बुधवार, 16 जनवरी 2019

Mahabharat Shanti Parv महाभारत : शांतिपर्व - 1 [राजा रञ्जयति प्रजाः]

भारत का महाभारत युद्ध अभूतपूर्व विनाश के साथ समाप्त हो चुका था। भरतवंश के उत्तराधिकारी युधिष्ठिर का मन खिन्न था, उचाट। श्रीकृष्ण ने उन्हें शरशय्या पर बुझी हुई अग्नि के समान पड़े वृद्ध भरतवंशी भीष्म के पास जा कर शिक्षा लेने को कहा, कहा कि इस समय भीष्म मेरा ध्यान कर रहे हैं अत: मेरा मन भी उन्हीं में लगा है। 
कहा कि वसिष्ठ मुनि द्वारा शिक्षा प्राप्त भीष्म के अवसान के साथ ही ज्ञान का प्रकाश अस्त हो जायेगा अत: मैं तुम्हें उनके पास चलने को कहता हूँ। 
श्रीकृष्ण ने पास पहुँच कर भीष्म से कहा कि युधिष्ठिर शोकहत हो गये हैं, उन्हें समाधियुक्त धर्मार्थ का सत्य उपदेश करें, इन्हें शोक से मुक्त करें। 
भीष्म ने उत्तर दिया कि कृष्ण, आप के होते हुये यह काम मैं करूँ? गुरु के रहते हुये शिष्य उपदेश देने का अधिकारी भी है? मेरी देह बाणों से पीड़ित है, बुद्धि काम नहीं कर रही, न दिशाओं का ज्ञान है, न आकाश का, न पृथ्वी का। मैं तो केवल आप के प्रभाव से यहाँ बना हुआ हूँ। 
कृष्ण ने उन्हें समस्त दोषों से मुक्त करने हेतु वर दिया, उनकी बुद्धि को सतोगुण में स्थिर कर दिव्य दृष्टि दी तथा अगले दिन आने की कह युधिष्ठिर सहित विदा ले ली। 
वैशम्पायन बताते हैं कि लौट कर कृष्ण एवं पाण्डव ने भवन में ऐसे प्रवेश किया मानों श्रम से थके सिंह अपनी गुहा में प्रविष्ट हो रहे हों - श्रमान्‍विता मृगपतयो गुहा इव
... 
अगले दिन वहाँ पहुँचने पर पाण्डवों ने दाहिने हाथ उठा कर महर्षियों का अभिवादन किया। महर्षियों से घिरे भीष्म इस प्रकार दिख रहे थे जैसे देवताओं से घिरे ब्रह्मा हों। नक्षत्रों से घिरे चंद्रमा की भाँति भाइयों से घिरे युधिष्ठिर ने देखा, कुरुवंश का शलाका पुरुष शरतल्प पर शयन करता ऐसा दिख रहा था मानों सूर्य आकाश से गिर पड़ा हो - शरतल्पे शयानं तमादित्यं पतितं यथा
युधिष्ठिर भय से काँप उठे - भयाच्चागतसाध्वस:
श्रीकृष्ण ने भीष्म से उनकी कुशल पूछी - रात आप ठीक से सोये तो? बुद्धि निर्मल तो है? कोई ग्लानि तो नहीं? मन व्याकुल तो नहीं? 
भीष्म ने उत्तर दिया, हे वार्ष्णेय! तुम्हें देख कर मेरे समस्त दोष दूर हो गये। मैं भूत, भविष्य, भव सब देख रहा हूँ। वेदोक्त धर्म एवं वेदांत को भी साक्षात देख पा रहा हूँ। शिष्ट जन द्वारा बताया धर्म मुझे स्पष्ट है। 
हे जनार्दन!‍ देश, जाति, कुल एवं कुलधर्म का भी मुझे ज्ञान है। आश्रम धर्म एवं राजधर्म मुझे प्रकाशित हैं। जिस विषय में जो कुछ भी कहने योग्य है, मैं कहूँगा। आप के निरंतर स्मरण से मैं युवा हो गया हूँ - युवेवास्मि। आप के प्रसाद से वक्ता हो उपदेश देने में मैं समर्थ हूँ। 
तब भी मैं जानना चाहता हूँ कि आप पाण्डव युधिष्ठिर को स्वयं उपदेश क्यों नहीं करते? माधव, शीघ्र बताइये। 
स्वयं किमर्थं तु भवाञ्श्रेयो न प्राह पाण्डवम् । 
किं ते विवक्षितं चात्र तदाशु वद माधव ॥ 

