रविवार, 17 सितंबर 2017

नीलगाय गाय नहीं, मृग है - घड़रोज

https://en.wikipedia.org/wiki/File:Nilgauantilope_Boselaphus_tragocamelus_Tierpark_Hellabrunn-10.jpg
नीलगाय Boselaphus tragocamelus वस्तुत:  एक मृग है। इसे निलघोड़, घड़रोज आदि नामों से घोड़े से समानता के आधार पर जाना जाता है। कारण, इसकी भागने की गति और आकार। घोड़ों की भाँति ही ये छलाँग और कुलाँच भी ऊँची भरते हैं।
आज भी उत्तर भारत के गाम गिराम मेंं इसके घड़रोज, घोड़पड़ास(भोजपुरी), बनगदहा (मैथिली), रोजड़ा, रोज(राजस्थान), रोझ (बघेलखण्ड, बुंदेलखण्ड), महे नाम पर्याप्त प्रचलित हैं। इन नामों के 'रोज' की संगति संस्कृत 'रुरू' से बैठती है। यह जंतु संस्कृत साहित्य में भी वर्णित है। यथा: 
रुरून् अपेता अपजयान् दृष्ट्वा शोकं प्रहास्यसि।
(वाल्मीकीय रामायण, 3.73.39/1)
रुरू मनुस्मृति के प्रक्षिप्त अंश में भी है- रौरवेण नव एव तु (3.269)। 

इसका एक परवर्ती नाम गोकर्ण, जिसके कान गाय जैसे हों, भी मिलता है। इसके नर नीलाभ होते हैं, आकाश जैसे नहीं, गाढ़ी नीली मसि जैसे।   

https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/c/c8/Nilgai_mating_at_Bandhavgarh_National_Park.jpg
 मुझे पूरी शंका है कि गोकर्ण और नील वर्ण को मिला कर इसे नीलगाय नाम ब्रिटिश लोगों ने दिया। ऐसा १८५७ के पश्चात हिन्दू मुस्लिम फाँक को और चौड़ा करने के लिये किया गया होगा। ब्रिटिश काल से पहले इसका नाम किसी स्रोत में नीलगाय मिले तो बताइये। 
कतिपय जन इसे जङ्‍गली गाय भी कहने लगे हैं जोकि ठीक नहींं है। गाय होने की प्राथमिक पहचान है - दूध हेतु पालतू बना पाना या वैसी सम्भावना का होना। घड़रोज में पात्रता होती तो मनुष्य कब का कर चुका होता। 

जङ्‍गली गाय की एक प्रजाति, जिसमें कि ऐसी पात्रता होती थी और जो पालतू बनायी जा सकती थी, अब भारत से लुप्त है किंतु मयान्मार और दक्षिण पूर्व एशिया में मिलती है और पालतू बनायी जा चुकी है।
https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/5/58/Feeding_the_Banteng.jpg
https://en.wikipedia.org/wiki/Banteng#/media/File:Banteng_at_Alas_Purwo.jpg
उसे बर्मा बैंटेंग Burma banteng (B. j. birmanicus) के नाम से जाना जाता है। 

घड़रोज की शस्य को नष्ट करने की प्रवृत्ति और बढ़ती संख्या किसानों के लिये घातक सिद्ध हुई है। अनेक क्षेत्रों से दलहन और तिलहन की खेती इसके कारण बंद की जा चुकी है। पोषण के लिये शाकाहारी प्रोटीन दालों में मिलता है जिनका उत्पादन अब अल्प होने से मूल्य तो बढ़े ही हैं, लोगों तक पहुँच भी सीमित हुई है। 


यही स्थिति सरसो की खेती में भी है। रिफाइण्ड और विभिन्न स्रोतों से प्राप्त मिश्रित तेलों के स्थान पर अब विशेषज्ञ सरसो के तेल के प्रयोग को प्रोत्साहित कर रहे हैं जोकि सामान्य जन को सहज ही उपलब्ध हो जाय यदि सरसो की खेती का क्षेत्रफल बढ़ जाय। 

