(1)
गाय
पालना एक कठिन काम होता है। भोर भिंसहरे ब्रह्म मुहुर्त में उठ कर मशीन पर छाँटी
काटनी पड़ती है, बहुत श्रम का काम होता है। अगर बिजली नहीं हुई तो
ढेबरी लनटेन जरा के करना पड़ता है। नाद अर्थात उसका फीडिंग बाउल साफ कर दाना पानी
भरना होता है। उसके बाद गोबर गोथार। गायें अपना पॉटी स्वयं साफ तो कर नहीं सकती तो
आप को गोबर को हाथ से उठा कर खाँची में भर कर कपारे पर रख घूरे में फेंकना होता
है। गाय जब तक खाये तब तक एक गृहिणी की तरह उसकी ताक झाँक की प्रतीक्षा करनी पड़ती
है, गाय कह तो सकती नहीं कि तस्मई और लाओ और दो चम्मच तरकारी
भी! इस दौरान आप को भी झाड़ा फिरने के बाद दतुवन मंजन कर लेना होता है वरना चना
चबेना समय से पाने से रहे। खिलाने पिलाने के बाद गाय को साफ सुथरे किये घारी
में बाँध कर दुहना होता है। गायें मोदी जी की तरह बहुत सफाई पसन्द होती हैं। गन्दे
स्थान पर दूध नहीं देतीं। मस, कुकरौंछी, अँठई आदि से निस्तार के लिये धुँअरहा कर उसे सहलाते हुये परजीवी निकालने
होते हैं। गाय अगर मरखही हुई तो इस पूरी क्रिया के दौरान सींग प्रसाद से स्वयं को
बचाना भी होता है। अगर गोड़ चहलने वाली हुई तो और सतर्कता की माँग करती है। जब उसका
मूड सही हो जाय तो धीरे से दोनो पिछले गोड़ रस्सी से छानने होते हैं। इस क्रिया में
दुलत्ती का प्रसाद न मिले तो आप स्वयं को भाग्यशाली समझ सकते हैं। बछरू या बछिया
को छोड़ कर उसे थन चूसते हुये देखना होता है कि अब दूध की धार उतरी की तब, इस क्रिया को पेन्हाना कहते हैं। पेन्हा जाने के बाद जबरन उसकी संतान को
दूध पीने से हटाना होता है, उसे खींच कर खूँटे से गाय के
सामने बाँधना होता है ताकि गइया देखती रहे वरना दूध की धार टूट सकती है। दोनो
पैरों में बाल्टी दबा के दूध गर्र गों गर्र गों दुहना होता है। दूध दुहना सबको
नहीं आता,, इसके विशेषज्ञ हर गाँव में अलग अलग होते हैं। कोई
दूध अधिक निकाल लेता है लेकिन थन पर नाखून लगा देता है तो कोई इतना दयालू होता है
कि आधा दूध बछरू को ही पिला देता है। कोई अधूरा ही छोड़ देता है जिसके कारण गाय को
थनैली हो सकती है या वह असमय ही बिसुक भी सकती है। इसलिये गाय दुहना स्वयं आना
चाहिये। इस क्रिया में बाजुओं का अच्छा व्यायाम हो जाता है अर्थात आप को स्वस्थ
शक्तिशाली भी होना होता है। दूध दुहने के बाद थन में थोड़ा सा छोड़ देना होता
है ताकि अंत में बछरू बछिया को उस पर छोड़ा जा सके। यह गाय के वात्सल्य की पूर्ति
करता है। इस मामले में गाय मनुष्य समान ही होती है।
(2)
परयाग
जी में रहते थे तो कुछ भयानक बातें पता चलीं। पाड़ा बड़ा होने पर भैंसा हो कर गर्भाधान करने के अलावा किसी काम का नहीं होता।
पूरब में उसे न तो जोता जाता है और न ही भारवाही के रूप में काम में लाया जाता है।
भँइस पाड़ा बियाती थी तो पालक नाले में फेंक आते थे। उसके
बाद इंजेक्शन दे पेन्हाने का काम संपन्न करते थे। कुछ के बारे में ये भी सुना गया
कि दूहने के समय मरे पाड़े की खाल में भूसा भर कर भैंस के सामने पुतला खड़ा कर देते
थे ताकि पेन्हा सके।
टट्टर
और कम्बइन के आ जाने के कारण अब बैलों की आवश्यकता भी बहुत कम रह गयी है तो बछरू
का भी इनडाइरेक्टली लगभग यही हाल होता है। कुछ नहीं तो भर पेट दूध ही कुछ दिन पीने
देते हैं ताकि किरा कर गोलोकवासी हो जाय! गाय भैंस से दूध या तो इंजेक्शन लगा कर
निकाला जाता है या दूर पश्चिम में प्रचलित वह पुरानी फूँके की क्रिया द्वारा जिसके
कारण गन्ही बाबा ने गाय भैंस का दूध पीना छोड़ दिया था!
