शुक्रवार, 29 जून 2018

मेघदूत अनुवाद की भूमिका से - केशव प्रसाद मिश्र

आचार्य केशवप्रसाद मिश्र ने कालिदास कृत मेघदूत का हिन्दी छन्दानुवाद किया जो सं.1992 वि. (सन् 1935)  में प्रकाशित हुआ (अभी राजकमल प्रकाशन में उपलब्ध है)। आचार्य संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। अनुवाद की भूमिका में उन्हों ने छ्न्द बन्ध की आलोचना की। देखते ही मैं चौंक गया। आचार्य की भाषा में ही वह अंश प्रस्तुत है:

...छ्न्द के पींजड़े में बन्द की गई कविता-कोकिला स्वच्छ्न्द नहीं रहती। न तो वह मौज से पर फैला कर उड़ सकती है और न स्वभावमधुर कूक ही सुना सकती है। अपनी सारी अठखेलियाँ उसे उसी घेरे के भीतर करनी पड़ती हैं। फिर वह कोकिला चाहे किसी कलावंत खिलाड़ी की हो या किसी अताई तुक्कड़ की।
कविकुलगुरु कालिदास सच्चे कवि थे। जब कभी उनकी प्रतिभा जागृत होती, उनकी सूझ रीझती; वे तुरन्त मधुरोचित पदावली की चाशनी को छन्दों के साँचों में डाल देते और सुन्दर पद्यों की मीठी मीठी मूर्तियाँ निकल आतीं। पर कभी कभी उन्हें भी छ्न्दों की परिच्छिन्नता-नाप जोख- के कारण स्वाभाविकता की सुघराई से हाथ धोना पड़ा है। बानगी देखिये –
 तां कस्यां चिद् भवनवलभौ सुप्तपारावतायां नीत्वा रात्रिं चिरविलसनात् खिन्नविद्युत्कलत्र:” पूर्वमेघ 39
यक्ष कहता है – भाई मेघ! देख, तू अपनी प्रिया सौदामिनी का ख़याल रखना। वह बड़ी ही सुकुमार है। क्षण भर में उसकी प्रभा –उसकी ओप- उतर जाती है। तू ठहरा अतिविलासी। रास्ते भर छेड़छाड़ से तू बाज आने का नहीं। और मुझे आता है उस बेचारी पर तरस। इससे सुन मैं बतलाऊँ। रात को किसी अटारी पर, जहाँ अति विलास से थके कबूतर भी निधड़क सो रहे हों, तू उसे विश्राम देना। छेड़ना मत। हाँ!
परंतु छ्न्द-रचना से यह अर्थ स्पष्टतया नहीं निकलता। छ्न्द की तंगी से कवि ने ‘खिन्नविद्युत्कलत्र:” (जिसकी विद्युत-पत्नी खिन्न हो गई हो, वह) पद को ‘त्वम्’ का विशेषण बनाया है। जिसका यह अर्थ हुआ कि –‘खिन्न विद्युत पत्नी वाला तू’ (रात बिता कर चलना)। इस अर्थ से कवि की इष्टसिद्धि नहीं होती। क्यों कि विशेषण और विधेय में बड़ा अंतर है। ‘पूर्वसिद्ध-कथन’ के लिये विशेषण का प्रयोग होता है और ‘अपूर्वबोधन’ के लिये विधेय का। यहाँ ‘विद्युत पत्नी का खेद’ अपूर्व -नई बात- है। उसे विशेषरूप से बोधन करना, उस पर ध्यान दिलाना कवि को इष्ट था; अत: उसका प्रयोग विधेय-विधया होना चाहिये था। परंतु विशेषण-कोटि में रखने से उस अपूर्व बात की अपूर्वता -विधेयता- नष्ट हो गई है और पूर्वसिद्धता –उद्देश्यता – प्रतीत होती है। “भूखे घोड़े वाला तू कुछ खा पी ले” इस वाक्य से यह स्पष्टतया नहीं सूचित होता कि ‘तेरा घोड़ा भूखा है, तुझे उसकी खबर लेनी चाहिये’। ‘भूखे घोड़े वाला’ केवल ‘तू’ के परिचय के लिये प्रयुक्त सा मालूम पड़ता है। इस प्रकार विधेय के अनुचित प्रयोग को ‘विधेयाविमर्श’ दोष कहते हैं। उक्त पद्यार्थ का अनुवाद इस प्रकार किया गया है –
ऐसी छत पर, जहाँ कबूतर निधड़क करते हों आराम,
अतिविलास से थकी चंचला प्यारी को देना विश्राम।
इसी प्रकार का एक और उदाहरण उत्तर मेघ से लीजिये –
मत्संभोग: कथमुपनमेत् स्वप्नजोऽपीति निद्रा –
माकाङ्क्षंतीं नयनसलिलोत्पीडरुद्धावकाशाम्। उत्तरमेघ 28
यक्ष कहता है – मेरी विरहिणी निरुपाय होकर यह चाहती होगी कि मुझे नींद आ जाय और प्रत्यक्ष नहीं तो स्वप्न ही में मैं प्रियमिलन का आनन्द ले लूँ। पर हाय! उसकी आँखों में नींद कहाँ! उनसे तो आँसुओं की धारा उमड़ती होगी।
परंतु “नयनसलिलोत्पीडरुद्धावकाशाम्” (आँसुओं के उमगने से जिसे स्थान नहीं मिलता – वह) पद को ‘निद्राम्’ (नींद) का विशेषण बना कर कवि ने बात बिगाड़ दी। इससे यह प्रतीति सी होने लगी कि – वह निर्विघ्न निद्रा नहीं चाहती, वह ऐसी निद्रा चाहती है जिसे आँसुओं के मारे आँखों में स्थान न मिलता हो। देखा आपने! छ्न्द की झंझट ने कितनी हानि की। इसका अनुवाद यों है –
मिलन स्वप्न में ही हो इससे करती निद्रा का अभिलाष,
किंतु अश्रुधारा के मारे उसको वहाँ कहाँ अवकाश!
एक और –
विद्युत्वन्तं ललितवनिता: सेन्द्रचापं सचित्रा: सङ्गीताय प्रहतमुरजा: स्निग्धगम्भीरघोषम् ।
अन्तस्तोयं मणिमायभुवस्तुङ्गमभ्रंलिहाग्रा: प्रासादास्त्वां तुलयितुमलं यत्र तैस्तैर्विशेषै: ॥
 उत्तरमेघ 1
इस पद्य में बड़ी सुन्दरता से मेघ और अलका के प्रासादों की तुलना की गई है। पहले सम्बोध्यमान मेघ के तुल्य गुण बतलाये गये हैं पीछे प्रासादों के। और यही क्रम उचित भी है। क्योंकि मेघ सामने है और प्रासाद है आँखों की ओट। किंतु छ्न्द की निष्ठुरता से यह क्रम न निभा। द्वितीय चरण में प्रासादों का जिक्र पहले और मेघ का पीछे आ गया। बात बिगड़ गई। ‘भग्नप्रक्रमता’ अथवा ‘क्रमभंग’ दोष आ पड़ा।
  इस प्रकार महाकवि कालिदास को जब काव्य भर में एक छ्न्द के प्रयोग का नियम करने से कठिनता हुई तब अनुवादक बेचारे की कौन कहे! उसे तो एक नहीं अनेक संकट हैं। महाकवि के भावों की रक्षा करना; अन्यूनानतिरिक्त –नपे तुले – शब्दों से उन्हें प्रकट करना; महाकवि ने अपनी अनोखी प्रतिभा की लहर में जो बात अनायास कह डाली है उसे गढ़ गढ़ कर छ्न्द की डिब्बी में बन्द करना; न कुछ बढ़ाने की उसकी शक्ति और न कुछ घटाने का उसका अधिकार!
ऐसी अवस्था में सहृदय पाठक समझ सकते हैं कि मेरा अनुवाद कैसा होगा और मुझे अपने अनुवाद की सफलता पर कैसा विश्वास होगा। अंत्यानुप्रास का बखेड़ा अपने सिर मढ़ कर मैंने दुस्साहस किया है। पर करता क्या? यदि इस नीरस रचना को वह अलंकार भी न पहनाता तो बेचारी निरी नंगी रहती।
(आभार: राजकमल प्रकाशन)
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आचार्य ने अपने अनुवाद को ‘नीरस रचना’ उपाधि से विभूषित किया है न कि मूलकृति को किंतु उनके वाक्य से उल्टा ही प्रतीत हो रहा है। जाने इस दोष को क्या कहते हैं?  

