कल एक लेख दिखा था जिसमें मानव की भाषा के उसके व्यवहार पर प्रभाव की चर्चा थी। प्रत्येक हिन्दी जन को यह बात स्वयं से पूछनी चाहिये की उसकी वाणी को किस भाषा के निकटतम रखा जा सकता है और उस भाषा के इतिहास व गढ़न क्या हैं?
स्वयं को अति बुद्धिमान मानने वाले उन गोबरपुरीषों व धूर्तों से मैं संवादित नहीं जो इस आपातकाल में ब्रज से ले कर भोजपुरी तक को हिन्दी के सम्मुख उसे शत्रु बताते हुये खड़ा करने में लगे हैं।
आश्चर्य होता है न कि जिस उर्दू ने आप को केंचुआ बना डाला, उसी का उपयोग मोहम्मडन हिंसक जिहाद प्रसार हेतु करते हैं! जिस नाजुकी नफासत में आप मरे जाते हैं, आप की आधी जनसंख्या नरपशुओं से सटती जाती है, उसका क्लीव प्रभाव उन पर दिखता ही नहीं!!
आप ऐसे समझें कि उर्दू शब्दावली बर्बर आक्रान्ताओं द्वारा घुसेड़ी गई, थोपी गई शब्दावली है जो उनके लिये सहज है किन्तु आप के मानस पर पूरा विनाशक प्रभाव लिये उतरती है। विनाश केवल रक्तञ्जित हों, आवश्यक नहीं। एक विनाश विषकन्या द्वारा होता है, एक मत्कोटकों वाला, नाना मार्ग हैं, लक्ष्य एक है - काफिरों का समूल नाश!
वे सांस्कृतिक संसार पर अनेक शस्त्रास्त्रों के साथ चढ़ाई किये हुये हैं और पीड़ित जन 'वे तो ऐसे ही होते हैं' की आत्मघाती समझ व स्वीकार लिये स्टॉकहोम सिण्ड्रोम में जी रहे हैं।
मोहम्मडन मत छल व छद्म की अच्छी समझ रखता है। क्रूरान किताब, हदीस व सीरा क्रमश: मोहम्मद की वाणी, उसके बारे में अन्य विश्वसनीय बातें व उसका जीवनवृत्त; ये तीन उसके आधार हैं। इनका शब्दश: पालन व अनुकृति आसमानी आदेश हैं। किताब में मक्का व मदीना सम्बन्धित वाणी में सीधा अन्तर मिलेगा। जहाँ वह बली नहीं था, 'अच्छी' बातें किया, जहाँ वह बली था, वहाँ बिना आवरण के सीधी बात किया। उसी के अनुकरण में जहाँ दारुल इस्लाम है, वहाँ हिन्दुओं व अन्य काफिरों के साथ पाकिस्तान है, जहाँ दारुल हरब है, वहाँ #शाहीन_बाग व संविधान हैं। वे बहुत स्पष्ट हैं, जहाँ कोई भ्रम आता है, वहाँ हदीस व सीरा से मार्ग निकाल लेते हैं।
जो भी अच्छी बातें दिखती हैं वे या तो छल हैं या दारुल इस्लाम, इस्लामी हुकूमत वाली भूमि हेतु हैं। उदाहरण के लिये देखें, मोहम्मद ने सड़क रोक कर नमाज पढ़ने का निषेध किया। इस्लामी सऊदी में इसका पूरा पालन होगा किन्तु भारत जैसे बुतपरस्त देश में इसका उल्टा अर्थात सड़क घेर कर नमाज जिहाद हेतु किया जायेगा। क्रूरान में जो भी है, वह दुधारी तलवार है। महत्वपूर्ण यह है कि बात कही गयी, पक्ष विपक्ष दोनों परिस्थिति अनुसार मान्य हैं।
मृदु अस्त्र के रूप में जिसका उपयोग किया जाता है, वह शत्रु के अनुसार होता है। पश्चिमी जगत हेतु इस्लामोफोबिया की बात होगी, आप के लिये कथित गंगा जमुनी तहजीब और इस्लाम की ढेर सारी 'देनें'। भाषा, व्यञ्जन, शिल्प, वस्त्राभरण, नगर आदि सब को वे इस्लाम की 'देन' बता कर सहानुभूति अर्जित करते ही हैं, साथ में इस्लामी अनाचार व अत्याचारी लूट पर आवरण भी डाल देते हैं। उर्दू को ऐसे समझें। उर्दू आप की काहिली, कायरता, मेधाजड़ता, अपौरुष आदि सब सुनिश्चित करती है। पीढ़ियों से समायोजन करते करते आप की रीढ़ स्थायी रूप से झुक गयी है जिसे आप सतोगुण और प्रार्थना मुद्रा समझते हैं।
समायोजित करते करते कब आप शत्रुबोध से हीन हो शत्रु की प्रशंसा व दासता में लग जाते हैं, पता नहीं चलता। कब उसका बचाव करने लग जाते हैं, पता ही नहीं चलता!
