बुधवार, 28 मार्च 2012

लोक : भोजपुरी - 10: चइता के तीन रंग

चैत माह रबी फसल का माह है। महीनों के श्रम के फल के घर पहुँचने का माह है। ऐसे में कृषि प्रधान लोक में उत्सव न हो, हो ही नहीं सकता! प्रकृति भी ऐसे में नवरसा जाती है। पेंड़ पौधों से लेकर मनुष्यों तक सबमें नवरस का संचार होने लगता है, वायु दिशा बदल देती है, शुष्क हो जाती है। देह में मीठा मीठा दर्द उभर आता है और मन? फागुन में वसंतोत्सव मना कर नेह बन्धनों को प्रगाढ़ कर चुका मन अब फल चखने की तैयारी में लग जाता है। इच्छायें गर्भिणी हो जाती हैं। बागीचों के आम बौरा चुके होते हैं। ऐसे में आती है रामनवमी। ‘राम जी की दुनिया राम जी के खेल’ मानने वाली कृषि संस्कृति तो नमक को भी रामरस कहती आई है! उनके जन्म के बहाने फसल के घर आने का उत्सव आयोजन क्यों न हो जाय!
रामनवमी की रात का पूजन नये गेहूँ या जौ की बनाई पूरियों और हलवा से होता है। कुछ तो जेनेटिक हस्तक्षेप और कुछ ऋतुचक्र की विचलन – अब गेहूँ बैसाख में ही हो पाता है लेकिन पकती हुई बालियों से नया अन्न निकाल कर पुराने में मिला नया पुरान पूजन कर लिया जाता है। मकर संक्रांति से प्रारम्भ हुये अन्न उत्सव का समाहार नये अन्न से बनी नवमी की नौ रोटियों से होता है:
खिचड़ी के खीच खाच, फगुआ के बरी
नवमी के नौ रोटी, तब्बे पेट भरी।
संक्रांति पर्व के मिश्रित अन्न, होली की बड़ी और नवमी की नौ रोटियों के बिना पेट कैसे भर सकता है भला? अब जो ढोल झाल निकलते हैं, उनमें जो उत्साह दिखता है उसका रंग कुछ और ही होता है। चैत माह में चैता, चैती और घोटा गाये जाते हैं। इन्हें अर्धशास्त्रीय पद्धतियों में भी गाया जाता है लेकिन मैं यहाँ लोकरूप ही प्रस्तुत करूँगा।
इन गीतों के बोलों में प्राय: मिलन के पंचम स्वर बोलती कोयल का घर उजाड़ने की बात होती है। कोयल जो अपना घर नहीं बनाती, लोक में घरवाली हो जाती है जिसकी बोली सुन कर या तो सइयाँ सेज छोड़ कर खेत की ओर चल देता है और मिलन पूर्णता नहीं पा पाता या कोयल के स्वर में एक विरहन का आलाप माना जाता है जो कि एकदम नहीं सुहाता। वक्रोक्ति या उलटे ढंग से बात कहने की लोकशैली के दर्शन चैत माह के गीतों में होते हैं। नागर लोग भले कोयल की बोली को सर्वदा वांछित मानते रहें, गाँव की कोइलर तो घरनी सी है जिसकी मधुरता कभी कभी अति मीठेपन के कारण ही नहीं सुहाती। अरे भाई! यह मौसम तो टटका टिकोरे की खटाई, मजूरे से तिताई और पसीने की लुनाई का मौसम है, इसमें मिठाई का क्या काम? तब जब कि समूची सृष्टि ही नवरस से प्रफुल्लित होती है, बगीची तक ‘लरकोर’ यानि संतानवती हो जाती है; प्रिय मिलन की मादक इच्छा की अभिव्यक्ति होने लगती है। पैर नृत्य में अपने आप ही थिरक उठते हैं।
चैता या चइता मुझे पुरुषराग लगता है जिसकी संगी स्त्रीरागधारी चैती है। किसान बदलते मौसम, बड़े होते और उजास उड़ेलते दिन, फलवती होती बगिया – सबका अनुभव करता है और उसे लगता है जैसे अन्धेरे में प्रकाश टपकने लगा हो! प्रीत की डोर लगा मन पतंग हो उड़ उड़ आसमान छूने लगता है। देखिये तो सलेमपुर वासी गिरिधर करुण के गीत को गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्रेक्षागृह में सलेमपुर के ही राणा सिंह ‘मेघदूत पूर्वांचल में’ प्रस्तुति में कैसे गाते हैं और क्या खूब गाते हैं!

