गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

लाल विश्वविद्यालय में नीली फिल्म


एक विश्वविद्यालय था। उसके भवन लाल ईंटों से बने थे। अब आप कहेंगे कि ईंटें तो लाल ही होती हैं, अलग से कहने की क्या आवश्यकता? असल में ईंटों को लाल रंग से रंगने के बाद प्रयोग में लाया गया था। नींव से लेकर शीर्ष तक केवल रंगी हुई लाल ईंटें काम में लाई गई थीं। स्थापकों का सपना था कि वहाँ पढ़े लिखे युवा लोग समूचे संसार में लाली फैलायेंगे - लाली जीवन का प्रतीक होती है क्यों कि खून का रंग लाल होता है। सपने देखने की अद्वितीय स्थापनाओं के कारण विश्वविद्यालय का नाम फैलता रहा और शीघ्र ही देश के प्रतिष्ठित शिक्षा केन्द्रों में गिना जाने लगा।
परिसर में प्रवेश करते ही चारो ओर की लाली आगंतुक के ऊपर विराट प्रभाव छोड़ती थी। उस विश्वविद्यालय में युवा आते, लाल सपने देखना सीखते, अध्ययन करते और निकलने के बाद अधिकांश लाली को भूल सांसारिक काली में उलझ कर रह जाते। एकाध उस श्रेणी में आ जाते जिसे बाहरी संसार सामान्येतर कहता। वे लाली फैलाने के लिये, जिसे वे लाल क्रांति भी कहते थे, कुछ काम भी करते लेकिन जैसा कि पहले से भी होता आया है उनकी कोशिशों के बावज़ूद संसार बहुरंगी बना रहता।
लाली को मानने वाले अपने को वाममार्गी कहते थे। वे हमेशा सारे काम बायें हाथ से करते, सड़क पर बाईं ओर चलते और केसरिया रंग से नफरत करते थे क्यों कि उसे मानने वाले दक्षिणमार्गी कहलाते थे जो दाईं ओर चलते थे और सारे काम दायें हाथ से करते थे। वाममार्गी उन्हें फासीवादी भी कहते थे जो जनता को स्वार्थों के लिये फाँसी पर चढ़ाने में यकीन रखते हैं। यह बात और थी कि संसार में ऐसे काम करने वालों में वाममार्गी सत्ताधारी  भी अग्रणी थे।
शुरू में दक्षिणमार्गियों की संख्या कम थी लेकिन संतुलन बनाये रखने की प्राकृतिक व्यवस्था के तहत कालान्तर में अच्छी खासी हो गई। वाममार्गियों और दक्षिणमार्गियों में विवाद का सबसे बड़ा मुद्दा यही था कि क्रांति का रंग लाल होता है या केसरिया? क्रांति इन दोनों रंगों से बाहर भी या रंगहीन भी हो सकती है, ऐसी बात उनके विराट विचारक्षेत्र में दूर दूर तक नहीं थी। कभी कभी वे ज्वलंत विषयों पर आपस में बहस भी करते जैसे उगते या डूबते सूरज का रंग लाल होता है या केसरिया? उनकी तमाम बहसबाजियों के बावजूद सूरज पहले रंगीन फिर सफेद और फिर रंगीन होते अपनी यात्रायें करता रहता।
अल्पांश में ऐसे युवा भी थे जो किसी रंगविशेष में विश्वास नहीं रखते थे, दोनो हाथों से काम करते थे, सुविधा और समय को देखते किसी भी साइड चल लेते थे। ऐसे युवा घृणित कोटि में आते थे और रंगीन क्रांति के सपने देखने वाले उन्हें मनुष्य से नीचे की श्रेणी में रखते थे। ऐसे बहुमार्गियों को बेपेंदी के लोटे कहा जाता था। वैसे भी विश्वविद्यालय में इनका कोई प्रभावक्षेत्र नहीं था। विश्वविद्यालय अपने इतिहास और प्रशासनिक लालपंथी झुकाव के कारण वाममार्गियों के प्रभुत्त्व में ही रहा।