वासुदेव ने उत्तर दिया, हे कौरव ! यश एवं श्रेय का मूल मैं हूँ। सत एवं असत पदार्थ मुझसे ही उत्पन्न हैं। चंद्रमा शीतल किरणों से सम्पन्न है, यह कहने पर किसे विस्मय होगा ! सम्पूर्ण यश से सम्पन्न मुझसे उपदेश प्राप्त कर किसे आश्चर्य होगा ! मुझे आप के यश की प्रतिष्ठा करनी है। जब तक यह पृथ्वी रहेगी, आप की कीर्ति सम्पूर्ण लोकों में रहेगी। आप पाण्डव युधिष्ठिर के पूछने पर जो भी कहेंगे, वह वेद सिद्धांत की भाँति इस वसुधा पर मान्य होगा - वेदप्रवाद इव ते स्थास्यते वसुधातले। 
मरने से बचे हुये राजन्य गण आप के पास धर्म का अनुनय ले कर बैठे हैं, उन्हें बतायें। आप वृद्ध हैं, श्रुति आचार से समन्‍वित हैं, राजधर्म के ज्ञाता सदाचारी हैं। राजन्य को उसी प्रकार उपदेश दें जिस प्रकार एक पिता पुत्र को देता है। इसे धर्म बताया गया है कि सुनने की इच्छा रखने वाले को श्रेष्ठ विद्वान पूछने पर उपदेश दे। 
भीष्म ने सहर्ष स्वीकृति देते हुये युधिष्ठिर की प्रशंसा में जो शब्द कहे, वे प्रकारान्तर से मानों गम्भीर विषयों पर प्रश्न करने की पात्रता के निकष हैं : 
सर्वेषां दीप्तयशसां कुरूणां धर्मचारिणाम्
यस्य नास्ति समः कश्चित्स मां पृच्छतु पाण्डवः
धृतिर्दमो ब्रह्मचर्यं क्षमा धर्मश्च नित्यदा
यस्मिन्नोजश्च तेजश्च स मां पृच्छतु पाण्डवः
सत्यं दानं तपः शौचं शान्तिर्दाक्ष्यमसंभ्रमः
यस्मिन्नेतानि सर्वाणि स मां पृच्छतु पाण्डवः
यो न कामान्न संरम्भान्न भयान्नार्थकारणात्
कुर्यादधर्मं धर्मात्मा स मां पृच्छतु पाण्डवः
संबन्धिनोऽतिथीन्भृत्यान्संश्रितोपाश्रितांश्च यः
संमानयति सत्कृत्य स मां पृच्छतु पाण्डवः
सत्यनित्यः क्षमानित्यो ज्ञाननित्योऽतिथिप्रियः
यो ददाति सतां नित्यं स मां पृच्छतु पाण्डवः
इज्याध्ययननित्यश्च धर्मे च निरतः सदा
शान्तः श्रुतरहस्यश्च स मां पृच्छतु पाण्डवः

कृष्ण ने कहा कि युधिष्ठिर तो लज्जा से ग्रस्त हैं कि मुझसे इतना बड़ा जगत संहार हो गया, वे तो शाप के भय से भयभीत हैं, अत: नहीं पूछ रहे - अभिशापभयाद्भीतो भवन्तं नोपसर्पति। 
... 
वासुदेव की भूमिका पूर्ण हुई। अपने ही रक्त, पीव में सना पुरा-भारत भविष्य के भारत को उपदेश देने की भङ्गिमा में आ गया। वह रणक्षेत्र जो शवभक्षी जंतुओं का मोदस्थल बना हुआ था, समस्त महर्षियों एवं स्वयं भगवान की उपस्थिति में, ध्वंस की पृष्ठभूमि में, शान्ति के उपदेश का, प्रजा के दुख को राजा कैसे शांत रखे, इस उपदेश का साक्षी हुआ, नाम पड़ा - शांतिपर्व। 
पहला श्लोक, दो अग्रणी वर्णों के धर्म क्या हैं, बताते हुये निस्सृत हुआ जो कृष्ण को सम्बोधित था। जैसे कभी अर्जुन ने युद्ध आरम्भ से पूर्व गुरु द्रोण के पाँव शर संधान कर आशीर्वाद लिया था, वैसे ही भीष्म ने पहला श्लोक गुरु कृष्ण को धर्म बताते हुये कहा : 
ब्राह्मणानां यथा धर्मो दानमध्ययनं तपः
क्षत्रियाणां तथा कृष्ण समरे देहपातनम्

