पद्म पुराण उत्तरखण्ड माहात्म्य:
4.18
पृथ्वी ने पृथु की स्तुति स्वयं का रसातल से उद्धार करने वाले आदिसूकर के रूप में भी की है।
पृथु मनु से पहले हुये। पृथ्वी उनके नाम से हुई। उन्हें पृथ्वी ने
'परमपुरुष' कहा। उनके आदेश से गौ का रूप ली हुई पृथ्वी ने भिन्न भिन्न जन
को अपने अपने बछड़े नियुक्त कर दूध रूप में वांछित प्राप्त करने को कहा।
किन लोगों ने क्या लिया?
पृथु-मनु-धान्य औषधि
बुध अर्थात विज्ञजन - -यथाकाम सार तत्त्व
ऋषिगण-बृहस्पति-इन्द्रिय- वेद
देवगण-इन्द्र-हिरण्यपात्र-अमृत,मनोबल,ओज, देहबल
दैत्य दानव-प्रह्लाद-लौहपात्र-सुरासव
गन्धर्व अप्सरा-विश्वावसु-कमलपात्र-संगीतमाधुर्य सौन्दर्य
पितृगण-अर्यमा-मृण्पात्र-कव्य अन्न
सिद्ध -कपिल-आकाश पात्र- सिद्धि
विद्याधर-कपिल- - नभ विद्या आकाशगमन
किम्पुरुष मायावी- मयदानव- अंतर्ध्यान, संकल्पमयी माया
यक्ष राक्षस भूत पिशाच - भूतेश - कपाल - रुधिर
साँप आदि विषैले जीव - तक्षक- विष
पशु - गोवृष - वन- तृण
मांसभक्षी जीव - मृगेन्द्र- अरण्य - मांस
पक्षी-सुपर्ण- चर कीट पतंगे और अचर फल
वृक्ष वनस्पति - वट- रस
पर्वत - हिमालय - धातु
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अर्थात धरा पर सब था किंतु सबने अपनी अपनी रुचि अनुसार ही चुने।
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प्रसन्न पृथु ने सर्वकामा पृथ्वी को अपनी 'दुहिता' पुत्री मान लिया।
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भक्ति देवी ने कहा - मैं द्रविड़ देश में उपजी, कर्नाटक में मेरी अभिवृद्धि
हुई। महाराष्ट्र में कहीं कहीं मुझे प्रतिष्ठा मिली और गुजरात में मुझे
बुढ़ापे ने आ घेरा। पाखण्डियों ने कलियुग के प्रभाव में मुझे अङ्ग भङ्ग कर
दिया। वृन्दावन आ कर मैं पुन: तरुणी हो गई हूँ।
~ भज गोविन्दं, गोविन्दाय नमो नम: ~
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श्रीमद्भागवत पुराण आरम्भ
वेदविदां श्रेष्ठो भगवान् बादरायणः
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥०१.०२.००४॥
(महाभारत आरम्भ का यह श्लोक यहाँ भी है)
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22 अवतार गिनाये गये हैं जिनमें वेदों को शाखाओं में बाँटने वाले पराशर और
सत्यवती के पुत्र 17वें हैं और 18वें समुद्र को बाँधने वाले पुरुषोत्तम
(नरदेव) हैं।
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ततः सप्तदशे जातः सत्यवत्यां पराशरात् ।
चक्रे वेदतरोः शाखा दृष्ट्वा पुंसोऽल्पमेधसः ॥ ०१.०३.०२१ ॥
नरदेवत्वमापन्नः सुरकार्यचिकीर्षया ।
समुद्रनिग्रहादीनि चक्रे वीर्याण्यतः परम् ॥ ०१.०३.०२२ ॥
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महाभारतकालीन व्यास वेदों को शाखाओं में बाँटने वाले व्यास से भिन्न हैं।
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ततः कलौ सम्प्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम् ।
बुद्धो नाम्नाञ्जनसुतः कीकटेषु भविष्यति ॥ ०१.०३.०२४ ॥
अथासौ युगसन्ध्यायां दस्युप्रायेषु राजसु ।
जनिता विष्णुयशसो नाम्ना कल्किर्जगत्पतिः ॥ ०१.०३.०२५ ॥
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कलियुग के सम्मोहन में जब लोग सुरद्वेषी हो जायें'गे' तब 'कीकट' में अञ्जन के पुत्र बुद्ध अवतार लेंगे। युगसन्धि के समय जब राजा लोग दस्यु समान हो जायेंगे तो विष्णुयश के यहाँ इस संसार के स्वामी कल्कि अवतार लेंगे।
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कीकट अथर्ववेद में भी आया है, दुष्ट ज्वर को जहाँ पर भगाने का मंत्र है।
कीकट को विद्वान वर्तमान बिहार के किसी क्षेत्र से जोड़ते हैं किंतु प्राचीन
सन्दर्भों में मुझे कहीं यह स्पष्ट प्रमाण नहीं मिला कि कीकट बिहार का कोई क्षेत्र है।
यह अधिक उपयुक्त लगता है कि बुद्ध और कल्कि अवतार अभी नहीं हुये हैं।
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इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् ।
उत्तमश्लोकचरितं चकार भगवानृषिः ॥ ०१.०३.०४० ॥
निःश्रेयसाय लोकस्य धन्यं स्वस्त्ययनं महत् ।
तदिदं ग्राहयामाससुतमात्मवतां वरम् ॥ ०१.०३.०४१ ॥
सर्ववेदेतिहासानां सारं सारं समुद्धृतम् ।
स तु संश्रावयामासमहाराजं परीक्षितम् ॥ ०१.०३.०४२ ॥
प्रायोपविष्टं गङ्गायां परीतं परमर्षिभिः ।
कृष्णे स्वधामोपगते धर्मज्ञानादिभिः सह ॥ ०१.०३.०४३ ॥
कलौ नष्टदृशामेष पुराणार्कोऽधुनोदितः ।
तत्र कीर्तयतो विप्रा विप्रर्षेर्भूरितेजसः ॥ ०१.०३.०४४ ॥
अहं चाध्यगमं तत्र निविष्टस्तदनुग्रहात् ।
सोऽहं वः श्रावयिष्यामि यथाधीतं यथामति ॥ ०१.०३.०४५ ॥
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सूत यह कथा शौनकादि को सुना रहे हैं। कहते हैं कि भगवान ऋषि ने इस पुराण
की रचना की और जिस समय प्रायोपवेश लिये हुये परीक्षित गङ्गा तट पर यह कथा
सुन रहे थे, उस समय मैं भी वहाँ था। 'अपने अध्ययन और मति' के अनुसार जैसा
मैंने ग्रहण किया, वैसा आप को सुनाऊँगा।
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सूत जी स्पष्ट हैं
कि उन्होंने जैसा समझा और ग्रहण किया, वह सुनाने जा रहे हैं (अर्थात वह
शब्दश: वही नहीं होगा जो परीक्षित ने सुना)।
भारतीय परम्परा का यह गुण बहुत महत्त्वपूर्ण है।
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ऋग्वेद में परीक्षित शब्द एकाधिक बार आया है, अथर्वण संहिता उन्हें
स्पष्टत: कुरुओं से जोड़ती है। शतपथ ब्राह्मण में उनके पुत्र जनमेजय द्वारा
अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख है।
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(1) भारतीय ग्रंथों को पढ़ते हुये मूल सर्वदा साथ रखिये, संस्कृत हो, पाली
हो या प्राकृत। अर्थकारी जन अनर्थ भी करते हैं, यदि आप साथ रखेंगे तो बचे
रहेंगे।
(2) साधारणीकरण से बचिये और साम्प्रदायिक आग्रहों से भी।
बुद्ध को सम्पूर्ण भारत को कापुरुष बनाने वाला मानना हो या आदि शङ्कर को
भौतिक जगत के कार्य व्यापारों से विमुख करने वाला; ऐसी खाइयों से बचते हुये
चलिये।
संसार में ऐसा कोई मानव नहीं हुआ जिसने विद्या, शास्त्र, वीरता, शस्त्रास्त्र, युद्ध, व्यापार, यात्रा आदि का तिरोहण कर दिया हो
।
(3) निर्मम हो कर पहले अध्ययन कीजिये, भगवद्भक्ति उसके पश्चात अधिक आनन्द देगी।
(4) सौन्दर्य के प्रति आँखों को सहज नैसर्गिक रखिये, ऐनक ऐनक ही होती है, भले चन्दन काठ की हो।
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कस्मिन् युगे प्रवृत्तेयं स्थाने वा केन हेतुना ।
कुतः सञ्चोदितः कृष्णः कृतवान् संहितां मुनिः ॥ ०१.०४.००३ ॥
तस्य पुत्रो महायोगी समदृङ्निर्विकल्पकः ।
एकान्तमतिरुन्निद्रो गूढो मूढ इवेयते ॥ ०१.०४.००४ ॥
दृष्ट्वानुयान्तमृषिमात्मजमप्यनग्नं देव्यो ह्रिया परिदधुर्न सुतस्य चित्रम् ।
तद्वीक्ष्य पृच्छति मुनौ जगदुस्तवास्ति स्त्रीपुम्भिदा न तु सुतस्य विविक्तदृष्टेः ॥ ०१.०४.००५ ॥
कथमालक्षितः पौरैः सम्प्राप्तः कुरुजाङ्गलान् ।
उन्मत्तमूकजडवद्विचरन् गजसाह्वये ॥ ०१.०४.००६ ॥
कथं वा पाण्डवेयस्य राजर्षेर्मुनिना सह ।
संवादः समभूत्तात यत्रैषा सात्वती श्रुतिः ॥ ०१.०४.००७ ॥
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शौनक कृष्ण मुनि द्वारा निर्मित संहिता के बारे में पूछते हैं। साथ ही
उनके पुत्र को महायोगी, समदर्शी, निर्विकल्पक, एकांतमति, अनिद्रा युक्त,
गूढ़ और मूढ़वत प्रतीत होते बताते हैं।
यहीं वह प्रसिद्ध प्रसङ्ग है
जिसमें संन्यास लेने जाते बावले पुत्र के पीछे मुनि कृष्ण दौड़ते हुये जा
रहे थे तो स्नान करती नग्न देवियों ने पुत्र से तो स्वयं को नहीं छिपाया
किंतु पिता से छिपाया। कारण पूछने पर उन्होंने ने उत्तर दिया कि आप के
पुत्र की दृष्टि में भेद नहीं है किंतु आप की दृष्टि में स्त्री पुरुष का
भेद बना हुआ है, इसलिये।
शौनक पूछते हैं कि उस कुरुजाङ्गल प्रदेश में
विचरते उन्मत्त, मूक और जड़ समान उस पुत्र को लोगों ने पहचाना कैसे (कि ये
मुनि के पुत्र हैं)? राजर्षि से मुनि का संवाद कैसे हुआ, हमें बताइये।
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'शुकदेव' नाम अब तक नहीं आया, कृष्ण आ गये तो द्वैपायन भी आयेंगे और शुकदेव भी। आगे बढ़ते हैं।
मुनि कृष्ण के पुत्र की स्थिति के लिये प्रयुक्त शब्द महत्त्वपूर्ण हैं,
गँठिया लीजिये। साथ ही यह भी कि इस पुराण के लिये संहिता शब्द का प्रयोग
किया गया है।
पीछे बता चुका हूँ कि वेद-वेदांत-गीता त्रयी से भक्ति
संक्रमण की अवस्था इस पुराण का विषय है। 'संहिता' शब्द प्रयोग एक प्रकार से
रेखा खींच देता है कि आप सब वहीं रहिये, हमारी 'संहिता' कुछ और है।
साम्प्रदायिक मत की स्थापना बहुत ही सूक्ष्म विधि से की जा रही है।
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द्वापरे समनुप्राप्ते तृतीये युगपर्यये ।
जातः पराशराद्योगी वासव्यां कलया हरेः ॥ ०१.०४.०१४ ॥
तीसरे युग द्वापर में आदियोगी पराशर और वसु-कन्या के संयोग से हरि की कला का जन्म हुआ।
मुनि कृष्ण।
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आ गये भगवान व्यास
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परावरज्ञः स ऋषिः कालेनाव्यक्तरंहसा ।
युगधर्मव्यतिकरं प्राप्तं भुवि युगे युगे ॥ ०१.०४.०१६ ॥
भौतिकानां च भावानां शक्तिह्रासं च तत्कृतम् ।
अश्रद्दधानान्निःसत्त्वान् दुर्मेधान् ह्रसितायुषः ॥ ०१.०४.०१७ ॥
दुर्भगांश्च जनान् वीक्ष्य मुनिर्दिव्येन चक्षुषा ।
सर्ववर्णाश्रमाणां यद्दध्यौ हितममोघदृक् ॥ ०१.०४.०१८ ॥
चातुर्होत्रं कर्म शुद्धं प्रजानां वीक्ष्य वैदिकम् ।
व्यदधाद्यज्ञसन्तत्यै वेदमेकं चतुर्विधम् ॥ ०१.०४.०१९ ॥
ऋग्यजुःसामाथर्वाख्या वेदाश्चत्वार उद्धृताः ।
इतिहासपुराणं च पञ्चमो वेद उच्यते ॥ ०१.०४.०२० ॥
तत्रर्ग्वेदधरः पैलः सामगो जैमिनिः कविः ।
वैशम्पायन एवैको निष्णातो यजुषामुत ॥ ०१.०४.०२१ ॥
अथर्वाङ्गिरसामासीत्सुमन्तुर्दारुणो मुनिः ।
इतिहासपुराणानां पिता मे रोमहर्षणः ॥ ०१.०४.०२२ ॥
त एत ऋषयो वेदं स्वं स्वं व्यस्यन्ननेकधा ।
शिष्यैः प्रशिष्यैस्तच्छिष्यैर्वेदास्ते शाखिनोऽभवन् ॥ ०१.०४.०२३ ॥
त एव वेदा दुर्मेधैर्धार्यन्ते पुरुषैर्यथा ।
एवं चकार 'भगवान् व्यासः' कृपणवत्सलः ॥ ०१.०४.०२४ ॥
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एक वेद को चतुर्विध किये:
ऋग्वेद - पैल, साम - जैमिनी कवि, यजुर्वेद - वैशम्पायन, अथर्वाङ्गिरस -
दरुण पुत्र सुमंतु, इतिहास-पुराण - सूत जी के पिता रोमहर्षण।
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'सर्ववर्णाश्रमाणां यद्दध्यौ हितममोघदृक्' महत्त्वपूर्ण है क्योंकि आगे कहा गया है:
स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा ।
कर्मश्रेयसि मूढानां श्रेय एवं भवेदिह ।
इति भारतमाख्यानं कृपया मुनिना कृतम् ॥ ०१.०४.०२५ ॥
अनुष्टुप छन्द के आठ आठ वर्ण के चार चरण होते हैं जिन्हें दो पंक्तियों
में लिखा जाता है। यहाँ इस छन्द में आठ वर्णों के छ: चरण हैं और तीन
पंक्तियाँ हैं। सबसे ऊपर वाली पंक्ति जिसमें कि स्त्री, शूद्र और
द्विजबन्धु (पतितों) के लिये श्रुति को अगोचर बताया गया है, यदि हटा दी जाय
तो छन्द ठीक हो जाता है। प्रवाह भी व्यास: कृपणवत्सल: के आगे कर्मश्रेयसि
से जुड़ जाता है।
साथ ही पुराण आत्मविरोधी होने से भी बच जाता है, कहाँ
'सर्ववर्णाश्रमाणां यद्दध्यौ हितममोघदृक्' और कहाँ
'स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा'!
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क्षेपक बोलूँगा तो
#पोंगा जन को मिर्ची लगेगी। किंतु तब मेरे भागवत बाँचने और उनके बाँचने में अंतर क्या रह जायेगा?
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किं वा भागवता धर्मा न प्रायेण निरूपिताः ।
प्रियाः परमहंसानां त एव ह्यच्युतप्रियाः ॥ ०१.०४.०३१
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सरस्वती के तट पर खिन्नमना मुनि बैठे हुये हैं। महाभारत आख्यान की रचना
समाप्त हो चुकी है किंतु 'नातिप्रसीद' स्थिति में मुनि स्वयं से 'वितर्क'
कर रहे हैं। यह विरक्ति सी स्थिति है कि इतना कुछ रच दिया पर मन को तोष
नहीं है।
अपूर्णता का भान जब चरम पर है तो उन्हें परमहंसों को प्रिय
और स्वयं भगवान को भी प्रिय उन्हीं की कथा का स्मरण हो आता है और नारद आ
पहुँचते हैं! - कृष्णस्य नारदोऽभ्यागादाश्रमं प्रागुदाहृतम्।
...
वितर्क को विशिष्ट तर्क, स्वयं से स्वयं का गहन संवाद मानें तो ऐसी स्थिति
में रचनाधर्मी स्वयं नारद, स्वयं अपना उत्प्रेरक हो जाता है।
...
नारद रामायण रचना के पहले वाल्मीकि के यहाँ भी पहुँच जाते हैं। 'नारद' आदि
प्रेरक रहे हैं। उनका आश्रय ले कर समस्त पुराणों, आख्यानों, इतिहास आदि का
पुनर्संस्कार किया गया।
क्यों किया गया?
'च्युत' को 'अच्युत'
स्थिति में लाने के लिये। धर्म छूट जाये तो उसे पुन: स्थित करने के लिये
पुन: पुन: अनुसंधान आवश्यक। जो सभ्यतायें नहीं करतीं, नष्ट हो जाती हैं। यह
नित नवीन होना ही सनातन है जिसके यहाँ अच्युत का अर्थ स्वयं ईश्वर है।
...
नारद आदि भागवत भी हैं। श्रीराम और श्रीकृष्ण दोनों की आदि कथाओं की
प्रस्तावना में उनका रहना वैष्णव पंथ के आगम को रेखांकित करता है।
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भगवान् व्यास ने नारद जी को सम्बोधित किया:
त्वं पर्यटन्नर्क इव त्रिलोकीमन्तश्चरो
आप त्रिलोकी का पर्यटन अर्क अर्थात सूर्य की भाँति करते रहते हैं।
...
तीनों लोक सूर्य से प्रकाशित हैं। इति।
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...
अनुवाद में साम्प्रदायिक आग्रहवश घुसेड़ का एक उदाहरण।
अल्ल गल्ल टिप्पणी करने से पहले किसी संस्कृत ज्ञाता से पूछ ताछ कर लें।
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...