घड़रोज के कारण सरसो की खेती का क्षेत्रफल घटा है और परिणामत: उत्पादन भी। गाय से धार्मिक मान्यता जुड़ी होने के कारण लोग इसे नहीं मारते। लोगों को यह शिक्षित करने की आवश्यकता है कि यह गाय नहीं है। साथ ही घड़रोज की संख्या पर नियंत्रण हेतु इसके वध सम्बन्धित विधिक और नियंत्रक प्रावधानों को सरलीकृत किये जाने की आवश्यकता भी है।     

शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

रोहिंग्या मुस्लिम जिहाद, हिंदू और केरल का भविष्य

ARSA (अराकान रोहिंग्या मुक्ति सेना या हरकत अल-यक़ीन या दीनी तबलीग) म्यान्मार सरकार के विरुद्ध लड़ता मुस्लिम जिहादी संगठन है जिसे समस्त विश्व के मुस्लिमों का स्वाभाविक प्रत्यक्ष और परोक्ष समर्थन प्राप्त है। 
लगभग 37000 वर्ग किलोमीटर में फैला अराकान प्रांत अब रेखाइन कहलाता है जो कि केरल से कुछ ही छोटा है और केरल की भाँति ही लम्बोतर समुद्र तट इसकी भौगोलिक विशेषता है। 
जैसा कि केरल में भी छिपे रूप में चल रहा है, आतंकवादी संगठन हरकत अल-यक़ीन का उद्देश्य मयान्मार से इस क्षेत्र को काट कर रेखाइन इस्लामी राष्ट्र की स्थापना है।रोहिंग्या मुसलमान अपने अन्य बिरादरान की तरह ही इस संगठन का प्रत्यक्ष और परोक्ष समर्थन करते हैं और इस कारण ही म्यान्मार द्वारा अपनी क्षेत्रीय सम्प्रभुता एवं अखण्डता को अक्षुण्ण रखने हेतु इस आतंकवादी संगठन के विरुद्ध की जा रही कार्यवाही में पिट रहे हैं। इस आतंकवादी संगठन के नेतृत्त्व में रोहिंग्या मुसलमानों ने वहाँ के बौद्ध निवासियों पर भयंकर अमानवीय अत्याचार किये हैं और किये का रहे हैं।

एक रोचक तथ्य यह है कि नीचतम निर्धनता के चंगुल में फँसे ये मुसलमान अपने बँगलादेशी मजहबियों की भाँति ही हिंदुओं के विरुद्ध जिहाद से नहीं चूकते!
इस्लाम का रुख इन्हें स्पष्ट है और ये मजहबी आदेश का पालन करते हुये वहाँ जो भी थोड़े हिंदू बचे हुये हैं, उनके समूल नाश में लगे हुये हैं अर्थात अपने गले फाँसी लगी है किन्तु तब भी काफिर हिंदुओं के विरुद्ध जिहादी हिंसा में लिप्त हैं।
एक उदाहरण पर्याप्त है। गत 25 अगस्त को सुनियोजित ढंग से घात लगा कर रोहिंग्या मुसलमानों ने म्यान्मार सेना की सीमा चौकियों और पुलिस पर आक्रमण किया, साथ ही हिंदू गाँवों को भी नहीं छोड़ा। 
रात के अंधेरे में इन मुसलमानों ने रेखाइन प्रांत के मौंग्डा क्षेत्र के गाँवों पर आक्रमण किया और गाँवों को घेर कर वहाँ 86 हिंदुओं की गला रेत कर और चाकू मार कर हत्या कर दी। फकीरा बाजार, रिक्तपुरा और चिकोनछरी गाँवों को आग लगा लगभग 200 परिवारों को गृहहीन कर दिया। अब वे लोग भी बँगलादेश में शरण लिये हुये हैं। 
मुसलमानों और बौद्धों के इस संघर्ष को ले कर भारत के जो कथित प्रगतिशील आतंकी मुसलमानों के लिये न्यायालय से ले कर विश्वविद्यालयों तक प्रदर्शन और समर्थन के भावनात्मक दबाव बनाने में लगे हुये हैं, वे वहाँ के हिंदुओं का नाम तक नहीं लेते! 
यह घटनाक्रम सीख है कि यदि मुस्लिम जिहाद पर नियंत्रण नहीं किया गया तो कल केरल की स्थिति भी काश्मीर और रेखाइन जैसी हो सकती है और यह भी कि वैश्विक मञ्च पर हिंदुओं की पीड़ा को उठाने वाला कोई नहीं है।
क्या भारत सरकार इस दिशा में नेतृत्व करेगी?