'वे तो ऐसे ही होते हैं, हम भी वैसे क्यों बनें?' इस मानसिकता के साथ आप जीवन के मूलमन्त्रों की उपेक्षा कर बचाव में लग जाते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसे में अपना लघु दोष भी पहाड़ लगता है या लघु प्रतिरोध भी उत्पात लगने लगता है। बहुत भारी अन्तर देखें, वे छल छद्म के साथ, बिना नैतिकबोध के लगे हुये हैं, नख काट कर भी गाजी बनने में और आप अपने पीड़ित व हत सदस्यों की मृत्यु पर भी सहानुभूति नहीं ले पाते। क्यों? क्यों कि आप के ट्रांसमिटर व रिसीवर, दोनों बिगड़ चुके हैं। सहानुभूति सह अनुभूति है, उन्हें तो होने से रही और आप के यहाँ जिन्हें चाहिये और जिन्हें देना है; दोनों हैं तो वही न, सदाशयता रूपी क्लीवता के मारे सुविधाजीवी! आप का जो बुद्धिजीवी वर्ग है, वह या तो स्वार्थी है धर्मचेतना से शून्य या संकीर्ण जातिवादी। अध्ययन है नहीं, पुरखों का नाम बजाना है, चाहे जैसे हो! इस चक्कर में उसकी सारी बुद्धि उल्टी चलती है।
जब खलीफा उस्मान ने क्रूरान के समस्त उपलब्ध संस्करण जला कर केवल अपने संस्करण को एक और एकमात्र बताया तथा सुनिश्चित किया तो उसने दो लब्धियाँ सुनिश्चित कीं। एक, किसी भी प्रकार के द्वैध या वैकल्पिक किताब की सम्भावना नष्ट कर दी। दूसरा और महत्वपूर्ण रहा। क्रूरान का जो रूप कालानुक्रम में था, उसे सूरा की लम्बाई के क्रम में कर उसने क्रूरान के इतिहास से असम्पृक्त कर दिया। अब सन्दर्भ व प्रसंग केवल मौलाना ही बता सकते थे और परिस्थितियों के अनुसार उसकी बातों का उपयोग किया जा सकता था, बिना किसी शंका के। मतान्तरण से लड़ने वाले आर्यसमाज ने इसे समझा। जब आर्यसमाजी यह कहता है कि वेदों में इतिहास नहीं है तो वह वास्तव में लोहे से लोहा काटने की बात कर रहा होता है।
इतनी बड़ी पृष्ठभूमि में उर्दू को समझने की आवश्यकता है। शेरो शायरी, गजल, रण्ड तहजीब नफासत आदि का त्याग कर अपने जीवनमूल्य और अपनी भाषा को अपनाना है। उर्दू को इस उद्देश्य से सीखा जाना चाहिये कि शत्रु की चालें समझनी हैं। परन्तु जो 'जमात' अपनी संस्कृत पर हँसती रही हो, उसमें दोष ढूँढ़ती हो, वह तो संस्कृतनिष्ठ हिन्दी भी प्रयोग करने से रही, उर्दू का ज्ञान अर्जित कर उसका अस्त्र रूप में प्रयोग तो बहुत ऊँची बात है!
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