मुनि व्यास द्वारा नारद जी के लिये स्वायम्भुव संबोधन!
...
'स्वायम्भुव' भारतीय वैचारिकी की कूट संज्ञा है।
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सत्त्वं रजस्तम इति प्रकृतेर्गुणास्तैर्युक्तः परमपुरुष एक इहास्य धत्ते ।
स्थित्यादये हरिविरिञ्चिहरेति संज्ञाः श्रेयांसि तत्र खलु सत्त्वतनोर्नृणां स्युः ॥ ०१.०२.०२३ ॥
त्रिगुण से संयोग:
सत्त्व - हरि, रज - विरञ्चि, तम - हर
...
सामान्यत: हरि अर्थात विष्णु को रजोगुण से सम्बन्धित माना जाता है किंतु
वास्तव में ब्रह्मा उस गुण से सम्बन्धित हैं। बिना रजोगुण के सृजन सम्भव
नहीं। विवेकानन्द का एक समय रजोगुण पर जोर इसी कारण था।
विनाशी तम सृजन योग्य भूमि तैयार करता है। गर्भ में अन्धकार, मन्दिर के गर्भगृह में अन्धकार।
हरिहर संज्ञा में एक रहस्य छिपा हुआ है, बहुधा लक्षणों से सतोगुण और तमोगुण में भेद पता नहीं चलता।
साधक दिखता व्यक्ति कोष्ठबद्धता के कारण मुद्रा बनाये हुये है या चिंतन में लीन है, देख कर बताना कई बार कठिन होता है।
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वैष्णव मत स्थापन
...
मुमुक्षवो घोररूपान् हित्वा भूतपतीनथ ।
नारायणकलाः शान्ता भजन्ति ह्यनसूयवः ॥ ०१.०२.०२६ ॥
रजस्तमःप्रकृतयः समशीला भजन्ति वै ।
पितृभूतप्रजेशादीन् श्रियैश्वर्यप्रजेप्सवः ॥ ०१.०२.०२७ ॥
वासुदेवपरा वेदा वासुदेवपरा मखाः ।
वासुदेवपरा योग वासुदेवपराः क्रियाः ॥ ०१.०२.०२८ ॥
वासुदेवपरं ज्ञानं वासुदेवपरं तपः ।
वासुदेवपरो धर्मो वासुदेवपरा गतिः ॥ ०१.०२.०२९ ॥
...
मुमुक्षु के अभिलाषी जन किसी की निन्दा न करते हुये नारायण की कलाओं भजन
करते हैं। रज और तम प्रकृति के लोग धन और ऐश्वर्य कामना से पितरों, भूत और
प्रजापति की उपासना करते हैं।
वासुदेव ही अपरा योग हैं, अपरा यज्ञ हैं, वही अपरा योग क्रियादि हैं। वही परम ज्ञान हैं, वही परम तप, परम धर्म और परम गति हैं।
...
अपरा विद्या वेद ज्ञान को कहा जाता है। सब कुछ वासुदेव में बता कर यहाँ पुन: वैष्णवी स्थापना की गयी है।
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एकार्णव - प्रलय के समय का समुद्र जिसमें भगवान शयन करते हैं।
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जिज्ञासा - इसके भाग स्कन्ध क्यों कहलाते हैं?
Arun Upadhyaya comments:
ज्योतिष
के तीन विभागों को भी स्कन्ध कहते हैं। युद्ध का एक क्षेत्र भी एक स्कन्ध
है। पुस्तक के विभागों के कई नाम हैं-अध्याय, सर्ग, खण्ड, अधिकार, अनुवाक्,
ब्राह्मण, वल्ली, आह्निक, पुष्प,।
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...
०१.०७.००१।० शौनक उवाच
निर्गते नारदे सूत भगवान् बादरायणः ।
श्रुतवांस्तदभिप्रेतं ततः किमकरोद्विभुः ॥ ०१.०७.००१ ॥
०१.०७.००२।० सूत उवाच
ब्रह्मनद्यां सरस्वत्यामाश्रमः पश्चिमे तटे ।
शम्याप्रास इति प्रोक्त ऋषीणां सत्रवर्धनः ॥ ०१.०७.००२ ॥
तस्मिन् स्व आश्रमे व्यासो बदरीषण्डमण्डिते ।
आसीनोऽप उपस्पृश्य प्रणिदध्यौ मनः स्वयम् ॥ ०१.०७.००३ ॥
भक्तियोगेन मनसि सम्यक्प्रणिहितेऽमले ।
अपश्यत्पुरुषं पूर्णं मायां च तदपाश्रयम् ॥ ०१.०७.००४ ॥
...
ब्रह्मनदी सरस्वती के पश्चिम तट पर स्थित शम्याप्रास नामक स्थान पर
भक्तियोग द्वारा स्वयं को एकाग्र कर उन्हों ने भागवत पुराण की रचना की।
किसने की?
'बादरायण व्यास' ने।
___________
...
हरेर्गुणाक्षिप्तमतिर्भगवान् बादरायणिः ।
अध्यगान्महदाख्यानं नित्यं विष्णुजनप्रियः ॥ ०१.०७.०११ ॥
(रचयिता को पुन: बादरायण ही बताया गया है।)
परीक्षितोऽथ राजर्षेर्जन्मकर्मविलापनम् ।
संस्थां च पाण्डुपुत्राणां वक्ष्ये कृष्णकथोदयम् ॥ ०१.०७.०१२ ॥
...
सूत जी ने कहा कि अब मैं 'राजर्षि' परीक्षित और पाण्डवों की कथा कहता हूँ
जहाँ से कृष्ण कथा का उदय होता है।
...
संस्था और उदय - ये दो शब्द ध्यान देने योग्य हैं। महाभारत
'धर्मसंस्थापनार्थाय' हुआ। भगवान द्वारा धर्ममार्गी प्रमाणित पाण्डवों की
संतति राजर्षि कहलायी।
ईश्वर की कथा का उदय बिना अभूतपूर्व
परिस्थितियों के नहीं होता, वही उसका ऐश्वर्य है और इस कारण ही महाभारत
अध्ययन भी महत्त्वपूर्ण है।
...
ब्राह्मण ग्रंथ यजुर्वेद को
क्षत्रियों से सम्बन्धित बताते हैं। वह अध्यायों में विभक्त है। 'अध्ययन'
और 'अध्याय' में क्या सम्बन्ध है?
Dr. Rajrani Sharma Comments: ध्यातव्य ही अधीतव्य है ....अधीतव्य ही अध्याय है ... ध्येय भी ... अध्येय भी ....
नम:
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...
भर्तुः प्रियं द्रौणिरिति स्म पश्यन् कृष्णासुतानां स्वपतां शिरांसि ।
उपाहरद्विप्रियमेव तस्य जुगुप्सितं कर्म विगर्हयन्ति ॥ ०१.०७.०१४ ॥
माता शिशूनां निधनं सुतानां निशम्य घोरं परितप्यमाना ।
तदारुदद्वाष्पकलाकुलाक्षी तां सान्त्वयन्नाह किरीटमाली ॥ ०१.०७.०१५ ॥
तदा शुचस्ते प्रमृजामि भद्रे यद्ब्रह्मबन्धोः शिर आततायिनः ।
गाण्डीवमुक्तैर्विशिखैरुपाहरे त्वाक्रम्य यत्स्नास्यसि दग्धपुत्रा ॥ ०१.०७.०१६ ॥
...
'तदारुदद्वाष्पकलाकुलाक्षी' में वर्ण योजना का सौन्दर्य दर्शनीय है।
...
सूत जी भागवत कथा के प्रस्थान बिन्दु के लिये महाभारत के एक करुण प्रसङ्ग को चुनते हैं।
द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने जब सोये हुये कृष्णा के पुत्रों का वध कर दिया
तो विलाप करती उस माता को सांत्वना देते हुये 'किरीटमाली' अर्जुन ने कहा कि
मैं उस पतित आततायी ब्राह्मण का सिर काट कर लाऊँगा। पुत्रों के दाहसंस्कार
के पश्चात तुम उस पर अपने पाँव रख कर स्नान करना।
...
सूत जी ने यह प्रसङ्ग ही क्यों चुना? करुणा और घृणा का सङ्गम??
...
सांत्वना के शब्द भी प्रतिशोध भाव से पगे हैं।
ब्रह्मास्त्र छूटते हैं। प्रलयकाल की 'सांवर्तक' अग्नि के समान ताप चारो
ओर फैल जाता है। प्रजा का दहन होने लगता है - दह्यमानाः प्रजाः सर्वाः
सांवर्तकममंसत।
....
अश्वत्थामा को तो अस्त्र लौटाना ज्ञात नहीं
था, अर्जुन ने कृष्ण की अनुमति से दोनों लौटा लिये - मतं च वासुदेवस्य
सञ्जहारार्जुनो द्वयम्।
पशुओं की तरह ही गौतमी पुत्र अश्वत्थामा को बाँध लिया। कृष्ण उस दुरात्मा को देखते ही कुपित हो उठे।
...
कृष्ण अर्जुन को अश्वत्थामा का वध करने को उकसाते हैं:
मैनं पार्थार्हसि त्रातुं ब्रह्मबन्धुमिमं जहि ।
योऽसावनागसः सुप्तानवधीन्निशि बालकान् ॥ ०१.०७.०३५ ॥
मत्तं प्रमत्तमुन्मत्तं सुप्तं बालं स्त्रियं जडम् ।
प्रपन्नं विरथं भीतं न रिपुं हन्ति धर्मवित् ॥ ०१.०७.०३६ ॥
स्वप्राणान् यः परप्राणैः प्रपुष्णात्यघृणः खलः ।
तद्वधस्तस्य हि श्रेयो यद्दोषाद्यात्यधः पुमान् ॥ ०१.०७.०३७ ॥
प्रतिश्रुतं च भवता पाञ्चाल्यै शृण्वतो मम ।
आहरिष्ये शिरस्तस्य यस्ते मानिनि पुत्रहा ॥ ०१.०७.०३८ ॥
तदसौ वध्यतां पाप आतताय्यात्मबन्धुहा ।
भर्तुश्च विप्रियं वीर कृतवान् कुलपांसनः ॥ ०१.०७.०३९ ॥
...
इस अधम ब्राह्मण को मार डालो:
- इसने सोते हुये बालकों की हत्या की है।
- धर्मवेत्ता असावधान मत्त, प्रमत्त, उन्मत्त, सुप्त, बाल, स्त्री, जड़,
शरणागत, रथहीन, भयभीत शत्रु को नहीं मारते (इसने अधर्म किया है)
- इसका वध उसके लिये ही कल्याणकारी है क्योंकि ऐसी प्रवृत्ति के कारण यह जियेगा तो ऐसे काम और करेगा और भोगेगा।
- स्वयं तुमने भी पाञ्जाली के सामने इसका वध करने की प्रतिज्ञा की है।
- इस आततायी कुलकलङ्क ने ऐसा कर्म कर अपने स्वामी दुर्योधन को भी दु:ख पहुँचाया है।
...
सूत जी कहते हैं कि वास्तव में कृष्ण अर्जुन की परीक्षा ले रहे थे -
एवं परीक्षता धर्मं पार्थः कृष्णेन चोदितः
अर्जुन सफल हुये क्योंकि उसे मारा नहीं - गुरुपुत्र है।
अर्जुन महान थे।
नैच्छद्धन्तुं गुरुसुतं यद्यप्यात्महनं महान्
...
उसे बाँध कर ले चले। आगे द्रौपदी ने भी उसे क्षमा कर दिया।
...
उदार मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिये इस प्रसङ्ग से अच्छा क्या हो सकता था?
जहाँ महाभारत में दुर्योधन पांडवों के पुत्रों की हत्या सुन कर 'चैन से
मरता है', वहीं भागवत में उसे समाचार सुन कर दु:ख होता है। कृपा कटाक्ष का
तनिक उसे भी मिल गया है।
...
बादरायण और द्वैपायन एक थे या
नहीं, रोमहर्षण पुत्र उग्रश्रवा सूत ने कथा यथावत सुनाई या नहीं, इन सबसे
ऊपर यह है कि उस महाविनाश को वर्षों पश्चात कथावाचक अनुभव करता उससे एक
होता है, प्रस्थान बिन्दु के रूप में ऐसा प्रसङ्ग चुनता है जहाँ मानवता के
आदर्श आग्नेय कसौटी पर हैं और जहाँ करुणा, घृणा और प्रतिशोध भावों के बीच
स्वयं हरि भी प्रेरित कर रहे होते हैं, परीक्षा ले रहे होते हैं।
क्षमा की प्रतिष्ठा कर आहत व्यास परम्परा पर जैसे सूत जी ने औषधीय लेप लगा दिया। पितरों को शीतलता प्रदान की और
ऋजु स्वभाव के अर्जुन एवं तेजस्विनी कृष्णा, दोनों द्वारा ऐसे पाप का भी
क्षमादान रेखाङ्कित कर उन मानवीय मूल्यों को पुन: मान दिया जो धर्ममूल हैं।
~ हरि ॐ ~
...
सरहस्यो धनुर्वेदः सविसर्गोपसंयमः ।
अस्त्रग्रामश्च भवता शिक्षितो यदनुग्रहात् ॥ ०१.०७.०४४ ॥
स एष भगवान् द्रोणः प्रजारूपेण वर्तते ।
तस्यात्मनोऽर्धं पत्न्यास्ते नान्वगाद्वीरसूः कृपी ॥ ०१.०७.०४५ ॥
तद्धर्मज्ञ महाभाग भवद्भिर्गौरवं कुलम् ।
वृजिनं नार्हति प्राप्तुं पूज्यं वन्द्यमभीक्ष्णशः ॥ ०१.०७.०४६ ॥
मा रोदीदस्य जननी गौतमी पतिदेवता ।
यथाहं मृतवत्सार्ता रोदिम्यश्रुमुखी मुहुः ॥ ०१.०७.०४७ ॥
...
द्रौपदी ने अश्वत्थामा को पशुवत बँधा और दीन हीन देख कर उसके वध को उद्यत अर्जुन को रोकते हुये कहा:
"जिनकी कृपा से आप ने धनुर्वेद के सारे रहस्य, प्रयोग और उपसंहार के साथ
प्राप्त किये, विभिन्न अस्त्र विद्याओं में शिक्षित हुये, वही 'भगवान्'
द्रोण आप के सामने प्रजा अर्थात संतान रूप में ऐसी अवस्था में हैं। उनकी
अर्द्धाङ्गिनी कृपी अपने इस वीर पुत्र की ममता में अभी जीवित हैं।
हे
महाभाग! आप तो धर्मज्ञ हैं, अपने कुल के गौरव के योग्य कर्म कीजिये, जो
पूज्य हैं उन्हें व्यथा पहुँचाना आप के योग्य कार्य नहीं है।
जिस
प्रकार अपने पुत्रों के मृत होने पर मैं रो रही हूँ, पति परायणा (या हे पति
देवता!) गौतमी जननी भी (अपने पुत्र के वध पश्चात) वैसे न रोयें, (ऐसा कर्म
कीजिये)।"
...
पाँच पाँच महारथी पुत्रों की सुसुप्तावस्था में
निर्मम अधर्मपूर्वक हत्या के पश्चात भी, अपराधी के साक्षात सामने दीन हीन
अवस्था में होने पर भी प्रतिशोध के स्थान पर द्रौपदी की धर्मबुद्धि स्थिर
रहती है। द्रौपदी को ऐसे ही प्रात:स्मरणीया नहीं कहा गया!
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अथ विश्वेश विश्वात्मन् विश्वमूर्ते स्वकेषु मे ।
स्नेहपाशमिमं छिन्धि दृढं पाण्डुषु वृष्णिषु ॥ ०१.०८.०४१ ॥
त्वयि मेऽनन्यविषया मतिर्मधुपतेऽसकृत् ।
रतिमुद्वहतादद्धा गङ्गेवौघमुदन्वति ॥ ०१.०८.०४२ ॥
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मृत कुरुओं के दाहसंस्कार के पश्चात जब कृष्ण ने लौटने की मंशा दर्शायी तो
कुंती ने उनका स्तुतिगान किया। अंत में प्रार्थना की कि हे विश्व के
स्वामी, विश्वात्मा, स्वयं में विश्वमूर्ति, पाण्डवों और वृष्णियों के
प्रति जिस स्नेहपाश ने मुझे जकड़ रखा है, उसे तोड़ दो।
अपनी भक्ति में
मुझे लगा लो, हे अनन्य!मैं किसी अन्य विषय में न रत होऊँ और सीधे आप की ओर
ही प्रवाहित होऊँ जैसे गङ्गा समुद्र की ओर होती हैं।
...
कुंती ने
जो सम्बोधन भगवान को दिये हैं और आगे जो प्रार्थना की है, वह उसी विराट की
अनुभूति से उपजी है जिसे पुरुष सूक्त में भव्यता के साथ प्रस्तुत किया गया
है।
यदि आप छान्दस और संस्कृत मूल नहीं देखे होंगे तो कुंती के निर्मम भाव का मर्म नहीं पकड़ पायेंगे।
...
संस्कृत सीखिये।
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भारत युद्ध के पश्चात भी कृष्ण जी की मातायें जीवित थीं। सात वसुदेव पत्नियों (?) का और कृष्ण की सोलह हजार पत्नियों का उल्लेख।
प्रविष्टस्तु गृहं पित्रोः परिष्वक्तः स्वमातृभिः ।
ववन्दे शिरसा सप्त देवकीप्रमुखा मुदा ॥ ०१.११.०२९ ॥
ताः पुत्रमङ्कमारोप्य स्नेहस्नुतपयोधराः ।
हर्षविह्वलितात्मानः सिषिचुर्नेत्रजैर्जलैः ॥ ०१.११.०३० ॥
अथाविशत्स्वभवनं सर्वकाममनुत्तमम् ।
प्रासादा यत्र पत्नीनां सहस्राणि च षोडश ॥ ०१.११.०३१ ॥
...
लगे हाथ हर स्थिति में अविकारी रहने वाले कृष्ण को स्त्रैण समझने वाले और वालियों पर भी तञ्ज:
उद्दामभावपिशुनामलवल्गुहास व्रीडावलोकनिहतो मदनोऽपि यासाम् ।
सम्मुह्य चापमजहात्प्रमदोत्तमास्ता यस्येन्द्रियं विमथितुं कुहकैर्न शेकुः ॥ ०१.११.०३७ ॥*
तमयं मन्यते लोको ह्यसङ्गमपि सङ्गिनम् ।
आत्मौपम्येन मनुजं व्यापृण्वानं यतोऽबुधः ॥ ०१.११.०३८ ॥
एतदीशनमीशस्य प्रकृतिस्थोऽपि तद्गुणैः ।
न युज्यते सदात्मस्थैर्यथा बुद्धिस्तदाश्रया ॥ ०१.११.०३९ ॥
तं मेनिरेऽबला मूढाः स्त्रैणं चानुव्रतं रहः ।
अप्रमाणविदो भर्तुरीश्वरं मतयो यथा ॥ ०१.११.०४० ॥
...
