आज शरद पूर्णिमा को वाल्मीकि जी की जयंती पड़ती है। वाल्मीकि मुनि का अवदान क्या है?
उनके पहले अनुष्टुभ छ्न्द था। ऋग्वेद में ‘श्लोक’ शब्द स्तुति अर्थ में कई बार आया है। पारम्परिक वेदपाठ में वाद्य यंत्रों का निषेध है। वाल्मीकि ने अनुष्टुभ को वीणा गायन से संपृक्त किया। श्लोक स्तुति भर न हो कर ‘शोकजनित’ वह वाच् छ्न्द हुआ जिसने देवत्त्व को जन जन के बीच आदर्श राजत्व के रूप में स्थापित कर आनंदसरि अवगाहन के अवसर भी दिये।
रामायण के आरम्भ में उनके किसी शिष्य ने जिस प्रसिद्ध श्लोक को जोड़ा, उसके दो रूप कुछ भेद से यूँ मिलते हैं कि एक में जो महिमा नारद जी की है, दूसरे में वही वाल्मीकि जी की हो जाती है:
तपः स्वाध्याय निरतम् तपस्वी वाग्विदाम् वरम्।
नारदम् परिपप्रच्छ वाल्मीकिः मुनि पुङ्गवम्॥
उन्हें मुनि पुङ्गव कहा गया। उनकी कृति की महानता ही थी जिसने जाने कितने पोंगा पण्डों को जीविका दी। तुलसीदास जी जब ‘दोष रहित दूषण सहित’ लिखे तो जाने उनके मन में क्या था, उससे सम्बंधित श्लोक भी रामायण की कतिपय प्राचीन पाण्डुलिपियों की भूमिका में मिलता है:
सदूषणापि निर्दोषा सखरापि सुकोमला।
नमस्तस्मै कृता येन रम्या रामायणी कथा॥
रामचरित तो अनूठा है ही, उनकी कथा जन जन का कण्ठहार हुई तो मुनि वाल्मीकि और संत तुलसीदास जैसे पुङ्गवों के कारण। कथा सुनने से भाव वश कण्ठ रुँधें तो होने दीजिये किंतु राक्षस अंतकारी मारुति को न भूलिये। खर, दूषण सहित जाने कितने रावण कलियुग में कथा हरण के ही प्रयास में लगे हैं!
यत्र यत्र रघुनाथकीर्तनं तत्र तत्र कृतमस्तकाञ्जलिम्।
वाष्पवारिपरिपूर्णलोचनम् मारुतिम् नमत राक्षसांतकम्॥
वाल्मीकि मुनि की जय हो!
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