श्लोक युधिष्ठिर हेतु अभयदान था कि पूछो वत्स, जो कुछ पूछना है। युधिष्ठिर पास गये तो उनका मस्तक सूँघ पास बैठा लिये - तात! मैं स्वस्थ हूँ, निर्भय हो कर प्रश्न करो - पृच्छ मां तात विस्रब्धं मा भैस्त्वं कुरुसत्तम। 
युधिष्ठिर ने पहला प्रश्न पूछा, धर्मज्ञ विद्वानों का कहना है कि राजाओं का धर्म परम धर्म है, मैं इसे बहुत बड़ा भार मानता हूँ। 
हे पार्थिव! मुझे राजधर्म का उपदेश करें : 
राज्यं वै परमो धर्म इति धर्मविदो विदुः
महान्तमेतं भारं च मन्ये तद्ब्रूहि पार्थिव

राजधर्म में धर्म, अर्थ एवं काम तीनों का समावेश है - त्रिवर्गो हि समासक्तो राजधर्मेषु। मोक्ष भी उसमें समाविष्ट है। अश्व एवं हाथी को नियंत्रित रखने हेतु जिस प्रकार वल्गा एवं अङ्कुश आवश्यक हैं, उसी प्रकार लोक मर्यादा हेतु राजधर्म आवश्यक है - नरेन्‍द्रधर्मो लोकस्य तथा प्रग्रहणं स्मृतम्। 
राजा प्रमादग्रस्त हो जाय तो समस्त व्यवस्था बिगड़ जाये, सभी व्याकुल हो जायँ। जिस प्रकार सूर्य अंधकार का नाश कर देते हैं, उसी प्रकार राजधर्म मनुष्य के अशुभ आचरणों का निवारण कर देता है ...
... कुरुवंश की दो पीढ़ियाँ एक दूसरे के समक्ष आहत समय पर औषधि लेप की चिंता में बैठी थीं। बताने वाला वह था जिसने सक्षम होते हुये भी राजसिंहासन का त्याग कर दिया था, जिसने मर्यादा की वल्गा तोड़ने की अपेक्षा अशुभ का पोषण रक्षण करना चुना था, जो शरशय्या पर मृत्यु की प्रतीक्षा में था। पूछने वाला भी वृद्ध हो चला था, जाने कितने नरसंहार की सञ्चित पीड़ा के बीच उसके मन में राजसिंहासन की अपेक्षाओं को ले कर शंकायें थीं, जिसका विश्वास डोल रहा था किंतु धर्मबुद्धि तब भी स्थिर थी। मृत्यु को भी वश में करने वाला आहत प्रपितामह धर्म उपदेश देने लगा। युधिष्ठिर जैसा सुपात्र एवं जिज्ञासु श्रोता उसे कभी मिला ही नहीं था। युद्ध पीछे रह गया, प्रशान्‍त ज्ञानसरि बह चली...
राज्ञा रञ्जनकाम्यया - राजा को प्रजा के रञ्जन की कामना से देवता एवं ब्राह्मणों के प्रति यथाविधि व्यवहार करना चाहिये। युधिष्ठिर ! तुम सदैव पुरुषार्थ हेतु प्रयत्नशील रहना। उसके बिना प्रारब्ध राजाओं का प्रयोजन सिद्ध नहीं कर सकता - न ह्युत्थानमृते दैवं राज्ञामर्थं प्रसादयेत्। मैं पुरुषार्थ को ही प्रधान मानता हूँ - पौरुषं हि परं मन्ये। आरम्भ किया हुआ कार्य पूरा न हो तब भी तुम उसका दु:ख न मान अपने पुरुषार्थ में लगे रहना - विपन्ने च समारम्भे संतापं मा स्म वै कृथा:
राजा के लिये सत्य ही परम धन है, ऋषियों हेतु भी - ऋषीणामपि राजेन्‍द्र सत्यमेव परं धनम्।
गुणवाञ्शीलवान्दान्तो मृदुर्धर्म्यो जितेन्द्रियः
सुदर्शः स्थूललक्ष्यश्च न भ्रश्येत सदा श्रियः
आर्जवं सर्वकार्येषु श्रयेथाः कुरुनन्दन
पुनर्नयविचारेण त्रयीसंवरणेन च
मृदुर्हि राजा सततं लङ्घ्यो भवति सर्वशः
तीक्ष्णाच्चोद्विजते लोकस्तस्मादुभयमाचर

