राजधानी
से जब चला था तो विशाल विमान था और सुन्दर व्योमपरिचारिकायें जिनकी काजल भरी कृत्रिम
आँखों की झपझप से अधिक आकर्षक उनकी नकली मुस्कानें थीं। मुस्कानें जो दृष्टि को देहयष्टि
पर फिरने से रोक सी देतीं। कनेक्टिंग उड़ान एकदम वाद की प्रतिवाद सिद्ध हुई जिससे
कोई संवाद स्थापित नहीं हो सकता था – छोटा पुराना सा विमान, कोई परिचारिका नहीं, केबिन
में भरता रोर और यह भय कि अब गिरा तो तब!
घहराता
हल्का विमान हिचकोला सा खाता हवाई पट्टी पर उतरा तो मुझे इस विचित्र सी खीझ भरी हास्यास्पद
आशंका से मुक्ति मिली कि पायलट यात्रियों की सेवा में भी नियुक्त था जो रह रह
उड़ाना छोड़ झाँकने आ जाता था कि सब ठीक तो है!
होटल
की ओर बढ़ती काली पीली टैक्सी से बाहर का संसार दिखता रहा और तभी ड्राइवर ने एक ओर
संकेत कर कहा – वह रहा वह इलाका जिसे देखने आप आये हैं। वह मुझे एक पर्यटक समझ रहा
था। मैंने उधर की ओर देखा और उसके बाद सामने नियराते होटल की ओर। अचानक ही लगा कि
मैं एक द्वीप पर आ गया हूँ। ऐसे द्वीप पर जहाँ एक बड़ा कालखंड लुप्त है - दो हजार वर्षों
के अंतर से बने दो निर्माणों के बीच कोई अवशेष नहीं। इनसे बाहर कलकल बहती जनसरि है
जिसमें निश्चिंत लोग लुगाई बच्चे हैं, मवेशी हैं, विद्यालय हैं, सरकारी विभाग हैं,
छोटे व्यापार हैं, ऑटो टैक्सी वालों की झौं झौं है जो दूसरे द्वीपों से आने वालों
को उस द्वीप पर उतारते हैं और पुन: वापस जाने को छोड़ आते हैं। आने वाले हजारो वर्षों के अंतर से मुग्ध हो चले जाते हैं। वे आते तो भी इसीलिये हैं न!
जनवरी
के शीत कोहरे भरे अलसाये दौर में मुझे कम्पनी ने यहाँ अपने हेल्थ ड्रिंक का बाज़ार पता
करने का काम सौंपा था। असल में निर्णय लिया जा चुका था और मुझे केवल अनुकूल रपट
देने की खानापूरी करनी थी – बोरियत भरा वाहियात सा काम। मैंने कहा भी था –
मार्केटिंग टीम भेज दो, मैं वहाँ जा कर क्या उखा...
मेरी
बॉस ने हल्के से खाँस कर ‘ड़’ कहने से रोका, साथ साथ चेता भी दिया कि एक लेडी के
सामने झुँझलाहट ऐसे नहीं दर्शाते और एक कोमल वाक्य के साथ मेरा प्रस्थान भी पक्का
कर दिया – कुछ करना ही नहीं है। पेड हॉलीडे मान कर जाओ, आजकल बहुत स्ट्रेस्ड दिखते
हो, ब्रेक मिल जायेगा। मैंने कहा - अद्भुत है यह संसार ...। वह मुस्कुरायीं – और तुम्हारी
हिन्दी भी... कल्चर्ड बोले तो सुसंस्कृत। मैं खिलखिलाहट के आगे परास्त हो गया।
सुइट
का इंटीरियर किसी मिरर प्रेमी ने किया था। छोटे बड़े दर्पण अपरिचय को गाढ़ा करने
वाले थे। ठंडी चमक जैसी कुछ होती हो तो वैसा लगता था, जैसे पूछ रही हो – अतिथि! कब
वापस अपने द्वीप जाओगे? मुझे ऐसा वातावरण एकदम नहीं जमता। एक आह सी भर कर कर मैं
टॉयलेट में घुसा और सामने स्वयं को खड़ा पाया। झुँझलाहट सवार होती कि पता चला कि
दर्पण कुछ अवतल बनाया गया था जिसके कारण प्रतिबिम्ब वास्तविक आकार से बड़ा दिख रहा
था। मेरा ध्यान अपने गले पर के पारदर्शी से मस्से पर चला गया और मन में प्रभा
पसरती चली गयी - एक अंतरंग उदासी जिसकी गोद से बिना कहानी लिखे मुक्ति नहीं मिलती...
...
प्रभा को दिवंगत हुये दो वर्ष से अधिक हो गये और तब से मैं उसकी उपस्थिति और
अनुपस्थिति की सान्द्रताओं को ही जी रहा हूँ। प्रांजल दून में सातवीं में है और
मैं? बस मैं और प्रभा। घर में निर्वात नहीं, वात की वे परते हैं जिनसे होती वह
अदृश्य रंग भरती रहती। दुख इतना घना हो सकता है कि वह जड़ से मुक्त कर दे, इतना
अवमुक्त कि कोई यूँ सामान्य सा दिखने लगे जैसे कुछ हुआ ही नहीं! जाने ऐसी स्थिति
को क्या कहते हैं? प्रांजल और मैं उसके बारे में कभी बात नहीं करते। उसके जाने के
बाद आज तक हममें से किसी ने प्रभा का नाम एक दूसरे के सामने नहीं लिया।
दाहसंस्कार
के पश्चात प्रांजल आया था। माँ ने उसे बताया और उसने मेरी ओर जी भर देखा; न रोया, न
कुछ कहा। उसके हिस्से का मैं ही रोया और अगले दिन उसे बाल मनोचिकित्सक के पास ले
जाना पड़ा। वह इतना सामान्य दिख रहा था कि अनहोनी की आशंका से सभी ग्रस्त हो गये थे।
कुछ
महीनों के बाद वह सामान्य जैसा सामान्य लगने लगा – हँसना, खेलना सब ठीक। स्वयं कहा
– पापा, स्कूल वापस जाना है। मेरे पास अपने इस प्रश्न का उत्तर नहीं है - बचपन से
ही माँ बाप से विलग रहने वाले बच्चे अधिक शक्तिवान या निठुर हो जाते हैं क्या?