विश्वविद्यालय में एक खास बात और थी। वहाँ बीज और क्षेत्र को साथ साथ रखा जाता था। इस पर सारे पक्ष सहमत थे कि यह प्राकृतिक व्यवस्था है। दो पक्षों में मतभेद इन बातों पर था कि नियमन होना चाहिये या नहीं? बीज और क्षेत्र साथ साथ रखने के पीछे केवल नैसर्गिक भूख से मुक्ति ध्येय होना चाहिये या कुछ और? बहसें उदात्तता, संस्कृति, समाज, परिवर्तन आदि जैसे शब्दों पर पहुँच कर अनिर्णित ही समाप्त हो जाती थीं। इनका एक लाभ यह होता था कि दोनों पक्षों की शब्द सम्पदायें समृद्ध होती थीं जिनमें सभ्य गालियों की संख्या कुछ अधिक ही होती थी।
समय गुजरता रहा। विश्वविद्यालय की ख्याति बढ़ती रही और एक दिन जब यह पाया गया कि विश्व के शीर्ष शिक्षा संस्थानों की सूची में विश्वविद्यालय का नाम बहुत बहुत नीचे है तो प्रतिक्रियायें अलग अलग हुईं। वाममार्गियों ने इसे साजिश बताया और उन मानकों को ही खारिज कर दिया जिनके तहत सूची बनी थी। उनसे पूछने पर वे कहते कि ऐसी बातें ध्यान देने लायक भी नहीं होतीं। दक्षिणमार्गियों ने इसे वाममार्गी प्रभुत्त्व के कारण घटित हुआ बताया और कहा कि सपनों में जीने वाले वास्तविकता से कट चुके हैं।
ऐसे में एक दिन इस बात का खुलासा हुआ कि एक छात्रावास में नीली फिल्म बनी है जिसमें कलाकार विश्वविद्यालय के युवा ही हैं। नीली फिल्म का बनना अचानक घटित घटना नहीं थी। यह वर्षों से चली आ रही एक सबकी जानी लेकिन उपेक्षित निषिद्ध सी परम्परा का तार्किक विकास थी। फिर भी सारे पक्षों ने इस पर ऐसी प्रतिक्रियायें दीं जिनका सार चौंक, दुख, क्षोभ आदि शब्दों में समेटा जा सकता है। उन्हें नीली फिल्में देखने से परहेज़ नहीं था लेकिन परिसर में बनाये जाने से गहरा धक्का लगा था। उन लोगों ने उस फिल्म को देखा, बार बार समीक्षक निगाहों से देखा और निष्कर्ष निकाला कि गुणवत्ता की दृष्टि से फिल्म उत्तम थी। प्रोफेशनलकृति लगती थी। सारे पक्षों को दुख इस बात से नहीं हुआ कि प्रोफेशनलिज्म के पीछे एक पतनशील धारा थी बल्कि इन कारणों से हुआ:
वाममार्गी लाल फिल्म क्यों नहीं बनी? नीली फिल्म क्यों बनी?
दक्षिणमार्गी केसरिया भी तो बन सकती थी? नीली फिल्म क्यों?
बहुमार्गी फिल्म बहुरंगी क्यों नहीं बनी?
बहुमार्गी अचानक ही लाइब्रेरी में इन्द्रधनुषी रंगों के केटेलॉग ढूँढ़ने लगे। कुछ अलग किस्म के युवा बीज और क्षेत्र को साथ साथ रखे जाने की व्यवस्था को ही इसका कारण बताने लगे लेकिन उनके स्वर दबे ही रहे।
तीन दिन बीत गये और प्रशासन ने छात्रों की ओर से कोई स्पष्ट प्रतिक्रिया सामने न आता देख समस्या पर सोचना शुरू किया लाल विश्वविद्यालय में नीली फिल्म? कैसे? क्यों? नीली क्रांति की बातें तो इस विश्वविद्यालय में आज तक नहीं हुईं, फिर यह कैसे हुआ?
