आज भानु सप्तमी है। जिस सप्तमी तिथि को रविवार पड़ता है, वह भानुसप्तमी कहलाती है। क्यों भला?
आप इतना जो जानते ही हैं कि अपने यहाँ दिन का आरम्भ सूर्योदय से माना गया है अर्थात प्रत्येक दिन सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक होता है। सरल प्रेक्षण से आरम्भ करते हैं। पूर्णिमा तो जानते ही होंगे जिस दिन चंद्रमा अपने पूर्ण रूप में होते हैं। आप यह भी जानते हैं कि किसी भी बिंदु पर एक चक्र ३६० अंश का कोणीय घुमाव लिये होता है तथा किसी भी सीधी रेखा का अर्थ उसके किसी भी बिंदु पर १८० अंश होता है अर्थात बिंदु पर होने वाले पूरे कोणीय घुमाव का आधा।
पूर्णिमा के दिन साँझ को खुले में निकल लें तो आप देख पायेंगे कि जब पश्चिम में सूर्य का गोला अस्त हो रहा होता है तो उसके ठीक सामने पूरब में पूर्ण चंद्र का बड़ा सा गोला उदित हो रहा होता है। बड़ा ही मनोहारी दृश्य होता है। उस समय दोनों आप जहाँ खड़े हैं उस बिंदु के दोनो छोरों पर एक रेखा में अर्थात १८० अंश के कोण पर होते हैं। आगे चंद्र का प्रकाशित भाग प्रतिदिन घटने लगता है जिसे कला कहते हैं।
यदि आप प्रतिदिन देखते रहेंगे तो पायेंगे कि चंद्र का उदय सूर्यास्त के पश्चात प्रतिदिन बिलम्ब से होने लगा है तथा क्रमश: चंद्रोदय बिंदु पश्चिम की दिशा में खिसकने लगा है। यही कृष्ण पक्ष है, चंद्रमा घटते जाते हैं। एक दिन ऐसा आता है कि जब चंद्र दिखते ही नहीं अर्थात सूर्य के साथ ही हो जाते हैं। एक चक्र पूरा हो कर ३६० अंश का कोण भी पूरा हो जाता है तथा अदृश्य हो जाते हैं। यही स्थिति अमावस्या कहलाती है आरम्भ ० तथा अंत ३६० अंश सम्पाती। चूँकि इस दिन सूर्य एवं चंद्र 'साथ' होते हैं, अमावस्या को बहुत ही शाक्त साधनाओं के लिये उपयुक्त माना जाता है।
सूर्योदय से सूर्योदय तक दिन का चंद्र से कुछ नहीं लेना देना, वह चलता रहता है। हम सूर्य एवं चंद्र की परस्पर कोणीय स्थिति का दैनिक परिवर्तन देख चुके हैं। ० से पुन: ३६० अंश तक घूम कर वहीं पहुँचने में चंद्र को लगभग २९.५ दिन लगते हैं अर्थात १८० अंश का अंतर होने में १४.७५ दिन जिसे लगभग कर सुविधा के लिये १५ दिन मान कर ३० दिन का पूरा मास (मास का मा चंद्रमा के मा से सम्बंधित है :) चंदा मामा ऐसे ही हुये।) तथा १५ दिन का एक पक्ष माना जाता है - शुक्ल पक्ष जब चंद्र अमावस्या से बढ़ते होते हैं, कृष्ण पक्ष जब पूर्णिमा से आगे घटते होते हैं।
तो ३६० अंश ३० दिन अर्थात १२ अंश प्रतिदिन का अंतर। सूर्य एवं चंद्र के बीच यही १२ अंश का अंतर होने में लगा समय एक तिथि कहलाता है अर्थात जब पक्ष की तिथि बताई जाये तो आप चंद्रमा एवं सूर्य के बीच का कोण जान लेंगे। उदाहरण के लिये आक शुक्ल पक्ष की सप्तमी है तो चंद्रमा एवं सूर्य के बीच १२x७ = ८४ अंश का कोण होगा। कृष्ण पक्ष की होती तो १८०+८४ अर्थात २६४ अंश का कोण होता।
समस्या पूर्ण ३० दिन नहीं होने से आती है जिसके समायोजन की अपनी विधियाँ हैं, उसमें नहीं जायेंगे। केवल इतना जान लें कि विश्व की सबसे वैज्ञानिक भारतीय गणना पद्धति में इसे चतुराई से उदया तिथि के माध्यम से सुलझा लिया गया। तिथि वही मानी जाती है जिसमें सूर्योदय होता है अर्थात आवश्यक कोण का अंतर हो जाने के पश्चात के सूर्योदय का दिन उस तिथि का माना जायेगा। यदि सूर्योदय के पश्चात आवश्यक कोण अंतर आता है तो पुरानी तिथि ही मानी जायेगी। इस गणित एवं प्रकृति के संयोजन में कभी कभी ऐसा भी हो जाता है कि पुरानी तिथि में सूर्योदय हुआ तथा अगले सूर्योदय के पूर्व ही कोणीय स्थिति पूर्ण हो अगली तिथि हो गई अर्थात बीच वाली तिथि में सूर्योदय हुआ ही नहीं ! इसे क्षय तिथि कहा जाता है तथा उसकी गिनती होती ही नहीं!
