तीस वर्ष पूर्व माघ
कृष्ण सप्तमी/अष्टमी को जिहाद करते हुये मुसलमानों ने कश्मीर से काफिरों को पलायन करने
पर विवश किया। ग्रेगरी कैलेण्डर के अनुसार आज स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी असफलता की
बरखी है। 18/19 जनवरी की रात को जो हुआ, वह यह दर्शाने हेतु
पर्याप्त होना चाहिये कि सामरिक और सम्वेदनशील स्थानों पर शेष देश में भी बनी और बन
रही मस्जिदों का जिहाद हेतु उपयोग भविष्य में भी हो सकता है। लाखों अपने ही देश में शरणार्थी हुये और पंथनिरपेक्ष
का ढोंग करता हुआ भारतीय तंत्र कुछ नहीं कर सका। आत्मघातियों द्वारा आत्मघात हेतु बनाये
गये तंत्र से वैसी अपेक्षा भी क्यों रखनी?
कश्मीर को सामान्य
राज्य बनाने की दिशा में उन्मूलित धारा 370 की ढकी पीड़ा लिये इस्लामी उम्मा आज राजधानी
दिल्ली के शाहीन बाग में औरतों व बच्चों को आगे कर नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध
की आड़ में बैठी है जो इस्लाम द्वारा पीड़ित
इस्लामी पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने हेतु है। स्पष्ट है कि वे अल्पसंख्यक
हिंदू आदि ही हैं जो दीन को नहीं मानते, जो इस्लाम द्वारा काफिर
व दिम्मी की श्रेणी में रखे गये हैं। जिहाद का एक रूप यह भी है। सारा क्षेत्र त्रस्त
है, न्यायपालिका से ले कर प्रशासन तक उसके आगे विवश है। जब देश
की राजधानी में ऐसा है तो तत्कालीन कश्मीर में जो स्थिति रही होगी, उसकी
कल्पना की जा सकती है।
शाहीन शब्द संस्कृत
श्येन का समानार्थी है। पुरातन पर्सिया व अब के इस्लामिक ईरान सहित अनेक मध्यपूर्व
के इस्लामी देशों में शाहीन बाजबाजी falconry में
प्रयुक्त पक्षी Barbary
falcon है जिसका उपयोग आखेट
हेतु किया जाता है। यह पक्षी इस्लामी मध्यपूर्व में ही प्रमुखत: पाया जाता है और उनके
द्वारा काफिरों के किये जाने वाले आखेट कर्म से सटीक सङ्गति रखता है।
जश्न भी मूलत: पारसी
शब्द है जिसका मूल अवेस्ता के यस्न में है जो वैदिक यजन शब्द की भाँति प्रयुक्त होता
था। यस्न एक जलार्पण आधारित कर्मकाण्ड था जिसे अवेस्तन लोग बुरी शक्तियों के प्रतिकार
हेतु व उन्हें दूर रखने हेतु करते थे। इस्लाम में आ कर यह शब्द बुरे काफिरों पर विजय
के पश्चात हर्षोत्सव से जुड़ गया। आक्रांता इस्लाम के साथ साथ फारसी भाषा उसकी मुखौटा
और प्रशासनिक भाषा बन कर पसरी,
भारत में आ कर जश्न का अर्थ सामान्य हर्षोत्सव हो गया। पराजित
जातियाँ विजेताओं के शब्दों का ऐसा अनुकूलन करती हैं। ऐसे अनेक शब्द आज भारतीय भाषाओं
में प्रचलित हैं, यथा ईमानदारी जो अपना मूल जुगुप्सित व हिंसक अर्थ छिपा चुके
हैं। मरुस्थली मजहब से जुड़ी जमात ऐसे शब्दों का दुधारी तलवार की भाँति प्रयोग करती
है। ऐसा ही एक प्रयोग है,
आज शाहीन बाग के जिहादी जमावड़े के moral
boost हेतु वहाँ का आयोजन – ‘जश्न-ए-शाहीन’।
इसके अनेक निहितार्थ
हैं, पहला तो मुखौटा है कि उस अधिनियम के विरोध में जुड़े आंदोलन
के समर्थन में हम कर रहे हैं जो कथित रूप से मुसलमानों की नागरिकता छीनने की एक युक्ति
