


I’m a storyteller. And I would like to tell you a few personal stories about what I like to call “the danger of the single story.” I grew up on a university campus in eastern Nigeria. My mother says that I started reading at the age of two, although I think four is probably close to the truth. So I was an early reader. And what I read were British and American children’s books.
I was also an early writer. And when I began to write, at about the age of seven, stories in pencil with crayon illustrations that my poor mother was obligated to read, I wrote exactly the kinds of stories I was reading. All my characters were white and blue-eyed. They played in the snow. They ate apples. And they talked a lot about the weather, how lovely it was that the sun had come out. Now, this despite the fact that I lived in Nigeria. I had never been outside Nigeria. We didn’t have snow. We ate mangoes. And we never talked about the weather, because there was no need to.
My characters also drank a lot of ginger beer because the characters in the British books I read drank ginger beer. Never mind that I had no idea what ginger beer was. And for many years afterwards, I would have a desperate desire to taste ginger beer. But that is another story.
What this demonstrates, I think, is how impressionable and vulnerable we are in the face of a story, particularly as children. Because all I had read were books in which characters were foreign, I had become convinced that books, by their very nature, had to have foreigners in them, and had to be about things with which I could not personally identify. Now, things changed when I discovered African books. There weren’t many of them available. And they weren’t quite as easy to find as the foreign books.
But because of writers like Chinua Achebe and Camara Laye I went through a mental shift in my perception of literature. I realized that people like me, girls with skin the color of chocolate, whose kinky hair could not form ponytails, could also exist in literature. I started to write about things I recognized.
Now, I loved those American and British books I read. They stirred my imagination. They opened up new worlds for me. But the unintended consequence was that I did not know that people like me could exist in literature. So what the discovery of African writers did for me was this: It saved me from having a single story of what books are.
I come from a conventional, middle-class Nigerian family. My father was a professor. My mother was an administrator. And so we had, as was the norm, live-in domestic help, who would often come from nearby rural villages. So the year I turned eight we got a new house boy. His name was Fide. The only thing my mother told us about him was that his family was very poor. My mother sent yams and rice, and our old clothes, to his family. And when I didn’t finish my dinner my mother would say, “Finish your food! Don’t you know? People like Fide’s family have nothing.” So I felt enormous pity for Fide’s family.
Then one Saturday we went to his village to visit. And his mother showed us a beautifully patterned basket, made of dyed raffia, that his brother had made. I was startled. It had not occurred to me that anybody in his family could actually make something. All I had heard about them is how poor they were, so that it had become impossible for me to see them as anything else but poor. Their poverty was my single story of them.
Years later, I thought about this when I left Nigeria to go to university in the United States. I was 19. My American roommate was shocked by me. She asked where I had learned to speak English so well, and was confused when I said that Nigeria happened to have English as its official language. She asked if she could listed to what she called my “tribal music,” and was consequently very disappointed when I produced my tape of Mariah Carey. She assumed that I did not know how to use a stove.
What struck me was this: She had felt sorry for me even before she saw me. Her default position toward me, as an African, was a kind of patronizing, well-meaning, pity. My roommate had a single story of Africa. A single story of catastrophe. In this single story there was no possibility of Africans being similar to her, in any way. No possibility of feelings more complex than pity. No possibility of a connection as human equals.
I must say that before I went to the U.S. I didn’t consciously identify as African. But in the U.S. whenever Africa came up people turned to me. Never mind that I knew nothing about places like Namibia. But I did come to embrace this new identity. And in many ways I think of myself now as African. Although I still get quite irritable when Africa is referred to as a country. The most recent example being my otherwise wonderful flight from Lagos two days ago, in which there was an announcement on the Virgin flight about the charity work in “India, Africa and other countries.”
So after I had spent some years in the U.S. as an African, I began to understand my roommate’s response to me. If I had not grown up in Nigeria, and if all I knew about Africa were from popular images, I too would think that Africa was a place of beautiful landscapes, beautiful animals, and incomprehensible people, fighting senseless wars, dying of poverty and AIDS, unable to speak for themselves, and waiting to be saved, by a kind, white foreigner. I would see Africans in the same way that I, as a child, had seen Fide’s family.
This single story of Africa ultimately comes, I think, from Western literature. Now, here is a quote from the writing of a London merchant called John Locke, who sailed to west Africa in 1561, and kept a fascinating account of his voyage. After referring to the black Africans as “beasts who have no houses,” he writes, “They are also people without heads, having their mouth and eyes in their breasts.”
Now, I’ve laughed every time I’ve read this. And one must admire the imagination of John Locke. But what is important about his writing is that it represents the beginning of a tradition of telling African stories in the West. A tradition of Sub-Saharan Africa as a place of negatives, of difference, of darkness, of people who, in the words of the wonderful poet, Rudyard Kipling, are “half devil, half child.”
And so I began to realize that my American roommate must have, throughout her life, seen and heard different versions of this single story, as had a professor, who once told me that my novel was not “authentically African.” Now, I was quite willing to contend that there were a number of things wrong with the novel, that it had failed in a number of places. But I had not quite imagined that it had failed at achieving something called African authenticity. In fact I did not know what African authenticity was. The professor told me that my characters were too much like him, an educated and middle-class man. My characters drove cars. They were not starving. Therefore they were not authentically African.
But I must quickly add that I too am just as guilty in the question of the single story. A few years ago, I visited Mexico from the U.S. The political climate in the U.S. at the time, was tense. And there were debates going on about immigration. And, as often happens in America, immigration became synonymous with Mexicans. There were endless stories of Mexicans as people who were fleecing the healthcare system, sneaking across the border, being arrested at the border, that sort of thing.
I remember walking around on my first day in Guadalajara, watching the people going to work, rolling up tortillas in the marketplace, smoking, laughing. I remember first feeling slight surprise. And then I was overwhelmed with shame. I realized that I had been so immersed in the media coverage of Mexicans that they had become one thing in my mind, the abject immigrant. I had bought into the single story of Mexicans and I could not have been more ashamed of myself. So that is how to create a single story, show a people as one thing, as only one thing, over and over again, and that is what they become.