गुणी, शीलवान, मन एवं इंद्रियों का संयमी, प्रसन्नमुख एवं दानी राजा की श्री भ्रष्ट नहीं होती। समस्त कार्यों में सरलता एवं कोमलता का अवलम्बन करे किंतु अपने दोष, अपनी मंत्रणा एवं अपने कार्यकौशल; इन तीन में संयम रखे, गोपनीयता रखे तथा सरलता का आश्रय न ले। जो राजा सदैव मृदु रहता है, उसकी आज्ञा का सभी उल्लङ्घन कर जाते हैं तथा जो सदैव तीक्ष्ण एवं कड़ा रहता है, उससे सभी उद्विग्न रहते हैं। राजा को आवश्यकतानुसार कठोरता एवं कोमलता, दोनों का अवलम्बन लेना चाहिये। 
ब्राह्मण पूजनीय है किंतु यदि वह विनाश को उद्यत हो या शस्त्र उठा कर आक्रमण करने आ रहा हो तो उसके वेदांत पारग होने पर भी उसे बंदी बना लेना चाहिये - उद्यम्य शस्त्रमायान्तमपि वेदान्तगं रणे । निगृह्णीयात्स्वधर्मेण धर्मापेक्षी नरेश्वरः ॥
दुर्गेषु च महाराज षट्सु ये शास्त्रनिश्चिताः
सर्वेषु तेषु मन्यन्ते नरदुर्गं सुदुस्तरम्
तस्मान्नित्यं दया कार्या चातुर्वर्ण्ये विपश्चिता
धर्मात्मा सत्यवाक्चैव राजा रञ्जयति प्रजाः

महाराज युधिष्ठिर ! 
रक्षा में समर्थ छ: प्रकार के दुर्ग बताये गये हैं - मरु (जलहीन भूमि क्षेत्र), जल, पृथ्वी, वन, पर्वत एवं मनुष्य । इन सबमें नरदुर्ग अर्थात मनुष्यों द्वारा प्रदत्त रक्षा ही प्रधान है। शास्त्रों को जानने वाले विद्वान समस्त दुर्गों में मानव दुर्ग को ही अत्यंत दुर्लङ्घ्य मानते हैं अर्थात किसी राज्य के यदि समस्त वर्गों के मनुष्य राजा से संतुष्ट हैं तो वे ही उसके सबसे सुदृढ़ दुर्ग हैं। 
अत: विद्वान राजा को चारो वर्णों पर सदा दया करनी चाहिये। धर्मात्मा एवं सत्यवादी राजा ही प्रजा को प्रसन्न रख पाता है। 

_____________

(क्रमश:) 

रविवार, 13 जनवरी 2019

Bhanu Saptami भानु सप्तमी के व्याज से गणित चर्चा

आज भानु सप्तमी है। जिस सप्तमी तिथि को रविवार पड़ता है, वह भानुसप्तमी कहलाती है। क्यों भला?
आप इतना जो जानते ही हैं कि अपने यहाँ दिन का आरम्भ सूर्योदय से माना गया है अर्थात प्रत्येक दिन सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक होता है। सरल प्रेक्षण से आरम्भ करते हैं। पूर्णिमा तो जानते ही होंगे जिस दिन चंद्रमा अपने पूर्ण रूप में होते हैं। आप यह भी जानते हैं कि किसी भी बिंदु पर एक चक्र ३६० अंश का कोणीय घुमाव लिये होता है तथा किसी भी सीधी रेखा का अर्थ उसके किसी भी बिंदु पर १८० अंश होता है अर्थात बिंदु पर होने वाले पूरे कोणीय घुमाव का आधा। 

