शहर में भीड़ अकेली शोर
में चुपचाप चले
उठे नारे जब यंत्रणा
में हम रहे कराह भले
कुछ यूँ हैं तनहा
सड़क पर मोड़ पर भी
पहने जिस्म कोई अतर रूह
बेनकाब चले
(पहन कर जिस्म कोई
रूह बेनकाब चले)
फिकर थी न जब उजाले
की न अँधेरे की
बँटवारे हुये मुकम्मल मेड़ पर साँझ ढले
बसर हो रही है खास
यूँ भलमनसाहत में
मन में खुदकुशी दामन
विषधर नाग पले
अब के आना तो जहर काफिये
ले आना
गायेंगे साथ यूँ कि चख
लेंगे उतार गले
~गिरिजेश राव~
बनारस, 201309130744
कोलाहल से, हमने चाहा, मुक्ति मिले,
जवाब देंहटाएंहम पहुँचे एकान्त, मनस यादें ले आया।
JI. ZAHAR KAFIYE ka istemaal adbhut hai. BAU KA DEEWANA.
जवाब देंहटाएंसुभान अल्लाह!
जवाब देंहटाएं'कुछ यूँ हैं तनहा सड़क पर मोड़ पर भी
जवाब देंहटाएंपहन कर जिस्म कोई रूह बेनकाब चले'
---बहुत ही उम्दा शेर है!वाह,वाह और बस वाह!
मेरा पसंदीदा ये रहा:
जवाब देंहटाएंफिकर थी न जब उजाले की न अँधेरे की
बँटवारे हुये मुकम्मल मेड़ पर साँझ ढले
वैसे - ऐसे कैसे?
मात्र चार मिनट में पोस्ट - सीधे टाइप ही किये लगते हैं।