It is impossible to talk about the single story without talking about power. There is a word, an Igbo word, that I think about whenever I think about the power structures of the world, and it is “nkali.” It’s a noun that loosely translates to “to be greater than another.” Like our economic and political worlds, stories too are defined by the principle of nkali. How they are told, who tells them, when they’re told, how many stories are told, are really dependent on power.
Power is the ability not just to tell the story of another person, but to make it the definitive story of that person. The Palestinian poet Mourid Barghouti writes that if you want to dispossess a people, the simplest way to do it is to tell their story, and to start with, “secondly.” Start the story with the arrows of the Native Americans, and not with the arrival of the British, and you have and entirely different story. Start the story with the failure of the African state, and not with the colonial creation of the African state, and you have an entirely different story.
I recently spoke at a university where a student told me that it was such a shame that Nigerian men were physical abusers like the father character in my novel. I told him that I had just read a novel called “American Psycho” — and that it was such a shame that young Americans were serial murderers. Now, obviously I said this in a fit of mild irritation.
I would never have occurred to me to think that just because I had read a novel in which a character was a serial killer that he was somehow representative of all Americans. And now, this is not because I am a better person than that student, but, because of America’s cultural and economic power, I had many stories of America. I had read Tyler and Updike and Steinbeck and Gaitskill. I did not have a single story of America.
When I learned, some years ago, that writers were expected to have had really unhappy childhoods to be successful, I began to think about how I could invent horrible things my parents had done to me. But the truth is that I had a very happy childhood, full of laughter and love, in a very close-knit family.
But I also had grandfathers who died in refugee camps. My cousin Polle died because he could not get adequate healthcare. One of my closest friends, Okoloma, died in a plane crash because our firetrucks did not have water. I grew up under repressive military governments that devalued education, so that sometimes my parents were not paid their salaries. And so, as a child, I saw jam disappear from the breakfast table, then margarine disappeared, then bread became too expensive, then milk became rationed. And most of all, a kind of normalized political fear invaded our lives.
All of these stories make me who I am. But to insist on only these negative stories is to flatten my experience, and to overlook the many other stories that formed me. The single story creates stereotypes. And the problem with stereotypes is not that they are untrue, but that they are incomplete. They make one story become the only story.
Of course, Africa is a continent full of catastrophes. There are immense ones, such as the horrific rapes in Congo. And depressing ones, such as the fact that 5,000 people apply for one job vacancy in Nigeria. But there are other stories that are not about catastrophe. And it is very important, it is just as important, to talk about them.
I’ve always felt that it is impossible to engage properly with a place or a person without engaging with all of the stories of that place and that person. The consequence of the single story is this: It robs people of dignity. It makes our recognition of our equal humanity difficult. It emphasizes how we are different rather than how we are similar.
So what if before my Mexican trip I had followed the immigration debate from both sides, the U.S. and the Mexican? What if my mother had told us that Fide’s family was poor and hardworking? What if we had an African television network that broadcast diverse African stories all over the world? What the Nigerian writer Chinua Achebe calls “a balance of stories.”
What if my roommate knew about my Nigerian publisher, Mukta Bakaray, a remarkable man who left his job in a bank to follow his dream and start a publishing house? Now, the conventional wisdom was that Nigerians don’t read literature. He disagreed. He felt that people who could read, would read, if you made literature affordable and available to them.
Shortly after he published my first novel I went to a TV station in Lagos to do an interview. And a woman who worked there as a messenger came up to me and said, “I really liked your novel. I didn’t like the ending. Now you must write a sequel, and this is what will happen …” And she went on to tell me what to write in the sequel. Now I was not only charmed, I was very moved. Here was a woman, part of the ordinary masses of Nigerians, who were not supposed to be readers. She had not only read the book, but she had taken ownership of it and felt justified in telling me what to write in the sequel.
Now, what if my roommate knew about my friend Fumi Onda, a fearless woman who hosts a TV show in Lagos, and is determined to tell the stories that we prefer to forget? What if my roommate knew about the heart procedure that was performed in the Lagos hospital last week? What if my roommate knew about contemporary Nigerian music? Talented people singing in English and Pidgin, and Igbo and Yoruba and Ijo, mixing influences from Jay-Z to Fela to Bob Marley to their grandfathers. What if my roommate knew about the female lawyer who recently went to court in Nigeria to challenge a ridiculous law that required women to get their husband’s consent before renewing their passports? What if my roommate knew about Nollywood, full of innovative people making films despite great technical odds? Films so popular that they really are the best example of Nigerians consuming what they produce. What if my roommate knew about my wonderfully ambitious hair braider, who has just started her own business selling hair extensions? Or about the millions of other Nigerians who start businesses and sometimes fail, but continue to nurse ambition?
Every time I am home I am confronted with the usual sources of irritation for most Nigerians: our failed infrastructure, our failed government. But also by the incredible resilience of people who thrive despite the government, rather than because of it. I teach writing workshops in Lagos every summer. And it is amazing to me how many people apply, how many people are eager to write, to tell stories.
My Nigerian publisher and I have just started a non-profit called Farafina Trust. And we have big dreams of building libraries and refurbishing libraries that already exist, and providing books for state schools that don’t have anything in their libraries, and also of organizing lots and lots of workshops, in reading and writing, for all the people who are eager to tell our many stories. Stories matter. Many stories matter. Stories have been used to dispossess and to malign. But stories can also be used to empower, and to humanize. Stories can break the dignity of a people. But stories can also repair that broken dignity.
The American writer Alice Walker wrote this about her southern relatives who had moved to the north. She introduced them to a book about the southern life that they had left behind. “They sat around, reading the book themselves, listening to me read the book, and a kind of paradise was regained.” I would like to end with this thought: That when we reject the single story, when we realize that there is never a single story about any place, we regain a kind of paradise. Thank you.     

