भारत का महाभारत युद्ध अभूतपूर्व विनाश के साथ समाप्त हो चुका था। भरतवंश के उत्तराधिकारी युधिष्ठिर का मन खिन्न था, उचाट। श्रीकृष्ण ने उन्हें शरशय्या पर बुझी हुई अग्नि के समान पड़े वृद्ध भरतवंशी भीष्म के पास जा कर शिक्षा लेने को कहा, कहा कि इस समय भीष्म मेरा ध्यान कर रहे हैं अत: मेरा मन भी उन्हीं में लगा है।
कहा कि वसिष्ठ मुनि द्वारा शिक्षा प्राप्त भीष्म के अवसान के साथ ही ज्ञान का प्रकाश अस्त हो जायेगा अत: मैं तुम्हें उनके पास चलने को कहता हूँ।
श्रीकृष्ण ने पास पहुँच कर भीष्म से कहा कि युधिष्ठिर शोकहत हो गये हैं, उन्हें समाधियुक्त धर्मार्थ का सत्य उपदेश करें, इन्हें शोक से मुक्त करें।
भीष्म ने उत्तर दिया कि कृष्ण, आप के होते हुये यह काम मैं करूँ? गुरु के रहते हुये शिष्य उपदेश देने का अधिकारी भी है? मेरी देह बाणों से पीड़ित है, बुद्धि काम नहीं कर रही, न दिशाओं का ज्ञान है, न आकाश का, न पृथ्वी का। मैं तो केवल आप के प्रभाव से यहाँ बना हुआ हूँ।
कृष्ण ने उन्हें समस्त दोषों से मुक्त करने हेतु वर दिया, उनकी बुद्धि को सतोगुण में स्थिर कर दिव्य दृष्टि दी तथा अगले दिन आने की कह युधिष्ठिर सहित विदा ले ली।
वैशम्पायन बताते हैं कि लौट कर कृष्ण एवं पाण्डव ने भवन में ऐसे प्रवेश किया मानों श्रम से थके सिंह अपनी गुहा में प्रविष्ट हो रहे हों - श्रमान्विता मृगपतयो गुहा इव।
...
अगले दिन वहाँ पहुँचने पर पाण्डवों ने दाहिने हाथ उठा कर महर्षियों का अभिवादन किया। महर्षियों से घिरे भीष्म इस प्रकार दिख रहे थे जैसे देवताओं से घिरे ब्रह्मा हों। नक्षत्रों से घिरे चंद्रमा की भाँति भाइयों से घिरे युधिष्ठिर ने देखा, कुरुवंश का शलाका पुरुष शरतल्प पर शयन करता ऐसा दिख रहा था मानों सूर्य आकाश से गिर पड़ा हो - शरतल्पे शयानं तमादित्यं पतितं यथा !
युधिष्ठिर भय से काँप उठे - भयाच्चागतसाध्वस: !
श्रीकृष्ण ने भीष्म से उनकी कुशल पूछी - रात आप ठीक से सोये तो? बुद्धि निर्मल तो है? कोई ग्लानि तो नहीं? मन व्याकुल तो नहीं?
