शनिवार, 3 जून 2017

सहृदय

एक शब्द प्रचलित है - सहृदय। प्रेमिल व्यक्तित्त्व के लिये प्रयुक्त होता है। अथर्ववेद के एक मंत्र में इस शब्द का प्रयोग कुछ इस तरह से है, देवता हैं चन्द्रमा।

सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि व:।
अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या॥ (शौ., 3.30.1) 


प्रेमपूर्ण हृदय, शुभ विचारों से पूर्ण मन, परस्पर निर्वैरता तुम्हारे लिये करता हूँ। तुममें से हर कोई एक दूसरे के ऊपर प्रीति करे जैसे गौ उत्पन्न हुये बछड़े के ऊपर करती है।
इस मन्त्र में भी गाय के लिये 'अघ्न्या' शब्द का प्रयोग है, जो वध न करने योग्य है।
आप कोई संगठन बनाते हैं, स्थापित करते हैं तो वह माँ हुआ। क्यों? क्योंकि उसका काम नव्यता की सृष्टि है। जो लोग आयेंगे, जुड़ेंगे, वे उत्पन्न हुये बछड़े जैसे होंगे, उनसे संगठन मातृवत व्यवहार ही करे।
किंतु
संगठन माता 'अघ्न्या' गौ है, उसका अहित करने की अनुमति किसी को नहीं है।
इस सूक्त का शीर्षक 'एकता' है। परिवार के समस्त सदस्यों में आपसी व्यवहार कैसा हो, अन्य मंत्रों में बताया गया है।
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