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

लंठ महाचर्चा: बाउ और नेबुआ के झाँखी - 4

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मेरे पात्र बैताल की भाँति,  
चढ़ जाते हैं सिर और कंधे पर, पूछते हैं हजार प्रश्न।
मुझमें इतना कहाँ विक्रम जो दे सकूँ उत्तर? 
... नित दिन मेरा सिर हजार टुकड़े होता है।
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(क)
घर पहुँचते पहुँचते फेंकरनी का करेजा काँकर (कँकड़ी) की तरह फट पड़ा। सोई हुई माई के ऊपर ढह गई और अहक अहक रो पड़ी। बहुत चुप कराने के बाद जब बोलना शुरू किया तो सब कुछ बताती चली गई।
“अरे ए मुँहझौंसी! गवने के पाँच बरिस बादि तोर जोबन जागल हे रे! कुलछनी ई का क देहले?” (अरे कलमूँही! गवना के पाँच साल बाद तुम्हारी जवानी जागी है! कुलक्षणी! यह क्या कर दी?) माई बस गालियाँ देती गई और रोती गई। चमटोली के किनारे बसी झोंपड़ी को कोई मानुख सुनने वाला नहीं था, मगर माई धिया बाहर आतीं तो उन्हें गुड़ेरवा विराजमान दिखता।
रोते रोते खदेरनी माई की गोद में सिर रख सो गई और माई तो बस सोचती रही। सलोनी रूपा धिया पर जाने कितना दुलार उमड़ रहा था। बिधना! अइसन धीया के नामरद दिहलss? (हे विधि! ऐसी बेटी को नामर्द दे दिए?) और डर ने सिर उठाया। कौन रहा होगा जो जबरदस्ती करना चाह रहा था? बाबू बाबा खानदानों का ही कोई हरामी होगा। काना हो गया, सुबह खैर नहीं। बाहर आई ,भुरकुआ (भोर का तारा) दिखा तो जी में टीस सी उठी और फिर राह मिल गई – रामकिसुन। बचने का अब एक ही रास्ता था, फेंकरनी की ससुराल वाला।
जल्दी जल्दी कपड़े लत्ते समेटे और बिसखरिया माई को गोहराते हुए फेंकरनी को जगाया।
“ऊ लोग का कही रे माई! एतना बरिस बाद? ऊहो तोरे साथे?”(वह लोग क्या कहेंगे माई? इतने वर्षों के बाद? वह भी तुम्हारे साथ वहाँ?)
“पंडितवा के आगे सुतलका के पहिले सोचले रहते नगरनचिनी! चलु अब, तिरिया चलित्तर महतारी के जनि देखाऊ। तोके कुछ नाहीं होई। अबहिन हम जीयतनीss”...(पंडित के आगे सोने से पहले सोची रहती कुलटा! चलो अब, माँ के आगे त्रिया चरित्र न दिखाओ। तुमको कुछ नहीं होगा। अभी मैं जी रही हूँ।)
“माई रे! हम गिराइब नाहीं।“ (माई! मैं गर्भ नहीं गिराऊँगी।)
“अरे पहिले हमल रहे त दे। ... वोहि खातिर गइल अउर ज़रूरी बा।“ (पहले ठहरने तो दे ...उसी के लिए जाना ज़रूरी है)
...दो औरतें चल पड़ीं। जिन्हों ने जाने कितनी मानुख औलादों को धरती पर उतारा, खुद उनकी बारी के शुरुआत में पाँव के नीचे से धरती ही खिसक पड़ी थी।
(ख)
अपने ही रचे श्मशान से भागते खदेरन पंडित।
गुरू का कहा मन में अब भी उठ रहा था – साधना में भैरवी असंतुष्ट न होने पाये। निपट निरक्षरा फेंकरनी को कैसे पता था? खूब लाभ उठाया! लेकिन जब अपने मन की सोचते तो सिहर जाते। संतान की चोर चाह और बन्ध्या मतवा। पिता के दूसरे विवाह के लिए रचे गए चंडी चाचा के षड़यंत्र ने दूसरे विवाह के प्रति मन में घृणा भर दी थी लेकिन आज? ...मतवा को कैसे भुला बैठे? वेद, शास्त्र, स्मृति, नीति, पुराण, इतिहास सब वामाचार। स्वाहा! स्वाहा!! मन में बसे चोर ने जो चाहा करवा लिया। कहीं अपने नि:संतान होने के कारण ही चंडी चाचा के खानदान का भी नाश तो नहीं चाहते थे वह? मृत माँ का दु:ख और अपमान तो बस आड़, मन के छलावे?
हाहाकार असह्य हो गया। मदिरा का कोई प्रभाव नहीं लेकिन आग और धधक उठी। चाल तेज हो गई। लाठी का सहारा लेना पड़ा। और अचानक ही सौन्दर्य लहरी उठी:
..स्त्वमेका नैवासि प्रकटितवराभीत्यभिनया। भयात्त्रातुं दातुं फलमपि च वाञ्छासमधिकं, शरण्ये लोकानां तव हि चरणावेव निपुणौ। ... मैं आ रहा हूँ माँ! तुमसे ही पूछूँगा।
कामरूप कामाख्या। त्रिपुर सुन्दरी! मैं आ रहा हूँ। तब तक जीवित रहूँगा ...
...दिन प्रतिदिन सूरज कुछ जल्दी उगता रहा। पथ पर एक दीन, हीन, मलीन पागल को जाते देखता रहा।
कितनी ही बार क्षुधा और प्यास से विकल हो अचेत हुए लेकिन वाह रे खदेरन! चलना नहीं छोड़ा। कुत्ते, गाँव के बच्चे पीछे पड़ते लेकिन कोई न कोई देह पर ब्राह्मण चिह्न देख कुछ दे ही देता। कभी खेतों में घुस कर कच्ची तरकारी, फल, फूल ही चबा जाते ...चलते रहे। संध्याकाल बस्ती के पास ही रहते और आग माँग लाते। अग्निहोत्र नहीं छूटा। धधकती अग्नि। त्रिनेत्र नहीं माँ! मैं आ रहा हूँ। ... पथ पर भस्म के चिह्न छूटते रहे।
(ग)
फेंकरनी की ससुराल पहुँच माई ने जो लीला की, उसे कहना कठिन।
छाती पीटती रामकिसुन के बाप के गोड़े गिर पड़ी। रामकिसुन, उसका भाई सोहन, महतारी और कुछ पट्टीदार इकठ्ठे, हक्के बक्के।
“अरे हो बिसखरिया माई! पहुँच गइलीं। बखिस दss अब। ...राति बिसखरिया माई दरसन दे सरापे लगली। धीया घरमें बइठवले बाड़े। ले जो ससुरे नाहीं त दुन्नू खनदान नाश!”(बिसखरिया माई रे! मैं पहुँच गई। बख्श दो अब। ... रात बिसखरिया माई ने दर्शन दिये और शाप देने लगी। बेटी को घर में बैठाई हो। ससुराल ले जाओ नहीं तो दोनों खानदानों का नाश हो जाएगा।)