भागवत रचना द्वारा भगवान की प्रतिष्ठा पूर्ण हुई।
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...
युधिष्ठिर जम्बूद्वीप के अधिपति :
सम्पदः क्रतवो लोका महिषी भ्रातरो मही ।
जम्बूद्वीपाधिपत्यं च यशश्च त्रिदिवं गतम् ॥
...
अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से गर्भ में जलते परीक्षित द्वारा अंगुष्ठ आकार के परम पुरुष का दर्शन
मातुर्गर्भगतो वीरः स तदा भृगुनन्दन ।
ददर्श पुरुषं कञ्चिद्दह्यमानोऽस्त्रतेजसा ॥ ०१.१२.००७ ॥
अङ्गुष्ठमात्रममलं स्फुरत्पुरटमौलिनम् ।
अपीव्यदर्शनं श्यामं तडिद्वाससमच्युतम् ॥ ०१.१२.००८ ॥
...
नालच्छेदन से पहले सूतक नहीं होता। जन्म से ले कर नालच्छेद तक का समय
'प्रजातीर्थ' कहलाता है। उस समय परिवारियों द्वारा किया गया दान अक्षय होता
है। युधिष्ठर ने साक्षात विष्णु द्वारा गर्भ में रक्षित परीक्षित के जन्म
के समय दान दिये। ब्राह्मणों ने कहा कि यह बालक यशस्वी, परम भक्त और
महापुरुष होगा।
तमूचुर्ब्राह्मणास्तुष्टा राजानं प्रश्रयान्वितम् ।
एष ह्यस्मिन् प्रजातन्तौ पुरूणां पौरवर्षभ ॥ ०१.१२.०१५ ॥
दैवेनाप्रतिघातेन शुक्ले संस्थामुपेयुषि ।
रातो वोऽनुग्रहार्थाय विष्णुना प्रभविष्णुना ॥ ०१.१२.०१६ ॥
तस्मान्नाम्ना विष्णुरात इति लोके भविष्यति ।
न सन्देहो महाभाग महाभागवतो महान् ॥ ०१.१२.०१७ ॥
...
इस अंश में एक बात महत्त्वपूर्ण है। युधिष्ठिर को 'पौरवर्षभ' सम्बोधित
करते हुये उनके बहुत प्राचीन पूर्वज पुरु का नाम लिया गया है। यह कहा गया
है कि पुरुओं का वंश मिटने ही वाला था किंतु विष्णु ने बचा लिया।
विष्णु द्वारा बचाये जाने के कारण बालक का नाम 'विष्णुरात' होगा।
पुरु ऋग्वेद में उल्लिखित हैं और परीक्षित अथर्ववेद में।
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कुलनाश का निमित्त बनने के प्रायश्चित के लिये अश्वमेध करने को युधिष्ठिर
के पास अतिरिक्त धन नहीं था और प्रजा पर अतिरिक्त कर भार न पड़े इसकी भी
चिंता थी। कृष्ण ने यहाँ भी समाधान दिया।
प्राचीन काल में एक अति
समृद्ध राजा मरुत हुये थे जिन्होंने किसी यज्ञ के पश्चात उसमें प्रयुक्त
सभी पात्र जो कि स्वर्ण के थे, फेंकवा दिये थे।
इतना दान दिया था कि
याचक सारा ले न जा सके और उत्तर दिशा में छोड़ कर चले गये। परित्यक्त धन
राजा का होता है। कृष्ण के बताने पर युधिष्ठिर ने वही धन मँगवा क
र अश्वमेध सम्पन्न किया।
...
यक्ष्यमाणोऽश्वमेधेन ज्ञातिद्रोहजिहासया ।
राजा लब्धधनो दध्यौ नान्यत्र करदण्डयोः ॥ ०१.१२.०३२॥
तदभिप्रेतमालक्ष्य भ्रातरो ञ्च्युतचोदिताः ।
धनं प्रहीणमाजह्रुरुदीच्यां दिशि भूरिशः ॥ ०१.१२.०३३ ॥
...
यह प्रसङ्ग कर नीति, अर्थ विधान और प्रजा द्वारा उसके अनुपालन की
धर्मबुद्धि को रेखाङ्कित करता है, साथ ही राजा द्वारा प्रजा पर नियंत्रण की
आवश्यकता को भी।
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यह सब होने के समय विदुर तीर्थयात्रा पर थे। हस्तिनापुर लौटे तो मैत्रेय से आत्मज्ञान प्राप्त कर के :
विदुरस्तीर्थयात्रायां मैत्रेयादात्मनो गतिम् ।
ज्ञात्वागाद्धास्तिनपुरं तयावाप्तविवित्सितः ॥
माण्डव्य ऋषि ने अपने पूर्वजन्म में बाल्यावस्था में किसी टिड्डी को कुश
से छेद दिया था। अगले जन्म में चोरी के झूठे आरोप से शूली पर चढ़ गये।
उन्होंने यम से पूछा कि तपी और व्रती निष्पाप होने पर भी मुझे शूली पर
क्यों चढ़ना पड़ा? तो यम ने पूर्वजन्म का पाप बता दिया। ऋषि ने कहा कि
बाल्यावस्था में अज्ञान में किये लघु पाप का तुमने मुझे इतना बड़ा दण्ड
दिया! तुझमें विवेक नहीं, तुम्हें शाप देता हूँ कि तुम सौ वर्ष तक
शूद्रत्त्व की स्थिति में रहोगे।
उसी शाप के कारण यम ने विदुर रूप धारण किया। तब तक यम का कार्यभार 'अर्यमा' ने सँभाला:
अबिभ्रदर्यमा दण्डं यथावदघकारिषु ।
यावद्दधार शूद्रत्वं शापाद्वर्षशतं यमः ॥ ०१.१३.०१५ ॥
...
अर्यमन् ऋग्वैदिक देवता हैं जोकि ज्योतिष में फाल्गुनी द्वय नक्षत्रों के देवता माने जाते हैं और यम भरणी नक्षत्र के।
अर्यमा या अर्यमन् को मित्रता से सम्बन्धित माना जाता है। क्या यह केवल
संयोग है कि यम रूप विदुर ने मैत्रेय नामधारी ऋषि से ज्ञान प्राप्त किया,
तब जबकि उनका कार्यभार मित्रता के देवता अर्यमा ने सँभाल रखा था?
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विदुर ने धृतराष्ट्र को धिक्कारा। कितने दिन जीने की इच्छा अभी बनी हुई है!
अन्धः पुरैव वधिरो मन्दप्रज्ञाश्च साम्प्रतम् ।
विशीर्णदन्तो मन्दाग्निः सरागः कफमुद्वहन् ॥ ०१.१३.०२२ ॥
अहो महीयसी जन्तोर्जीविताशा यथा भवान् ।
भीमापवर्जितं पिण्डमादत्ते गृहपालवत् ॥ ०१.१३.०२३ ॥
अग्निर्निसृष्टो दत्तश्च गरो दाराश्च दूषिताः ।
हृतं क्षेत्रं धनं येषां तद्दत्तैरसुभिः कियत् ॥ ०१.१३.०२४ ॥
तस्यापि तव देहोऽयं कृपणस्य जिजीविषोः ।...
...
"अन्धे हैं, बहरे भी हो गये हैं, प्रज्ञा मन्द हो चली है, दाँत टूट गये, जठराग्नि मन्द हो गयी, कफ का प्रकोप है।
अहो! आप की जीने की इच्छा कितनी महान है जो भीम के फेंके हुये टुकड़े खा कर
घरेलू पालतू (कुछ अर्थकारों ने कुत्ता तक लिख दिया है) के समान यहाँ पड़े
हुये हैं।
आप ने जिनको जलाने के लिये लाक्षागृह का षड़यंत्र किया, विष
देकर मारने का उद्योग किया, जिनकी पत्नी को भरी सभा अपमानित किया, जिनका धन
और भूमि छीन लिया; उन्हीं के अन्न से प्राण पालने में कैसा गौरव?
आप की अज्ञानता की सीमा ही है जो अब भी जीने की इच्छा बची हुई है! छोड़िये यह सब।"
...
धृतराष्ट्र ने सुना और निर्णय ले लिया। वह, विदुर और गान्धारी, तीनों ने
बिना युधिष्ठिर को बताये ही हस्तिनापुर छोड़ दिया। प्रात:काल जब चरणवन्दन को
युधिष्ठिर गये तो उन सबको न पा कर दु:ख से भर उठे।
...
यम स्वरूप विदुर मैत्रेय से आत्मज्ञान ले कर लौटे तो यह काम किये!
खरी खोटी सुनाने वाले कल्याणकामी शुभचिन्तक भी पास रहने चाहिये। यम समान लगते वे वस्तुत: कल्याणकारी अर्यमा ही होते हैं।
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...
नारद ने बताया कि तीनों वहाँ जायेंगे जहाँ हिमालय के दक्षिण में
सप्तर्षियों के लिये गङ्गा ने स्वयं को सात धाराओं में विभक्त कर लिया था।
वह क्षेत्र सप्तस्रोत कहलाता है।
धृतराष्ट्रः सह भ्रात्रा गान्धार्या च स्वभार्यया ।
दक्षिणेन हिमवत ऋषीणामाश्रमं गतः ॥ ०१.१३.०५१ ॥
स्रोतोभिः सप्तभिर्या वै स्वर्धुनी सप्तधा व्यधात् ।
सप्तानां प्रीतये नाना सप्तस्रोतः प्रचक्षते ॥ ०१.१३.०५२ ॥
...
यह क्षेत्र आज भी है क्या? कहाँ है?
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...
गताः सप्ताधुना मासा भीमसेन तवानुजः ।
नायाति कस्य वा हेतोर्नाहं वेदेदमञ्जसा ॥ ०१.१४.००७ ॥
अर्जुन को द्वारिका गये हुये सात महीने बीत गये और वे लौटे नहीं, कोई
समाचार भी नहीं मिला। युधिष्ठिर ढेर सारे अपशकुनों का सामना करते सोच रहे
थे कि कहीं भगवान के गोलोकगमन की नारदीय भविष्यवाणी सत्य तो नहीं हो गई? कि
अर्जुन आ पहुँचे।
कैसी स्थिति थी उनकी?
तं पादयोर्निपतितमयथापूर्वमातुरम् ।
अधोवदनमब्बिन्दून् सृजन्तं नयनाब्जयोः ॥
मुँह लटका हुआ था, कमल समान सुन्दर आँखें आँसुओं से भरी हुई थीं और देह
श्रीहीन दिख रही थी, ऐसी अवस्था में अर्जुन युधिष्ठिर के पाँवों पर गिर
पड़े!
...
युधिष्ठिर कुशल जानने को प्रश्नों की झड़ी लगा दिये
जिनमें यह भी था कि तुम महान आत्मा हो, कहीं तुम्हारे हाथों कुछ जुगुप्सित
तो नहीं घट गया?
युधिष्ठिर के दो प्रश्न ऐसे हैं जो जैविक सम्बन्ध के समय भी स्त्री के प्रति कैसा आचरण अपेक्षित है, रेखांकित करते हैं:
कच्चित्त्वं नागमोऽगम्यां गम्यां वासत्कृतां स्त्रियम्
जो अगम्या है अर्थात जिनके साथ भोग वर्जित हैं, उनमें से किसी के साथ कुकर्म तो नहीं कर बैठे?
और जो गमन योग्य है ऐसी के साथ भी असत्कारपूर्वक गमन तो नहीं कर बैठे? (जो ऐसी दशा बनाये हुये हो!)
...
उनके प्रश्नों में शिक्षायें और आर्य आदर्श स्पष्ट हैं। कुछ अन्य यूँ हैं:
किसी याचक को लौटा तो नहीं दिये? देने को कह कर भी, ऐसा तो नहीं हुआ कि दे न सके?
ब्राह्मण, बालक, गौ, बूढ़े, रोगी, स्त्री और शरण में आये किसी दीन का त्याग तो नहीं कर दिये?
बालकों और बूढ़ों को भोजन कराये बिना भोजन तो नहीं कर लिये?
तुमसे ऐसा कुछ जुगुप्सित कर्म हो ही नहीं सकता! हो न हो तुम अपने परम सुहृदयी अनन्य बन्धु और नाथ कृष्ण से रहित हो गये हो।
अन्य कोई कारण नहीं जो तुम ऐसा हाल बना लिये हो!
जुगुप्सितं कर्म किञ्चित्कृतवान्न यदक्षमम् ॥ ०१.१४.०४३ ॥
कच्चित्प्रेष्ठतमेनाथ हृदयेनात्मबन्धुना ।
शून्योऽस्मि रहितो नित्यं मन्यसे तेऽन्यथा न रुक् ॥ ०१.१४.०४४ ॥
...
कुछ आलेख पहले मैंने selfsuggestion और contrasuggestion के संकेत किये थे।
क्या घरों में सगे सम्बन्धियों द्वारा अब भी वे शिक्षायें दी जाती हैं जो
कभी सामान्य थीं? मैंने विद्यालय नहीं, 'घर' की बात पूछी है।
पुराना और दकियानूसी कह कर हँसी उड़ाते रहे, अब Moral Education और Morality की कमी का रोना रोते हैं।
~ हरि ॐ ~
___________
...
सोऽहं नृपेन्द्र रहितः पुरुषोत्तमेन सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्यः।
अध्वन्युरुक्रमपरिग्रहमङ्ग रक्षन् गोपैरसद्भिरबलेव विनिर्जितोऽस्मि॥०१.१५.०२०॥
तद्वै धनुस्त इषवः स रथो हयास्ते सोऽहं रथी नृपतयो यत आनमन्ति।
सर्वं क्षणेन तदभूदसदीशरिक्तं भस्मन् हुतं कुहकराद्धमिवोप्तमूष्याम्॥ ०१.१५.०२१॥
...
कृष्ण के देहावसान पर अर्जुन (युधिष्ठिर से):
"हे नृपेन्द्र! उन पुरुषोत्तम, सखा, सुहृद के बिना मेरा हृदय शून्य हो गया
है। मैं कृष्ण की पत्नियों को (कृष्ण के अवसान के पश्चात) यहाँ ला रहा था,
मार्ग में गोपों ने मुझे निर्बल स्त्री की भाँति हरा दिया, मैं उन सबकी
रक्षा न कर सका।
वही धनुष बाण हैं, वही अश्व हैं, वही रथ है और मैं
वही रथी हूँ जिसके आगे बड़े बड़े नृप सिर झुकाया करते थे। किंतु कृष्ण के
बिना क्षण भर में ही सब रिक्त नि:सार हो गये जैसे भस्म में आहुति हो, जैसे
कपट भरी संपदा हो, जैसे ऊसर में बोया बीज हो!"
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यादव वारुणी पी कर आपस में लड़ मरे। एक अनुवादक ने वारुणी का
अनुवाद 'चावल की मदिरा' किया है जो कि आज भी कामरूप और वनवासी क्षेत्रों
में सामान्य है। धान का सम्बन्ध जल से है और वरुण का भी। क्या वारुणी नाम
इसलिये पड़ा? क्या प्रभास क्षेत्र में धान होता था? या वारुणी आयातित थी?
वारुणीं मदिरां पीत्वा मदोन्मथितचेतसाम् ।
अजानतामिवान्योन्यं चतुःपञ्चावशेषिताः ॥ ०१.१५.०२३ ॥
...
युधिष्ठिर ने कृष्णावसान के पश्चात अपना अंत समय जान कर पौत्र परीक्षित को
'समुद्र से घिरी भूमि' का 'स्वराट' अभिषिक्त किया। शूरसेनाधिपति के रूप
में अनिरुद्ध के पुत्र वज्र को मथुरा में आसीन किया और स्वयं प्राजापात्य
यज्ञ कर के अग्नि को पी गये अर्थात गृहस्थ के घर की अग्नि से मुक्त हो
संन्यास ले लिये:
स्वराट्पौत्रं विनयिनमात्मनः सुसमं गुणैः ।
तोयनीव्याः पतिं भूमेरभ्यषिञ्चद्गजाह्वये ॥ ०१.१५.०३८ ॥
मथुरायां तथा वज्रं शूरसेनपतिं ततः ।
प्राजापत्यां निरूप्येष्टिमग्नीनपिबदीश्वरः ॥ ०१.१५.०३९ ॥
...
ईश्वर की स्मृति में चीर वस्त्र धारण किये निराहार रहते युधिष्ठिर देह को
भूल गये। वे ऐसे दिखते थे जैसे कोई जड़ हो, कोई उन्मत्त हो या कोई पिशाच!
चीरवासा निराहारो बद्धवाङ्मुक्तमूर्धजः ।
दर्शयन्नात्मनो रूपं जडोन्मत्तपिशाचवत् ॥ ०१.१५.०४३ ॥
ऐसी अवस्था में उन्होंने उत्तर की ओर महाप्रस्थान किया।
....
योद्धा मृत्यु का वरण भी सम्पूर्ण तैयारी से करता है।
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स उत्तरस्य तनयामुपयेम इरावतीम् ।
जनमेजयादींश्चतुरस्तस्यामुत्पादयत्सुतान् ॥ ०१.१६.००२ ॥
आजहाराश्वमेधांस्त्रीन् गङ्गायां भूरिदक्षिणान् ।
शारद्वतं गुरुं कृत्वा देवा यत्राक्षिगोचराः ॥ ०१.१६.००३ ॥
...
परीक्षित ने उत्तर की पुत्री इरावती से विवाह कर चार पुत्र उत्पन्न किये
जिनमें जनमेजय सबसे बड़े थे। गङ्गा तट पर उन्होंने तीन अश्वमेध यज्ञ किये
जिनमें कृपाचार्य उनके गुरु थे।
...
कृपाचार्य का एक नाम शारद्वत भी था। परीक्षित द्वारा विजित प्रदेश -
भद्राश्वं केतुमालं च भारतं चोत्तरान् कुरून्।
किम्पुरुषादीनि वर्षाणि विजित्य जगृहे बलिम् ॥०१.१६.०१२ ॥
...