भीष्म ने उत्तर दिया, हे वार्ष्णेय! तुम्हें देख कर मेरे समस्त दोष दूर हो गये। मैं भूत, भविष्य, भव सब देख रहा हूँ। वेदोक्त धर्म एवं वेदांत को भी साक्षात देख पा रहा हूँ। शिष्ट जन द्वारा बताया धर्म मुझे स्पष्ट है।
हे जनार्दन! देश, जाति, कुल एवं कुलधर्म का भी मुझे ज्ञान है। आश्रम धर्म एवं राजधर्म मुझे प्रकाशित हैं। जिस विषय में जो कुछ भी कहने योग्य है, मैं कहूँगा। आप के निरंतर स्मरण से मैं युवा हो गया हूँ - युवेवास्मि। आप के प्रसाद से वक्ता हो उपदेश देने में मैं समर्थ हूँ।
तब भी मैं जानना चाहता हूँ कि आप पाण्डव युधिष्ठिर को स्वयं उपदेश क्यों नहीं करते? माधव, शीघ्र बताइये।
स्वयं किमर्थं तु भवाञ्श्रेयो न प्राह पाण्डवम् ।
किं ते विवक्षितं चात्र तदाशु वद माधव ॥
वासुदेव ने उत्तर दिया, हे कौरव ! यश एवं श्रेय का मूल मैं हूँ। सत एवं असत पदार्थ मुझसे ही उत्पन्न हैं। चंद्रमा शीतल किरणों से सम्पन्न है, यह कहने पर किसे विस्मय होगा ! सम्पूर्ण यश से सम्पन्न मुझसे उपदेश प्राप्त कर किसे आश्चर्य होगा ! मुझे आप के यश की प्रतिष्ठा करनी है। जब तक यह पृथ्वी रहेगी, आप की कीर्ति सम्पूर्ण लोकों में रहेगी। आप पाण्डव युधिष्ठिर के पूछने पर जो भी कहेंगे, वह वेद सिद्धांत की भाँति इस वसुधा पर मान्य होगा - वेदप्रवाद इव ते स्थास्यते वसुधातले।
मरने से बचे हुये राजन्य गण आप के पास धर्म का अनुनय ले कर बैठे हैं, उन्हें बतायें। आप वृद्ध हैं, श्रुति आचार से समन्वित हैं, राजधर्म के ज्ञाता सदाचारी हैं। राजन्य को उसी प्रकार उपदेश दें जिस प्रकार एक पिता पुत्र को देता है। इसे धर्म बताया गया है कि सुनने की इच्छा रखने वाले को श्रेष्ठ विद्वान पूछने पर उपदेश दे।
भीष्म ने सहर्ष स्वीकृति देते हुये युधिष्ठिर की प्रशंसा में जो शब्द कहे, वे प्रकारान्तर से मानों गम्भीर विषयों पर प्रश्न करने की पात्रता के निकष हैं :
सर्वेषां दीप्तयशसां कुरूणां धर्मचारिणाम्
यस्य नास्ति समः कश्चित्स मां पृच्छतु पाण्डवः
धृतिर्दमो ब्रह्मचर्यं क्षमा धर्मश्च नित्यदा
यस्मिन्नोजश्च तेजश्च स मां पृच्छतु पाण्डवः
सत्यं दानं तपः शौचं शान्तिर्दाक्ष्यमसंभ्रमः
यस्मिन्नेतानि सर्वाणि स मां पृच्छतु पाण्डवः
यो न कामान्न संरम्भान्न भयान्नार्थकारणात्
कुर्यादधर्मं धर्मात्मा स मां पृच्छतु पाण्डवः
संबन्धिनोऽतिथीन्भृत्यान्संश्रितोपाश्रितांश्च यः
संमानयति सत्कृत्य स मां पृच्छतु पाण्डवः
सत्यनित्यः क्षमानित्यो ज्ञाननित्योऽतिथिप्रियः
यो ददाति सतां नित्यं स मां पृच्छतु पाण्डवः
इज्याध्ययननित्यश्च धर्मे च निरतः सदा
शान्तः श्रुतरहस्यश्च स मां पृच्छतु पाण्डवः
कृष्ण ने कहा कि युधिष्ठिर तो लज्जा से ग्रस्त हैं कि मुझसे इतना बड़ा जगत संहार हो गया, वे तो शाप के भय से भयभीत हैं, अत: नहीं पूछ रहे - अभिशापभयाद्भीतो भवन्तं नोपसर्पति।
...