घर का बड़ा बेटा घोषित नामर्द – जिसे गवने के अगले ही दिन मेहरारू छोड़ भाग गई। छोटके का गवना न हो, जब रिश्तेदार आएँ पट्टीदार कुछ उल्टा सीधा टीप दें। पंचायत बैठी तो थी लेकिन कोई राह नहीं निकली। टोला भर खोबसता रहता। रामकिसुन की महतारी ने पाँच साल कठिन काटे। झगरही मशहूर हो गई। अब चमटोली में झगड़ा टंटा कोई नई बात तो थी नहीं? महतारी का करेजा जार बेजार रोता रहा।
ऐसे में फेंकरनी की वापसी किसी चमत्कार से कम नहीं थी। फेंकरनी ने दुबारा बियाह भी तो नहीं किया था हालाँकि जात रवायत के हिसाब से कर सकती थी। कोई मरद रख सकती थी। सुन्दर बहू को दुबारा पा महतारी निहाल हो गई।
बेटी को ससुरा में जमा कर जब सतवरिए (सातवें दिन) माई लौटी तो उसकी मड़ैया का अता पता नहीं था।
दुआर दुआर गिड़गिड़ाती रही लेकिन गाँव खुद खभार में पड़ा हुआ था, उसकी सुध कौन ले? थक हार खदेरन के दुआरे पहुँची। दु:खी मतवा शायद शरण दें दे। पीर ने पीर को समझा और गोंयड़े के खेत में पलानी डाल रहने की अनुमति मिल गई। मतवा के आँसू थमते न थे। माई अपने जियरा में बात छिपाए रही। कैसे बताए?
फेंकरनी रम गई लेकिन फेंकरनी कैसी जिसे चैन से रहने दिया जाय? नामर्द की बीवी, ऊपर से उफनती जवानी। अलग अलग बहानों से लखेरों के चक्कर लगने शुरू हो गए। और रामकिसुन? रात को कोशिश करे लेकिन बस हाँफ, पसीना, लत्थ पत्थ ... फेंकरनी जागती ही रह जाती। ... रामकिसुन ...पंडित हो! का होईss?
सोहना की रेख सी निकल रही थी हालाँकि अभी सोलहवाँ ही लगा था। भउजी मिली तो निहाल हो गया। आगे पीछे घूमता रहता। किसी भी बहाने से मज़दूरी से भाग कर आ जाता बस भउजी को देखने और भउजी भी जान छिड़कती। घर के चक्कर लगाते लखेरे, भीतर लहुरा देवर और खुद बेजान! बहानों से रामकिसुन पहले परेशान हुआ फिर फेंकरनी का हँसी ठठ्ठा देख मन में मैल जमने लगी। कुंठा ने बढ़ते बढ़ते आसुरी आकार ले लिया। रोज झगड़े। रोज मार पीट। एक दिन जब दीन दुनिया से बेखबर देवर भौजाई चुहुल कर रहे थे, देवर के बालों में तेल लगाती भउजी बहुरिया का नाम ले सोहना को चिढ़ा रही थी; रामकिसुन की मर्दानगी जाग उठी। गालियाँ बकते, हाथ लात चलाते भरे उजाले फेंकरनी को दुआरे खींच लाया। सीधा आरोप!
“दुन्नूँ साथे सुतल रहले हँ सों, दिनवे।“ (दोनों साथ सोये थे, दिन में ही!)
बगल का सँवरुआ डकार लेते हेहनाने लगा – अरे तोसे नाहीं सम्हरतीया तो ऊहे सँभारताsss! तोरा के त खुश होखे के चाहीं (अरे तुमसे नहीं सँभल रही है तो वही सँभाल रहा है। तुमको तो खुश होना चाहिए।)
सोहना सँवरुआ को पटक कर पीटने लगा। उसके बाप ने देखा और फैसला सुना दिया – “घर छोड़ दे फेंकरनी! तें नाहीं रहले त हमन के सुखी रहलीं।“ (घर छोड़ दो फेंकरनी! तुम नहीं थी तो हमलोग सुखी थे।)
महतारी ने विरोध किया तो उसे भी मारपीट मिली।
...अकेली वापस पैदल लौटती फेंकरनी को रास्ते भर उल्टियाँ होती रहीं। खदेरन का बीज पनप उठा था। रूदन और वमन। किस लिए रोना फेंकरनी? यह तो होना ही था। ... झूलहु हो लाल झूलहु! ... लाल आ रहे हैं और चन्दन गाछ का पता ही नहीं। लाल किस डाल झूलेंगे?
खदेरन के गोंयड़े के खेत में तीन जन हो गए – दो धरती पर और एक कोख में।
...आदम जात के सुख दु:ख को अगर कोई समझ सकता है तो वह भगवान है।
(घ)
युगल किशोर सिंघ। रामसनेही का चचेरा भतीजा, गाँव के लिए जुग्गुल। कुछ ऐसा लंगड़ा कि सही सलामत पैर वालों के तीन पग के बराबर उसका एक पग होता। चलता तो लंगड़े दाहिने पैर के सहारे बायाँ पेंग भरता और जब जमीन पर पड़ता तो जुग्गुल तीन कदम आगे होता। गाँव में उसका दम और पकड़ मशहूर। बात केवल रामसनेही सिंघ की मानता और उनकी घरैतिन को पूजता। बाकी स्त्रियों को शय्याशायी से अधिक मानना उसके वश में नहीं था। आहार भी अलग सा - केवल रोटी, भुनी लाल मिर्च, लहसुन और नमक की चटनी जिनके सही अनुपात बस रामसनेही की घरैतिन को पता थे। ऊपर से लोटा भर दूध या माठा। कभी कभी अगहनी भैंसालोट, चनाय चावल को पिसवा कर उसकी रोटी भी खाता। पिसाई की बारीकी किसको पता? रामसनेही की घरैतिन यानि उनकी चाची को। जुग्गुल की दुनिया बस रामसनेही और चाची। बाकी सब मसान।
उस दिन जब पूरा गाँव बदहवास सा समझने की कोशिश कर रहा था, जुग्गुल के दिमाग में एक काम तुरंत कर देने का विचार आया – फेंकरनी की मड़ैया का दहन। घटनाओं को जोड़ घटा कर उसके खुराफाती दिमाग में तत्काल यही समझ में आया। चमटोली से किसी ने विरोध नहीं किया। बात ही कुछ ऐसी थी।
... वक़्त भागता रहा और सूरज खदेरन को कामाख्या की दिशा दिखाता रहा। त्रिपुर सुन्दरी, विलासिनी, संहारिणी, माँ – मैं आ रहा हूँ!...
खदेरन जिस समय कामाख्या मन्दिर मण्डप के आगे पहुँचे, दिन एक बाँस ऊपर आ चुका था। फटे वस्त्र। बढ़े उलझे बाल, दाढ़ी। कंकाल सरीखे खदेरन लाठी के सहारे खुद को सँभालने की कोशिश किए लेकिन पहुँचने के उछाह को शरीर सँभाल नहीं सका। भहराए और अचेत हो गए। ... (जारी)