पूर्णिमा के दिन साँझ को खुले में निकल लें तो आप देख पायेंगे कि जब पश्चिम में सूर्य का गोला अस्त हो रहा होता है तो उसके ठीक सामने पूरब में पूर्ण चंद्र का बड़ा सा गोला उदित हो रहा होता है। बड़ा ही मनोहारी दृश्य होता है। उस समय दोनों आप जहाँ खड़े हैं उस बिंदु के दोनो छोरों पर एक रेखा में अर्थात १८० अंश के कोण पर होते हैं। आगे चंद्र का प्रकाशित भाग प्रतिदिन घटने लगता है जिसे कला कहते हैं।
यदि आप प्रतिदिन देखते रहेंगे तो पायेंगे कि चंद्र का उदय सूर्यास्त के पश्चात प्रतिदिन बिलम्ब से होने लगा है तथा क्रमश: चंद्रोदय बिंदु पश्चिम की दिशा में खिसकने लगा है। यही कृष्ण पक्ष है, चंद्रमा घटते जाते हैं। एक दिन ऐसा आता है कि जब चंद्र दिखते ही नहीं अर्थात सूर्य के साथ ही हो जाते हैं। एक चक्र पूरा हो कर ३६० अंश का कोण भी पूरा हो जाता है तथा अदृश्य हो जाते हैं। यही स्थिति अमावस्या कहलाती है आरम्भ ० तथा अंत ३६० अंश सम्पाती। चूँकि इस दिन सूर्य एवं चंद्र 'साथ' होते हैं, अमावस्या को बहुत ही शाक्त साधनाओं के लिये उपयुक्त माना जाता है। 
सूर्योदय से सूर्योदय तक दिन का चंद्र से कुछ नहीं लेना देना, वह चलता रहता है। हम सूर्य एवं चंद्र की परस्पर कोणीय स्थिति का दैनिक परिवर्तन देख चुके हैं। ० से पुन: ३६० अंश तक घूम कर वहीं पहुँचने में चंद्र को लगभग २९.५ दिन लगते हैं अर्थात १८० अंश का अंतर होने में १४.७५ दिन जिसे लगभग कर सुविधा के लिये १५ दिन मान कर ३० दिन का पूरा मास (मास का मा चंद्रमा के मा से सम्बंधित है :) चंदा मामा ऐसे ही हुये।) तथा १५ दिन का एक पक्ष माना जाता है - शुक्ल पक्ष जब चंद्र अमावस्या से बढ़ते होते हैं, कृष्ण पक्ष जब पूर्णिमा से आगे घटते होते हैं।
तो ३६० अंश ३० दिन अर्थात १२ अंश प्रतिदिन का अंतर। सूर्य एवं चंद्र के बीच यही १२ अंश का अंतर होने में लगा समय एक तिथि कहलाता है अर्थात जब पक्ष की तिथि बताई जाये तो आप चंद्रमा एवं सूर्य के बीच का कोण जान लेंगे। उदाहरण के लिये आक शुक्ल पक्ष की सप्तमी है तो चंद्रमा एवं सूर्य के बीच १२x७ = ८४ अंश का कोण होगा। कृष्ण पक्ष की होती तो १८०+८४ अर्थात २६४ अंश का कोण होता।   
समस्या पूर्ण ३० दिन नहीं होने से आती है जिसके समायोजन की अपनी विधियाँ हैं, उसमें नहीं जायेंगे। केवल इतना जान लें कि विश्व की सबसे वैज्ञानिक भारतीय गणना पद्धति में इसे चतुराई से उदया तिथि के माध्यम से सुलझा लिया गया। तिथि वही मानी जाती है जिसमें सूर्योदय होता है अर्थात आवश्यक कोण का अंतर हो जाने के पश्चात के सूर्योदय का दिन उस तिथि का माना जायेगा। यदि सूर्योदय के पश्चात आवश्यक कोण अंतर आता है तो पुरानी तिथि ही मानी जायेगी। इस गणित एवं प्रकृति के संयोजन में कभी कभी ऐसा भी हो जाता है कि पुरानी तिथि में सूर्योदय हुआ तथा अगले सूर्योदय के पूर्व ही कोणीय स्थिति पूर्ण हो अगली तिथि हो गई अर्थात बीच वाली तिथि में सूर्योदय हुआ ही नहीं ! इसे क्षय तिथि कहा जाता है तथा उसकी गिनती होती ही नहीं! 