०१.१६.०२७।० धरण्युवाच
भवान् हि वेद तत्सर्वं यन्मां धर्मानुपृच्छसि ।
चतुर्भिर्वर्तसे येन पादैर्लोकसुखावहैः ॥ ०१.१६.०२७ ॥
...
पृथ्वी द्वारा धर्म को गिनाये भगवान के गुण ; सत्यं शौचं दया क्षान्तिस्त्यागः सन्तोष आर्जवम् ।
शमो दमस्तपः साम्यं तितिक्षोपरतिः श्रुतम् ॥ ०१.१६.०२८ ॥
ज्ञानं विरक्तिरैश्वर्यं शौर्यं तेजो बलं स्मृतिः ।
स्वातन्त्र्यं कौशलं कान्तिर्धैर्यं मार्दवमेव च ॥ ०१.१६.०२९ ॥
प्रागल्भ्यं प्रश्रयः शीलं सह ओजो बलं भगः ।
गाम्भीर्यं स्थैर्यमास्तिक्यं कीर्तिर्मानोऽनहङ्कृतिः ॥ ०१.१६.०३० ॥
एते चान्ये च भगवन्नित्या यत्र महागुणाः ।
प्रार्थ्या महत्त्वमिच्छद्भिर्न वियन्ति स्म कर्हिचित् ॥ ०१.१६.०३१ ॥
तेनाहं गुणपात्रेण श्रीनिवासेन साम्प्रतम् ।
शोचामि रहितं लोकं पाप्मना कलिनेक्षितम् ॥ ०१.१६.०३२ ॥
...
धर्म और पृथ्वी के साथ परीक्षित के संवाद से कुछ बातें :
- कृतयुग में धर्म के चार चरण - तपः शौचं दया सत्यमिति पादाः कृते कृताः । कलियुग में मात्र सत्य के कारण ही धर्म बचा रह गया है।
- परीक्षित ने जब कलि को राज्य से बाहर जाने का आदेश किया तो उसने रहने के
स्थान माँगे। परीक्षित ने पहले चार और पुन: उसके अनुरोध पर एक और जोड़ा -
स्वर्ण।
अभ्यर्थितस्तदा तस्मै स्थानानि कलये ददौ ।
द्यूतं पानं स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्चतुर्विधः ॥ ०१.१७.०३८ ॥
पुनश्च याचमानाय जातरूपमदात्प्रभुः ।
ततोऽनृतं मदं कामं रजो वैरं च पञ्चमम् ॥ ०१.१७.०३९ ॥
अमूनि पञ्च स्थानानि ह्यधर्मप्रभवः कलिः ।
औत्तरेयेण दत्तानि न्यवसत्तन्निदेशकृत् ॥ ०१.१७.०४० ॥
...
कलि के पाँच स्थान - जुआ, मदिरा पान, वेश्यावृत्ति, पशु हिंसा कर्म, स्वर्ण।
...
सोने को जातरूप कहा गया है।
रूप का एक अर्थ बहुत चमक वाली आभा है। सोने में वैसी आभा होती है। जात का
अर्थ समान गुण रखने वालों का समूह भी होता है। इस शब्द को ही लेकर अनुमान
लगाया जाता है कि यहाँ पहले चाँदी पायी गयी जिसका नाम रूप से रौप्य और उससे
बनी मुद्रा के लिये रुपया हुआ। सोने को उसकी जात का नाम जातरूप दिया गया।
इसे मात्र अनुमान भी माना जा सकता है क्योंकि सोना वेदों में भी 'हिरण्य'
नाम के साथ बहुलता से वर्णित है।
जातरूप शब्द पर और विश्लेषण होने
चाहिये कि क्या इस संज्ञा का प्रयोग मात्र छ्न्द में वर्ण पूर्ति के
उद्देश्य के किया गया या इसका यहाँ अर्थ ही दूसरा है, सोना नहीं? चाँदी के
रूप अर्थात चमक का भद्दा पड़ जाना सामान्य रूप से ज्ञात था और उसका एक नाम
'दुर्वर्ण' भी है।
'जात' से 'वर्ण' तक का यह विस्तार रोचक है
__________
...
सूत जी द्वारा स्वयं को विलोमज कहना:
अहो वयं जन्मभृतोऽद्य हास्म वृद्धानुवृत्त्यापि विलोमजाताः ।
दौष्कुल्यमाधिं विधुनोति शीघ्रं महत्तमानामभिधानयोगः ॥ ०१.१८.०१८ ॥
वयं शब्द से स्पष्ट है कि कई जन मिल कर कथा सुना रहे थे और वे सब सूत जाति के थे। उनमें मुख्य रो(लो)महर्षण के पुत्र उग्रश्रवा थे।
विलोमजाता का अर्थ प्रतिलोम विवाह से लगाया गया है जिसमें स्त्री उच्च
वर्ण की और पुरुष निम्न वर्ण का होता है। ब्राह्मण माता और क्षत्रिय पिता
की संतान सूत कहलाती है और वैश्य पिता एवंं क्षत्रिय माता की संतान मागध,
ऐसा मनु का मत है। मनु ने प्रतिलोम विवाह जनित संतान को वर्णसंकर कहा है।
(10.11-12)
उल्लेखनीय है कि संस्कृत साहित्य मागध और सूत जन को स्तुति
करने वालों के रूप में प्रस्तुत करता रहा है। राजाओं और प्रभुत्त्व वाले
संसारी लोगों की स्तुति छोड़ कर भगवान की स्तुति और सत्संग करने से निम्नता
से उच्चता की ओर गति की बात यहाँ बताई गई है।
...
सूत जी कहते
हैं कि अहो! आज इन ज्ञानियों का अनुसरण करने के कारण हम विलोमजात भी जन्मना
सीमाओं से ऊपर उठ गये। महात्माओं से संवाद (अभिधान) और संयोग से दुष्कुल
में जन्मा भी शीघ्र ही उच्चता को प्राप्त कर लेता है।
...
भारत
अपने आप से जूझता रहा है और अच्छे के लिये जूझता रहा है। ढेर सारे स्मार्त
विधान होते हुये भी विलोमज सूत जी शौनक और अन्य ऋषियों को भगवान की कथा
सुनाते हैं और स्पष्टत: सत्संग एवं कथा के माध्यम से अपनी उच्चता की घोषणा
करते हैं।
द्राविड़ी ने जो भक्ति धारा बहाई, उस गङ्गा ने सबको जन्म निरपेक्ष ऊँचाई दे दी।
___________
...
प्यास से व्याकुल परीक्षित को समाधिस्थ ऋषि ने माँगने पर भी जल
नहीं दिया तो वे अपना तिरस्कार समझ क्रुद्ध हो कर उनके गले में मृत साँप
डाल कर चले गये।
सुनने पर ऋषिपुत्र ने क्रोध में भर कर जो कुछ कहा
उसमें वर्ण श्रेष्ठता का दर्प नग्न है, राजा को 'द्वारपाल' और 'मुँह मारने
वाला कुत्ता' सम बताया जाता है:
अहो अधर्मः पालानां पीव्नां बलिभुजामिव ।
स्वामिन्यघं यद्दासानां द्वारपानां शुनामिव ॥ ०१.१८.०३३ ॥
ब्राह्मणैः क्षत्रबन्धुर्हि गृहपालो निरूपितः ।
स कथं तद्गृहे द्वाःस्थः सभाण्डं भोक्तुमर्हति ॥ ०१.१८.०३४ ॥
परीक्षित को ऋषिपुत्र ने मर्यादाभङ्ग का दण्ड देने हेतु शाप दिया - सात दिनों पश्चात तक्षक डँस लेगा।
इति लङ्घितमर्यादं तक्षकः सप्तमेऽहनि
...
समाधि टूटने पर ऋषि को सब पता चला तो अपने पुत्र को राजा को शाप देने के
लिये बहुत धिक्कारे।उनकी धिक्कार में आङ्गिरस कुल के ज्ञानी की समझ साक्षात
है:
अहो बतांहो महदद्य ते कृतमल्पीयसि द्रोह उरुर्दमो धृतः ॥ ०१.१८.०४१ ॥
न वै नृभिर्नरदेवं पराख्यं सम्मातुमर्हस्यविपक्वबुद्धे ।
यत्तेजसा दुर्विषहेण गुप्ता विन्दन्ति भद्राण्यकुतोभयाः प्रजाः ॥ ०१.१८.०४२ ॥
अलक्ष्यमाणे नरदेवनाम्नि रथाङ्गपाणावयमङ्ग लोकः ।
तदा हि चौरप्रचुरो विनङ्क्ष्यत्यरक्ष्यमाणोऽविवरूथवत्क्षणात् ॥ ०१.१८.०४३ ॥
तदद्य नः पापमुपैत्यनन्वयं यन्नष्टनाथस्य वसोर्विलुम्पकात् ।
परस्परं घ्नन्ति शपन्ति वृञ्जते पशून् स्त्रियोऽर्थान् पुरुदस्यवो जनाः ॥ ०१.१८.०४४ ॥
तदार्यधर्मः प्रविलीयते नृणां वर्णाश्रमाचारयुतस्त्रयीमयः ।
ततोऽर्थकामाभिनिवेशितात्मनां शुनां कपीनामिव वर्णसङ्करः ॥ ०१.१८.०४५ ॥
धर्मपालो नरपतिः स तु सम्राड्बृहच्छ्रवाः ।
साक्षान्महाभागवतो राजर्षिर्हयमेधयाट् ।
क्षुत्तृट्श्रमयुतो दीनो नैवास्मच्छापमर्हति ॥ ०१.१८.०४६ ॥
अपापेषु स्वभृत्येषु बालेनापक्वबुद्धिना ।
पापं कृतं तद्भगवान् सर्वात्मा क्षन्तुमर्हति ॥ ०१.१८.०४७ ॥
तिरस्कृता विप्रलब्धाः शप्ताः क्षिप्ता हता अपि ।
नास्य तत्प्रतिकुर्वन्ति तद्भक्ताः प्रभवोऽपि हि ॥ ०१.१८.०४८ ॥
...
परीक्षित महल पहुँच कर जब शांत हुये तो अपने नीच और अनार्य कर्म पर उन्हें
इतनी ग्लानि हुई कि सब कुछ छोड़ प्रायश्चित करने को गङ्गा किनारे
प्रायोपवेश (उपवास द्वारा देह त्याग) ले लिये!
इति व्यवच्छिद्य स पाण्डवेयः प्रायोपवेशं प्रति विष्णुपद्याम् ।
दधौ मुकुन्दाङ्घ्रिमनन्यभावो मुनिव्रतो मुक्तसमस्तसङ्गः ॥ ०१.१९.००७ ॥
...
राजा का यह निश्चय सुन कर उनके पास समस्त गोत्रों के ऋषि पधारे। सूची से स्पष्ट है कि कोई विशिष्ट छूटा ही नहीं!
अत्रिर्वसिष्ठश्च्यवनः शरद्वानरिष्टनेमिर्भृगुरङ्गिराश्च ।
पराशरो गाधिसुतोऽथ राम उतथ्य इन्द्रप्रमदेध्मवाहौ ॥ ०१.१९.००९ ॥
मेधातिथिर्देवल आर्ष्टिषेणो भारद्वाजो गौतमः पिप्पलादः।
मैत्रेय और्वः कवषः कुम्भयोनिर्द्वैपायनो भगवान्नारदश्च ॥ ०१.१९.०१० ॥
अन्ये च देवर्षिब्रह्मर्षिवर्या राजर्षिवर्या अरुणादयश्च।
नानार्षेयप्रवरान् समेतानभ्यर्च्य राजा शिरसा ववन्दे॥ ०१.१९.०११॥
ऋषियों ने परीक्षित के निश्चय को सुना और अपना निश्चय सुनाया कि उनके देह छोड़ने तक वे सभी वहीं रहेंगे।
सर्वे वयं तावदिहास्महेऽथ कलेवरं यावदसौ विहाय ।
लोकं परं विरजस्कं विशोकं यास्यत्ययं भागवतप्रधानः ॥ ०१.१९.०२१ ॥
...
तभी वहाँ घूमते घामते व्यासपुत्र [शुकदेव] भी पहुँच गये। उनकी अवस्था 16 वर्ष की थी और वह बहुत ही सुन्दर थे:
तं द्व्यष्टवर्षं सुकुमारपाद करोरुबाह्वंसकपोलगात्रम् ।
चार्वायताक्षोन्नसतुल्यकर्ण सुभ्र्वाननं कम्बुसुजातकण्ठम् ॥ ०१.१९.०२६ ॥
सूत द्वारा उनका रूप वर्णन सामुद्रिक शास्त्र की स्मृति करा देता है। स्पष्ट हो जाता है कि सूत जी राज्ञ स्तुति परम्परा से ही हैं।
...
इतने दिव्य वृहद सत्संग में परीक्षित ने व्यासपुत्र से प्रश्न किया - मुझे
बताइये कि जो सर्वथा मरणासन्न हो, उसे क्या करना चाहिये? मुझे यह भी
बताइये कि नर सामान्य के लिये भी कर्तव्य क्या हैं? किसका स्मरण करे? किसे
भजे? और किसे विपर्यय माने?
अतः पृच्छामि संसिद्धिं योगिनां परमं गुरुम् ।
पुरुषस्येह यत्कार्यं म्रियमाणस्य सर्वथा ॥ ०१.१९.०३७ ॥
यच्छ्रोतव्यमथो जप्यं यत्कर्तव्यं नृभिः प्रभो ।
स्मर्तव्यं भजनीयं वा ब्रूहि यद्वा विपर्ययम् ॥ ०१.१९.०३८ ॥
____________
उत्तर देने को उद्यत बादरायणि शुक का उल्लेख करने के साथ ही भागवत पुराण का पहला स्कन्ध समाप्त हो जाता है:
एवमाभाषितः पृष्टः स राज्ञा श्लक्ष्णया गिरा ।
प्रत्यभाषत धर्मज्ञो भगवान् बादरायणिः ॥ ०१.१९.०४० ॥
...
इस प्रकरण से स्पष्ट है कि कथावाचक शुकदेव बादरायण व्यास के पुत्र थे।
...
अत्रि, वसिष्ठ, च्यवन, शरद्वान, अरिष्टनेमि, भृगु, अङ्गिरा, पराशर,
विश्वामित्र, राम, उतथ्य, इन्द्रप्रमद, इध्मवाह, मेधातिथि, देवल,
आर्ष्टिषेण, भारद्वाज, गौतम, पिप्पलाद, मैत्रेय, और्व, कवष, अगस्त्य,
द्वैपायन, नारद ...
... वैदिक परम्परा के समस्त ऋषियों की झाँकी
जुटा उनकी निरंतर उपस्थिति में शुकदेव और सूत द्वारा भगवान की कथा सुनाया
जाना बता कर भागवत परम्परा जैसे पुरातन से आशीष और अनुमोदन ले रही है कि
आगे अब हमारा समय है, आप सभी विराम लें।
...
देवाभागं यथापूर्वे सञ्जानाना उपासते
समानीव आकूति: समाना हृदयानि व:
समानमस्तु व मनो यथा व: सुसहासति
[ऋक् संहिता के अंत से]
_____________
~ हरि ॐ तत्सत् ~
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इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् ।
अधीतवान् द्वापरादौ पितुर्द्वैपायनादहम् ॥ ०२.०१.००८ ॥
शास्त्री जी का कहना है कि कल्प+आदौ का अर्थ तो कल्प के आरम्भ में होगा किंतु द्वापर+आदौ का अर्थ द्वापर के अंत में होगा
:(
आदौ एक, अर्थ दो, नितान्त विपरीत!
कोई संस्कृतज्ञ शङ्का समाधान करो भाई!
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..
शुकदेव द्वारा विराट पुरुष का वर्णन।
विशेषस्तस्य देहोऽयं स्थविष्ठश्च स्थवीयसाम् ।
यत्रेदं व्यज्यते विश्वं भूतं भव्यं भवच्च सत् ॥ ०२.०१.०२४ ॥
अण्डकोशे शरीरेऽस्मिन् सप्तावरणसंयुते ।
वैराजः पुरुषो योऽसौ भगवान् धारणाश्रयः ॥ ०२.०१.०२५ ॥
पातालमेतस्य हि पादमूलं पठन्ति पार्ष्णिप्रपदे रसातलम् ।
महातलं विश्वसृजोऽथ गुल्फौ तलातलं वै पुरुषस्य जङ्घे ॥ ०२.०१.०२६ ॥
द्वे जानुनी सुतलं विश्वमूर्तेरूरुद्वयं वितलं चातलं च ।
महीतलं तज्जघनं महीपते नभस्तलं नाभिसरो गृणन्ति ॥ ०२.०१.०२७ ॥
उरःस्थलं ज्योतिरनीकमस्य ग्रीवा महर्वदनं वै जनोऽस्य ।
तपो वराटीं विदुरादिपुंसः सत्यं तु शीर्षाणि सहस्रशीर्ष्णः ॥ ०२.०१.०२८ ॥
इन्द्रादयो बाहव आहुरुस्राः कर्णौ दिशः श्रोत्रममुष्य शब्दः ।
नासत्यदस्रौ परमस्य नासे घ्राणोऽस्य गन्धो मुखमग्निरिद्धः ॥ ०२.०१.०२९ ॥
द्यौरक्षिणी चक्षुरभूत्पतङ्गः पक्ष्माणि विष्णोरहनी उभे च ।
तद्भ्रूविजृम्भः परमेष्ठिधिष्ण्यमापोऽस्य तालू रस एव जिह्वा ॥ ०२.०१.०३० ॥
छन्दांस्यनन्तस्य शिरो गृणन्ति दंष्ट्रा यमः स्नेहकला द्विजानि ।
हासो जनोन्मादकरी च माया दुरन्तसर्गो यदपाङ्गमोक्षः ॥ ०२.०१.०३१ ॥
व्रीडोत्तरौष्ठोऽधर एव लोभो धर्मः स्तनोऽधर्मपथोऽस्य पृष्ठम् ।
कस्तस्य मेढ्रं वृषणौ च मित्रौ कुक्षिः समुद्रा गिरयोऽस्थिसङ्घाः ॥ ०२.०१.०३२ ॥
नाड्योऽस्य नद्योऽथ तनूरुहाणि महीरुहा विश्वतनोर्नृपेन्द्र ।
अनन्तवीर्यः श्वसितं मातरिश्वा गतिर्वयः कर्म गुणप्रवाहः ॥ ०२.०१.०३३ ॥
ईशस्य केशान् विदुरम्बुवाहान् वासस्तु सन्ध्यां कुरुवर्य भूम्नः ।
अव्यक्तमाहुर्हृदयं मनश्चस चन्द्रमाः सर्वविकारकोशः ॥ ०२.०१.०३४ ॥
विज्ञानशक्तिं महिमामनन्ति सर्वात्मनोऽन्तःकरणं गिरित्रम् ।
अश्वाश्वतर्युष्ट्रगजा नखानि सर्वे मृगाः पशवः श्रोणिदेशे ॥ ०२.०१.०३५ ॥
वयांसि तद्व्याकरणं विचित्रं मनुर्मनीषा मनुजो निवासः ।
गन्धर्वविद्याधरचारणाप्सरः स्वरस्मृतीरसुरानीकवीर्यः ॥ ०२.०१.०३६ ॥
ब्रह्माननं क्षत्रभुजो महात्मा विडूरुरङ्घ्रिश्रितकृष्णवर्णः ।
नानाभिधाभीज्यगणोपपन्नो द्रव्यात्मकः कर्म वितानयोगः ॥ ०२.०१.०३७ ॥
इयानसावीश्वरविग्रहस्य यः सन्निवेशः कथितो मया ते ।
सन्धार्यतेऽस्मिन् वपुषि स्थविष्ठे मनः स्वबुद्ध्या न यतोऽस्ति किञ्चित्॥०२.०१.०३८॥
स सर्वधीवृत्त्यनुभूतसर्व आत्मा यथा स्वप्नजनेक्षितैकः ।
तं सत्यमानन्दनिधिं भजेत नान्यत्र सज्जेद्यत आत्मपातः ॥ ०२.०१.०३९ ॥
...