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

निर्वेदी दोहे

84

बिजली की दरकार है, दुखिया हैं सब लोग
हाकिम को किसकी पड़ी, तम को रहते भोग।

बड़ा बाड़ा खूब बड़ा, पत्थर की है रेल
काम न होय गए बिना, निकसे होती झेल।

कागज नेहा ना लगे, टेबल की यह रीत
थैली को ताड़े रहे, पेंग बढ़ावे प्रीत।

ना जैयो रे प्रेम पथ, धोखे में है भीर
गली किनारे बैठ कर, बाँचो अपनी पीर।

15012010984

चलते चलते .....

खुद से दूर रहने को इंसाँ ने हसीं आशियाने गढ़े 
हो बू-ए-रंगोरोगन या लहू पसीना,नाक ऊँची रही।

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

लंठ महाचर्चा: बाउ और नेबुआ के झाँखी - 3

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मेरे पात्र बैताल की भाँति,  
चढ़ जाते हैं सिर और कंधे पर, पूछते हैं हजार प्रश्न।
मुझमें इतना कहाँ विक्रम जो दे सकूँ उत्तर? 
... नित दिन मेरा सिर हजार टुकड़े होता है।
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भाग –1, भाग -2 से आगे...
(ओ)
अधराति1। पंडित के दिए लाल कपड़ों में सजी फेंकरनी। गोड़2 के नीचे धरती नहीं, आसमान। आसमान देखा तो सग्गर बाबू की दुलहिन याद आ गईं। जोन्हिया बनारसी3 – सुरुज किरिन4 चकमक दकमक।
अरे! ई त अन्हरिया हे रे? (अरे यह तो कृष्ण पक्ष है?)
त का भइल? (तो क्या हुआ?)
चकमक दकमक रे, चकमक दकमक।
तिनजोन्हिया5 बुला रही थी, चल पंडित के भेष। फुसऊ6 घर से बाहर निकली और ऊँख7 के खेतों से आती सियारों की हुआँ हुआँ तेज हो गई। अचानक ही कहीं खेंखरि8 फेंकरने9 लगी।
अरे हमार नउवे फेंकरनी, का फेंकरतड़े रे खेंखरिया?(अरे मेरा नाम ही फेंकरनी है, लोमड़ी क्यों विलाप कर रही हो?)
कोई परवाह नहीं, चली जा रही है। जिससे ब्याह हुआ उसका नाम रामकिसुन। गवना हुए पाँच बरस बीत गए। कइसन राति रहे? एतना दुलार लेकिन बेदम...फेंकरनी भागी जा रही है भिन्सहरे10। उठानी उमर11 से ही माई के साथ रह कर कितने ही बच्चों को जनाया है। छठिहार, बरही12 भर सोहर गाया है।... अपनिए कोखि बन्जर! बंजर नाहीं रे, बियवे नाइं परल..बोल रे सियरा, फेंकरि रे खेंखरि...हमरे अंगना बधावा। आई रे,आई!(मेरी ही कोख बंजर! बंजर नहीं है, अरे बीज ही नहीं पड़ा.. बोलो सियार, विलाप करो लोमड़ी...मेरे आँगन तो बधावा आएगा, जरूर आएगा)
के भेजी? ससुरा? (कौन भेजेगा? तुम्हारा ससुर?)
बियाह के बाद बस एक बार मिले मरद रामकिसुन पर जाने क्यों दुलार उमड़ आया।...हुआँ! हुआँ!! फें फें कचकच फें फें... रामकिसुन। राम और किसना जैसे लाल। काले लाल।
पंडित हो! चन्दन गाछ13 बनबss? अरे कटवाइब नाहीं हो, कटि जाइब...चेंचरा खींच ढेबरी के लग्गे माई सोहर गावतिया (पंडित! मेरे चन्दन के पेंड़ बनोगे? अरे कट जाऊँगी लेकिन कटवाऊँगी नहीं...छप्पर घर का द्वार लगा माँ सोहर गा रही है) ...फेंकरनी कल्पना में मगन हो चली।
मोरे पिछवरवाँ चन्दन गाछ औरन से चन्दन हो
रामा सुघर बढ़ैया मारे छेव लालन जी के पालन हो
राम के कढ़ऊँ खड़उवाँ कन्हैया जी के पालन हो
रामा ठाढ़ि जशोदा झुलावें लालन जी के पालन हो
झूलहु हे लाल झूलहु... झूलो साँवरे लाल! झूलो राम! झूलो कन्हैया! ...रामकिसुन... खदेरन हो!
(औ)
तंत्र अभिचार की सामग्री झोले में रखने के बाद खदेरन पंडित ने जब अग्निशाला से चलने को लाठी उठाई तो चीखती लोमड़ी का स्वर सुनाई दिया। आकाश में व्याध नक्षत्र के तीन तारे बता रहे थे- समय हो गया। मन के भीतर अग्नि दहक उठी। राख सी धूनी को लाठी से कुरेदा तो चिंगारियाँ चमक उठीं। अग्निहोत्र सुरक्षित है खदेरन!
...चंडी चाचा के किस्से सुनाती माँ की आँखें बरस रही हैं।
“बेटा! तोहरे खातिर हम जौन भोगनी शायदे कौनो महतारी भोगले होई। चंडिया के कब्बो माफ नाहीं करबे।(बेटे! तुम्हारे लिए जो दु:ख मैंने भोगा शायद ही किसी माँ ने भोगा हो। चंडी को कभी क्षमा नहीं करूँगी।)...