वासुदेव की भूमिका पूर्ण हुई। अपने ही रक्त, पीव में सना पुरा-भारत भविष्य के भारत को उपदेश देने की भङ्गिमा में आ गया। वह रणक्षेत्र जो शवभक्षी जंतुओं का मोदस्थल बना हुआ था, समस्त महर्षियों एवं स्वयं भगवान की उपस्थिति में, ध्वंस की पृष्ठभूमि में, शान्ति के उपदेश का, प्रजा के दुख को राजा कैसे शांत रखे, इस उपदेश का साक्षी हुआ, नाम पड़ा - शांतिपर्व।
पहला श्लोक, दो अग्रणी वर्णों के धर्म क्या हैं, बताते हुये निस्सृत हुआ जो कृष्ण को सम्बोधित था। जैसे कभी अर्जुन ने युद्ध आरम्भ से पूर्व गुरु द्रोण के पाँव शर संधान कर आशीर्वाद लिया था, वैसे ही भीष्म ने पहला श्लोक गुरु कृष्ण को धर्म बताते हुये कहा :
ब्राह्मणानां यथा धर्मो दानमध्ययनं तपः
क्षत्रियाणां तथा कृष्ण समरे देहपातनम्
श्लोक युधिष्ठिर हेतु अभयदान था कि पूछो वत्स, जो कुछ पूछना है। युधिष्ठिर पास गये तो उनका मस्तक सूँघ पास बैठा लिये - तात! मैं स्वस्थ हूँ, निर्भय हो कर प्रश्न करो - पृच्छ मां तात विस्रब्धं मा भैस्त्वं कुरुसत्तम।
युधिष्ठिर ने पहला प्रश्न पूछा, धर्मज्ञ विद्वानों का कहना है कि राजाओं का धर्म परम धर्म है, मैं इसे बहुत बड़ा भार मानता हूँ।
हे पार्थिव! मुझे राजधर्म का उपदेश करें :
राज्यं वै परमो धर्म इति धर्मविदो विदुः
महान्तमेतं भारं च मन्ये तद्ब्रूहि पार्थिव
कहा कि वसिष्ठ मुनि द्वारा शिक्षा प्राप्त भीष्म के अवसान के साथ ही ज्ञान का प्रकाश अस्त हो जायेगा अत: मैं तुम्हें उनके पास चलने को कहता हूँ।
श्रीकृष्ण ने पास पहुँच कर भीष्म से कहा कि युधिष्ठिर शोकहत हो गये हैं, उन्हें समाधियुक्त धर्मार्थ का सत्य उपदेश करें, इन्हें शोक से मुक्त करें।
भीष्म ने उत्तर दिया कि कृष्ण, आप के होते हुये यह काम मैं करूँ? गुरु के रहते हुये शिष्य उपदेश देने का अधिकारी भी है? मेरी देह बाणों से पीड़ित है, बुद्धि काम नहीं कर रही, न दिशाओं का ज्ञान है, न आकाश का, न पृथ्वी का। मैं तो केवल आप के प्रभाव से यहाँ बना हुआ हूँ।
कृष्ण ने उन्हें समस्त दोषों से मुक्त करने हेतु वर दिया, उनकी बुद्धि को सतोगुण में स्थिर कर दिव्य दृष्टि दी तथा अगले दिन आने की कह युधिष्ठिर सहित विदा ले ली।
वैशम्पायन बताते हैं कि लौट कर कृष्ण एवं पाण्डव ने भवन में ऐसे प्रवेश किया मानों श्रम से थके सिंह अपनी गुहा में प्रविष्ट हो रहे हों - श्रमान्विता मृगपतयो गुहा इव।
...
अगले दिन वहाँ पहुँचने पर पाण्डवों ने दाहिने हाथ उठा कर महर्षियों का अभिवादन किया। महर्षियों से घिरे भीष्म इस प्रकार दिख रहे थे जैसे देवताओं से घिरे ब्रह्मा हों। नक्षत्रों से घिरे चंद्रमा की भाँति भाइयों से घिरे युधिष्ठिर ने देखा, कुरुवंश का शलाका पुरुष शरतल्प पर शयन करता ऐसा दिख रहा था मानों सूर्य आकाश से गिर पड़ा हो - शरतल्पे शयानं तमादित्यं पतितं यथा !
युधिष्ठिर भय से काँप उठे - भयाच्चागतसाध्वस: !
श्रीकृष्ण ने भीष्म से उनकी कुशल पूछी - रात आप ठीक से सोये तो? बुद्धि निर्मल तो है? कोई ग्लानि तो नहीं? मन व्याकुल तो नहीं?
