अपने समय का सबसे गर्हित दुरात्मा रावण मारा गया। श्रीराम के आदेश पर लक्ष्मण ने विभीषण का राज्याभिषेक किया। उसके पश्चात राम ने हनुमान ने देवी सीता के पास संदेश भेजा तथा कहा कि क्या कहती हैं, आ कर सुनाओ, सीधे ले आने को नहीं कहा। कदाचित उस राष्ट्र के नये राजा के निर्णय के बिना ले आना नीति की दृष्टि से उचित नहीं होता।
देवी सीता ने हनुमान को देखा किंतु तत्काल कोई प्रतिक्रिया नहीं दीं, चुप रहीं। स्मृति तंतुओं को झङ्कृत करने में दुखिया के मन को किञ्चित समय लगा - तूष्णीमास्त तदा दृष्ट्वा स्मृत्वा हृष्टाभवत्तदा ।
हनुमान ने देवी को जिस शब्द से सम्बोधित किया, वह उस स्थिति हेतु उपयुक्त था - वैदेही। पिता विदेह का नाम ज्ञान के कारण था किंतु पुत्री तो अपने प्रिय के बिना विदेह स्थिति में थीं।
हनुमान कह उठे - वैदेहि कुशली रामः ससुग्रीवः सलक्ष्मणः । कुशलं चाह सिद्धार्थो हतशत्रुररिन्दमः ...निहतो रावणो देवि ...
राम सुग्रीव एवं लक्ष्मण के साथ सकुशल हैं, अपनी कुशलता एवं शत्रु के मारे जाने की आप को सूचना देते हैं। देवी ! रावण मारा गया।
आप विगतज्वर हो स्वस्थ हों - लब्धोऽयं विजयः सीते स्वस्था भव गतज्वरा।
अब समझें कि आप अपने घर में रह रही हैं - तदाश्वसिहि विस्रब्धं स्वगृहे परिवर्तसे।
हर्ष से सीता का कण्ठ अवरुद्ध हो गया, पहले तो कुछ कह ही नहीं पाईं - प्रहर्षेणावरुद्धा सा व्यहर्तुं न शशाक ह।
हनुमान ने पुन: विनती की, क्या सोच रही हैं देवी? कुछ कहती क्यों नहीं?
किं त्वं चिन्तयसे देवि किं च मां नाभिभाषसे ?
गद्गद कण्ठ से सीता के मुख से बोल फूटे - अब्रवीत्परमप्रीता बाष्पगद्गदया गिरा -
प्रहर्ष वशमापन्ना निर्वाक्यास्मि क्षणान्तरम् - हर्ष के वशीभूत हो क्षण भर के लिये मैं निर्वाक हो गयी हनुमान !
इस शुभ समाचार के लिये तुम्हें क्या दूँ, कुछ तो नहीं। सोना, चाँदी, रत्न, तीनो लोकों का राज्य भी पर्याप्त नहीं।
हिरण्यं वा सुवर्णं वा रत्नानि विविधानि च
राज्यं वा त्रिषु लोकेषु नैतदर्हति भाषितुम्
हनुमान ने उत्तर दिया कि आप के सार भरे ये प्रेमपूर्ण वचन ही उन सब सम्पदाओं से विशिष्ट हैं :
तवैतद्वचनं सौम्ये सारवत्स्निग्धमेव च
रत्नौघाद्विविधाच्चापि देवराज्याद्विशिष्यते
आगे देवी सीता ने जो सराहना की, वह उनके वैदुष्य का प्रमाण है :
अतिलक्षणसंपन्नं माधुर्यगुणभूषितम्
बुद्ध्या ह्यष्टाङ्गया युक्तं त्वमेवार्हसि भाषितुम्
श्लाघनीयोऽनिलस्य त्वं सुतः परमधार्मिकः
अत्युत्तम लक्षणों, बुद्धि एवं माधुर्य गुण से विभूषित ऐसी अष्टाङ्ग अलंकरण युक्त वाणी तुम ही बोल सकते हो। क्या हैं वे आठ अलंकरण?
सुश्रुषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, उह, अपोह, अर्थज्ञान, तत्त्वज्ञान।
तुम वायुपुत्र परमधार्मिक हो, श्लाघनीय हो।
आगे देवी सीता ने जो दस गुण गिनाये, वे श्रीराम को भी पता लग गये।
बलं शौर्यं श्रुतं सत्त्वं विक्रमो दाक्ष्यमुत्तमम्
तेजः क्षमा धृतिः स्थैर्यं विनीतत्वं न संशयः
देवी उस समय हनुमान जी को कुछ दे नहीं पाई थीं, टीस बनी रही। इसी कारण राज्याभिषेक के समय जब श्रीराम ने उन्हें परमदिव्य मुक्ताहार दिया तो देवी सीता उसे हनुमान को देना चाहती थीं किंतु सङ्कोच भी था कि जाने स्वामी क्या समझें?