मंगलवार, 12 सितंबर 2017

FREE SEX और सूअरों के साथ मल्लयुद्ध

(मात्र वयस्कों के लिये) 
... 
लेख क्यों?

एक आदरणीय व्यक्ति हैं। फेसबुक पर टैग न करने के अनुरोध पर भी लोग उन्हें टैग कर ही देते हैं। वह निजता विकल्पों का संयोजन ठीक नहीं करते, क्यों? पता नहीं।
एक मृत वामाचारिणी के एक लेख पर द्रवण के पश्चात उसको उचित सिद्ध करते हुये किसी ललगँड़िये ने लिखा और उन्हें टैग किया तो मुझे पता चला। उत्तर वहाँ देना अर्थात उसका प्रचार, इसलिये उत्तर यहाँ दे रहा हूँ। उत्तर नहीं, एक कथ्य भर है, मक्कारी का उत्तर नहीं होता।

... 

वामाचारिणी ने संघियों को यह कहते हुये बलात्कार की उपज बताया था कि उनकी माताओं ने बिना फ्री सेक्स के उन्हें जन्म दिया। 
ललगँड़िये का बचाव यह था कि 'फ्री' शब्द का अर्थ ही संघियों को नहीं पता इसलिये वे मूर्ख हल्ला काटते हुये एक मृतक की छीछालेदर कर रहे हैं।
उसकी मक्कारी स्पष्ट न हुई हो तो आगे हो जायेगी।
... 
बहुधा मैं 15/8/1947 को करियप्पा का अपने सैनिकों से यह कहना उद्धृत करता रहता हूँ कि आज से हम मुफत, तुम मुफत, सारा देश मुफत। Free का अर्थ उन्हें मुफत ही आता था। उन्होंने बहुत ही उत्साह में आत्मीयता जोड़ने के लिये हिंदी न जानते हुये भी मुफत कह कर सबसे अपने को जोड़ लिया था। ... 
... 70 वर्षों के पश्चात ये हरामखोर वामी, जनता को 'फ्री' का शब्दार्थ बता रहे हैं! 
शब्द मक्कारों द्वारा बलत्कृत होने के लिये अभिशप्त होते हैं, वे मक्कार कई रूपों में आ सकते हैं - दिल्ली का ठग, पूर्ण परचून बाजपाई, रबिश, दिग्गी ... कोई भी हो सकते हैं। इस बार एक नया मक्कार मिला है - कबीर नामधारी। 
Free Sex दुधारी तलवार है, इस अर्थ में कि नारा उछालने वाला देशवासियों के नाड़े ढीले कर 'संभोग' की दुहाई देते हुये उन्हें मैथुन कारोबार में लगाने की इच्छा रखता है ताकि उसके जैसों की लिप्सा पूरी होती रहे और इस अर्थ में भी कि एक उन्नत व्यवस्था की जड़ में मट्ठा डाल उसके स्थान पर ह्रासशील व्यवस्था को स्थापित करने की महत्वाकांक्षा भी रखता है। 
बात व्यवहार का द्वैध आरम्भ से ही दिखता है किंतु सेक्स है ही ऐसी चीज कि सबका मन ललचता है सो ध्यान नहीं जाता।
Free Sex में Free का अर्थ उन्मुक्त वर्जनाहीन मैथुन की स्वतंत्रता है। मनुष्य की स्त्री के साथ ऋतु चक्र मासिक है और पुरुष तो सर्वदा रेडी है। प्रकृति में ऐसी व्यवस्था इसलिये विकसित हुई होगी की सर्वश्रेष्ठ फले फूले, खूब उपजे। साथ ही सर्वश्रेष्ठ ने यह समझ भी लिया होगा कि इसका नियमन न किया गया तो फलना फूलना तो दूर, अस्तित्त्व तक के लाले पड़ जायेंगे। ऐसे में ही विवाह, मर्यादायें, विवाह पूर्व संभोग का निषेध आदि आदि विकसित हुये। 
वामी की लिप्सा में ये आड़े आते हैं, उन्हें काटने के लिये शब्द और तर्क तो ढूँढ़ने ही होंगे। Free से अच्छा कोई नहीं। वह उसे दो अर्थों के साथ उछाल देता है - 