ऋग्वैदिक पुरुष को ही विस्तार दिया गया है परंतु काव्य में वह शक्तिमत्ता और उदात्तता नहीं परिलक्षित होती है।
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...
व्याख्या करने वालों के साम्प्रदायिक आग्रह।
...
मूल श्लोक:
शाब्दस्य हि ब्रह्मण एष पन्था यन्नामभिर्ध्यायति धीरपार्थैः ।
परिभ्रमंस्तत्र न विन्दतेऽर्थान्मायामये वासनया शयानः ॥ ०२.०२.००२ ॥
__________
अनुवाद:
1. (Anand Aadhar Prabhu)
One's [spiritual] adherence to the sounds of the [impersonal] Absolute
Truth makes the intelligence, because of the many terms [associated with
it], ponder over incoherent ideas because of which one, without ever
finding joy, wanders around in illusory realities - and the different
desires belonging to them -, as if one is dreaming.
2. (Hare Krishna Movement)
The way of presentation of the Vedic sounds is so bewildering that it
directs the intelligence of the people to meaningless things like the
heavenly kingdoms. The conditioned souls hover in dreams of such
heavenly illusory pleasures, but actually they do not relish any
tangible happiness in such places.
3. गीताप्रेस का नीचे दिया है।
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अंतिम दोनों में स्पष्टत: वेद मार्ग को भटकाने वाला बताया गया है।
....
हास्यास्पद यह लगता है कि यही लोग जब नीचे दिये श्लोक पर आते हैं तो
शुकदेव द्वारा इस अध्याय में दिये समस्त उपदेश को वेदसम्मत बतलाते हैं जो
कि इस श्लोक का आशय भी है।
एते सृती ते नृप 'वेदगीते' त्वयाभिपृष्टे च 'सनातने च'
ये वै पुरा ब्रह्मण आह तुष्ट आराधितो भगवान् वासुदेवः ॥ ०२.०२.०३२ ॥
ब्रह्मण शब्द यहाँ भी है जिसका अर्थ यहाँ ब्रह्मा करते हैं और वहाँ शाब्दस्य हि ब्रह्मण को ब्रह्मा के शब्द अर्थात वेद बताते हैं!
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आर्यसमाजियों का पुराणियों से टण्टा अकारण ही नहीं है।
:)
सानूँ की, आगे बढ़ते हैं।
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शुकदेव द्वारा कामना के अनुसार आराध्य बताया जाना
....
एवमेतन्निगदितं पृष्टवान् यद्भवान्मम ।
नृणां यन्म्रियमाणानां मनुष्येषु मनीषिणाम् ॥ ०२.०३.००१ ॥
ब्रह्मवर्चसकामस्तु यजेत ब्रह्मणः पतिम् ।
इन्द्रमिन्द्रियकामस्तु प्रजाकामः प्रजापतीन् ॥ ०२.०३.००२ ॥
देवीं मायां तु श्रीकामस्तेजस्कामो विभावसुम् ।
वसुकामो वसून् रुद्रान् वीर्यकामोऽथ वीर्यवान् ॥ ०२.०३.००३ ॥
अन्नाद्यकामस्त्वदितिं स्वर्गकामोऽदितेः सुतान् ।
विश्वान् देवान् राज्यकामः साध्यान् संसाधको विशाम् ॥ ०२.०३.००४ ॥
आयुष्कामोऽश्विनौ देवौ पुष्टिकाम इलां यजेत् ।
प्रतिष्ठाकामः पुरुषो रोदसी लोकमातरौ ॥ ०२.०३.००५ ॥
रूपाभिकामो गन्धर्वान् स्त्रीकामोऽप्सर उर्वशीम् ।
आधिपत्यकामः सर्वेषां यजेत परमेष्ठिनम् ॥ ०२.०३.००६ ॥
यज्ञं यजेद्यशस्कामः कोशकामः प्रचेतसम् ।
विद्याकामस्तु गिरिशं दाम्पत्यार्थ उमां सतीम् ॥ ०२.०३.००७ ॥
धर्मार्थ उत्तमश्लोकं तन्तुः तन्वन् पित्न् यजेत् ।
रक्षाकामः पुण्यजनानोजस्कामो मरुद्गणान् ॥ ०२.०३.००८ ॥
राज्यकामो मनून् देवान्निरृतिं त्वभिचरन् यजेत् ।
कामकामो यजेत्सोममकामः पुरुषं परम् ॥ ०२.०३.००९ ॥
अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः ।
तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् ॥ ०२.०३.०१० ॥
___________
ब्रह्मतेज - बृहस्पति
इन्द्रिय शक्ति - इन्द्र
संतान - प्रजापति
श्री - मायादेवी
तेज - अग्नि
संपदा - वसु
शक्ति - रुद्र
अन्न - अदिति
स्वर्ग - अदिति पुत्र
राज्य - विश्वेदेव
प्रजा अनुकूलता - साध्य
दीर्घायु - अश्विनीकुमार
पुष्टि - इला
प्रतिष्ठा - रोदसी
रूप - गन्धर्व
पत्नी - उर्वशी अप्सरा
सर्वाधिपत्य - परमेष्ठि
यश - यज्ञपुरुष
कोष - वरुण
विद्या - गिरीश शङ्कर
पति पत्नी में प्रेम - उमा सती
आध्यात्मिक उन्नति - विष्णु
संतान - पितर
रक्षा - पुण्यजन
ओज - मरुद्गण
राज्य - मनवंतर अधिपति
अभिचार - निर्ऋति
भोग - सोम
निष्कामता - परम पुरुष
किंतु जो उदार बुद्धिमान है वह चाहे निष्काम हो, चाहे कामनाओं से भरा हो,
चाहे मोक्ष चाहता हो, उसे तीव्र भक्तियोग द्वारा उस परम पुरुष का ही यजन
करना चाहिये।
_____________
देखें तो, सूची में प्राय: सभी
ऋग्वैदिक देवता ही हैं, अथर्वादि को मिला लें तो सभी वैदिक। अंत को देख कर
बरबस ही ऋग्वेद की ही यह श्रुति ध्यान में आ जाती है:
...
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु:॥
...
ध्यान देने योग्य यह है कि चाहे संहिता हो या चाहे पुराण, दोनों, उद्देश्य
अनुसार भिन्न भिन्न स्वरूपों के यजन की संस्तुति करते हैं, यह जानते हुये
भी परम पुरुष तो एक है। यह specialist विशेषज्ञ वाली बात है। कुशाग्र की
तरह तीखा, अपने लक्ष्य के प्रति पूर्णत: समर्पित।
यह choice ही एक ओर
तो सनातन को सुन्दर और भव्य बनाता है तो दूसरी ओर अमर भी। एक देवता के
ध्वंस से इसका कुछ नहीं बिगड़ना, redundancy इतनी है कि एक कड़ी टूटेगी तो
दूसरी भार ले लेगी और इतिहास इस तथ्य का साक्षी है।
सौर, शैव, शाक्त,
गाणपत्य, स्कन्द, पाञ्चरात्र मत मतांतर हों या राम, कृष्ण, हनुमान, शिव,
दुर्गा, वेंकट, बाला जी, मुरुगनादि; प्रवाह जारी रहा, न रुका और न रुकेगा,
और
यह वेदसम्मत है।
अब्राहमी एकेश्वरवाद से ऊपर उठ कर इस सौन्दर्य और शक्ति के सङ्गम को हृदयङ्गम कीजिये।
~ स्वस्ति ~
__________
किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कशा आभीरशुम्भा यवनाः खसादयः।
येऽन्ये च पापा यदपाश्रयाश्रयाः शुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः ॥०२.०४.०१८॥
_____________________
साम्प्रदायिक आग्रह अनुवाद के
:)
The people of old Bharata, Europe, southern India, Greece, Pulkas'a [a
province], Âbhîra [part of old Sind], S'umbha [another province],
Turkey, Mongolia and more who are also addicted to sin, at once get
purified when they take to the shelter of the Lord's devotees. Him, the
powerful Lord Vishnu I offer my respectful obeisances.
______________
प्रचोदिता येन पुरा सरस्वती वितन्वताजस्य सतीं स्मृतिं हृदि।
स्वलक्षणा प्रादुरभूत्किलास्यतः स मे ऋषीणामृषभः प्रसीदताम् ॥०२.०४.०२२॥
...
यह एक सुन्दर छन्द है जो वैदिक धारा को आगे ले जा रहा है। समस्त ऋग्वैदिक
ऋषिकुलों के आप्री (आह्वान) मंत्रों में इळा, मही, भारती (सरस्वती) का
महनीय स्थान रहा।
इस छन्द में सरस्वती को पुरा (आरम्भ) काल में अज
(अजन्मा ब्रह्मा) को सृष्टि करने की उनकी अपनी ही शक्ति को प्रेरित और
अभिवर्द्धित करने के साथ साथ उसकी स्मृति भी दिलाने वाला बताया गया है।
...
तुलना के लिये ऋग्वेद की इस ऋचा को देखा जा सकता है:
महो अर्ण: सरस्वती प्रचेतयति केतुना।
धियो विश्वा वि राजति॥1.3.12॥ (शाकल)
____________
...
पुन: वही ऋग्वैदिक विराट पुरुष
...
नभसोऽथ विकुर्वाणादभूत्स्पर्शगुणोऽनिलः ।
परान्वयाच्छब्दवांश्च प्राण ओजः सहो बलम् ॥ ०२.०५.०२६ ॥
वायोरपि विकुर्वाणात्कालकर्मस्वभावतः ।
उदपद्यत तेजो वै रूपवत्स्पर्शशब्दवत् ॥ ०२.०५.०२७ ॥
तेजसस्तु विकुर्वाणादासीदम्भो रसात्मकम् ।
रूपवत्स्पर्शवच्चाम्भो घोषवच्च परान्वयात् ॥ ०२.०५.०२८ ॥
विशेषस्तु विकुर्वाणादम्भसो गन्धवानभूत् ।
परान्वयाद्रसस्पर्श शब्दरूपगुणान्वितः ॥ ०२.०५.०२९ ॥
वैकारिकान्मनो जज्ञे देवा वैकारिका दश ।
दिग्वातार्कप्रचेतोऽश्वि वह्नीन्द्रोपेन्द्रमित्रकाः ॥ ०२.०५.०३० ॥
तैजसात्तु विकुर्वाणादिन्द्रियाणि दशाभवन् ।
ज्ञानशक्तिः क्रियाशक्तिर्बुद्धिः प्राणश्च तैजसौ ।
श्रोत्रं त्वग्घ्राणदृग्जिह्वा वाग्दोर्मेढ्राङ्घ्रिपायवः ॥ ०२.०५.०३१ ॥
यदैतेऽसङ्गता भावा भूतेन्द्रियमनोगुणाः ।
यदायतननिर्माणे न शेकुर्ब्रह्मवित्तम ॥ ०२.०५.०३२ ॥
तदा संहत्य चान्योन्यं भगवच्छक्तिचोदिताः ।
सदसत्त्वमुपादाय चोभयं ससृजुर्ह्यदः ॥ ०२.०५.०३३ ॥
वर्षपूगसहस्रान्ते तदण्डमुदके शयम् ।
कालकर्मस्वभावस्थो जीवो ञ्जीवमजीवयत् ॥ ०२.०५.०३४ ॥
स एव पुरुषस्तस्मादण्डं निर्भिद्य निर्गतः ।
सहस्रोर्वङ्घ्रिबाह्वक्षः सहस्राननशीर्षवान् ॥ ०२.०५.०३५ ॥
यस्येहावयवैर्लोकान् कल्पयन्ति मनीषिणः ।
कट्यादिभिरधः सप्त सप्तोर्ध्वं जघनादिभिः ॥ ०२.०५.०३६ ॥
पुरुषस्य मुखं ब्रह्म क्षत्रमेतस्य बाहवः ।
ऊर्वोर्वैश्यो भगवतः पद्भ्यां शूद्रो व्यजायत ॥ ०२.०५.०३७ ॥
भूर्लोकः कल्पितः पद्भ्यां भुवर्लोकोऽस्य नाभितः ।
हृदा स्वर्लोक उरसा महर्लोको महात्मनः ॥ ०२.०५.०३८ ॥
ग्रीवायां जनलोकोऽस्य तपोलोकः स्तनद्वयात् ।
मूर्धभिः सत्यलोकस्तु ब्रह्मलोकः सनातनः ॥ ०२.०५.०३९ ॥
तत्कट्यां चातलं कॢप्तमूरुभ्यां वितलं विभोः ।
जानुभ्यां सुतलं शुद्धं जङ्घाभ्यां तु तलातलम् ॥ ०२.०५.०४० ॥
महातलं तु गुल्फाभ्यां प्रपदाभ्यां रसातलम् ।
पातालं पादतलत इति लोकमयः पुमान् ॥ ०२.०५.०४१ ॥
भूर्लोकः कल्पितः पद्भ्यां भुवर्लोकोऽस्य नाभितः ।
स्वर्लोकः कल्पितो मूर्ध्ना इति वा लोककल्पना ॥ ०२.०५.०४२ ॥
Arun Upadhyay comments:
विराट् का सामान्य अर्थ है बड़ा। पुरुष सूक्त के प्रसंग में अर्थ है-दृश्य जगत् का काल तथा स्तर में वर्गीकरण।
आकाश
में 3 धामों के 3-3 लोक हैं। दो धामों के बीच के लोकों को समान मानने पर 7
लोक होते हैं। 3×3 = 9 लोक + 1 अव्यक्त स्रोत मिलाकर 10 होंगे।
कालक्रम में भी सृष्टि के 9 व्यक्त सर्ग हैं। सभी का रचना चक्र 1-1 कालमान है। 1 अव्यक्त को मिलाकर भागवत में 10 सर्ग कहे गये हैं।
विराट् के 10 सर्ग या स्तर होने के कारण विराट् छन्द के प्रत्येक पाद में 10 अक्षर होते हैं।
आकाश
में छन्द के अनुसार माप के लिए पृथ्वी को माप दण्ड माना गया है। पृथ्वी के
भीतर तीन धाम हैं। अगले धाम क्रमशः 2-2 गुणा बड़े हैं। सौर मण्डल में
पृथ्वी के बाहर 30 धाम हैं (ऋग्वेद 10/189/3) तथा भीतर के 3 धाम मिला कर
33 धाम हैं जिनके प्राणों को 33 देवता कहा गया है। इनके चिह्न क से ह तक के
33 अक्षर हैं। देवों के चिह्न रूप नगर को देवनागरी लिपि कहते हैं। छन्द
माप में सौर मण्डल 33 धाम अर्थात् विराट् अनुष्टुप् (अनुष्टुप् के 32 अक्षर
से 1 अधिक) छन्द है। विराट् छन्द की माप उससे 128 गुणा बड़ी उसका अधिष्ठान
होगा-विराजो अधिपूरुषः।
___________
आद्योऽवतारः पुरुषः परस्य कालः स्वभावः सदसन्मनश्च ।
द्रव्यं विकारो गुण इन्द्रियाणि विराट्स्वराट्स्थास्नु चरिष्णु भूम्नः ॥ ०२.०६.०४१ ॥
...
प्राधान्यतो यानृष आमनन्ति लीलावतारान् पुरुषस्य भूम्नः ।
आपीयतां कर्णकषायशोषाननुक्रमिष्ये त इमान् सुपेशान् ॥ ०२.०६.०४५ ॥
....
संसार की सबसे उदात्त कविता।
ऋग्वैदिक पुरुष सूक्त
...
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आदौ सनात्स्वतपसः स चतुःसनोऽभूत्
...
आरम्भ में वही पुरुष 'तप' अर्थ वाले 'सन' नाम से संयुक्त होकर सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार हुआ। [2.7.5]
__________
कामं दहन्ति कृतिनो ननु रोषदृष्ट्या, रोषं दहन्तमुत ते न दहन्त्यसह्यम् ।
सोऽयं यदन्तरमलं प्रविशन् बिभेति, कामः कथं नु पुनरस्य मनः श्रयेत ॥०२.०७.००७ ॥
शिव काम का दहन कर सकते हैं किंतु अपने रोष का नहीं। विष्णु के मन में काम प्रवेश करते घबराता है।
...
स चिन्तयन् द्व्यक्षरमेकदाम्भस्युपाशृणोद्द्विर्गदितं वचो विभुः ।
स्पर्शेषु यत्षोडशमेकविंशं निष्किञ्चनानां नृप यद्धनं विदुः ॥ ०२.०९.००६ ॥
दो अक्षर 'त' और 'प', तप करो। ब्रह्मा को भी करना पड़ा!
