ऋग्वेद और गंगा का सम्बन्ध रहस्यसंकेती है। दसवें मंडल के 75 वें नदी सूक्त में गंगा का स्पष्ट वर्णन है लेकिन उसके अतिरिक्त जो भी संकेत हैं, वे पहेली से लगते हैं। जैसा कि मैं पहले भी संकेत करता रहा हूँ, पूर्वी सभ्यता संहिता रचयिताओं की नहीं थी लेकिन संहिताओं से पुरानी थी। वाल्मीकि आदि कवि हैं इसलिये नहीं कि पहली कविता रचे, इसलिये कि 'आदि कथा' के लोकस्वरूप को छन्दबद्ध काव्य का रूप दिये। भारतीय परम्परा यदि राम और कृष्ण में एक युग का अंतर बताती है और राम को कृष्ण से पुराना बताती है तो तो यूँ ही नहीं बताती।
पूरब की सभ्यता राम वाली थी, सूर्यवंशियों की, इक्ष्वाकु अथर्वणों की। पश्चिमी सभ्यता चन्द्रवंशियों की थी, कुरुओं की, पांचालों की। पूरब और पश्चिम में आपसी व्यापारिक और वैवाहिक सम्बन्ध तो थे लेकिन अधिक औपचारिक और किंचित प्रतिद्वन्द्विता भी लिये हुये।
कौशिक गोत्री विश्वामित्र का वंश इन दोनों के बीच सेतु का कार्य करता है, इसलिये कि विश्वामित्र यायावर हैं, सप्तसैंधव को लाँघ सुदूर पश्चिम की और जाते हैं तो धन और सोम के सन्धान में पूरब के गांगेयों से भी सम्बन्ध रखते हैं। सूर्यवंशियों और चन्द्रवंशियों की आपसी प्रतिद्वन्द्विता और लड़ाइयों के ध्वंस सूत्र आज भी राजपूत कुलों में दिख जाते हैं।
सरस्वती के सूखने के पश्चात जब गंगा ने सिन्धु के समांतर उनका स्थान ले लिया तब घनघोर सम्मिलन हुआ। सरस्वती प्रयाग 'स्थापित' हुईं। गंगा के साथ सूर्यवंशी भगीरथ कुल का नाम जुड़ा हुआ है। समृद्ध राज्य में एक विकराल अकाल, ऋषि शाप, 60000 पुरखों का भस्म होना, तपस्या, भगीरथ प्रयत्न से गंगा को मैदान में उतारना, जह्नु ऋषि की रोक, कैलाशी शिव का भी साथ में आना आदि आदि उन पुरा कथाओं के रूपक हैं जो संहिताओं से भी पुरानी है। जह्नु ऋषि द्वारा मुक्त किये जाने के कारण गंगा जाह्नवी कहलायीं।
ऋग्वेद में गंगा को लेकर जह्नु का क्षेत्र चर्चित है। स्पष्टत: इनके द्रष्टा भी उद्योगी ऋषि हैं जैसे आंगिरस, बृहस्पति और विद्रोही विश्वामित्र कुल। अश्विनों को सम्बोधित इन ऋचाओं में समृद्धि की चर्चा है, धन की चर्चा है, थल और जल मार्ग में चलने वाले रथों की चर्चा है जिनमें क्रमश: वृषभ और शिंशुमार (गंगा डॉल्फिनें) जुते हुये हैं और स्तुतियों में भी धन (द्रविण) है।
यदयातं दिवोदासाय वर्तिर्भरद्वाजायाश्विना हयन्ता। रेवदुवाह सचनो रथो वां वृषभश्च शिंशुमारष्च युक्ता॥
रयिं सुक्षत्रं स्वपत्यमायुः सुवीर्यं नासत्या वहन्ता। आ जह्नावीं समनोप वाजैस्त्रिरह्नो भागं दधतीमयातम्॥
(1.116.18-19, कुत्स आंगिरस)
इन ऋचाओं में जह्नु की संतानों द्वारा अश्विनकुमारों का दिन में तीन समय यजन वर्णित है और साथ ही उनके द्वारा धन ले कर राजा दिवोदास के घर जाने की बात है। दिवोदास पश्चिमी राजा हैं और अन्यत्र भी वर्णित हैं।
तीसरे मंडल के 58 वें सूक्त में विश्वामित्र अश्विनद्वय की प्रशंसा में उनके ‘पुरातन सर्वशिवकारी सख्य’ की बात करते हैं। साथ ही यह भी कहते हैं कि आप का धन जह्नव्याम (जह्नु के क्षेत्र में स्थित) है। आप दोनों की ‘मित्रता’ से हम पुन: लाभान्वित हों और ‘सह नू समाना’ मधुर हों।
पुराणमोकः सख्यं शिवं वां युवोर्नरा द्रविणं जह्नाव्याम् ।
पुनः कृण्वानाः सख्या शिवानि मध्वा मदेम सह नू समानाः॥ (3.58.6, विश्वामित्र गाथिन)
इस सूक्त के प्रारम्भ में प्राची में उषा का दर्शन कर सूर्य के लिये ‘पुत्रश्चरति दक्षिणाया:’ कहा गया है और यह भी कि अश्विनों का स्तोत्र गायन तो उसी समय होता है। इस सूक्त से स्पष्ट ही पूरब के साथ पुराना भौतिक सम्बन्ध सिद्ध होता है।
छठे मंडल के 45 वें सूक्त में किसी बृबु की बड़ी प्रशंसा है क्यों कि वह धन का दानी पणि (व्यापारी) है। कहा गया है कि वह दान कर्म द्वारा पणियों में मूर्धन्य हुआ। गंगा के ऊँचे तटों जैसा महान हुआ। कक्ष प्रयोग से ही आज का गंगा कछार तो नहीं हुआ!
अधि बृबुः पणीनां वर्षिष्ठे मूर्धन्नस्थात्। उरुः कक्षो न गांग्यः॥ (6.45.31, शयु बार्हस्पत्य)