भीतर वाला अर्थ वीभत्स और बाहर वाला मधुमय चॉकलेटी। 
दिखाने को कहा जायेगा कि Free का अर्थ consensual है, आपसी सहमति से, Free will से है। विवाह के भीतर भी यदि ये नहीं हैं तो सम्बंध बलात्कार ही है। बहुत लुभावना तर्क है न? 
इस लुभावने तर्क की पैकिंग में धीरे से पूरी विवाह संस्था को ही कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है, उस संस्था को जिसके कारण मानव सभ्यता वर्तमान तक विकसित होती पहुँची है। 
क्यों? 
क्यों कि नियमन वाली काम ऊर्जा सृजन के नये आयाम ढूँढ़ कर मानव को संतुष्टि देती रही, उसे आगे बढ़ाती रही। 
... मृतका के लेख का बचाव करने वाला वह वामुल्ला यदि वस्तुनिष्ठ होता तो उसकी आलोचना में लिखता कि सबके शयन कक्षों में झाँक कर देखा है कि क्या तुम्हारी माँ के अतिरिक्त वे सभी महिलायें अपने पतियों द्वारा बलत्कृत हो रही थीं जिनकी संतानों को तुम ऐसा कह रही हो? 
तुम्हारे पास आँकड़े हैं क्या? 
उन महिलाओं ने बताये हैं क्या कि उनकी सन्तानें बलात्कार की संतानें हैं? 
सनसनी के लिये आप इतना बड़ा आधारहीन जुमला कैसे उछाल सकती हो? यह तो निकृष्टतम घृणा है। 
और तुम्हारी माँ तुम्हारे पिता द्वारा बलत्कृत नहीं हुईं, बलत्कृत होते हुये उसे गर्भ नहीं ठहर गया, इसका प्रमाण? 
इसके स्थान पर वह लोलुप उस लेख की रक्षा में यह तर्क देते हुये थूक रहा है कि लोगों की मानसिकता गंदी है, वे लोग सही अर्थ ले ही नहीं रहे! वह तो विवाह भीतर सहमति के आधार पर संभोग की बात कर रही थी! 
... 
दादा कोंड़के से किसी ने पूछा था कि तुम इतने द्विअर्थी संवाद क्यों लिखते हो? 
उसने पलट कर पूछा कि तुम दूसरा वाला ही क्यों 'पकड़ते' हो, पहला वाला क्यों नहीं? 
... 
वामपंथ के नाम पर कोंड़के छाप गलीज विदूषकों ने हमारे 'स्पेस' पर कब्जा कर लिया है। पुस्तकालय, समाचारपत्र, घर, चाय की दुकान, किटी पार्टियाँ, सिनेमा, टी वी, शिक्षा, सोशल मीडिया, विमर्श ... जो भी हमारे पास थे, वे सब अब उनके पास हैं और हमें पता तक नहीं! 
एक नया रोग दूसरा चल पड़ा है जिसे इधर वाले शास्त्रार्थ कहते हैं और उधर वाले बहस विमर्श। 
अरे! करने किससे हैं? सामने वाला पात्रता भी रखता है? जब मैं KoA, Kick on Ass(embly) कर लतिया देने को कहता हूँ तो मुझे स्पष्ट रहता है कि सामने वाला पात्र नहीं।
उस समय मैं इस लिजलिजी सज्जनता से किञ्चित भी विचलित नहीं होता कि बहस का उत्तर बहस से दो, तर्क रखो, शास्त्रार्थ करो। 
भैया! 
पता तो करो कि उसके मन में क्या है? उद्देश्य क्या है? पात्र है भी या नहीं? उसका एजेण्डा क्या है? 
यूँ ही सूअरों के कीचड़ में लोटने के बुलावे पर दौड़ न जाया करो। 
... 
अगली बार Free Sex पर, इस्लाम की अच्छाइयों पर, मानवाधिकारों पर ... सूअरों से मल्ल में मल मलवाने कब जा रहे हो? समाज सुधार तो तुम्हीं से होना है न! लग लो।