भीष्म ने उत्तर दिया, हे वार्ष्णेय! तुम्हें देख कर मेरे समस्त दोष दूर हो गये। मैं भूत, भविष्य, भव सब देख रहा हूँ। वेदोक्त धर्म एवं वेदांत को भी साक्षात देख पा रहा हूँ। शिष्ट जन द्वारा बताया धर्म मुझे स्पष्ट है।
हे जनार्दन! देश, जाति, कुल एवं कुलधर्म का भी मुझे ज्ञान है। आश्रम धर्म एवं राजधर्म मुझे प्रकाशित हैं। जिस विषय में जो कुछ भी कहने योग्य है, मैं कहूँगा। आप के निरंतर स्मरण से मैं युवा हो गया हूँ - युवेवास्मि। आप के प्रसाद से वक्ता हो उपदेश देने में मैं समर्थ हूँ।
तब भी मैं जानना चाहता हूँ कि आप पाण्डव युधिष्ठिर को स्वयं उपदेश क्यों नहीं करते? माधव, शीघ्र बताइये।
स्वयं किमर्थं तु भवाञ्श्रेयो न प्राह पाण्डवम् ।
किं ते विवक्षितं चात्र तदाशु वद माधव ॥
वासुदेव ने उत्तर दिया, हे कौरव ! यश एवं श्रेय का मूल मैं हूँ। सत एवं असत पदार्थ मुझसे ही उत्पन्न हैं। चंद्रमा शीतल किरणों से सम्पन्न है, यह कहने पर किसे विस्मय होगा ! सम्पूर्ण यश से सम्पन्न मुझसे उपदेश प्राप्त कर किसे आश्चर्य होगा ! मुझे आप के यश की प्रतिष्ठा करनी है। जब तक यह पृथ्वी रहेगी, आप की कीर्ति सम्पूर्ण लोकों में रहेगी। आप पाण्डव युधिष्ठिर के पूछने पर जो भी कहेंगे, वह वेद सिद्धांत की भाँति इस वसुधा पर मान्य होगा - वेदप्रवाद इव ते स्थास्यते वसुधातले।
मरने से बचे हुये राजन्य गण आप के पास धर्म का अनुनय ले कर बैठे हैं, उन्हें बतायें। आप वृद्ध हैं, श्रुति आचार से समन्वित हैं, राजधर्म के ज्ञाता सदाचारी हैं। राजन्य को उसी प्रकार उपदेश दें जिस प्रकार एक पिता पुत्र को देता है। इसे धर्म बताया गया है कि सुनने की इच्छा रखने वाले को श्रेष्ठ विद्वान पूछने पर उपदेश दे।
भीष्म ने सहर्ष स्वीकृति देते हुये युधिष्ठिर की प्रशंसा में जो शब्द कहे, वे प्रकारान्तर से मानों गम्भीर विषयों पर प्रश्न करने की पात्रता के निकष हैं :
सर्वेषां दीप्तयशसां कुरूणां धर्मचारिणाम्
यस्य नास्ति समः कश्चित्स मां पृच्छतु पाण्डवः
धृतिर्दमो ब्रह्मचर्यं क्षमा धर्मश्च नित्यदा
यस्मिन्नोजश्च तेजश्च स मां पृच्छतु पाण्डवः
सत्यं दानं तपः शौचं शान्तिर्दाक्ष्यमसंभ्रमः
यस्मिन्नेतानि सर्वाणि स मां पृच्छतु पाण्डवः
यो न कामान्न संरम्भान्न भयान्नार्थकारणात्
कुर्यादधर्मं धर्मात्मा स मां पृच्छतु पाण्डवः
संबन्धिनोऽतिथीन्भृत्यान्संश्रितोपाश्रितांश्च यः
संमानयति सत्कृत्य स मां पृच्छतु पाण्डवः
सत्यनित्यः क्षमानित्यो ज्ञाननित्योऽतिथिप्रियः
यो ददाति सतां नित्यं स मां पृच्छतु पाण्डवः
इज्याध्ययननित्यश्च धर्मे च निरतः सदा
शान्तः श्रुतरहस्यश्च स मां पृच्छतु पाण्डवः
कृष्ण ने कहा कि युधिष्ठिर तो लज्जा से ग्रस्त हैं कि मुझसे इतना बड़ा जगत संहार हो गया, वे तो शाप के भय से भयभीत हैं, अत: नहीं पूछ रहे - अभिशापभयाद्भीतो भवन्तं नोपसर्पति।
...