ऐसा भी होता है कि एक ही तिथि में दो सूर्योदय हो गये। इसे अधिक तिथि या तिथि विस्तार कहते हैं। इस प्रकार वह आधे दिन का अंतर अपने आप समायोजित होता रहता है।
तो आप ने दिन जान लिया, तिथि जान लिया।
अब आते हैं वार पर, रविवार, सोमवार, ... कुल सात वार। ये सात ही क्यों हैं? गणित के बारे में कहा जाता है कि प्रकृति से गणित है, गणित से प्रकृति है। कैसे? देखते हैं। पृथ्वी सूर्य का एक चक्र ३६५ से अधिक एवं ३६६ से अल्प दिनों में पूरी करती है। मास के ३० से भाग दे तो १२ की संख्या आती है। यही १२ मास हैं या द्वादश आदित्य भी। सूर्य नमस्कार में १२ नामों से मंत्र हैं न !
केवल चंद्र गति देखें तो १२ मास में केवल १२x२९.५ = ३५४ दिन ही हुये। ३५४ एवं ३६६ का औसत हुआ .... हाँ, ३६०। तो किसी बिंदु पर बनने वाले कोण का ३६० भागों में विभाजन इस कारण से है जिससे कि सुविधा रहे, एक तिथि १२ अंश, १२ महीने, ३६० अंश, वर्ष में ३६० दिन, आगे संयोजन आदि सब एक दूसरे से जुड़े हुये हैं जिनके मूल में प्रकृति का प्रेक्षण है तथा प्रकृति का गणित से बंधन भी।
सात पर लौटते हैं। इसका रहस्य पृथ्वी अर्थात प्रेक्षक के सापेक्ष ग्रहों की गति से जुड़ा है। पुरातन समय में ज्ञात ग्रहों (ग्रह की आज की परिभाषा न लें) को उनकी गति के घटते क्रम में रखें तो यह स्थिति बनती है:
शनि, गुरु, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध, चंद्र। दिनमान को इनसे जोड़ दिया गया। आप के पास दो पद्धतियाँ थीं- सौर एवं चंद्र अर्थात आदित्य एवं सोम। दिन नाम का आरम्भ आदित्यवार (अतवार, इतवार) या सोमवार से कर सकते हैं। चलिये अतवार से करते हैं। दिन के पहले होरा (Hour, कभी पूरा होने पर सूचित करने हेतु नगर चतुष्पथ पर घण्टा बजाया जाता था) को सबसे तीव्र गति वाले चंद्र से जोड़ दें, अगले घण्टे को अगले तीव्र बुध से, अगले को शुक्र से ... उसी प्रकार बढ़ते जायें तो पायेंगे कि दिन के २४ घण्टे पूरे होने पर अगले दिन का पहला होरा चंद्र पर आयेगा अर्थात पहले घण्टे के आधार पर उस दिन का नाम हुआ सोमवार, आगे ४८ घण्टे अर्थात दो दिन बीतने पर अगले दिन के पहले घण्टे का स्वामी हो जायेगा मंगल अर्थात वह दिन मंगलवार। इसी प्रकार चक्रीय क्रम में दिनों के नाम होते जायेंगे।
यह सात की संख्या भी गणित एवं प्रकृति के परस्पर सम्बंध को दर्शाती है। सूर्य रश्मियों में सात रंग होते हैं। बारह एवं सात का योग उन्नीस होता है जो कि चंद्र गति के एक महत्त्वपूर्ण चक्र के वर्षों से जुड़ा है। प्रत्येक १९ वर्ष पर चंद्र तिथि एवं सौर दिनांक अपना साथ दुहराते चलते हैं।
बारह में से सात घटायेंगे तो ५ होगा, पाँच तत्त्व। वत्सर भी पाँच नाम से। दो ऋतुओं को मिला कर एक कर छ: के स्थान पर पाँच ऋतुओं की बात वैदिक साहित्य में खूब मिलती है।