शुक्रवार, 8 सितंबर 2017

पोंटहा जरदोह

नाक से बहने वाले स्राव को देसज में पोंटा कहते हैं। कुछ बालक बहुधा इसकी अधिकता से पीड़ित रहते हैं। नाक बहती रहेगी, भगईकच्छा,बण्डीहाथ आदि आदि में पोंछते रहते हैं। कभी कभी तो गाल पर ही पोत देते हैं। ऐसा पोंटा सूख जाने पर भेभन कहलाता है और बहुत फूहड़ लगता है। कुछ ऐसे भी होते हैं जो उसका स्वाद पा लेते हैं। पोंटा बह कर ओठों तक आता है और झट से चट कर जाते हैं। ऐसे बालक पोंटहा कहे जाते हैं।  
जरदोह शब्द बड़ा गहन है। इसका संस्कृत मूल अभी तक नहीं मिल पाया है किंतु अभी के लिये यह मान लेते हैं कि जिद्दी का भोजपुरी रूप हैहालाँकि इसमें वह प्रभाव आ नहीं पा रहा।
कोई बालक यदि पोंटहा हो और जरदोह भी तो समस्या भीषण हो जाती है। ऐसे बालकों का रूदन परायों के लिये मनोरञ्जक और अपनों के लिये दु:ख का कारण होता है। जब रोना आरम्भ करेंगे तो घण्टों बिना आँसू बहाये भी रोते रहेंगे – ऊँ ऊँ ऊँ... आँखें भले सूखी रहेंनाक निरंतर प्रवाहमान रहती है और साथ ही स्थान स्थान पर पोंछने और चाटने की क्रिया भी सहज यांत्रिक भाव में चलती रहती है। बालहठ पकड़ लें तो संकट ही संकट,  कुछ भी कर लोमार पीट लोकोठरी में बंद कर दोघर से निकाल बाहर पथ पर बैठा दोसूखा रूदन चलता रहता है। घर वालों के पास एक ही विकल्प रहता है – छोड़ दोकुछ समय पश्चात जब समझ में आयेगा कि पोंटा चाटने से पेट नहीं भरता तो चुप हो भोजन करने आ जायेगा। यह उपाय सदा सफल होता हो. ऐसा भी नहीं है।
यदि किसी बड़े की टोकारी से पोंटहा जरदोह बालक के मन में रूदन के समय ही कोई धुन उतर आई तो तब तक निस्तार नहीं होता जब तक थक कर सो न जाय। धुन रचना किसी भी प्रकार की हो सकती है यथा ऊँ ऊँ ऊँ ऊ काहे टोकलेंहम त रोवबेहमार गइया बड़ी सुधइया आदि आदि। शब्द कभी कभी बड़े नवोन्मेषी और विचित्र हो जाते हैं।
एक बार ऐसा हुआ कि एक  पोंटहा जरदोह बालक ऐसे ही रो रहा था और उसके बाबा ने डाँट दिया – केतना पिन पिन लगवले बाबड़ा पिनकाह बा रेभागु इहाँ से! उसी समय बालक के ऊपर नवोन्मेष उतरा। उसने अपने बाबा को ही पिनकाह बता कर गायन आरम्भ किया – ऊँ ऊँ ऊँ बाबा पिनकाह हउवेंऊँ ऊँ ऊँ बाबा पिनकाह हउवें … घर के सभी लोगों को लाज लगने लगी। लोगों ने समझायामाँ ने चपत लगाई लेकिन धुन बंद नहीं हुई। क्रोध में आ कर माँ ने कहा कि आज इसका खाना पानी बंद्!
बाबा ने कहाअरे बहू जाये दलइका हे! बहू ने उत्तर दिया – लइका हे त का भइलकुछहू कहीबिहने चौकी पर हग्गे लागी तब
दिन भर 
ऊँ ऊँ ऊँ बाबा पिनकाह हउवें गाने के पश्चात बालक थक कर भुँइया ही सो गया। समूचा वदन भेभन पुता था जिस पर मक्खियाँ भनभना रही थीं। उसकी माँ धीरे से उठा भीतर ले गयी।
 बुढ़ऊ बाबा को सीख मिली – पोंटहा जरदोह बालक कुछ नहीं समझताएक बार जो धुन जीभ पर चढ़ गयी तो चढ़ गयी। उसके पश्चात पोंटा चाटते पोतते वह वही करता रहता है जो उसे करना होता है – सूखा गायन। बाबा ने एक और नाम दिया अटकल गरामोफोन - ऊँ ऊँ ऊँ बाबा पिनकाह हउवेंऊँ ऊँ ऊँ बाबा पिनकाह हउवेंऊँ ऊँ ऊँ बाबा पिनकाह हउवें ...