वर्णमाला का सोलहवाँ अक्षर है 'त' और इक्कीसवाँ है 'प'।
षोडस गुण संस्कार होते हैं और 'त्रि सप्त' के रूप में तो 21 समूचे वैदिक
वाङ्मय में व्याप्त है। भागवत से उसके रचनाकाल के समय प्रचलित वर्णमाला का
भी पता चलता है। आज की वर्णमाला से गिनिये तो, क्या सच में 16 वें और 21
वें वही अक्षर हैं?
...
कर्मठ होइये। वेद भी कहते हैं और पुराण भी।
____________
...
पुरुषोऽण्डं विनिर्भिद्य यदासौ स विनिर्गतः ।
आत्मनोऽयनमन्विच्छन्नपोऽस्राक्षीच्छुचिः शुचीः ॥ ०२.१०.०१० ॥
तास्ववात्सीत्स्वसृष्टासु सहस्रं परिवत्सरान् ।
तेन नारायणो नाम यदापः पुरुषोद्भवाः ॥ ०२.१०.०११ ॥
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वह विराट पुरुष अण्ड (ब्रह्माण्ड) को भेद कर निकला और अपने 'अयन' के लिये
पवित्र और अत्युत्तम जल की सृष्टि की। उस नर से उत्पन्न होने के कारण जल
नार कहलाया और उस नार में एक सहस्र 'परिवत्सर' तक रहने के कारण वह नारायण
कहलाया।
...
इन दो श्लोकों के जितने अनुवाद मुझे मिले हैं, उनमें
से कोई संतोषजनक नहीं है। पुरुष, अण्ड, भेदन, अयन, शुचि, परिवत्सर, सहस्र
और नारायण इन शब्दों के व्यापक अर्थ ढूँढ़ने पड़ेंगे। उल्लेखनीय है कि आगे
पीछे के श्लोकों में भी जल को 'नार' नहीं, अपितु 'आप:' संज्ञा से ही
अभिव्यक्त किया गया है।
...
वेदाङ्ग ज्योतिष के पाँच वर्ष के युग में एक वर्ष का नाम परिवत्सर है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में उनकी संख्या छ: है।
...
अमुनी भगवद्रूपे मया ते ह्यनुवर्णिते ।
उभे अपि न गृह्णन्ति मायासृष्टे विपश्चितः ॥ ०२.१०.०३५ ॥
स वाच्यवाचकतया भगवान् ब्रह्मरूपधृक् ।
नामरूपक्रिया धत्ते सकर्माकर्मकः परः ॥ ०२.१०.०३६ ॥
...
भगवान के अव्यक्त-व्यक्त, स्थूल-सूक्ष्म रूप उनकी माया द्वारा रचित होते
हैं और उन्हें विद्वान जन जैसे का तैसे समझते हुते ग्रहण नहीं करते। वह
अकर्मा स्वयं को सकर्मक नाम, रूप, क्रियादि रूपों में अभिव्यक्त करता है।
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इसके आगे पुन: पूरी सूची दे भागवतकार एकं सद्विप्रा: ... श्रुति पर मुहर लगा देते हैं।
कुशलाकुशला मिश्राः कर्मणां गतयस्त्विमाः
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यह दूसरे स्कंध का अंत है। अगले स्कंध का आरम्भ मैत्रेय द्वारा विदुर को अध्यात्म विद्या के उपदेश से होगा।
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ये यथा मां प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्हयम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥
~ हरि ॐ ~
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यदा सभायां कुरुदेवदेव्याः केशाभिमर्शं सुतकर्म गर्ह्यम्।
न वारयामास नृपः स्नुषायाः स्वास्रैर्हरन्त्याः कुचकुङ्कुमानि ॥०३.०१.००७॥
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कुरु राजसभा में द्रौपदी का अपमान हुआ। राज्य हड़पने से आगे घटनाक्रम बढ़ते
हुये वहाँ तक पहुँचा कि श्रीकृष्ण का समझाना भी व्यर्थ गया। धृतराष्ट्र ने
विदुर से उनकी मति पूछी तो विदुर ने जो कहा वह 'विदुर नीति' नाम से
प्रसिद्ध हुआ।
यदोपहूतो भवनं प्रविष्टो मन्त्राय पृष्टः किल पूर्वजेन ।
अथाह तन्मन्त्रदृशां वरीयान् यन्मन्त्रिणो वैदुरिकं वदन्ति ॥ ०३.०१.०१० ॥
विदुर ने समझाया कि भ्राता! राज्य लौटा दीजिये।
उन्होंने साफ साफ कहा कि स्वयं दोष ही पुत्र रूप में यम बन कर आप के घर
में प्रविष्ट है। कुल की श्री चाहते हैं, कुशलता चाहते हैं तो उसका त्याग
कर दीजिये।
स एष दोषः पुरुषद्विडास्ते गृहान् प्रविष्टो यमपत्यमत्या।
पुष्णासि कृष्णाद्विमुखो गतश्रीस्त्यजाश्वशैवं कुलकौशलाय ॥ ०३.०१.०१३ ॥
इत्यूचिवांस्तत्र सुयोधनेन प्रवृद्धकोपस्फुरिताधरेण।
सुयोधन अन्यों के संग इससे बहुत कुपित हुआ और विदुर का अपमान करते हुये
बोला कि इस दासीपुत्र को किसने यहाँ बुला लिया जो सर्वदा उल्टी बात ही करता
है। जिनके टुकड़े खाता है उन्हीं के प्रतिकूल हो शत्रु का काम बनाना चाहता
है। इसका वध तो न करो किंतु निर्वासित कर दो।
असत्कृतः सत्स्पृहणीयशीलः क्षत्ता सकर्णानुजसौबलेन ॥ ०३.०१.०१४ ॥
क एनमत्रोपजुहाव जिह्मं दास्याः सुतं यद्बलिनैव पुष्टः ।
तस्मिन् प्रतीपः परकृत्य आस्ते निर्वास्यतामाशु पुराच्छ्वसानः ॥ ०३.०१.०१५ ॥
भाई के सामने उसी की सभा में ऐसे अपमानित होने पर मर्माहत विदुर ने सभा के द्वार पर अपना धनुष रखा और तीर्थयात्रा पर निकल गये!
स्वयं धनुर्द्वारि निधाय मायां भ्रातुः पुरो मर्मसु ताडितोऽपि।
(मंत्री द्वारा पद प्रतिष्ठा हेतु धनुष धारण करना ध्यान देने योग्य है।)
...
साधारण वेश में घूमते घामते विदुर प्रभाष तट पर भी पहुँचे जहाँ त्रित,
उशना, मनु, पृथु, अग्नि, असित, वायु, सुदास, गौ, गुह और श्राद्धदेव नाम से
प्रसिद्ध तीर्थों का सेवन किये।
तस्यां त्रितस्योशनसो मनोश्च पृथोरथाग्नेरसितस्य वायोः ।
तीर्थं सुदासस्य गवां गुहस्य यच्छ्राद्धदेवस्य स आसिषेवे ॥ ०३.०१.०२२ ॥
[तीर्थों के ये नाम स्पष्टत: वैदिक हैं]
यमुना तट पर उनकी भेंट बृहस्पति के शिष्य रह चुके उद्धव से हुई। तब तक
महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका था और श्रीकृष्ण का अवसान भी हो गया था।
...
विदुर से ही उद्धव जी ने कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन आरम्भ किया। बोले
कि मनुष्यलोक बड़ा अभागा है और उसमें यादव तो नितांत अभागे हैं जो साथ रहने
पर भी कृष्ण को पहचान न सके जैसे कि समुद्र में रहती हुई मछलियाँ चंद्र को
नहीं जान पातीं।
दुर्भगो बत लोकोऽयं यदवो नितरामपि।
ये संवसन्तो न विदुर्हरिं मीना इवोडुपम्॥०३.०२.००८ ॥
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महाविनाशी भूत से आती चीत्कारों के आगे श्रुतियों की ध्वनियाँ क्षीण हैं।
चमत्कारी व्यक्तित्त्व के स्वामी कृष्ण जा चुके हैं। कलिकाल है और सम्राट
गङ्गा तीर पर अनशन लिये बैठा है!
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सभ्यतायें नष्ट क्यों होती
हैं? इसलिये कि पितरों ने संतति को इतना सक्षम नहीं बनाया कि उन्हीं के
सञ्चित कर्म प्रारब्ध जब यम का रूप लें तो वे उसके सामने नचिकेता बन
प्रश्नोत्तर के माध्यम से पुन: जीवन मार्ग ढूँढ़ सकें - बुद्धिश्च
अध्यवसायलक्षणा बुद्धिः न विचेष्टति स्वव्यापारेषु न विचेष्टते न व्या
प्रियते!
क्या भारत की संतानें सक्षम थीं? अवश्य थीं। विलुप्त सरस्वती के तीर बचे
नहीं, कभी धर्मक्षेत्र रहे कुरुप्रदेश में जली हुई चिताओं के भस्म और
अपशकुनी कपिञ्जलों के कोलाहल बीच दृश्य, श्रव्य, कथ्य, कर्म, मर्म सब भ्रम
के विशाल कैनवस मात्र थे। ध्वंस गाथा लिख चुकी व्यास परम्परा को चैन नहीं
था और संयत वाणी को कोई नहीं सुन रहा था।
इस पृष्ठभूमि में सभी ऋषियों
को साक्षी मान अमृतपुत्रों ने सरस्वती के स्थान पर नयी धाराओं के जिन
संङ्गमी श्लोकों की रचना की, उनका संग्रह भागवत है। व्यास कितने हुये,
कितने वर्षों में यह कथा पूरी हुई आदि प्रश्न दिक्काल के आयामों को तोड़ती
इस धारा के आगे निरर्थक हो जाते हैं। यह एक ऐसा वैकल्पिक मञ्च है जिस पर सब
बराबर हैं, सबको स्थान है, सब ऊँचे हैं और ऐसी धारा जो सर्वदा प्रवाहित
है।
द्रौपदी के रूप में जैसे समूचा स्त्री समाज बारम्बार उपस्थिति
जता जाता है, आहत परम्परा बारम्बार सम्मान के साथ स्मरण करती आश्वस्त करती
है कि यहाँ भगवान का विग्रह भक्त की प्रतीक्षा में है। यहाँ स्त्री, शूद्र,
पापयोनि आदि समस्त भूतों के कल्याण की कान्हबाँसुरी मधुरतम मनमोहिनी के
साथ उपस्थित है - बनी रहें निषेधी धारायें, नैवेद्य का प्रसाद तो सबके लिये
है।
प्रतिलोमज वर्णसङ्कर सूतों ने शौनकादि ऋषियों को यह कथा सुनाई और
अमृत संतानें पितरों को श्रद्धाञ्जलि दे आगे, बहुत आगे निकल गयीं।
मोहग्रस्त योद्धा ने कभी भगवान से वर्णसंकरत्त्व को ले आशङ्कायें जतायी
थीं, प्रत्युत्तर में भगवद्गीता ज्ञानकाण्ड का अंश हुई किंतु आगे के ज्वलंत
यथार्थ को कथा चरणामृत की प्रशांति देना ‘रोमहर्षी’ उग्रश्रवा सूत, विदुर,
उद्धव, शुकदेव का कार्य था। उनकी निष्ठा क्या खूब रही! भक्ति इतनी पौढ़ी कि
स्वयं ब्रह्मा को भी कथा कहनी पड़ी।
इस पुराण को उस व्यापकता में देखा
जाना चाहिये जिसने तब से ले कर शक, हूण, यवन, म्लेच्छ आदि के सदियों तक
जारी आक्रमणों के बीच भी महाभारत के बाद जैसी स्थिति नहीं उत्पन्न होने दी।
आश्चर्य नहीं कि जब एक रामबोला मुगलकाल में म्लेच्छाक्रांत समाज के बीच से
खड़ा हुआ तो उसके मानस में भागवत की ही सरिता बह रही थी, आराध्य भले अलग
थे, साहित्य ने वही मार्ग पकड़ा। मानस का कलिकाल भागवत के कलिकाल से अलग
नहीं है और न ही अलग है उसका सर्वसमावेशी भक्तिमार्ग।
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कच्चित्सुखं सात्वतवृष्णिभोज दाशार्हकाणामधिपः स आस्ते ।
यमभ्यषिञ्चच्छतपत्रनेत्रो नृपासनाशां परिहृत्य दूरात् ॥ ०३.०१.०२९ ॥
यादवों के चार वंश - सात्वत, वृष्णि, भोज, दाशार्ह
...
नंद के यहाँ कृष्ण 11 वर्ष की आयु तक छिपे रहे:
ततो नन्दव्रजमितः पित्रा कंसाद्विबिभ्यता ।
एकादश समास्तत्र गूढार्चिः सबलोऽवसत् ॥ ०३.०२.०२६ ॥
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प्रिया को प्रसन्न करने के लिये स्वर्ग से कृष्ण देवतरु ले कर आये।
प्रियं प्रभुर्ग्राम्य इव प्रियाया विधित्सुरार्च्छद्द्युतरुं यदर्थे ।
वज्र्याद्रवत्तं सगणो रुषान्धः क्रीडामृगो नूनमयं वधूनाम् ॥ ०३.०३.००५ ॥
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भौमासुर के यहाँ से 'अनेक' कन्याओं का उद्धार कर उनका पाणिग्रहण किया और हर एक से दस पुत्र उत्पन्न किये:
तत्राहृतास्ता नरदेवकन्याः कुजेन दृष्ट्वा हरिमार्तबन्धुम् ।
उत्थाय सद्यो जगृहुः प्रहर्ष व्रीडानुरागप्रहितावलोकैः ॥ ०३.०३.००७ ॥
आसां मुहूर्त एकस्मिन्नानागारेषु योषिताम् ।
सविधं जगृहे पाणीननुरूपः स्वमायया ॥ ०३.०३.००८ ॥
तास्वपत्यान्यजनयदात्मतुल्यानि सर्वतः ।
एकैकस्यां दश दश प्रकृतेर्विबुभूषया ॥ ०३.०३.००९ ॥
...
मदिरापान के पश्चात आपसी लड़ाई में दु:सह यादवों के नाश की कामना:
अष्टादशाक्षौहिणिको मदंशैरास्ते बलं दुर्विषहं यदूनाम् ॥ ०३.०३.०१४ ॥
मिथो यदैषां भविता विवादो मध्वामदाताम्रविलोचनानाम् ।
...
सबको सुख देते हुये कृष्ण पत्नियों के साथ क्षणिक अनुरागयुक्त हो कर विहार
करते थे। वर्षों बीत जाने पर उन्हें गृहस्थ से वैराग्य हो गया।
इमं लोकममुं चैव रमयन् सुतरां यदून् ।
रेमे क्षणदया दत्त क्षणस्त्रीक्षणसौहृदः ॥ ०३.०३.०२१ ॥
तस्यैवं रममाणस्य संवत्सरगणान् बहून् ।
गृहमेधेषु योगेषु विरागः समजायत ॥ ०३.०३.०२२ ॥
दैवाधीनेषु कामेषु दैवाधीनः स्वयं पुमान् ।
को विश्रम्भेत योगेन योगेश्वरमनुव्रतः ॥ ०३.०३.०२३ ॥
जीव और काम दोनों दैव (उन्हीं) के अधीन हैं तब भी उन योगेश्वर को उनसे वैराग्य हो गया तो उनके भक्तों को उनमें कैसे विश्वास रहेगा।
...
यादवों ने एक बार प्रभासक्षेत्र में आमोद प्रमोद किया। वारुणी पी और साँझ
होते होते आपस में लड़ने लगे। जैसे बाँस से बाँस की रगड़ से आग लग जाती हैं,
वैसे ही उनमें आपस में मार काट मच गयी। कृष्ण ने सरस्वती के जल से आचमन
किया और अश्वत्थ वृक्ष के नीचे बैठ गये।
अथ ते तदनुज्ञाता भुक्त्वा पीत्वा च वारुणीम् ।
तया विभ्रंशितज्ञाना दुरुक्तैर्मर्म पस्पृशुः ॥ ०३.०४.००१ ॥
तेषां मैरेयदोषेण विषमीकृतचेतसाम् ।
निम्लोचति रवावासीद्वेणूनामिव मर्दनम् ॥ ०३.०४.००२ ॥
भगवान् स्वात्ममायाया गतिं तामवलोक्य सः ।
सरस्वतीमुपस्पृश्य वृक्षमूलमुपाविशत् ॥ ०३.०४.००३ ॥
...
अद्राक्षमेकमासीनं विचिन्वन् दयितं पतिम् ।
श्रीनिकेतं सरस्वत्यां कृतकेतमकेतनम् ॥ ०३.०४.००६ ॥
श्यामावदातं विरजं प्रशान्तारुणलोचनम् ।
दोर्भिश्चतुर्भिर्विदितं पीतकौशाम्बरेण च ॥ ०३.०४.००७ ॥
वाम ऊरावधिश्रित्य दक्षिणाङ्घ्रिसरोरुहम् ।
अपाश्रितार्भकाश्वत्थमकृशं त्यक्तपिप्पलम् ॥ ०३.०४.००८ ॥
...
उसी स्थिति में महाभागवत द्वैपायनसुहृत्सखा की उपस्थिति में कृष्ण ने उद्धव को भागवत का उपदेश दिया।
पुरा मया प्रोक्तमजाय नाभ्ये पद्मे निषण्णाय ममादिसर्गे ।
ज्ञानं परं मन्महिमावभासं यत्सूरयो भागवतं वदन्ति ॥ ०३.०४.०१३ ॥
...
विदुर ने कृष्णावसान सुना और स्वयं को संयत कर उद्धव से अनुरोध किया कि
भागवत का उपदेश मुझे करें। उद्धव ने कहा कि इसके लिये उन्हें कौषारव मुनि
से कृपा करने का अनुरोध करना चाहिये:
ननु ते तत्त्वसंराध्य ऋषिः कौषारवोऽन्तिके ।
साक्षाद्भगवतादिष्टो मर्त्यलोकं जिहासता ॥ ०३.०४.०२६ ॥
आगे यही कुषार पुत्र कौषारव मुनि मैत्रेय नाम से जाने गये हैं। हरिद्वार में पहुँच कर विदुर ने उनसे कथा के लिये अनुरोध किया:
द्वारि द्युनद्या ऋषभः कुरूणां मैत्रेयमासीनमगाधबोधम् ।
क्षत्तोपसृत्याच्युतभावसिद्धः पप्रच्छ सौशील्यगुणाभितृप्तः ॥ ०३.०५.००१ ॥
....