...क्षमा तो मैं भी नहीं करूँगा। आज विनाश की नींव पड़ेगी। निपूता14 खदेरन तुम्हारे रक्षवंश को खोद डालेगा चंडी! खदेरन ने आकाश की ओर फिर देखा। यह क्या? रक्तबाण! लाल धूमकेतु!! मनोनुकूल। उस अन्धेरे में अकेले खदेरन कटु हँसी हँसते हुए चल पड़े।
नींबू का कँटीला पौधा। हा, हा, हा।
रक्तबाण। हा, हा, हा। अग्नि भभक दहक लहक उठी है। स्वाहा, स्वाहा। ...स्वधाहम, स्वाहा स्वाहा...
...फेंकरनी पूछ रही है –राम किसन करिया काहें पंडित? (पंडित! राम कृष्ण काले क्यों थे?)
करिया नाहीं रे – साँवर (काले नहीं साँवले थे)।
एक्के बाति (एक ही बात।)...
सिरजन बिनास एक्के बाति। (सृजन विनाश एक ही बात)
(अं)
तब जब कि सियार हुँड़र रहे थे, खेंखरि फेंकर रही थी, तिनजोन्हिया और सग्गर के पिछवाड़े की नीम पर बैठा गुड़ेरवा15 उस रात के अभिचार के गवाह बने। ...रक्तबाण चुका था।
कड़ुवे तेल का दिया जला, अघोर चक्र खींच पंडित ने अपने बायें हाथ की कानी अंगुली को क्षत किया। रक्त की बूँदें टपक पड़ीं। शरीर के बाहर रक्त मृत हो जाता है। मदार की लकड़ी, मानुख रक्त। स्वधाप्रिय अर्पित रक्त बूँदें। आहुति। नींबू के पौधे तले अब श्मशान था।
दीप के धीमे प्रकाश में रक्तवसना फेंकरनी दिखाई दी। आग भभक उठी। हुआँ, हुआँ, फें फें कचकच फें फें...
खाली दिये में रखी रक्त की बूँदों से स्वयं का अभिषेक करने का खदेरन ने इशारा किया।
बाभन को तिलक!.. ठिठक।
कर्ण कटु धीमी फुफकार - लगाउ उढ़रनी!देरी नाहिं।
तिलक। शीतलता नहीं आज्ञाचक्र16 पर जैसे जलता हुआ अंगार रख दिया हो!
चंडी विनाश!
ध्यान को न भटका मूढ़!
इंगला, पिंगला, सुखमन17 सब स्वाहा। कोई चक्र नहीं, बस अगिन - खदेरन जल उठे। दाह बुझाने को पात्र में रखी मदिरा गट, गट गटक गए। भीतर की आग और दहक उठी। फिर से इशारा किया और भीत सी खदेरनी उत्तर दक्षिण दिशा में लेट गई।...
अड़हुल के लाल फूल हैं। पंडित एक एक अंग की पूजा कर रहा है। फेंकरनी तो जैसे मृत हो गई है। साँसों में सोहर अभी भी जीवित है–
पंडित हो! जौन चाह कss लss लेकिन ...(पंडित जो चाहो कर लो, लेकिन ...)
राम के कढ़ऊँ खड़उवाँ कन्हैया जी के पालन हो।
तू हमार चन्दन गाछ, काटब नाहीं हो बस झुलबे (तुम मेरे चन्दन वृक्ष हो, काटूँगी नहीं। बस झूलूँगी।)
झूलहु हो लाल झुलहु कन्हैया जी के पालन हो। पंडित हो!
मसानी मंतर, सोहर। आगी पानी। बिनास सिरजन । खदेरन और फेंकरनी की जुगलबन्दी।
हा, हा, हा। माथा बरमंडा ॐ फट् स्वाहा
झूलहु हो लाल झूलहु, झुलुवा झुलाइब जमुन जल लाइब...(झूलो लाल, झूलो। झूला झुलाऊँगी, यमुना जल लाऊँगी)
आँखि सुरुज चनरमा ॐ फट् स्वाहा
जमुना पहुँचहूँ न पवलीं, घड़िलओ न भरलीं महल मुरली बाजे हो  (न यमुना तक पहुँच पाई, न घड़ा भर पाई। महल में मुरली बजने लगी) 
मूहें छेदा बरह्मा ॐ फट् स्वाहा
झूलहु हो लाल झूलहु कन्हैया जी के पालन हो। पंडित हो! (कन्हैया जी पालना, झूलो मेरे लाल! ए पंडित!)
कुम्भे पीए जीए परजा ॐ फट् स्वाहा
चुप रहु जशुमति चुप रहु दुशमन जनि सुने हों, जशुमति ईहे कंस के मरिहें गोकुला बसैहें हो  (चुप रहो यशोमति! चुप रहो! दुश्मन सुन न लें। यशोदा! यही कंस को मारेंगे और गोकुल को गुलजार करेंगे)
जोनी जग जाया भोगा पाया ॐ फट् स्वाहा...
गुह्य अंग के स्पर्श पर फेंकरनी सिहर उठी। मन के अरमान पेंग भरने लगे। झूलहु हो लाल!
खदेरन जाने कितनी देर क्या क्या पूजते रहे, आहुति देते रहे और मंत्र पढ़ते रहे। अभिचार समाप्त हुआ -
ॐ ह्रीं स्त्रीं तारायै हुं ॐ फट् स्वाहा।...
“पंडित हो! खतम हो गइल?”(समाप्त हो गया?)
“हँ, जो अब!”(हाँ, जाओ अब)
“आप सवारथी बाड़ तू! हे अन्हरिया में हे तरे कौन मेहरारू टोना करवावे आई हो?” (बड़े स्वार्थी हो! इस अन्धेरी रात में इस तरह से कौन स्त्री टोना टोटका करवाने आएगी?)