यदि आप समझते हैं कि अब वैसे बालक नहीं तो भ्रम में हैं। आस पास ढूँढ़ियेकोई न कोई मिल ही जायेगाअवश्य मिलेगा। 

गुरुवार, 7 सितंबर 2017

पोंटहा जरदोह

नाक से बहने वाले स्राव को देसज में पोंटा कहते हैं। कुछ बालक बहुधा इसकी अधिकता से पीड़ित रहते हैं। नाक बहती रहेगी, भगई, कच्छा, बण्डी, हाथ आदि आदि में पोंछते रहते हैं। कभी कभी तो गाल पर ही पोत देते हैं। ऐसा पोंटा सूख जाने पर भेभन कहलाता है और बहुत फूहड़ लगता है। कुछ ऐसे भी होते हैं जो उसका स्वाद पा लेते हैं। पोंटा बह कर ओठों तक आता है और झट से चट कर जाते हैं। ऐसे बालक पोंटहा कहे जाते हैं।  
जरदोह शब्द बड़ा गहन है। इसका संस्कृत मूल अभी तक नहीं मिल पाया है किंतु अभी के लिये यह मान लेते हैं कि जिद्दी का भोजपुरी रूप है, हालाँकि इसमें वह प्रभाव आ नहीं पा रहा।
कोई बालक यदि पोंटहा हो और जरदोह भी तो समस्या भीषण हो जाती है। ऐसे बालकों का रूदन परायों के लिये मनोरञ्जक और अपनों के लिये दु:ख का कारण होता है। जब रोना आरम्भ करेंगे तो घण्टों बिना आँसू बहाये भी रोते रहेंगे – ऊँ ऊँ ऊँ... आँखें भले सूखी रहें, नाक निरंतर प्रवाहमान रहती है और साथ ही स्थान स्थान पर पोंछने और चाटने की क्रिया भी सहज यांत्रिक भाव में चलती रहती है। बालहठ पकड़ लें तो संकट ही संकटकुछ भी कर लो, मार पीट लो, कोठरी में बंद कर दो, घर से निकाल बाहर पथ पर बैठा दो, सूखा रूदन चलता रहता है। घर वालों के पास एक ही विकल्प रहता है – छोड़ दो, कुछ समय पश्चात जब समझ में आयेगा कि पोंटा चाटने से पेट नहीं भरता तो चुप हो भोजन करने आ जायेगा। यह उपाय सदा सफल होता हो. ऐसा भी नहीं है।