जीवन का एक पाठ समाप्त हुआ और लोगों को मैं भी सामान्य जैसा सामान्य लगने लगा...
“यह
जो मस्सा है न, तुम्हारे सारे भेद खोल देता है। तुम्हें तो दिखता नहीं लेकिन मैं
जान जाती हूँ कि साहब का मूड कैसा है। मस्सा रंग बदलता है सुक्कू!”
दर्पण
के निकट हो मैंने दिये सी आकृति वाले उस लम्बोतरे मस्से पर हाथ फेरा – रू! आज
कोहरा है, पराया देस है, ठंड है और तुमसे हजारो वर्षों सी दूरी लग रही है। क्या
करूँ?
शांत
अन्धेरा जाने कितने दर्पणों से परावर्तित हो कमरे को भरने लगा। मैंने आँखें मूँद ली।
अब कौन रोकने वाला है कि संझा को नहीं सोते, लक्ष्मी लौट जाती है? देह अभी भी देह
की इच्छा रखती है किंतु बिना प्रभा के कैसी पूर्ति?
...साँझ
गहराती गयी और मैं रागी होता गया। सुना है कि संसार में हर व्यक्ति का कम से कम एक
प्रतिरूप अवश्य होता है। तुम कहीं और हो प्रभा? यदि हो तो किस हाल में? मैं
व्यभिचारी हो रहा हूँ क्या? मैं यदि मर गया होता तो क्या तुम भी ऐसा ...?
मैंने
रिसेप्शन का नम्बर लगाया – मुझे मैनेजर से बात करनी है। लड़की ने पूछा – सर, क्या आप
मुझे बता सकते हैं? उत्तर में मैंने बस यह कहा – मैं उनसे स्वयं भी मिलने आ सकता
हूँ, लेकिन बात उन्हीं से करनी है। आप समय ले लीजिये। दस मिनट के बाद मुझे नीचे
बुला लिया गया। मैंने उन्हें लॉन के एकांत कोने की ओर आने का संकेत किया और बिना
प्रतीक्षा किये बढ़ लिया। उन्हें मेरे पीछे आना पड़ा।
“इस
ऐतिहासिक स्थान पर देश विदेश से अलग अलग रुचियों के पर्यटक आते हैं, ढंग के होटल
गिने चुने, ऐसे में क्या आप लोग आगंतुकों की ऐसी वैसी जरूरतों की भी पूर्ति करते
हैं क्या?”
मेरे
सीधे प्रश्न से वे अचम्भित से दिखे – आप स्पष्ट करेंगे प्लीज?
“स्पष्टता
में नग्नता हो तो अस्पष्टता ही संवाद होती है।“
वे
समझदारी से मुस्कुराये – ड्रग्स स्ट्रिक्टली नो नो ... बाकी जनरली नहीं करते लेकिन
रेयरली तो ...करना ही पड़ता है। बहुत महँगा पड़ेगा। चार्ज के अलावा आप को एक और कमरे
का रेंट देना होगा। कल शाम को हो पायेगा और आप को हमारे फॉर्मेट में अपना सही
बायोडाटा अभी देना होगा। उसे हम पार्टी के पास मेल करेंगे। स्वीकृति की स्थिति में
वह अपना परिचय फोटो के साथ भेजेगी। यदि आप को स्वीकार होगा तो आगे बात करेंगे।
मैं
अवाक रह गया। उन्हों ने धीमे से पूछा – ऐक्सेप्टेबल? मैंने हाँ कर दी और वे चल
दिये।
सुइट
में पहुँचा तो पेंसिल के साथ फॉर्मेट मुलाकाती कमरे के टेबल पर था। पहला निर्देश था
– कृपया पेन का प्रयोग न करें।
पहला
बिन्दु था – पत्नी का नाम
दूसरा
– बच्चों के नाम
तीसरा
– व्यवसाय/ फर्म/ कम्पनी/ नियोक्ता
स्वयं
का नाम चौथे स्थान पर था। मैंने फॉर्मेट को पलटा – कहीं भी आयु नहीं पूछी गयी थी। (जारी)
मस्सा का रंग हाव भाव बता सकता है, हमारा सारा शरीर मन की सहायता करता रहता है।
जवाब देंहटाएंये `जारी` भी न...
जवाब देंहटाएंसादर
ललित
इंतज़ार
जवाब देंहटाएंअरे वाह! गैरकानूनी कार्यक्रम में सारी सही जानकारी..
जवाब देंहटाएंघटनाक्रम समझ में आ रहा है.. आगे की कड़ी की उत्सुकता बढ गई है!!
जवाब देंहटाएंहाँ एक शंका है.. कृपया समाधान करेंगे...
"सामने नियराते होटल की ओर।"
केवल 'नियराते होटल की ओर' लिखना भूल होता क्या??
बहुत अच्छी बुनावट है...।
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