_________
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मैत्रेय ने विदुर को श्रोता बना कथा आरम्भ की:
०३.०५.०१८।० मैत्रेय उवाच
साधु पृष्टं त्वया साधो लोकान् साध्वनुगृह्णता ।
कीर्तिं वितन्वता लोके आत्मनोऽधोक्षजात्मनः ॥ ०३.०५.०१८ ॥
नैतच्चित्रं त्वयि क्षत्तर्बादरायणवीर्यजे ।
गृहीतोऽनन्यभावेन यत्त्वया हरिरीश्वरः ॥ ०३.०५.०१९ ॥
माण्डव्यशापाद्भगवान् प्रजासंयमनो यमः ।
भ्रातुः क्षेत्रे भुजिष्यायां जातः सत्यवतीसुतात् ॥ ०३.०५.०२० ॥
भवान् भगवतो नित्यं सम्मतः सानुगस्य ह ।
यस्य ज्ञानोपदेशाय मादिशद्भगवान् व्रजन् ॥ ०३.०५.०२१ ॥
अथ ते भगवल्लीला योगमायोरुबृंहिताः ।
विश्वस्थित्युद्भवान्तार्था वर्णयाम्यनुपूर्वशः ॥ ०३.०५.०२२ ॥
...
यहाँ बादरायण को स्पष्टत: सत्यवती सुत कहा गया है।
...
महत्तत्त्वाद्विकुर्वाणादहंतत्त्वं व्यजायत ।
कार्यकारणकर्त्रात्मा भूतेन्द्रियमनोमयः ॥ ०३.०५.०२९ ॥
वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेत्यहं त्रिधा ।
अहंतत्त्वाद्विकुर्वाणान्मनो वैकारिकादभूत् ।
वैकारिकाश्च ये देवा अर्थाभिव्यञ्जनं यतः ॥ ०३.०५.०३० ॥
तैजसानीन्द्रियाण्येव ज्ञानकर्ममयानि च ।
तामसो भूतसूक्ष्मादिर्यतः खं लिङ्गमात्मनः ॥ ०३.०५.०३१ ॥
...
महत् तत्व में विकार से अहं तत्व की उत्पत्ति हुई जो कार्य, कारण और
कर्त्ता रूप होने के कारण भूत, इंद्रिय और मनोमय है। वह अहङ्कार वैकारिक
(सत्त्व), तेज (राजस्) और तामस त्रिगुणात्मक है।
वैकारिक अहंकार से मन और जिनसे विषयों का ज्ञान होता है वे इंद्रियों के अधिष्ठाता देव हुये।
तैजस अहंकार से ज्ञानेंद्रियाँ और कर्मेंद्रियाँ हुईं और तामस अहंकार से
सूक्ष्म भूतों का कारण शब्दतन्मात्र हुआ और उससे आत्मा का चिह्न स्वरूप
(बोध कराने वाला) आकाश हुआ।
....
वर्णमाला का 'ख' अंतरिक्ष या आकाश के लिये प्रयुक्त होता है जबकि प्रथम अक्षर 'क' अज प्रजापति के लिये।
...
मैत्रेय रहस्यमय लग रहे हैं, नाम से भी और उपदेश आरम्भ के ढंग से भी, हालाँकि शुकदेव के उपदेशों में भी दार्शनिक अंश हैं।
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इति तासां स्वशक्तीनां सतीनामसमेत्य सः ।
प्रसुप्तलोकतन्त्राणां निशाम्य गतिमीश्वरः ॥ ०३.०६.००१ ॥
कालसञ्ज्ञां तदा देवीं बिभ्रच्छक्तिमुरुक्रमः ।
त्रयोविंशति तत्त्वानां गणं युगपदाविशत् ॥ ०३.०६.००२ ॥
सोऽनुप्रविष्टो भगवांश्चेष्टारूपेण तं गणम् ।
भिन्नं संयोजयामास सुप्तं कर्म प्रबोधयन् ॥ ०३.०६.००३ ॥
प्रबुद्धकर्म दैवेन त्रयोविंशतिको गणः ।
प्रेरितोऽजनयत्स्वाभिर्मात्राभिरधिपूरुषम् ॥ ०३.०६.००४ ॥
परेण विशता स्वस्मिन्मात्रया विश्वसृग्गणः ।
चुक्षोभान्योन्यमासाद्य यस्मिन् लोकाश्चराचराः ॥ ०३.०६.००५ ॥
हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सरान् ।
आण्डकोश उवासाप्सु सर्वसत्त्वोपबृंहितः ॥ ०३.०६.००६ ॥
...
आदिपुरुष की शक्तियाँ भी समेत अर्थात एकता की स्थिति में नहीं थीं तो
सृष्टि नहीं कर पा रही थीं। 23 तत्वों को एक कर उसे स्वयं भी प्रविष्ट होना
पड़ा, और अण्डरूप में सहस्र परिवत्सर रहना पड़ा।
...
आप किस खेत की मूली हैं? बिना किये कुछ नहीं होना जाना।
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...
आगे के अध्यायों में काल गणना और सृष्टि अवयव से जुड़े ढेर सारे
श्लोक हैं, जिन्हें मैं पहले अन्य स्रोतों में पढ़ चुका हूँ इसलिये सरसरी
दृष्टि से देख आगे बढ़ रहा हूँ।
एक महत्त्वपूर्ण श्लोक यह है:
कस्य रूपमभूद्द्वेधा यत्कायमभिचक्षते ।
ताभ्यां रूपविभागाभ्यां मिथुनं समपद्यत ॥ ०३.१२.०५२ ॥
...
'क' अज-प्रजापति हैं, अजन्मा। परम्परा पहले को अजन्मा मानती आयी है। बकरी
पहली पालिता पशु हुई इसलिये अजा कहलायी और उसे ब्राह्मणों के साथ जोड़ा गया।
ऋग्वेद के प्रसिद्ध 'कस्मै देवाय हविषा विधेम्' का एक अर्थ यह भी किया गया है कि क अर्थात प्रजापति को हविष्य प्रदान करता हूँ।
...
भागवत का ऊपर लिखा श्लोक यह बताता है कि क अर्थात प्रजापति के दो विभाग
होने से ही स्त्री पुरुष हुये। 'क' से उत्पन्न देह इसीलिये 'काया' कहलायी।
इस विभाग के साथ ही मैथुनी सृष्टि का आरम्भ हुआ।
...
ईसाई मत की
तरह यहाँ स्त्री पुरुष की पसली से उत्पन्न नहीं होती और न सृष्टि के लिये
स्त्री प्रेरित किसी original sin की कल्पना है। दोनों सहज ही सम रूप क से
उत्पन्न होते हैं और सृष्टि प्रजनन में लग जाते हैं।
Arun Upadhyaya comments:
कं ब्रह्म = कर्ता रूप। जड़ चेतन गुण दोषमय विश्व कीन्ह करतार।
अज
और अजा को सांख्य दर्शन में पुरुष और प्रकृति कहा है। प्रकृति के 3 गुणों
को अजा के तीन रंग कहा है। वाचस्पति मिश्र की सांख्य कौमुदी टीका इसी
मन्त्र से आरम्भ हुई है। वहाँ 3 रंगों का वैसा ही अर्थ किया है जैसा रिचर्ड
फेमान के क्वाण्टम इलेक्ट्रोडायनामिक्स में है।
________________
...
पञ्चवत्सर ऐसे गिनाये गये हैं:
संवत्सरः परिवत्सर इडावत्सर एव च ।
अनुवत्सरो वत्सरश्च विदुरैवं प्रभाष्यते ॥ ०३.११.०१४ ॥
गीताप्रेस का भावार्थ इन्हें ऐसे जोड़ता है:
सूर्य - संवत्सर
बृहस्पति - परिवत्सर
सवन - इडावत्सर
चंद्रमा - अनुवत्सर
नक्षत्र - वत्सर
अंग्रेजी अनुवाद इन्हें ऐसे जोड़ता है:
Celestial - संवत्सर
Planetary - परिवत्सर
Galactic - इडावत्सर
Lunation - अनुवत्सर
Tropical - वत्सर
[स्पष्टत: दोनों में से एक में कुछ गड़बड़ है, tropical नक्षत्र वर्ष नहीं हो सकता]
परम पुरुष के शयन में सर्वदा परिवत्सर का ही प्रयोग किया गया है (सहस्र
परिवत्सर) अर्थात बृहस्पति से सम्बंधित है। बृहस्पति का वर्ष लगभग 12
(~11.86) पृथ्वी के सौरवर्ष के बराबर होता है।
आगे चतुर्युगी के बारे में संधिकाल के समय परिमाण बताते हुये कहा गया है:
कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चेति चतुर्युगम् ।
दिव्यैर्द्वादशभिर्वर्षैः सावधानं निरूपितम् ॥ ०३.११.०१८ ॥
चत्वारि त्रीणि द्वे चैकं कृतादिषु यथाक्रमम् ।
सङ्ख्यातानि सहस्राणि द्विगुणानि शतानि च ॥ ०३.११.०१९ ॥
सन्ध्यासन्ध्यांशयोरन्तर्यः कालः शतसङ्ख्ययोः ।
तमेवाहुर्युगं तज्ज्ञा यत्र धर्मो विधीयते ॥ ०३.११.०२० ॥
बृहस्पति के 12 वर्ष, परम पुरुष के सहस्र परिवत्सर और चतुर्युगी 12000 में
सम्बंध अवश्य है। मूल गणित ज्योतिष ग्रंथ का संदर्भ मिले तो बात बने।
उल्लेखनीय है कि एक मत के अनुसार कृत, त्रेता, द्वापर, कलि युग क्रमश:
4800, 3600, 2400 और 1200 पृथ्वी के वर्षों के बराबर होते हैं न कि दिव्य
वर्षों के।
....
Arun Upadhyaya comments:
गीता
प्रेस या अंग्रेजी-दोनों अनुवाद गलत हैं। सौर तथा चान्द्र वर्ष का समन्वय
कैसे होता है, इस पर ये नाम निर्भर हैं। वेदाड़्ग ज्योतिष की प्रभाकर होले
द्वारा व्याख्या में यह समझाया गया है। जब सौर वर्ष के साथ प्रायः चान्द्र
वर्ष का भी आरम्भ हो अर्थात् 0-5 तिथि तक,
तो वह सम्वत्सर है। 10 तिथि तक परिवत्सर, 15 तिथि तक इदावत्सर, 20 तिथि तक
अनुवत्सर, 25 तिथि तक इद्वत्सर होगा। 12×30 दिनों का वर्ष वत्सर है।
केवल
सौर-मास तथा वर्ष की गणना शक है। सौर-चान्द्र का समन्वय सम्वत्सर है
क्योंकि इसी के अनुसार समाज चलता है। सम् = एक साथ, सरति = चलता है।
पृथ्वी की कक्षा भी सम्वत्सर है। यहां सरति का अर्थ वक्र गति है।
1
सम्वत्सर में सूर्य का प्रकाश जितनी दूरी तक जाता है वह सूर्य की वाक्
(सौर मण्डल) है। ऋग्वेद (10/189/3) में इसका आकार पृथ्वी व्यास का 2 घात
30 गुणा दिया है। यही माप विष्णु पुराण (2/8/4) में सूर्य व्यास का 157
लाख गुणा दिया है। ये दोनों माप प्रायः 1 प्रकाश वर्ष का गोल है। इस
सम्वत्सर या वाक् को भी 6 ऋतु की तरह 6 भाग में बांटा गया है जिसे वषट्कार
कहते हैं।
__________
..
धरती के घूर्णन अक्ष की भी एक गति होती है जिसके कारण आजकल की गणना
के अनुसार लगभग 25772 वर्ष की आवृत्ति से बारी बारी से कतिपय उत्तरी तारे
ध्रुव का स्थान लेते रहते हैं। ध्रुव को परम भागवत कहा गया है जिन्हें हरि
की गोद प्राप्त है।
घड़ी के चलने की गति देखें तो 12 से 6 तक वह एक
दिशा चलती है और 6 से आगे की दिशा उल्टी हो जाती है, यह एक युग्म है।
युगनद्धता को सृष्टि का मूल गुण मान पुरानी सभ्यताओं ने विरुद्ध दिखते या
पूरक लगते या घूर्णन सममिति में एक दूसरे की परिक्रमा करते
तत्त्वों की संकल्पनायें गढ़ीं। भारत में भी हुआ।
ऋग्वेद वर्ष के 360 दिन से पहले 720 दिन और रात पर जोर देता है। मास के भी
दो पक्ष होते हैं - शुक्ल और कृष्ण। अमा और पूर्णिमा हैं ही।
अर्द्धनारीश्वर रुद्र को जानते ही हैं। सभी देवताओं के साथ उनकी पत्नियाँ
भी हैं, वरुणानी, इंद्राणी आदि वेदों में भी हैं। उत्तरायण और दक्षिणायन
में संवत्सर बँटा है... अस्तु।
परम पुरुष का सहस्र परिवत्सर तक अण्ड
में शयन या निवास जो भी हो, परिवत्सर को बृहस्पति वर्ष से जोड़ कर देखने
वाले वर्ग के मन में 12 पृथ्वी वर्ष X 1000 = 12000 वाली बात रही होगी। एक
ध्रुव से आरम्भ कर ठीक 180 अंश पर स्थित विपरीत दिशा वाले ध्रुव तक पहुँचने
का समय 12000 वर्ष मानें तो पूरी आवृत्ति 24000 वर्षों की होती है जो कि
आधुनिक गणना से 1772 वर्ष मात्र कम है। इस गति का त्वरण परिवर्तित होता
रहता है तो सम्भव है कि किसी समय प्रेक्षक उसे 24000 वर्ष ही समझ पाये हों।
चतुर्युगी के 12000 दिव्य वर्ष ध्रुव की भक्ति और भगवान के वात्सल्य से तो नहीं जुड़ते?
... मन की उड़ान है, और कुछ नहीं।
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इन श्लोकों के दैनिक पाठ और अनुकरण से श्रीमतियाँ प्रसन्न रहती हैं और धन, धान्य, प्रजा की अभिवृद्धि होती है।
[गम्भीरतापूर्वक कह रहा हूँ।]
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ये सप्तर्षियों में एक मरीचि के पुत्र कश्यप महर्षि के वचन हैं:
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एष तेऽहं विधास्यामि प्रियं भीरु यदिच्छसि ।
तस्याः कामं न कः कुर्यात्सिद्धिस्त्रैवर्गिकी यतः ॥ ०३.१४.०१७ ॥
सर्वाश्रमानुपादाय स्वाश्रमेण कलत्रवान् ।
व्यसनार्णवमत्येति जलयानैर्यथार्णवम् ॥ ०३.१४.०१८ ॥
यामाहुरात्मनो ह्यर्धं श्रेयस्कामस्य मानिनि ।
यस्यां स्वधुरमध्यस्य पुमांश्चरति विज्वरः ॥ ०३.१४.०१९ ॥
यामाश्रित्येन्द्रियारातीन् दुर्जयानितराश्रमैः ।
वयं जयेम हेलाभिर्दस्यून् दुर्गपतिर्यथा ॥ ०३.१४.०२० ॥
न वयं प्रभवस्तां त्वामनुकर्तुं गृहेश्वरि ।
अप्यायुषा वा कार्त्स्न्येन ये चान्ये गुणगृध्नवः ॥ ०३.१४.०२१ ॥
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हे भीरु! इच्छानुसार तुम्हारे लिये जो प्रिय हो, अवश्य करूँगा। जिसके
द्वारा अर्थ, धर्म और काम तीनों की सिद्धि होती है उस पत्नी की कामना कौन
नहीं पूर्ण करेगा? जिस प्रकार जलयान पर चढ़ कर कोई समुद्र पार कर लेता है
उसी प्रकार गृहस्थ आश्रम वाला अन्यों को आश्रय देते हुये स्वयं भी दु:खसागर
के पार हो जाता है।
हे मानिनी! तुम श्रेयस की कामना रखने वाले पति की
अर्धांगिनी कही गयी हो जिस पर गृहस्थी का भार रख पुरुष निश्चिंत हो विचरता
है। इंद्रियरूपी शत्रु अन्य आश्रम वालों के लिये अत्यंत दुर्जेय हैं किंतु
जिस प्रकार किले का स्वामी सुगमता से ही लुटेरे शत्रुओं को अपने अधीन कर
लेता है, उसी प्रकार अपनी विवाहिता का आश्रय ले हम पुरुष इंद्रिय रूपी
शत्रुओं को सहज ही जीत लेते हैं।
हे गृहेश्वरी! तुम जैसियों के
उपकारों का बदला तो हम या हम जैसे अन्य गुणग्राही पुरुष अपनी समस्त आयु और
जन्म जन्मांतर में भी पूरी तरह से नहीं चुका सकते!
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महर्षि कश्यप द्वारा भगवान शङ्कर का गुण कीर्तन। कीर्तन अर्थात कीर्ति का प्रसार। नहीं?
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एषा घोरतमा वेला घोराणां घोरदर्शना ।
चरन्ति यस्यां भूतानि भूतेशानुचराणि ह ॥ ०३.१४.०२३ ॥
एतस्यां साध्वि सन्ध्यायां भगवान् भूतभावनः ।
परीतो भूतपर्षद्भिर्वृषेणाटति भूतराट् ॥ ०३.१४.०२४ ॥
श्मशानचक्रानिलधूलिधूम्र विकीर्णविद्योतजटाकलापः ।
भस्मावगुण्ठामलरुक्मदेहो देवस्त्रिभिः पश्यति देवरस्ते ॥ ०३.१४.०२५ ॥
न यस्य लोके स्वजनः परो वा नात्यादृतो नोत कश्चिद्विगर्ह्यः ।
वयं व्रतैर्यच्चरणापविद्धामाशास्महेऽजां बत भुक्तभोगाम् ॥ ०३.१४.०२६ ॥
यस्यानवद्याचरितं मनीषिणो गृणन्त्यविद्यापटलं बिभित्सवः ।
निरस्तसाम्यातिशयोऽपि यत्स्वयं पिशाचचर्यामचरद्गतिः सताम् ॥ ०३.१४.०२७ ॥
हसन्ति यस्याचरितं हि दुर्भगाः स्वात्मन्रतस्याविदुषः समीहितम् ।
यैर्वस्त्रमाल्याभरणानुलेपनैः श्वभोजनं स्वात्मतयोपलालितम् ॥ ०३.१४.०२८ ॥
ब्रह्मादयो यत्कृतसेतुपाला यत्कारणं विश्वमिदं च माया ।
आज्ञाकरी यस्य पिशाचचर्या अहो विभूम्नश्चरितं विडम्बनम् ॥ ०३.१४.०२९ ॥
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इस समय दाहिनी ओर कई शर्मा जी, जोशी जी, तिवारी जी दिख रहे हैं। शुक्ल यजुर्वेदी भी हैं।
अनुवाद उनमें से कोई कर ही देंगे। :)
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'Sex Child' - Nay,
'Dharma Child' - Aye
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संध्याकाल या कुसमय में या केवल कामवश युगनद्ध हो संतान उत्पन्न न करें।
कश्यप और दिति का प्रसंग दर्शाता है कि अच्छी संतान हेतु योजना, विधि
विधान के साथ उचित समय में सात्विक चेतना के साथ संभोगरत होना चाहिये।
सनातन की family planning यह रही।
...