वासुदेव की भूमिका पूर्ण हुई। अपने ही रक्त, पीव में सना पुरा-भारत भविष्य के भारत को उपदेश देने की भङ्गिमा में आ गया। वह रणक्षेत्र जो शवभक्षी जंतुओं का मोदस्थल बना हुआ था, समस्त महर्षियों एवं स्वयं भगवान की उपस्थिति में, ध्वंस की पृष्ठभूमि में, शान्ति के उपदेश का, प्रजा के दुख को राजा कैसे शांत रखे, इस उपदेश का साक्षी हुआ, नाम पड़ा - शांतिपर्व।
पहला श्लोक, दो अग्रणी वर्णों के धर्म क्या हैं, बताते हुये निस्सृत हुआ जो कृष्ण को सम्बोधित था। जैसे कभी अर्जुन ने युद्ध आरम्भ से पूर्व गुरु द्रोण के पाँव शर संधान कर आशीर्वाद लिया था, वैसे ही भीष्म ने पहला श्लोक गुरु कृष्ण को धर्म बताते हुये कहा :
ब्राह्मणानां यथा धर्मो दानमध्ययनं तपः
क्षत्रियाणां तथा कृष्ण समरे देहपातनम्
श्लोक युधिष्ठिर हेतु अभयदान था कि पूछो वत्स, जो कुछ पूछना है। युधिष्ठिर पास गये तो उनका मस्तक सूँघ पास बैठा लिये - तात! मैं स्वस्थ हूँ, निर्भय हो कर प्रश्न करो - पृच्छ मां तात विस्रब्धं मा भैस्त्वं कुरुसत्तम।
युधिष्ठिर ने पहला प्रश्न पूछा, धर्मज्ञ विद्वानों का कहना है कि राजाओं का धर्म परम धर्म है, मैं इसे बहुत बड़ा भार मानता हूँ।
हे पार्थिव! मुझे राजधर्म का उपदेश करें :
राज्यं वै परमो धर्म इति धर्मविदो विदुः
महान्तमेतं भारं च मन्ये तद्ब्रूहि पार्थिव
राजधर्म में धर्म, अर्थ एवं काम तीनों का समावेश है - त्रिवर्गो हि समासक्तो राजधर्मेषु। मोक्ष भी उसमें समाविष्ट है। अश्व एवं हाथी को नियंत्रित रखने हेतु जिस प्रकार वल्गा एवं अङ्कुश आवश्यक हैं, उसी प्रकार लोक मर्यादा हेतु राजधर्म आवश्यक है - नरेन्द्रधर्मो लोकस्य तथा प्रग्रहणं स्मृतम्।
राजा प्रमादग्रस्त हो जाय तो समस्त व्यवस्था बिगड़ जाये, सभी व्याकुल हो जायँ। जिस प्रकार सूर्य अंधकार का नाश कर देते हैं, उसी प्रकार राजधर्म मनुष्य के अशुभ आचरणों का निवारण कर देता है ...
राजा प्रमादग्रस्त हो जाय तो समस्त व्यवस्था बिगड़ जाये, सभी व्याकुल हो जायँ। जिस प्रकार सूर्य अंधकार का नाश कर देते हैं, उसी प्रकार राजधर्म मनुष्य के अशुभ आचरणों का निवारण कर देता है ...