“हो गइल। जो अब!” (हो गया, जाओ अब)
“अरे कइसे चलि जाईँ? जिन्दा पुजल ह कि मुर्दा?” (कैसे चली जाऊँ? जिन्दे की पूजा किए हो या मुर्दे की?)
“जिन्दा।” (जिन्दे की)
“त हमार कार करे के परी नाहीं त सब भरस्ट हो जाई।“ (तो मेरा काम करना पड़ेगा नहीं तो सब भ्रष्ट हो जाएगा।)
पंडित धर्मसंकट में और फिर आत्मकरुणा में बह चला। रतिदान माँगती स्त्री को निराश नहीं करते खदेरन! स्मृति वाणी या नीति शास्त्र? ब्राह्मण शूद्रा संगम – हा हा कार।
खदेरन! चंडी चाचा का खानदान तो खत्म हो जाएगा लेकिन तुम्हारे बाद तुम्हारे यहाँ? कोई रहेगा भी? क्षेत्र स्वयं चल कर आया है। बीजदान दो!
...फेंकरनी पूछ रही है –राम किसन करिया काहें पंडित?
करिया नाहीं रे – साँवर।...
फेंकरनी! साँवर कन्हैया मिलेगा तुम्हें।
अथ च इच्छेत्पुत्रो मे श्यामो लोहिताक्षो जायेत...
खदेरन श्मशान की अग्नि पर अक्षत को पानी में डाल पकने को रख दिए। आग दहकती रही। प्रतिशोध की अग्नि, कामाग्नि, कृष्णाग्नि। हुआँ, हुआँ, फें फें कचकच फें फें सब शांत हो गए। पहली बार फेंकरनी ने जाना कि पुरुष क्या होता है। शीतल हवा की सिसकारियाँ... गुड़ेरवा उड़ गया, निर्लज्ज तिनजोन्हिया को भी आखिर लाज आई,  छिप गई।......समय ने तो बहुत कुछ दिखाया होगा लेकिन उस रात तिनजोन्हिया ने जिस जुगलबन्दी को देखा, दुबारा नहीं देखेगी और गुड़ेरवा? वह तो आगे पीढ़ियों तक नींबू पर पहरा देने वाला था।...
...आगे बढ़ने को विनाश ने सृजन को पूजा लेकिन वाह रे सृजन! ऐसा प्रश्न सामने रख दिया कि स्वयं विनाश को उसे बढ़ाना पड़ा। ... पीढियों की साँसें कम और गुड़ेरवा की आयु ही कितनी? तिनजोन्हिया तो अमर है। प्रलय के बाद भी भूमि को ताकती रहती है, कोई न कोई बीज बो ही देता है। ...   
(अ:)
फेंकरनी को अपने हाथों से भात खिलाते खदेरन ने कहा,“खो अब! जौन चहले ऊ हो गइल।“(खाओ अब! जो चाहती थी वह हो गया।)
फिर झोला सँभाला और लाठी लिए चल पड़े। प्रायश्चित। अन्न जल उतना ही ग्रहण करना जितने में चल सकें।...मन में निश्चय, खदेरन चलते चलते मर जाएगा।
फेंकरनी मगन सी लौट चली – झूलहु हो लाल! कि अन्धेरे में घात लगाए किसी ने दबोच लिया। बलिष्ठ हाथ। फेंकरनी का मन हाहाकार कर उठा। हम एतना अभागा नाहीं रे! (मैं इतनी अभागी नहीं!)
सूझ नहीं रहा था कि कौन है। गुत्थमगुत्था होते पापी की आँख हाथ तले आई और फेंकरनी ने अंगुली उसकी आँख में घुसेड़ दी। उसके नाखून कटते नहीं टूटते थे। मारे जाते सुअरा की तरह डकारते हुए वह छोड़ कर भागा। नींबू के पौधे ने पहली बलि ले ली थी – मनुष्य न सही, उसकी आँख ही सही। ...अभी तो पौधा था! चन्दन गाछ किसने देखा?
...प्रात:काल गाँव में घमघमहट मच गई। नींबू के पौधे तले तांत्रिक वामाचार के चिह्न थे। खदेरन, माधव, फेंकरनी और उसकी माई लापता थे। मतवा18 का विलाप सहा नहीं जा रहा था।...
रास्ता बन्द हो गया और मौका ठीक देख रामसनेही ने कुछ रास्ता और कुछ खिरकी का हिस्सा घेरते हुए बाड़ लगा दिया। किसी ने नहीं रोका। (जारी)
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शब्द सम्पदा: (1) अर्ध रात्रि (2) पैर (3) बनारसी साड़ी जिस पर सलमा सितारे जड़े हों (4) सूर्य किरण (5) व्याध नक्षत्र। पुराने समय में उसे देख रात में समय का अनुमान लगाया जाता था (6) छप्पर (7) ईंख (8) लोमड़ी (9) लोमड़ी का बोलना जिसे विलाप जैसा माना जाता है (10) भोर (11) रजस्वला होने की उम्र (12) शिशु के जन्म के छ्ठे और बारहवें दिन के उत्सव (13) चन्दन का पेंड़ (14) पुत्रहीन (15) उल्लू (16) दोनो भौहों के बीच का स्थान जिसे तंत्र या योग साधना में बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया है। (17) इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियाँ (18) ब्राह्मण की पत्नी