चुवत अन्हरवे अँजोर हो रामा चइत महिनवा

अमवा मउरि गइलें नेहिया बउरि गइलें

देहियाँ टूटेला पोरे पोर हो रामा चइत महिनवा ॥१॥

उड़ि उड़ि मनवा छुवेला असमनवा

बन्हल पिरितिया के डोर हो रामा चइत महिनवा ॥२॥

अँखिया न खर खाले निंदिया उचटि जाले

बगिया भइल लरकोर हो रामा चइत महिनवा ॥३॥

हरपुर नवका टोला के केदार की टोली तो सजनी के सजने के उत्साह को खेत, बारी, हल, बैल सब बेंच कर गहना गढ़ाने की बात कह बयाँ करती है। सँवरने की स्त्री इच्छा पति के स्वरों में ग़जब ढंग से अभिव्यक्ति पाती है। सजनी को साजन से इतना प्यार चाहिये और साजन को भी इतना प्यार उड़ेलना है कि अयुक्ति की इंतहाँ हो जाय! जिन हल, बैल, खेतों के कारण उत्सव मनाने लायक अन्न घर में आया, उन्हें ही बेंच कर इस चैत महीने गहना गढ़ा दो! और तो और यह घर ही बेंच दो जिसकी मैं घरनी हूँ!! अब क्या कहें ऐसी इच्छा पर! 
(रिकॉर्डिंग की खराब क़्वालिटी के लिये खेद है। बन्दे ने गाया था बहुत सुन्दर और बहुत मन से लेकिन मैं ही ठीक से रिकॉर्ड नहीं कर पाया। मेरी अनुभवहीनता के कारण ऐसा हुआ। सॉफ्टवेयर से भी कुछ खास सुधार नहीं हो पाया। )
राग का अतिरेक हो तो मन उच्छृंखल हो ही जाता है। नये जमाने के इस चइता में बिहार के महेश खेसारी जो गाते हैं, उसकी गढ़न देखिये।
प्रेमिका अपनी बहन के साथ गेहूँ की पकी फसल काट रही है (हार्वेस्टर अभी भी सर्वसुलभ नहीं हो पाया है!) नवरस रसायनों के कारण देह में पीर है, ऊपर तेज धूप है जिससे देह की कोमल त्वचा कड़ी हो गई है, पसीना देह के उभारों में गतर गतर पैठ परेशान किये है और कट चुके गेहूँ के पौधे की जो खूँटियाँ खेत में छूट गई हैं, वे पैर में चुभ रही हैं। न बैठा जाता है और न उठा। झुक झुक काटने के कारण कमर में दर्द है। ऐसे में काटा जाने वाला गेहूँ मुट्ठी में नहीं समाता। वह कहती है कि मेरी देह में तो महुवा भर गया है, दीदी! मुझसे कटिया नहीं हो पायेगी। विश्राम के बहाने उसे प्रिय मिलन की आस जो है। गायक बैसाख की उस गरम हवा के झँकोरे को भी नहीं भूलता जिसके कारण सजनी का मन सूखे पुआल जैसा हो आग जोहने लगा है जब कि कामकुम्भों से लोर टपक रही है। देह की ऊष्मा, फसल की ऊष्मा और मौसम की ऊष्मा - प्रेमी इन सबको बयाँ कर रहा है और स्वराभिनय से मिलन की उच्छृंखल कामना को भी व्यक्त कर रहा है। खेत में तो वह भी साथ में काम में लगा है लेकिन जमाना जालिम है, क्या करे? फसल कटाई से लेकर गोदाम में रखे जाने में हुई लसर फसर तक अपनी छिपी कामना को व्यक्त करता प्रेमी अपनी संगी के सारे कष्टों और उनसे मुक्त हो किसी की प्रेमिल छाँव में छँहाने की उत्कट इच्छा को व्यक्त करता है – बस एक कामना है कि अतिश्रम और धूप के कारण काली पड़ चुकी देह को बगीचे में तुम्हारी छाँव में विश्राम दूँ।
इस गीत में रागोत्सव मनाने को सबका आह्वान है। टन टन जीने की शुभेच्छा के साथ तेजू को बुलावा है, जनार्दन को बुलावा है और रामसूरत को भी बुलावा है। इसमें छोटू बाबा हैं, पत्रा देख साइत बताने वाले पवन बाबा हैं (गरमाया पवन मिलन का मुहुर्त बताने वाला पंडित हो गया है!), दिल्ली जा बसे प्रवासियों की भी बात है जो परशुराम बाबा को महेश भैया के साथ गाँव गाड़ा छोड़ महानगर आने को प्रेरित करते रहते हैं। गायक संक्रामक उल्लास में समूचे गाँव को समेट लेता है – चाहे पसन्द करें या न करें!
इस गीत में केदार के गाये चइता में ढोलक का साथ देते स्वर उहूँ, उहुँ, उइ, उइ का रूप उच्छृंखल हो ‘आउ’ के रूप में हर अंतरे के पहले आता है – सुरतक्रीड़ा के नागर स्वर उह या आउच का लोकरूप। इसमें जो जीवन्तता आ गई है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।
चढ़ल जवानी हमार भइल बा महुवा
अब न कटाई दीदी हमरा से गँहुवा
बथे कलाई हम चूर चूर न धरातारे मूठी
दिदिया रे! बड़ा गड़ता खूँटी।