... कुरुवंश की दो पीढ़ियाँ एक दूसरे के समक्ष आहत समय पर औषधि लेप की चिंता में बैठी थीं। बताने वाला वह था जिसने सक्षम होते हुये भी राजसिंहासन का त्याग कर दिया था, जिसने मर्यादा की वल्गा तोड़ने की अपेक्षा अशुभ का पोषण रक्षण करना चुना था, जो शरशय्या पर मृत्यु की प्रतीक्षा में था। पूछने वाला भी वृद्ध हो चला था, जाने कितने नरसंहार की सञ्चित पीड़ा के बीच उसके मन में राजसिंहासन की अपेक्षाओं को ले कर शंकायें थीं, जिसका विश्वास डोल रहा था किंतु धर्मबुद्धि तब भी स्थिर थी। मृत्यु को भी वश में करने वाला आहत प्रपितामह धर्म उपदेश देने लगा। युधिष्ठिर जैसा सुपात्र एवं जिज्ञासु श्रोता उसे कभी मिला ही नहीं था। युद्ध पीछे रह गया, प्रशान्त ज्ञानसरि बह चली...
राज्ञा रञ्जनकाम्यया - राजा को प्रजा के रञ्जन की कामना से देवता एवं ब्राह्मणों के प्रति यथाविधि व्यवहार करना चाहिये। युधिष्ठिर ! तुम सदैव पुरुषार्थ हेतु प्रयत्नशील रहना। उसके बिना प्रारब्ध राजाओं का प्रयोजन सिद्ध नहीं कर सकता - न ह्युत्थानमृते दैवं राज्ञामर्थं प्रसादयेत्। मैं पुरुषार्थ को ही प्रधान मानता हूँ - पौरुषं हि परं मन्ये। आरम्भ किया हुआ कार्य पूरा न हो तब भी तुम उसका दु:ख न मान अपने पुरुषार्थ में लगे रहना - विपन्ने च समारम्भे संतापं मा स्म वै कृथा: ।
राजा के लिये सत्य ही परम धन है, ऋषियों हेतु भी - ऋषीणामपि राजेन्द्र सत्यमेव परं धनम्।
गुणवाञ्शीलवान्दान्तो मृदुर्धर्म्यो जितेन्द्रियः
सुदर्शः स्थूललक्ष्यश्च न भ्रश्येत सदा श्रियः
आर्जवं सर्वकार्येषु श्रयेथाः कुरुनन्दन
पुनर्नयविचारेण त्रयीसंवरणेन च
मृदुर्हि राजा सततं लङ्घ्यो भवति सर्वशः
तीक्ष्णाच्चोद्विजते लोकस्तस्मादुभयमाचर
गुणी, शीलवान, मन एवं इंद्रियों का संयमी, प्रसन्नमुख एवं दानी राजा की श्री भ्रष्ट नहीं होती। समस्त कार्यों में सरलता एवं कोमलता का अवलम्बन करे किंतु अपने दोष, अपनी मंत्रणा एवं अपने कार्यकौशल; इन तीन में संयम रखे, गोपनीयता रखे तथा सरलता का आश्रय न ले। जो राजा सदैव मृदु रहता है, उसकी आज्ञा का सभी उल्लङ्घन कर जाते हैं तथा जो सदैव तीक्ष्ण एवं कड़ा रहता है, उससे सभी उद्विग्न रहते हैं। राजा को आवश्यकतानुसार कठोरता एवं कोमलता, दोनों का अवलम्बन लेना चाहिये।
ब्राह्मण पूजनीय है किंतु यदि वह विनाश को उद्यत हो या शस्त्र उठा कर आक्रमण करने आ रहा हो तो उसके वेदांत पारग होने पर भी उसे बंदी बना लेना चाहिये - उद्यम्य शस्त्रमायान्तमपि वेदान्तगं रणे । निगृह्णीयात्स्वधर्मेण धर्मापेक्षी नरेश्वरः ॥
दुर्गेषु च महाराज षट्सु ये शास्त्रनिश्चिताः
सर्वेषु तेषु मन्यन्ते नरदुर्गं सुदुस्तरम्
तस्मान्नित्यं दया कार्या चातुर्वर्ण्ये विपश्चिता
धर्मात्मा सत्यवाक्चैव राजा रञ्जयति प्रजाः
महाराज युधिष्ठिर !