ऐसा भी होता है कि एक ही तिथि में दो सूर्योदय हो गये। इसे अधिक तिथि या तिथि विस्तार कहते हैं। इस प्रकार वह आधे दिन का अंतर अपने आप समायोजित होता रहता है। 
तो आप ने दिन जान लिया, तिथि जान लिया। 
अब आते हैं वार पर, रविवार, सोमवार, ... कुल सात वार। ये सात ही क्यों हैं? गणित के बारे में कहा जाता है कि प्रकृति से गणित है, गणित से प्रकृति है। कैसे? देखते हैं। पृथ्वी सूर्य का एक चक्र ३६५ से अधिक एवं ३६६ से अल्प दिनों में पूरी करती है। मास के ३० से भाग दे तो १२ की संख्या आती है। यही १२ मास हैं या द्वादश आदित्य भी। सूर्य नमस्कार में १२ नामों से मंत्र हैं न ! 
केवल चंद्र गति देखें तो १२ मास में केवल १२x२९.५ = ३५४ दिन ही हुये। ३५४ एवं ३६६ का औसत हुआ .... हाँ, ३६०। तो किसी बिंदु पर बनने वाले कोण का ३६० भागों में विभाजन इस कारण से है जिससे कि सुविधा रहे, एक तिथि १२ अंश, १२ महीने, ३६० अंश, वर्ष में ३६० दिन, आगे संयोजन आदि सब एक दूसरे से जुड़े हुये हैं जिनके मूल में प्रकृति का प्रेक्षण है तथा प्रकृति का गणित से बंधन भी। 
सात पर लौटते हैं। इसका रहस्य पृथ्वी अर्थात प्रेक्षक के सापेक्ष ग्रहों की गति से जुड़ा है। पुरातन समय में ज्ञात ग्रहों (ग्रह की आज की परिभाषा न लें) को उनकी गति के घटते क्रम में रखें तो यह स्थिति बनती है: 
शनि, गुरु, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध, चंद्र। दिनमान को इनसे जोड़ दिया गया। आप के पास दो पद्धतियाँ थीं- सौर एवं चंद्र अर्थात आदित्य एवं सोम। दिन नाम का आरम्भ आदित्यवार (अतवार, इतवार) या सोमवार से कर सकते हैं। चलिये अतवार से करते हैं। दिन के पहले होरा (Hour, कभी पूरा होने पर सूचित करने हेतु नगर चतुष्पथ पर घण्टा बजाया जाता था) को सबसे तीव्र गति वाले चंद्र से जोड़ दें, अगले घण्टे को अगले तीव्र बुध से, अगले को शुक्र से ... उसी प्रकार बढ़ते जायें तो पायेंगे कि दिन के २४ घण्टे पूरे होने पर अगले दिन का पहला होरा चंद्र पर आयेगा अर्थात पहले घण्टे के आधार पर उस दिन का नाम हुआ सोमवार, आगे ४८ घण्टे अर्थात दो दिन बीतने पर अगले दिन के पहले घण्टे का स्वामी हो जायेगा मंगल अर्थात वह दिन मंगलवार। इसी प्रकार चक्रीय क्रम में दिनों के नाम होते जायेंगे। 
यह सात की संख्या भी गणित एवं प्रकृति के परस्पर सम्बंध को दर्शाती है। सूर्य रश्मियों में सात रंग होते हैं। बारह एवं सात का योग उन्नीस होता है जो कि चंद्र गति के एक महत्त्वपूर्ण चक्र के वर्षों से जुड़ा है। प्रत्येक १९ वर्ष पर चंद्र तिथि एवं सौर दिनांक अपना साथ दुहराते चलते हैं। 
बारह में से सात घटायेंगे तो ५ होगा, पाँच तत्त्व। वत्सर भी पाँच नाम से। दो ऋतुओं को मिला कर एक कर छ: के स्थान पर पाँच ऋतुओं की बात वैदिक साहित्य में खूब मिलती है।