जरता चाम घाम लागता बड़ा
देहिया मुलायम सारा भइल जाता कड़ा
भइल बइमान हमार धुपे में बेना
सुखत नइखे हमरा देह के पसेना
कुहले बदन हमार कोर कोर
हम बइठीं ना ऊठीं
दिदिया रे! बड़ा गड़ता खूँटी।

डाँड़ में दरद होला काटिं जब निहूर के
गोड़वो में चूभे बड़ा रहिलें सिहूर के
लारा पुआर भइल जातालें मनवा
गरम ताव झोंकताने पवनवा
जोबन से चुवतलें लोर लोर
अब देबे ना छूटी
दिदिया रे! बड़ा गड़ता खूँटी।

लागल तारास एगो ईहे बा ईच्छा
महेस खेसारी सँघे बइठीं बगीचा
लसर फसर भइल चाचा गोदाम में
अब नाहिं मन हमार लागता काम में
करिया हो गइल देह गोर गोर
बड़ा फेंक त लूटीं
दिदिया रे! बड़ा गड़ता खूँटी।

12 टिप्‍पणियां:

  1. Chahne wala to bau ka hoon lekin chaita padhkar bhi jhoom utha...gungunane laga ..aur achanak mahsoos hua ki are ye main kis rau main bah gaya ...gungunaya bhi wahi...hobe de bihan koili...dhanyabad.

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  2. संगीत भूख की याद मिटाने में बड़ा सहायक होता है।

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  3. ’गढ़न’ देख रहे हैं भैया! और बिलकुल सच- "राग का अतिरेक हो तो मन उच्छृंखल हो ही जाता है।"
    प्लेयर्स चले तो मन सचमुच अतिरेकी होने की राह पर हो आया!
    आभार ।

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  4. कई बार इस पोस्ट पर आये..चैती सुने और सुनते हुए आपके वर्णन को पढ़कर मुग्ध होते रहे। इन सब आनंद के बीच यह खयाल आया कि इस इस प्रेम-विरह चैती लेखन गायन में पुरूषों का बड़ा तगड़ा योगदान है। महिलाओं ने भी लोकगीतों के माध्यम मांगलिक अवसरों पर गीत गाये हैं जिन्हे सुनकर लगता है कि इनकी रचना भी महिलाओं ने ही की होगी। भोजपुरी क्षेत्र की महिलाएं पुरूषों की तुलना में शिक्षा से वंचित रही हैं फिर भी लोक गीतों में उनकी काव्य प्रतिभा दिखती है। इन सब के बावजूद जो भोजपुरी गीत बाजार में आ रहे हैं उनमें महिलाओं की इस प्रतिभा की झलक देखने को नहीं मिलती।

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    1. ये चैता हैं। स्त्री स्वरूप तो चैती हैं जिनकी रचना और गायन दोनों में स्त्रियों की प्रमुख भूमिका होती है। मैंने आलेख में बताया भी है।
      स्त्रियाँ रच रही हैं और नये गीत भी आ रहे हैं। शारदा सिन्हा की सरस्वती परम्परा जारी है। अच्छे की मात्रा तो हमेशा कम रहती है। सूप की तरह फटक कर अच्छे को निकाल लेना ही वांछनीय है।

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  5. क्या कहने ,इस आयोजन से चैत माह धन्य हो गया ...और क्या कहूं?

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  6. लोक संस्कृति में जो आनंद होता है वह अन्यत्र कहीं हो ही नहीं सकता....बहुत ही सराहनीय पोस्ट...लेकिन ....यह आलसी का चिटठा तो कहीं से नहीं लग रहा.....एक बात बताएं..आलसी कौन..? लिखनेवाला या पढनेवाला...?

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  7. :) वाह! इसे पहले भी पढ़ सका था, लेकिन सुन आज ही पाया हूँ।
    आज तो पूरा दिन सुखद हो गया है।

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