सीतायै प्रददौ रामश्चन्द्ररश्मिसमप्रभम्
अरजे वाससी दिव्ये शुभान्याभरणानि च
अवेक्षमाणा वैदेही प्रददौ वायुसूनवे
अवमुच्यात्मनः कण्ठाद्धारन् जनकनन्दिनी
अवैक्षत हरीन्सर्वान्भर्तारन् च मुहुर्मुहुः
उस समय उनकी इच्छा की संस्तुति करते हुये श्रीराम ने वे ही दस गुण गिनाये जो देवी सीता ने शुभ समाचार ले कर पहुँचे हनुमान हेतु कहे थे।
तामिङ्गितज्ञः सम्प्रेक्ष्य बभाषे जनकात्मजाम्
प्रदेहि सुभगे हारन् यस्य तुष्टासि भामिनि
...
तेजो धृतिर्यशो दाक्ष्यं सामर्थ्यं विनयो नयः
पौरुषन् विक्रमो बुद्धिर्यस्मिन्नेतानि नित्यदा
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
यदि आप हनुमान जी की भक्ति करते हैं तो समझें कि उनकी प्रशंसा में जो दो श्लोक स्वयं देवी सीता एवं श्रीराम ने कहे थे, उनसे महिमामण्डन करने पर आञ्जनेय सर्वाधिक प्रसन्न होंगे :
पढ़ते समय जो मार्मिक प्रसङ्ग अच्छे लगते हैं, उनका जो कुछ समझ में आता है, यहाँ स्वान्त:सुखाय लगा देता हूँ। आगे जैसी आप सब की इच्छा।
देवी सीता ने हनुमान को देखा किंतु तत्काल कोई प्रतिक्रिया नहीं दीं, चुप रहीं। स्मृति तंतुओं को झङ्कृत करने में दुखिया के मन को किञ्चित समय लगा - तूष्णीमास्त तदा दृष्ट्वा स्मृत्वा हृष्टाभवत्तदा ।
हनुमान ने देवी को जिस शब्द से सम्बोधित किया, वह उस स्थिति हेतु उपयुक्त था - वैदेही। पिता विदेह का नाम ज्ञान के कारण था किंतु पुत्री तो अपने प्रिय के बिना विदेह स्थिति में थीं।
हनुमान कह उठे - वैदेहि कुशली रामः ससुग्रीवः सलक्ष्मणः । कुशलं चाह सिद्धार्थो हतशत्रुररिन्दमः ...निहतो रावणो देवि ...
राम सुग्रीव एवं लक्ष्मण के साथ सकुशल हैं, अपनी कुशलता एवं शत्रु के मारे जाने की आप को सूचना देते हैं। देवी ! रावण मारा गया।
आप विगतज्वर हो स्वस्थ हों - लब्धोऽयं विजयः सीते स्वस्था भव गतज्वरा।
अब समझें कि आप अपने घर में रह रही हैं - तदाश्वसिहि विस्रब्धं स्वगृहे परिवर्तसे।
हर्ष से सीता का कण्ठ अवरुद्ध हो गया, पहले तो कुछ कह ही नहीं पाईं - प्रहर्षेणावरुद्धा सा व्यहर्तुं न शशाक ह।
हनुमान ने पुन: विनती की, क्या सोच रही हैं देवी? कुछ कहती क्यों नहीं?
किं त्वं चिन्तयसे देवि किं च मां नाभिभाषसे ?
गद्गद कण्ठ से सीता के मुख से बोल फूटे - अब्रवीत्परमप्रीता बाष्पगद्गदया गिरा -
प्रहर्ष वशमापन्ना निर्वाक्यास्मि क्षणान्तरम् - हर्ष के वशीभूत हो क्षण भर के लिये मैं निर्वाक हो गयी हनुमान !