यदि किसी बड़े की टोकारी से पोंटहा जरदोह बालक के मन में रूदन के समय ही कोई धुन उतर आई तो तब तक निस्तार नहीं होता जब तक थक कर सो न जाय। धुन रचना किसी भी प्रकार की हो सकती है यथा ऊँ ऊँ ऊँ ऊ काहे टोकलें, हम त रोवबे, हमार गइया बड़ी सुधइया आदि आदि। शब्द कभी कभी बड़े नवोन्मेषी और विचित्र हो जाते हैं।
एक बार ऐसा हुआ कि एक  पोंटहा जरदोह बालक ऐसे ही रो रहा था और उसके बाबा ने डाँट दिया – केतना पिन पिन लगवले बा? बड़ा पिनकाह बा रे, भागु इहाँ से! उसी समय बालक के ऊपर नवोन्मेष उतरा। उसने अपने बाबा को ही पिनकाह बता कर गायन आरम्भ किया – ऊँ ऊँ ऊँ बाबा पिनकाह हउवें, ऊँ ऊँ ऊँ बाबा पिनकाह हउवें … घर के सभी लोगों को लाज लगने लगी। लोगों ने समझाया, माँ ने चपत लगाई लेकिन धुन बंद नहीं हुई। क्रोध में आ कर माँ ने कहा कि आज इसका खाना पानी बंद्!
बाबा ने कहा, अरे बहू जाये द, लइका हे! बहू ने उत्तर दिया – लइका हे त का भइल? कुछहू कही, बिहने चौकी पर हग्गे लागी तब?
दिन भर
ऊँ ऊँ ऊँ बाबा पिनकाह हउवें गाने के पश्चात बालक थक कर भुँइया ही सो गया। समूचा वदन भेभन पुता था जिस पर मक्खियाँ भनभना रही थीं। उसकी माँ धीरे से उठा भीतर ले गयी।
 बुढ़ऊ बाबा को सीख मिली – पोंटहा जरदोह बालक कुछ नहीं समझता, एक बार जो धुन जीभ पर चढ़ गयी तो चढ़ गयी। उसके पश्चात पोंटा चाटते पोतते वह वही करता रहता है जो उसे करना होता है – सूखा गायन। बाबा ने एक और नाम दिया अटकल गरामोफोन - ऊँ ऊँ ऊँ बाबा पिनकाह हउवें, ऊँ ऊँ ऊँ बाबा पिनकाह हउवें, ऊँ ऊँ ऊँ बाबा पिनकाह हउवें ...

यदि आप समझते हैं कि अब वैसे बालक नहीं तो भ्रम में हैं। आस पास ढूँढ़िये, कोई न कोई मिल ही जायेगा, अवश्य मिलेगा। 