रक्षा में समर्थ छ: प्रकार के दुर्ग बताये गये हैं - मरु (जलहीन भूमि क्षेत्र), जल, पृथ्वी, वन, पर्वत एवं मनुष्य । इन सबमें नरदुर्ग अर्थात मनुष्यों द्वारा प्रदत्त रक्षा ही प्रधान है। शास्त्रों को जानने वाले विद्वान समस्त दुर्गों में मानव दुर्ग को ही अत्यंत दुर्लङ्घ्य मानते हैं अर्थात किसी राज्य के यदि समस्त वर्गों के मनुष्य राजा से संतुष्ट हैं तो वे ही उसके सबसे सुदृढ़ दुर्ग हैं।
अत: विद्वान राजा को चारो वर्णों पर सदा दया करनी चाहिये। धर्मात्मा एवं सत्यवादी राजा ही प्रजा को प्रसन्न रख पाता है।
राजा के लिये सत्य ही परम धन है, ऋषियों हेतु भी - ऋषीणामपि राजेन्द्र सत्यमेव परं धनम्।
गुणवाञ्शीलवान्दान्तो मृदुर्धर्म्यो जितेन्द्रियः
सुदर्शः स्थूललक्ष्यश्च न भ्रश्येत सदा श्रियः
आर्जवं सर्वकार्येषु श्रयेथाः कुरुनन्दन
पुनर्नयविचारेण त्रयीसंवरणेन च
मृदुर्हि राजा सततं लङ्घ्यो भवति सर्वशः
तीक्ष्णाच्चोद्विजते लोकस्तस्मादुभयमाचर
गुणी, शीलवान, मन एवं इंद्रियों का संयमी, प्रसन्नमुख एवं दानी राजा की श्री भ्रष्ट नहीं होती। समस्त कार्यों में सरलता एवं कोमलता का अवलम्बन करे किंतु अपने दोष, अपनी मंत्रणा एवं अपने कार्यकौशल; इन तीन में संयम रखे, गोपनीयता रखे तथा सरलता का आश्रय न ले। जो राजा सदैव मृदु रहता है, उसकी आज्ञा का सभी उल्लङ्घन कर जाते हैं तथा जो सदैव तीक्ष्ण एवं कड़ा रहता है, उससे सभी उद्विग्न रहते हैं। राजा को आवश्यकतानुसार कठोरता एवं कोमलता, दोनों का अवलम्बन लेना चाहिये।
ब्राह्मण पूजनीय है किंतु यदि वह विनाश को उद्यत हो या शस्त्र उठा कर आक्रमण करने आ रहा हो तो उसके वेदांत पारग होने पर भी उसे बंदी बना लेना चाहिये - उद्यम्य शस्त्रमायान्तमपि वेदान्तगं रणे । निगृह्णीयात्स्वधर्मेण धर्मापेक्षी नरेश्वरः ॥
दुर्गेषु च महाराज षट्सु ये शास्त्रनिश्चिताः
सर्वेषु तेषु मन्यन्ते नरदुर्गं सुदुस्तरम्
तस्मान्नित्यं दया कार्या चातुर्वर्ण्ये विपश्चिता
धर्मात्मा सत्यवाक्चैव राजा रञ्जयति प्रजाः
महाराज युधिष्ठिर !
रक्षा में समर्थ छ: प्रकार के दुर्ग बताये गये हैं - मरु (जलहीन भूमि क्षेत्र), जल, पृथ्वी, वन, पर्वत एवं मनुष्य । इन सबमें नरदुर्ग अर्थात मनुष्यों द्वारा प्रदत्त रक्षा ही प्रधान है। शास्त्रों को जानने वाले विद्वान समस्त दुर्गों में मानव दुर्ग को ही अत्यंत दुर्लङ्घ्य मानते हैं अर्थात किसी राज्य के यदि समस्त वर्गों के मनुष्य राजा से संतुष्ट हैं तो वे ही उसके सबसे सुदृढ़ दुर्ग हैं।
अत: विद्वान राजा को चारो वर्णों पर सदा दया करनी चाहिये। धर्मात्मा एवं सत्यवादी राजा ही प्रजा को प्रसन्न रख पाता है।
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(क्रमश:)