सुसंतति क्यों आवश्यक है?
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योगैर्हेमेव दुर्वर्णं भावयिष्यन्ति साधवः।
निर्वैरादिभिरात्मानं यच्छीलमनुवर्तितुम्॥०३.१४.०४६॥
...
जिस प्रकार बारम्बार शोधन प्रक्रिया द्वारा दुर्वर्ण (चाँदी में मिला) हेम
(सोना) निखर आता है उसी प्रकार लोग ऐसे व्यक्ति के शील का अनुकरण करने के
लिये निर्वैरता द्वारा अपनी अंतरात्मा को शुद्ध करते हैं।
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Child planning > Family Planning > Society Planning > Nation Planning
हमारी आज की सबसे बड़ी समस्या अनुशासन का अभाव ही है। उन्नत और उन्नतिशील
देशों के बीच यह मुख्य अंतर है। भारत में ही जिन प्रदेशों में अनुशासन अधिक
है वे अन्यों से आगे हैं, अच्छी स्थिति में हैं।
अनुशासन को यहाँ तप और संस्कार द्वारा सुनिश्चित करने के प्रयास संस्थाबद्ध रहे और वह संस्था परिवार है।
पति पत्नी मात्र साथ रहते नर मादा मात्र नहीं, समाज की धुरि हैं। इसी
पुराण में स्त्री की स्तुति में गृहस्थ को अन्य सभी आश्रमों का वहन करते
हुये सागर पार कराने वाला बताया गया है, इसके पीछे बहुत ही सुसंगत सोच है।
You don't need a 'Sex Child', you need a 'Dharma Child'. उसे वहन करने वाली 'धर्म'पत्नी होती है।
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यस्यामृतामलयशःश्रवणावगाहः सद्यः पुनाति जगदाश्वपचाद्विकुण्ठः (०३.१६.००६ 1)
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मेरी अमृत समान अमल यश गाथा को सुनने से शीघ्र ही श्वपच पर्यंत पवित्र हो जाते हैं। इस कारण ही मैं विकुण्ठ कहलाता हूँ।
[भगवान विष्णु]
...
श्वपच = श्व+पच। श्व अर्थात श्वान (कुत्ता) और पच अर्थात खाने वाला
चाण्डाल। इन्हें इतना अपवित्र माना जाता कि नगर प्रवेश तक वर्जित था।
वह भी कथा सुन कर ही शीघ्र पवित्र हो जाय तो इसे लोक की सोच में paradigm shift, मौलिक परिवर्तन लाने वाला कहेंगे।
वैष्णवों ने अपने आराध्य के इस कथन को निभाया भी।
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येषां बिभर्म्यहमखण्डविकुण्ठयोग मायाविभूतिरमलाङ्घ्रिरजः किरीटैः।
विप्रांस्तु को न विषहेत यदर्हणाम्भः सद्यः पुनाति सहचन्द्रललामलोकान् ॥०३.१६.००९॥*
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विष्णु के पाँवों को धोते जल (गङ्गा) द्वारा त्रिलोकी सहित चंद्रललाम
अर्थात शिव को भी पवित्र किये जाने का उल्लेख जिसे वे शिव सिर पर धारण करते
हैं।
...
ब्राह्मण की श्रेष्ठता दर्शाने के साथ साथ कि स्वयं
विष्णु भी उनकी चरण रज मस्तक पर धारण करते हैं, यह भी कहना कि शिव को भी
पवित्र करने वाली गङ्गा विष्णु के चरणों की धोवन हैं। - सम्प्रदाय स्थापना,
प्रचलित लोकाचार से समन्वय और 'पुनाति' प्रयोग द्वारा भक्ति के माध्यम से
चाण्डाल, शिव और त्रिलोकी सबको एक ही धरातल पर लाना, इस एक श्लोक में बहुत
कुछ छिपा है।
ये भाव भगवद्गीता में भी अभिव्यक्त हुये हैं। बताइये तो कौन से श्लोक हैं?
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त्वत्तः सनातनो धर्मो रक्ष्यते तनुभिस्तव ।
धर्मस्य परमो गुह्यो निर्विकारो भवान्मतः ॥ ०३.१६.०१८ ॥
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तुम्हीं सनातन, तुम्हीं धर्म रक्षक, परम गुह्य धर्म तुम्हीं, तुम्हीं निर्विकार, ऐसा (श्रेष्ठ जन का) मत है।
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हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु का जन्म - दिति के गर्भ से। पिता कश्यप ऋषि।
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निशम्यात्मभुवा गीतं कारणं शङ्कयोज्झिताः ।
ततः सर्वे न्यवर्तन्त त्रिदिवाय दिवौकसः ॥ ०३.१७.००१ ॥
दितिस्तु भर्तुरादेशादपत्यपरिशङ्किनी ।
पूर्णे वर्षशते साध्वी पुत्रौ प्रसुषुवे यमौ ॥ ०३.१७.००२ ॥
उत्पाता बहवस्तत्र निपेतुर्जायमानयोः ।
दिवि भुव्यन्तरिक्षे च लोकस्योरुभयावहाः ॥ ०३.१७.००३ ॥
सहाचला भुवश्चेलुर्दिशः सर्वाः प्रजज्वलुः ।
सोल्काश्चाशनयः पेतुः केतवश्चार्तिहेतवः ॥ ०३.१७.००४ ॥
ववौ वायुः सुदुःस्पर्शः फूत्कारानीरयन्मुहुः ।
उन्मूलयन्नगपतीन् वात्यानीको रजोध्वजः ॥ ०३.१७.००५ ॥
उद्धसत्तडिदम्भोद घटया नष्टभागणे ।
व्योम्नि प्रविष्टतमसा न स्म व्यादृश्यते पदम् ॥ ०३.१७.००६ ॥
चुक्रोश विमना वार्धिरुदूर्मिः क्षुभितोदरः ।
सोदपानाश्च सरितश्चुक्षुभुः शुष्कपङ्कजाः ॥ ०३.१७.००७ ॥
मुहुः परिधयोऽभूवन् सराह्वोः शशिसूर्ययोः ।
निर्घाता रथनिर्ह्रादा विवरेभ्यः प्रजज्ञिरे ॥ ०३.१७.००८ ॥
अन्तर्ग्रामेषु मुखतो वमन्त्यो वह्निमुल्बणम् ।
सृगालोलूकटङ्कारैः प्रणेदुरशिवं शिवाः ॥ ०३.१७.००९ ॥
सङ्गीतवद्रोदनवदुन्नमय्य शिरोधराम् ।
व्यमुञ्चन् विविधा वाचो ग्रामसिंहास्ततस्ततः ॥ ०३.१७.०१० ॥
खराश्च कर्कशैः क्षत्तः खुरैर्घ्नन्तो धरातलम् ।
खार्काररभसा मत्ताः पर्यधावन् वरूथशः ॥ ०३.१७.०११ ॥
रुदन्तो रासभत्रस्ता नीडादुदपतन् खगाः ।
घोषेऽरण्ये च पशवः शकृन्मूत्रमकुर्वत ॥ ०३.१७.०१२ ॥
गावोऽत्रसन्नसृग्दोहास्तोयदाः पूयवर्षिणः ।
व्यरुदन् देवलिङ्गानि द्रुमाः पेतुर्विनानिलम् ॥ ०३.१७.०१३ ॥
ग्रहान् पुण्यतमानन्ये भगणांश्चापि दीपिताः ।
अतिचेरुर्वक्रगत्या युयुधुश्च परस्परम् ॥ ०३.१७.०१४ ॥
दृष्ट्वान्यांश्च महोत्पातानतत्तत्त्वविदः प्रजाः ।
ब्रह्मपुत्रानृते भीता मेनिरे विश्वसम्प्लवम् ॥ ०३.१७.०१५ ॥
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भावी अत्याचारियों के जन्म पर ढेर सारे प्राकृतिक उत्पातों और अमंगल सूचक
घटनाओं के वर्णन की रूढ़ि रही है। ये सब काव्यात्मक वर्णन ही लगते हैं। यहाँ
बस संदर्भ हेतु रख दिया है।
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एक शब्द महत्त्वपूर्ण है - देवलिङ्गानि। सबने इसका अर्थ देव प्रतिमायें ही किया है।
इस शब्द से प्रतिमा आराधना की प्राचीनता का तो पता चलता ही है, साथ ही
'लिङ्ग' शब्द के चिह्न और प्रतिमा अर्थ की पुष्टि हो जाती है।
क्या आप जानते हैं कि यह लिङ्ग वैदिक स्कम्भ और यूप का भी एक परवर्ती रूप है?
संश्लिष्ट प्रतीकात्मकता भारत की विशेषता रही है। कतिपय गोपनीय शाक्त और
तंत्र साधकों द्वारा मानव जननांगों के प्रयोग public domain में कभी नहीं
रहे।
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शत्रु जब बली हो और सामने से ललकारे तो उसे ऐसे मित्र के पास भेज देना चाहिये जो समर्थ हो।
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ऋषि कश्यप और दिति का छोटा पुत्र हिरण्याक्ष मद में भरा, गदा उठाये स्वर्ग
में पहुँच गया और वरुण को चुनौती दे डाला - 'देह्यधिराज संयुगम्' माने कि
युद्धं देहि!
"आप तो बड़े वीर बाँकों के भी मद चूर कर राजसूय यज्ञ कर चुके हैं (आइये तनि हो जाये एक दो हाथ!)"
वरुण को क्रोध तो बहुत आया किंतु धी अर्थात बुद्धि का आश्रय ले उसे शमित
किये। बोले,"मैं पुरातन पुरुष के अतिरिक्त किसी अन्य समर्थ को नहीं देख
पाता जो तुम्हें द्वंद्व का वर दे सके। तुम उन्हीं के पास जाओ, उन्हीं देव
श्रेष्ठ की तुम्हारे सदृश मनस्वी आराधना किया करते हैं, वही तुम्हारी इच्छा
की पूर्ति करेंगे। वही सज्जनों पर कृपा करने के लिये भिन्न भिन्न रूप धारण
कर तुम जैसों का नाश करते हैं। उन्हीं के सामने तुम्हारा अहंकार दूर होगा
और तू कुत्तों से घिरा वीरशय्या पर सोयेगा।"
रोषं समुत्थं शमयन् स्वया धिया व्यवोचदङ्गोपशमं गता वयम् ॥ ०३.१७.०२९ ॥
पश्यामि नान्यं पुरुषात्पुरातनाद्यः संयुगे त्वां रणमार्गकोविदम् ।
आराधयिष्यत्यसुरर्षभेहि तं मनस्विनो यं गृणते भवादृशाः ॥ ०३.१७.०३० ॥
तं वीरमारादभिपद्य विस्मयः शयिष्यसे वीरशये श्वभिर्वृतः ।
यस्त्वद्विधानामसतां प्रशान्तये रूपाणि धत्ते सदनुग्रहेच्छया ॥ ०३.१७.०३१ ॥
...
शत्रु ललकार रहे हैं, आप में बल नहीं तो आप का परम पुरुष कहाँ है?
मन के भीतर क्षीरसागर में सो रहा है, उसे जगाइये।
समर्थ मित्रों को एकत्र कीजिये।
अवतार योग्य साइत नहीं है, ऐसा अतिरबिन्ने पण्डित भी बताये हैं।
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'कान के नीचे' बजा दिया!
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हिरण्याक्ष को पता चला
कि आदि पुरुष तो रसातल गये हैं। वह वहाँ पहुँचा तो भगवान अपने 'धराधर'
वाराह रूप में पृथ्वी को दाँत पर उठाये उसके उद्धार में लगे थे - धराधरं
प्रोन्नीयमानावनिमग्रदंष्ट्रया।
त्वं नः सपत्नैरभवाय किं भृतो यो मायया हन्त्यसुरान् परोक्षजित् ।
त्वां योगमायाबलमल्पपौरुषं संस्थाप्य मूढ प्रमृजे सुहृच्छुचः ॥ ०३.१८.००४ ॥
हिरण्याक्ष की चुनौती में एक शब्द आया है - सपत्ना। इस शब्द का प्राय:
अनुवाद सौत के रूप में कर दिया जाता है जोकि सपत्नी है। सपत्ना का अर्थ
शत्रुभाव से है जो ऋग्वेद से चला आ रहा है।
...
दैत्य की चुनौती की उपेक्षा करते हुये वाराह ने धरती को स्थापित किया। दैत्य को 'हिरण्यकेश' कहा गया है अर्थात पीले केशों वाला।
उसकी बातों का उत्तर वाराह ने ऐसे दिया:
सत्यं वयं भो वनगोचरा मृगा युष्मद्विधान्मृगये ग्रामसिंहान् ।
न मृत्युपाशैः प्रतिमुक्तस्य वीरा विकत्थनं तव गृह्णन्त्यभद्र ॥
सच में हम वनचर मृग समान हैं जो तुझ जैसे ग्रामसिंहों (कुत्तों) को ढूढ़ते
रहते हैं। वीर जन ऐसों के कथन पर ध्यान नहीं देते जिनके गले मृत्यु का पाश
पड़ा हो। तू बड़ा पदातियों का नायक है तो नि:शंक हो हमारा अनिष्ट करने का
प्रयास कर! हमें मार कर अपने स्वजनों के आँसू पोंछ। जो अपनी प्रतिज्ञा पूरी
नहीं करता वह सभ्य मनुष्यों में अयोग्य माना जाता है।
त्वं पद्रथानां किल यूथपाधिपो घटस्व नोऽस्वस्तय आश्वनूहः ।
संस्थाप्य चास्मान् प्रमृजाश्रु स्वकानां यः स्वां प्रतिज्ञां नातिपिपर्त्यसभ्यः ॥
...
कुत्ते के लिये ग्रामसिंह शब्द का प्रयोग ध्यान देने योग्य है और यह प्रतीप भी कि वनचर मृग ग्रामसिंह का आखेट करने को कह रहा है!
...
दोनों के बीच हो रहे युद्ध की उपमा कवि एक बहुत पुराने ढंग से देते हैं।
इलायामिव शुष्मिणोर्मृधः
शब्दों पर ध्यान दें - इला, शुष्मिण और मृध।
इला के दो अर्थ हैं - इळा अर्थात पृथ्वी (वैदिक प्रयोग) और गौ।
शुष्मिण के भी दो अर्थ हैं - बहुत बलवान और प्रभाव से साँड़।
मृध - संघर्ष, लड़ाई।
दोनों ऐसे लड़ रहे थे जैसे एक गाय के लिये दो साँड़। दूसरे अर्थ में पृथ्वी
के लिये (जिसका कि उद्धार वाराह ने किया था), दो महाबलवान लड़ रहे थे।
ये तीनों शब्द अति प्राचीन हैं।
...
हिरण्याक्ष के वध के समय अभिजित मुहुर्त हो गया - अधुनैषोऽभिजिन्नाम योगो मौहूर्तिको ह्यगात्।
वाराह के हाथ से एक बार गदा गिर पड़ी तो आक्रमण का अवसर होने पर भी
धर्मयुद्ध की मर्यादा मानते हुये उस दैत्य ने हरि पर प्रहार नहीं किया:
स तदा लब्धतीर्थोऽपि न बबाधे निरायुधम् ।
मानयन् स मृधे धर्मं विष्वक्सेनं प्रकोपयन् ॥ ०३.१९.००४ ॥
उसकी धर्मबुद्धि की वाराह ने प्रशंसा भी की:
मानयामास तद्धर्मं सुनाभं चास्मरद्विभुः।
तदनंतर यज्ञ स्वरूप विष्णु के ऊपर उसने प्रज्जवलित त्रिशूल चलाया जैसे कि
किसी विप्र के विरुद्ध अभिचारी प्रयोग किये जायें (जिन्हें निरर्थक होना ही
है)
यज्ञाय धृतरूपाय विप्रायाभिचरन् यथा ॥ ०३.१९.०१३ ॥
...
अंतत: वह मुक्कों से मार करने लगा। तब वाराह ने उसके कान के नीचे तमाचा
लगा कर उसे ऐसे ही मार डाला जैसे कभी मरुत्पति इंद्र ने त्वष्टा के पुत्र
वृत्र को मार दिया था!
तं मुष्टिभिर्विनिघ्नन्तं वज्रसारैरधोक्षजः।
करेण कर्णमूलेऽहन् यथा त्वाष्ट्रं मरुत्पतिः॥०३.१९.०२५॥
...
'कान के नीचे बजाना' भागवत से ही चला आ रहा है, 'कान के नीचे बजाऊँगा' के
स्थान पर 'करेण कर्णमूलेऽहन्' कह कर देखिये तो, सामने वाला इतनी मधुर धमकी
पर मुग्ध हो जायेगा
...
वाराह स्तुति में पुन: 'लिङ्ग' शब्द का प्रयोग भगवान के स्वरूप अर्थ में किया गया है जिसका कि ध्यान योगी साधक जन करते हैं:
यं योगिनो योगसमाधिना रहो ध्यायन्ति लिङ्गादसतो मुमुक्षया
...
यो वै हिरण्याक्षवधं महाद्भुतं विक्रीडितं कारणसूकरात्मनः ।
शृणोति गायत्यनुमोदतेऽञ्जसा विमुच्यते ब्रह्मवधादपि द्विजाः॥०३.१९.०३७॥
'सूकरात्मन' भगवान द्वारा हिरण्याक्ष वध की इस महाअद्भुत क्रीड़ा को जो
प्रसन्नतापूर्वक गायेंगे और सुनेंगे वे ब्रह्महत्या दोष से भी सहज ही मुक्त
हो जायेंगे।
...
इति तृतीयऽस्कंधे एकोनविंशोऽध्याय:
...
बोलिये -
॥भगवान व्यास की जय॥
॥भगवती इळा की जय॥
॥भगवान धरणीधर की जय॥