इस शुभ समाचार के लिये तुम्हें क्या दूँ, कुछ तो नहीं। सोना, चाँदी, रत्न, तीनो लोकों का राज्य भी पर्याप्त नहीं।
हिरण्यं वा सुवर्णं वा रत्नानि विविधानि च
राज्यं वा त्रिषु लोकेषु नैतदर्हति भाषितुम्
हनुमान ने उत्तर दिया कि आप के सार भरे ये प्रेमपूर्ण वचन ही उन सब सम्पदाओं से विशिष्ट हैं :
तवैतद्वचनं सौम्ये सारवत्स्निग्धमेव च
रत्नौघाद्विविधाच्चापि देवराज्याद्विशिष्यते
आगे देवी सीता ने जो सराहना की, वह उनके वैदुष्य का प्रमाण है :
अतिलक्षणसंपन्नं माधुर्यगुणभूषितम्
बुद्ध्या ह्यष्टाङ्गया युक्तं त्वमेवार्हसि भाषितुम्
श्लाघनीयोऽनिलस्य त्वं सुतः परमधार्मिकः
अत्युत्तम लक्षणों, बुद्धि एवं माधुर्य गुण से विभूषित ऐसी अष्टाङ्ग अलंकरण युक्त वाणी तुम ही बोल सकते हो। क्या हैं वे आठ अलंकरण?
सुश्रुषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, उह, अपोह, अर्थज्ञान, तत्त्वज्ञान।
तुम वायुपुत्र परमधार्मिक हो, श्लाघनीय हो।
आगे देवी सीता ने जो दस गुण गिनाये, वे श्रीराम को भी पता लग गये।
बलं शौर्यं श्रुतं सत्त्वं विक्रमो दाक्ष्यमुत्तमम्
तेजः क्षमा धृतिः स्थैर्यं विनीतत्वं न संशयः
देवी उस समय हनुमान जी को कुछ दे नहीं पाई थीं, टीस बनी रही। इसी कारण राज्याभिषेक के समय जब श्रीराम ने उन्हें परमदिव्य मुक्ताहार दिया तो देवी सीता उसे हनुमान को देना चाहती थीं किंतु सङ्कोच भी था कि जाने स्वामी क्या समझें?
सीतायै प्रददौ रामश्चन्द्ररश्मिसमप्रभम्
अरजे वाससी दिव्ये शुभान्याभरणानि च
अवेक्षमाणा वैदेही प्रददौ वायुसूनवे
अवमुच्यात्मनः कण्ठाद्धारन् जनकनन्दिनी
अवैक्षत हरीन्सर्वान्भर्तारन् च मुहुर्मुहुः
उस समय उनकी इच्छा की संस्तुति करते हुये श्रीराम ने वे ही दस गुण गिनाये जो देवी सीता ने शुभ समाचार ले कर पहुँचे हनुमान हेतु कहे थे।
तामिङ्गितज्ञः सम्प्रेक्ष्य बभाषे जनकात्मजाम्
प्रदेहि सुभगे हारन् यस्य तुष्टासि भामिनि
...
तेजो धृतिर्यशो दाक्ष्यं सामर्थ्यं विनयो नयः
पौरुषन् विक्रमो बुद्धिर्यस्मिन्नेतानि नित्यदा
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यदि आप हनुमान जी की भक्ति करते हैं तो समझें कि उनकी प्रशंसा में जो दो श्लोक स्वयं देवी सीता एवं श्रीराम ने कहे थे, उनसे महिमामण्डन करने पर आञ्जनेय सर्वाधिक प्रसन्न होंगे :
बलं शौर्यं श्रुतं सत्त्वं विक्रमो दाक्ष्यमुत्तमम्
तेजः क्षमा धृतिः स्थैर्यं विनीतत्वं न संशयः
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तेजो धृतिर्यशो दाक्ष्यं सामर्थ्यं विनयो नयः
पौरुषन् विक्रमो बुद्धिर्यस्मिन्नेतानि नित्यदा
__________________पढ़ते समय जो मार्मिक प्रसङ्ग अच्छे लगते हैं, उनका जो कुछ समझ में आता है, यहाँ स्वान्त:सुखाय लगा देता हूँ। आगे जैसी आप सब की इच्छा।
देवी सीता को पवनपुत्र हनुमान द्वारा दिया संदेश पूरी रामायण का स्मरण करा गया ....बहुत ही भावपूर्ण मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी प्रसंग....संस्कृत एवं हिन्दी दोनों से प्रसंग पूरक एवं अद्भुत बन पड़ा है...भक्तिभाव से पूर्ण आपके लेखन को एवं सादर नमन एवं शुभकामनाएं...।
जवाब देंहटाएंरोचक प्रस्तुति। आपको बधाई और शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर लेख ,सदर धन्यवाद
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार.
जवाब देंहटाएंऔर पढने का मन है.
प्रतीक्षा रहेगी.
नमस्ते.
यहाँ आकर बहुत अच्छा लगा. शुक्रिया हलचल यहाँ पहुँचाने के लिए.