गुरुवार, 14 जून 2018

संस्कृत सौन्‍दर्य - 1

बोल कर संस्कृत पढ़ने से जिह्वा, मुख एवं स्वर तंत्र का व्यायाम भी होता है। किसी एक ही मन्‍त्र के पाठ या जप का यह परोक्ष लाभ है। पुरुष सूक्त के प्रथम मन्‍त्र को देखें, अथर्वण सहस्रबाहु के स्थान पर ऋग्वैदिक सहस्रशीर्षा।
स॒हस्र॑शीर्षा॒ पुरु॑षः सहस्रा॒क्षः स॒हस्र॑पात् । स भूमिं॑ वि॒श्वतो॑ वृ॒त्वात्य॑तिष्ठद्दशाङ्गु॒लम् ॥ य, र, ल, व, श, ष, स, ह, क्ष, अक्षमाला का अंतिम य वर्ग समस्त ऊष्म संघर्षी ध्वनियों के साथ उपस्थित है। पहले शब्द में ही र एवं ह के सम्पुट के साथ तीनों ध्वनियाँ - स, श, ष उपस्थित हैं, सम्पूर्ण ऊष्म परास। हममें से कितने इसका शुद्ध उच्चारण कर सकते हैं? स+ह+स्+र+श+ई+र्+ष+आ - सहस्रशीर्षा। ई कुण्डलिनी स्वरूपा मानी जाती है, आ अर्थात अन्त में स्वाहा! स्वाहा की गढ़न भी देखें - ऊष्म ध्वनियों का संयोजन है।