शतपथ ब्राह्मण में वर्षा एवं शरद को मिला कर पाँच ऋतुओं की बात की गयी है:१९ में इस ५ का गुणा करेंगे तो आयेगा ९५। यह संख्या एक युगमान है जिसमें सौर चंद्र गतियों का सूक्ष्म समायोजन किया जाता था।
लोको॑वसन्त॑ऋतुर्य॑दूर्ध्व॑मस्मा॑ल्लोका॑दर्वाची॑नमन्त॑रिक्षात्त॑द्द्विती॑यम॑हस्त॑द्वस्याग्रीष्म॑ऋतु॑रन्त॑रिक्षमेवा॒स्य मध्यमम॑हरन्त॑रिक्षमस्य वर्षाशर॑दावृतू य॑दूर्ध्व॑म्न्त॑रिक्षादर्वाची॑नं दिवस्त॑च्चतुर्थम॑हस्त॑द्वस्य हेमन्त॑ऋतुर्द्यउ॑रेवा॒स्य पञ्चमम॑हर्द्यउ॑रस्य शि॑शिर ऋतुरि॑त्यधिदेवतम्।
शतपथ के पुरुषमेध का प्रारम्भ पाँव से होता है और पाँव है ऋतुओं में सर्वश्रेष्ठ बसंत! शतपथ का वर्षा और शरद को मिलाना उस ऋग्वैदिक कूट कथ्य से भी जुड़ता है जिसमें इन्द्र वृत्र को मार कर सूर्य और वर्षा दोनों को नया जीवन देते हैं। पुरुषमेध में यह देह का केन्द्रीय भाग अर्थात कटि है।
ऐसा क्यों? इसमें उस समय की स्मृति है जब वर्ष का आरम्भ वर्षा से था। शरद मिला देने पर शरद विषुव जोकि वसंत विषुव से छ: महीने के अंतर पर पड़ता है, वर्षा के साथ आ जाता है, नाक्षत्रिक एवं ऋत्विक प्रेक्षणों के सम्मिलन से सुविधा हो जाती है।
ऐतरेय ब्राह्मण में हेमंत एवं शिशिर को मिला दिया गया है: हेमन्तशिशिरयो: समासेन तावान्संवत्सर: संवत्सर: प्रजापति: प्रजापत्यायतनाभिरेवाभी राध्नोति य एवं वेद।
१२ का पहाड़ा देखें तो अद्भुत संयोग मिलेंगे - १२ आदित्य; २४ गायत्री मंत्र अक्षर, ३६ तैंतिस देवता एवं त्रिदेव; ४८ सात गुना सात ४९ मरुतों से मात्र एक की न्यूनता; ६० बृहस्पति एवं शनि गति समन्वित संवत्सर नाम; ७२ ब्रह्मा के एक चक्र में चतुर्युगी संख्या ७१ एवं ७२ के बीच; ८४ योनिलक्ष; ९६ ९५ वर्ष के शोधन चक्र से आगे की संख्या; १०८ पर कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं है। अन्य अनेक उदाहरण हैं, जिन्हें रुचि हो वे अग्निचयन एवं श्रौत सत्रों की वेदी का गणित ब्राह्मण ग्रंथों से पढ़ें, शुल्व सूत्र देखें। कहने का अर्थ मात्र यह कि जिस प्रकार अंकगणित का उपयोग ज्योतिष में किया जाता था, वह आज कल की प्रचलित शिक्षा पद्धति से लुप्त है, प्रकृति से जुड़ाव कट गया है।
तो चाहे आदित्य से आरम्भ करें या सोम से, सात की संख्या महत्त्वपूर्ण है। सूर्य की रश्मियों के सात वर्ण, सात 'ग्रह', सात वार आदि से सूर्य आधारित दिनमान पद्धति में सात की संख्या बहुत महत्त्वपूर्ण हो गयी तथा सप्तमी तिथि को सूर्य से जुड़ा मान लिया गया।
अब सूर्य की संख्या वाली तिथि एवं उनके वार रविवार या आदित्यवार की संगम हो जाये तो पर्व या विशेष व्रत आदि का योग बनता है न?
आज की भानुसप्तमी वही है। भा को भाने से, प्रभा से, विभा से समझें कि अद्भुत कांति के साथ मनोहारी प्रभाव। सूर्य में तो होती ही है किन्तु आज विशेष हो जाती है। मानव का देव पर निज भाव आरोपण।
Sadhuvad
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