(3)
हमारे
यहाँ गाय नहीं पाली जाती थी। तीन कारण थे:
(एक) बड़के बाबू जी को गायें पसन्द नहीं थीं। उनके दूध और घी से बास आती थी।
(दो) गायें गुहखइनी होती हैं अर्थात चराते समय आप को ध्यान देना होता है कि
मानव मल पर मुँह न मार दें। (नोट - स्वच्छ भारत अभियान के पीछे यह भी एक कारण है)
(तीन) गाय पवित्र होती है। उसे नाथा नहीं जाता। नाथा हुआ पशु यदि उसी
अवस्था में किसी कारण मर जाय तो पाप लगता है। गाय के लिये ऐसे ही बाहर से पगहा
जुगाड़ कर दिया जाता है ताकि संकट में समय नियंत्रित की जा सके। ऐसे में भी यदि
पगहा समेत गाय मर जाय तो गोहत्या महापातकं! कौन रिक्स ले?
नाथना
किसे कहते हैं? जनावर के नथुनों के बीच की कोमल हड्डी को छेद कर
उसमें रस्सी पहना कर घुमाते हुये बाँध दिया जाता है। केतनो मरखाह मवेशी हो,
नाथ पकड़ते ही नियंत्रण में आ जाता है। इसे आजकल ऐसे समझें कि कुछ
कूल ड्यूड ड्यूडी ढोंढ़ी, ओठ, आँख,
गाल आदि गतर गतर छेदवा कर मिनी झुलनी जैसा पहने होते हैं। अगर उनसे
भिड़ंत हो तो टीप कर वही पकड़ लें फिर देखिये कैसे चोकरते हुये वे नियंत्रण में आ
जाते हैं! मानव को जनावर बनने का नवा शौक चढ़ रहा है। पहिले के युग में भी झुलनी,
बाली, कुंडल आदि होते थे लेकिन उनमें बहुत
मरजाद होती थी सो ऐसा नुस्खा कोई सोचता भी नहीं था, अब भी
खंडहरों में सोमयाग के कुछ मंत्र बचे हैं सो झुलनी आदि को छूट दे रहा हूँ।
हइ
देखिये! हमरी निबन्ह गइया तो बहक गयी, फिर से
लैन पर लाते हैं।
(4)
पूर्वांचल
के महानगरों (अगर कह सकें तो) में गौ पालन प्रकल्प नगरनिगम के आलस्य पर फलता फूलता
है। गोपाष्टमी के दिन गो रक्षा आन्दोलनकारियों को इस क्षेत्र के हर नगर निगम
आयुक्त को 'गौद्योगश्री' की उपाधि से
सम्मानित करना चाहिये।
आवारा
संतानों को आजकल बाइक/बाइकी, मोबाइल और पेटरोल
अलाउंस दे कर घर से हाँक दिया जाता है। पालित गायों को तो वह भी देने की आवश्यकता
नहीं। दूहने के समय ढूँढ़ कर ले आइये बकिया टैम पॉलीथीन, पेपाइरस,
गू मूत, सड़े भोजन आदि के पौष्टिक आहार का भोग
लगाने के लिये राजमार्ग पर छोड़ दीजिये, एक सौ आठ बैकुंठ का
पुण्य रोज चित्रगुप्त के खाते में लिखा जाता है! सर्वदा उदररोग पीड़ित ऐसी गायें
गोबर नहीं देतीं, गुह छेरती हैं जिसकी दुर्गन्ध मानव मल को
भी मात करती है। भारत की राष्ट्रीय गन्ध रेलवे प्लेटफार्म पर मिलती है और
राष्ट्रीय देन ऐसे नगरों की सड़कों पर!
एक
बार पैर पड़ जाये तो जूते चप्पल को पंचस्नान करा गुलाबरी से नहलाने के पश्चात ही
गन्ध दफा होती है। पुराने युग के गँवई बैद उजाला होने पर निपटने को जाते थे। खेत
में गुह के रंग, आकार, प्रकार, अवस्था आदि को देख गाँव के ओवरआल स्वास्थ्य का अद्यतन रखते और तदनुसार
पथ्य कुपथ्य बताते। आज भी अगर अच्छे होमियोपैथ के यहाँ आप जायें तो वह आप से आप के
गुह के बारे में इतने प्रकार के प्रश्न पूछेगा कि आप हैराँ हो जायेंगे - यह
व्यक्ति मास्टर शेफ प्रतियोगिता में क्यों नहीं जाता?
तो
गायों की छेर देख कर ही आप उनके और उनका दूध पीने वालों के स्वास्थ्य के बारे में
पता कर सकते हैं। इसलिये ज्ञानी जन कहते हैं कि नगर में दूध पंचमेल पॉश्चुराइड ही
पियो! (जारी)