है। नागरिकता देना कैसे छीनना हो गया, यह सामान्य समझ के
बाहर है किंतु जिहादी अपने दुष्प्रचार तकिय: को अच्छे से जानते हैं। वस्तुत: इस्लाम
द्वारा पीड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता देना बर्बर जिहादी इस्लाम के मुख पर तमाचा तो
है ही, यह उनके अत्याचार को आधिकारिक रूप से स्थापित करता है। बिलबिलाहट
उसी की है।
दूसरा पक्ष यह है कि
इस लम्बे खिंचे जिहादी अनाचार की सफलता का उत्सव मनाना है कि देख लो काफिरों! इस्लाम
के आगे तुम्हारी सरकार कितनी विवश है! जो हमारे मार्ग में आयेगा, वह
चाहे ऐसे, चाहे वैसे झेलेगा ही और अंतत: नष्ट कर दिया जायेगा।
तीसरा पक्ष यह कि कश्मीर
में जिहाद के विजय की बरखी मनानी है, स्मरण रखो काफिरों, हमने
कश्मीर में जो किया था,
एक रात की ही बात रही और काफिरियत फना हो गई! इंसाल्लाह
अंतिम विजय हमारी ही होगी।
चौथा पक्ष यह है कि
यह एक ऐसी कार्यशाला होगी जिसमें जिहाद को कैसे सभ्यता के आवरण में प्रस्तुत करते हुये
सफल हुआ जाय, इसका मानसिक प्रशिक्षण होगा।
वे हमारे तंत्र, हमारे
विधान, हमारे पौरुष, हमारे औदार्य, हमारी
सदाशयता; सब पर थूक रहे हैं, निर्लज्ज नंगा नाच कर रहे हैं, चुनौती दे रहे हैं कि कर सको तो कर लो, हम
देखेंगे! यह गीतोत्सव नहीं,
काफिरों के ऊपर जिहाद का उत्सव है, जिसे
आकर्षक आवरण दिया गया है। आश्चर्य नहीं कि इसे समझने वाले अत्यल्प हैं। आक्रांता भाषायें
मूल से काट कर मेधा कुंद भी करती हैं। अरबी-फारसी शायरी से संक्रमित मानस आक्रांताओं
के प्रति भी सहानुभूति रखते हैं। उन्हें कथित मीठी जुबान की छुरी दिखती ही नहीं, आक्रांता
कविता शत्रुबोध समाप्त कर देती है। आक्रांता भाषा का ही प्रभाव है कि आज भी प्रताड़ित
पलायित हिंदू कश्मीरियत की बात करते हैं जो कि जिहाद के एक उदार दिखते मुखौटे के अतिरिक्त
कुछ नहीं!
इसके पीछे एक कारण
यह भी है कि उदारता के गर्भ में द्रोह जन्म लेता है, जो
संरक्षण में फलता फूलता हुआ आत्महंता राक्षस बन जाता है, ऐसा
राक्षस जो कुल और समाज का भी नाश कर देता है। जश्न-ए-शाहीन के पोस्टर पर दिये नामों
में चार मुसलमानों के नाम महत्त्वपूर्ण नहीं, उनका
तो घोषित उद्देश्य ही यही है कि काफिरों का नाश हो, चिंताजनक
वह नाम है जो सबसे ऊपर है – अंकुर तिवारी। एक नाम जो उनके लिये कवच है, मुखौटा
है, उपयोगी आत्महंता मूर्ख काफिर है जो उनके जिहाद को उजागर करने
वालों के मुँह पर सेकुलरिज्म,
ह्यूमेनिज्म आदि की थूकें मारेगा - थू है तुम्हारी संकीर्ण
मानसिकता पर। ये तो जानवर को भी जिबह करते हुये कितने प्यार से सल्ला फेरते हैं! ये
हमारे शत्रु? कदापि नहीं!
बाहरी शत्रु नहीं, ऐसे
भीतरी परिवारी घातक सिद्ध होंगे।
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2. कश्मीर मेंं मुसलमानी शासन के आरम्भिक 150 वर्ष
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5. मुल्ला तो मस्त है!
6. सेण्ट थॉमस - एक इसाई झूठ
7. झूठा जीसस और आत्मघाती हिंदू
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