सोमवार, 4 सितंबर 2017

अकाल में शोषण

पुराने साहित्य में लम्बेऽऽऽऽ चले अकाल, दुर्भिक्ष आदि की बातें मिलती हैं। हम भी अकाल काल में रह रहे हैं। इससे पहले कि मैं आगे लिखूँ, स्पष्ट कर दूँ कि हम हैं, यह एक तथ्य ही यह दर्शाने के लिये पर्याप्त है कि चाहे जितने भयानक हों, अकाल हारते रहे हैं। यह अकाल भी हारेगा, आशा बलवती है।
जिस अकाल की बात कर रहा हूँ, पानी, भूमि, पोषण के अकाल के समांतर एक बहुत बड़ा अकाल है नवोन्मेष, दुर्धर्ष कर्मठता, सत्यनिष्ठा और नेतृत्त्व का अकाल। हमने स्वयं कुछ न कर, दूसरों के लिये दायित्त्व निश्चित कर रखें हैं जिनमें सरकारें प्रमुख हैं, वे सरकारें जो हमसे ही निकलती हैं। हम उन ठगों को अपना सरकार बनाते हैं जिन्हें अंग्रेजी में स्ट्रीट स्मार्ट कहा जाता है।
उनके कुकर्मों और काहिली से संत्रस्त हममें जब तब अकाल की अनुभूति एक समूह के स्तर पर सांद्र होती रहती है। उदर में अम्ल, पित्त बढ़ जाते हैं, खट्टी डकारें आने लगती हैं; अपान प्राण को संकट में डालने लगता है और तब कोई एक स्ट्रीट स्मार्ट हमारी मन:स्थिति भाँप कर मसीहा पैगम्बर बन सामने आता है – विनाशाय दुष्कृतां और हम लोट जाते हैं। वह अपने समुदाय के अन्यों से किञ्चित आगे होता है – उसे नारे गढ़ने, उपयुक्त समय पर उछालने और उपयुक्त समय पर ही पुराने को शांतिपूर्वक समय के कूड़ेदान में डाल, दूसरा नया नारा गढ़, उछाल चक्रीय प्रक्रिया बनाये रखने की विद्या आती है।
50 वर्षों के पश्चात लोग हमारे बारे में क्या सोचेंगे, सोच कर हँसेंगे या रोयेंगे, सोच सोच मुझे ग्लानि होती है। अन्ना, दिल्ली का ठग, जाने कितने बाबा बाबी, शाह मोदी ... बहुरुपिये स्ट्रीट स्मार्टों पर हमारे विश्वास न्यौछावर की बड़ी ही लम्बी शृंखला है और उनसे उकता कर मनमोहन जैसी कठपुतलियों को आसनी देने की भी।
ये वे जन हैं जो हमारा अकाल में शोषण करते हैं और प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से बताते रहते हैं – देख ले! हमारा कोई विकल्प नहीं।
उन्हें पता होता है कि शोषित होने के लिये हमारे पास विकल्प ही विकल्प हैं, देश स्ट्रीट स्मार्टों से भरा पड़ा है।
उन्हें चिंता रहती है कि कोई अन्य उनका स्थान न ले ले, इसलिये वे उछलते हुये नये नये नारे उछालते रहते हैं। हमारा ध्वंस ही उनका निर्माण होता है और हम उसे एक दूरगामी शुभ की प्रक्रिया का अंग मान आस लगाये सहते रहते हैं , हमारा शोषण होता रहता है, अकाल जारी रहता है क्योंकि हम अहिंसक स्वेद बहाने को भी संत्रास समझते हैं, रक्त तो धमनियों में बचा ही नहीं!
हम अकाल के वे जाली व्याध हैं जो हिंस्र पशुओं को जाल में फँसादेख निहाल होते हैं और अपनी चबाई जाती हड्डियों की कुड़ुर कुड़ुर को मुक्ति का संगीत बताते एक दूसरे को अहो रूपं अहो ध्वनि की अरण्य किलकारियों से अभिशप्त करते जीतेऔर जीतते हैं।   

हमारे भीतर का अकाल ही हमारे शोषण को पुष्ट करता है, निरंतर उसका आकर्षण बनाये रखता है कि नये नये स्ट्रीट स्मार्ट आते रहें और चक्र चलता रहे। 
हमें आत्ममंथन की आवश्यकता है, आज से उपयुक्त कोई समय नहीं।