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

रहरपुर चिट्ठाकार संघटन या रहरपुर ब्लॉगर असोसिएशन

पहले ही बता दूँ कि रहरपुर टहलगंज का एक मुहल्ला है (और दस्तूर के मुताबिक गंज ब्लॉगर असोसिएशन आलरेडी बना हुआ है लेकिन वह निष्क्रिय है)।
 अपने अजीज मित्र रवायत खान के शब्दों में कहूँ तो रहरपुर टहलगंज की सबसे पॉश कॉलोनी है। अपनी अपनी किस्मत है! मुझे तो पॉश कहना ही नहीं आता, बस लिख सकता हूँ। 
आज 'पलटदास नवावतार प्रवर्तक' से बातचीत के दौरान यह आइडिया मन में आया। ज्ञानियों से मित्रता रखने के कई लाभ हैं, उनमें एक यह भी है कि मन में आइडिये बहुत आते हैं। 
तो भाई लोगों और परम सम्माननीया भाभियों! (भाई के साथ संगति बैठाने के लिए ही कहा, कोई अन्यथा, वृथा अर्थ न लें/लगाएँ और न किसी को लेने/लगाने दें)
  'रहरपुर चिट्ठाकार संघटन या रहरपुर ब्लॉगर असोसिएशन' का गठन किया जा चुका है।

रजिस्टर्ड ऑफिस का पता: 
(ऑफिस की गुमटी 'पलटदास प्रवर्तक बाबा' के सौजन्य से)
रहरपुर, 
अरमान टीला 
(संकठा पान वाले के बगल में)
टहलगंज, पिनकोड (अभी डाकतार विभाग की सेवा यहाँ नहीं है।)

चूँकि यह पोस्ट मैं लिख रहा हूँ इसलिए प्रेसीडेंट या अध्यक्ष का पद मैं स्वीकार करता हूँ। मुझे चुनने के लिए आप लोगों को बहुत बहुत धन्यवाद। ईश्वर आप लोगों की प्यार से तड़पती आत्माओं को शांति बख्शें।  
रहरपुर के एकमात्र दूसरे ब्लॉगर जिन्हें मैं जानता हूँ, वह हैं - और कोई नहीं बल्कि रवायत खान। इसलिए उपाध्यक्ष पद उन्हें। उन्हें चुनने की आवश्यकता नहीं। खान लोग चुनाई में नहीं छिनाई में यकीन रखते हैं, सो आप चुनें या न चुनें रवायत भाई उपाध्यक्ष हो ही जायेंगे (मेरे दोस्त हैं नहीं तो अध्यक्ष पद भी या ही .... समझ गए न?)  
बाकी पदाधिकारियों और मेम्बरानों  की तलाश जारी है। जैसे जैसे मिलते जाएँगे, यहाँ नाम चढ़ता जाएगा।

इस संघटन (या संगठन?... मेरी बला से!) के उद्देश्य:
(1) संसार के सभी एग्रीगेटरों और जिस किसी चीज में भी ए,ग,ट,र आते हों, वहाँ रजिस्टर होना, भले स्तर कुछ भी हो। गटर भी चलेगा। 
(2) उद्देश्यपरक और विषयनिष्ठ ब्लॉगरी करना ( इन दो शब्दों के अर्थ अभी तक मिल नहीं पाए हैं, की फरक? चलँगा) 
(3) ऊपर के दो कम पड़ रहे हैं क्या जो इसकी नौबत आ गई? 

अरे एक भी नहीं रहता तो भी चलता। बिना उद्देश्य के इतना बड़ा देश चल रहा है, असोसिएशन तो दौड़ेगा। 

अगली गतिविधि: 
सन् 2011 के प्रारम्भ की शुभ बेला में संघटन के नाम की पुष्टि। तब तक शायद कुछ मेम्बरान भी आ जाएँगे। 
वैसे रहरपुर में प्रॉपर्टी के भाव बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं। अगर आप को असोसिएशन का मेम्बर बनना है तो जल्दी से एकाध फ्लैट ले लीजिए। रवायत भाई इसी धन्धे में हैं। आप को चवन्नी बटा सैकड़ा परसेंट की छूट भी मिल जाएगी। 

क्या कहा? ब्लॉगरी नहीं आती? नहीं करते? की गल जी - हम हैं न। दसियों ब्लॉग अपने नाम बिन खर्चा पानी बैनामा हैं , कोई भी दे देंगे। लिखना ज़रूरी थोड़े है! 

जय फलाने! जय चिलाने!! 
सुभाषित:  अपने धर्म के प्रसार के लिए दूसरे के धर्म की ऐसी तैसी करनी जरूरी है।
 इति ही ही फी फी। पांघव काल की बातें बाद में ... 
(पुरुषवादी ब्लॉगर समाज में किशोरावस्था को पांघव काल कहा जाता है। 'पांघि' होठों के ऊपर उगती रेख को कहते हैं। पांघव उसी से बना है।)