शतपथ ब्राह्मण में वर्षा एवं शरद को मिला कर पाँच ऋतुओं की बात की गयी है:
लोको॑वसन्त॑ऋतुर्य॑दूर्ध्व॑मस्मा॑ल्लोका॑दर्वाची॑नमन्त॑रिक्षात्त॑द्द्विती॑यम॑हस्त॑द्वस्याग्रीष्म॑ऋतु॑रन्त॑रिक्षमेवा॒स्य मध्यमम॑हरन्त॑रिक्षमस्य वर्षाशर॑दावृतू य॑दूर्ध्व॑म्न्त॑रिक्षादर्वाची॑नं दिवस्त॑च्चतुर्थम॑हस्त॑द्वस्य हेमन्त॑ऋतुर्द्यउ॑रेवा॒स्य पञ्चमम॑हर्द्यउ॑रस्य शि॑शिर ऋतुरि॑त्यधिदेवतम्।
शतपथ के पुरुषमेध का प्रारम्भ पाँव से होता है और पाँव है ऋतुओं में सर्वश्रेष्ठ बसंत! शतपथ का वर्षा और शरद को मिलाना उस ऋग्वैदिक कूट कथ्य से भी जुड़ता है जिसमें इन्द्र वृत्र को मार कर सूर्य और वर्षा दोनों को नया जीवन देते हैं। पुरुषमेध में यह देह का केन्द्रीय भाग अर्थात कटि है।
ऐसा क्यों? इसमें उस समय की स्मृति है जब वर्ष का आरम्भ वर्षा से था। शरद मिला देने पर शरद विषुव जोकि वसंत विषुव से छ: महीने के अंतर पर पड़ता है, वर्षा के साथ आ जाता है, नाक्षत्रिक एवं ऋत्विक प्रेक्षणों के सम्मिलन से सुविधा हो जाती है।
ऐतरेय ब्राह्मण में हेमंत एवं शिशिर को मिला दिया गया है: हेमन्‍तशिशिरयो: समासेन तावान्‍संवत्सर: संवत्सर: प्रजापति: प्रजापत्यायतनाभिरेवाभी राध्नोति य एवं वेद।
१९ में इस ५ का गुणा करेंगे तो आयेगा ९५। यह संख्या एक युगमान है जिसमें सौर चंद्र गतियों का सूक्ष्म समायोजन किया जाता था। 
१२ का पहाड़ा देखें तो अद्भुत संयोग मिलेंगे - १२ आदित्य; २४ गायत्री मंत्र अक्षर, ३६ तैंतिस देवता एवं त्रिदेव; ४८ सात गुना सात ४९ मरुतों से मात्र एक की न्यूनता; ६० बृहस्पति एवं शनि गति समन्‍वित संवत्सर नाम; ७२ ब्रह्मा के एक चक्र में चतुर्युगी संख्या ७१ एवं ७२ के बीच; ८४ योनिलक्ष; ९६ ९५ वर्ष के शोधन चक्र से आगे की संख्या; १०८ पर कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं है।  अन्य अनेक उदाहरण हैं, जिन्हें रुचि हो वे अग्निचयन एवं श्रौत सत्रों की वेदी का गणित ब्राह्मण ग्रंथों से पढ़ें, शुल्व सूत्र देखें। कहने का अर्थ मात्र यह कि जिस प्रकार अंकगणित का उपयोग ज्योतिष में किया जाता था, वह आज कल की प्रचलित शिक्षा पद्धति से लुप्त है, प्रकृति से जुड़ाव कट गया है। 
तो चाहे आदित्य से आरम्भ करें या सोम से, सात की संख्या महत्त्वपूर्ण है। सूर्य की रश्मियों के सात वर्ण, सात 'ग्रह', सात वार आदि से सूर्य आधारित दिनमान पद्धति में सात की संख्या बहुत महत्त्वपूर्ण हो गयी तथा सप्तमी तिथि को सूर्य से जुड़ा मान लिया गया। 
अब सूर्य की संख्या वाली तिथि एवं उनके वार रविवार या आदित्यवार की संगम हो जाये तो पर्व या विशेष व्रत आदि का योग बनता है न? 
आज की भानुसप्तमी वही है। भा को भाने से, प्रभा से, विभा से समझें कि अद्भुत कांति के साथ मनोहारी प्रभाव। सूर्य में तो होती ही है किन्‍तु आज विशेष हो जाती है। मानव का देव पर निज भाव आरोपण।