कुलपति ने तीन प्रोफेसरों की कमेटी बिठा दी। उसे इन बातों का पता लगाना था कि विश्वविद्यालय के स्थापक स्वप्नदर्शियों के सपनों में नीले रंग का कितना प्रभाव था? उनकी लिखाई में प्रयुक्त नीले रंगों का नीली फिल्म से क्या सम्बन्ध है? ...ऐसी ही तमाम बहुत ऊँची किस्म की बातें प्रोफेसरों के जिम्मे कर दी गईं और वे उसी लाइब्रेरी में सिर खपाने लगे जिसमें इन्द्रधनुषी रंगों के केटेलॉग ढूँढ़े जा रहे थे।
कुछ दिन और बीते और सन्नाटे को देख मंत्रालय ने हस्तक्षेप का मौका उपयुक्त पाया। कुलपति को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया गया। अब कुलपति महोदय भी लाइब्रेरी में आने लगे।
एक बहुमार्गी छात्र से यह सब न देखा गया। उसने एक दिन हिम्मत की और कुलपति के पास जा कर बोला सर! मेरे पास आप की समस्या से निपटने की एक युक्ति है।
कुलपति ,जो कि खासे परेशान हो चुके थे, पूछ बैठे क्या है? छात्र ने उन्हें बाहर आने का इशारा किया और उन्हें उन्हीं के चैम्बर में ले गया।
सर! समस्या से निपटने की एक राह यह भी है कि उससे बड़ी समस्या खड़ी कर दो। बड़ी समस्या से निपटने के चक्कर में छोटी भुला दी जाती है या कई दफे अपने आप हल भी हो जाती है। मुझे नहीं पता कि आप नीली फिल्म को समस्या मानते हैं कि नहीं? मैं तो इसे समस्या के एक सिम्प्टम की तरह देखता हूँ। आप की समस्या मंत्रालय की नोटिस है न? आप कुछ न कीजिये। इस चैम्बर में प्रचार के साथ धूम धाम से सत्यनारायण कथा का आयोजन कराइये। घोषित उद्देश्य विश्वविद्यालय का कल्याण और परिसर में सद्भावना, शांति का प्रसार हो, धर्म का विकास हो।
कुलपति क्रुद्ध हो गये।
कहीं तुम दक्षिणमार्गी तो नहीं? इस विश्वविद्यालय में ऐसी अपसंस्कृति फैलाने का सुझाव देने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?”
मैं बहुमार्गी हूँ सर! नीली फिल्म और सत्यनारायण कथा दोनों को संस्कृति से जोड़ कर नहीं देखता। मैं बस आप की समस्या का हल बता रहा हूँ। जिस तरह से वास्तविक जीवन में कुकर्म और नकारात्मक बातें होती हैं वैसे ही सपनों में भी होती हैं। इस चैम्बर में आज तक ऐसी कथा का आयोजन नहीं हुआ होगा। इससे विश्वविद्यालय के सपनों में घुल गये नकारात्मक तत्त्वों का शमन होगा। एक बार विश्वास कर के देखिये। जानता हूँ कि आप के लिये आस्था और विश्वास बुर्जुआ प्रतिक्रांतिकारी धारणायें हैं लेकिन यह कथा उस समस्या का सृजन करेगी जिससे आप तात्कालिक समस्या से निकल जायेंगे। इस देश में सत्यनारायण कथा का आयोजन कोई अपराध नहीं है।
 मंत्रालय का बाबू नोटिस को भूल आप को भविष्य में ऐसा न करने का निर्देश टाइप करने लगेगा। दक्षिणमार्गी आप के पक्ष में आ जायेंगे। बहुमार्गी हमेशा की तरह कंफ्यूज रहेंगे। वाममार्गी और प्रगतिशील आप को गाली अवश्य देंगे लेकिन वे तात्कालिक समस्या से जुड़े विस्फोटक प्रश्न पूछना भी बन्द कर देंगे। हक़ीक़त में वे ऐसा चाहते भी हैं क्यों कि ये प्रश्न उनसे भी हैं जिनके उत्तर उन्हें स्वयं नहीं पता। ऐसे में वे कथा के मुद्दे को जोर शोर से उछालेंगे और उन्हीं के शब्दों में फासीवादी कृत्य के विरोध में राष्ट्रव्यापी प्रदर्शनों का आयोजन करेंगे प्रगतिशीलता के गढ़ में ऐसी हरकत कैसे सहन की जा सकती है? दक्षिणमार्गी आप के समर्थन में सत्यनारायण यात्राओं का आयोजन करेंगे।
देश में एक बहस सेकुलरिज्म और धार्मिकता पर चल पड़ेगी। सारे हो हल्ला के बीच में नीली फिल्म भुला दी जायेगी। उसके बाद अगर आप चाहें तो शांति पूर्वक इससे जुड़े प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ सकेंगे और ऐक्शन ले सकेंगे या इस समस्या को अगले कुलपति के लिये सुरक्षित कर सुख सपनों में डूब सकेंगे।
कुलपति को लगा जैसे दिमाग में हजारो सूरज उग आये हों। भाँति भाँति के रंगीन सूरज लाल, पीला, हरा, केसरिया, बैगनी ....
प्रकट में उन्हों ने धन्यवाद तक नहीं कहा, उल्टे विपरीत परिणाम होने पर गम्भीर परिणाम भुगतने की चेतावनी छात्र को दे डाली। छात्र मुस्कुरा कर रह गया।
आनन फानन में कुलपति के चैम्बर में मय घंटा, घड़ियाल, लाउडस्पीकरों के सत्यनारायण कथा का आयोजन हुआ जिसके यजमान कुलपति दम्पति बने और घोषित उद्देश्य वही रहे जैसा छात्र ने बताया था। सभी छात्रों को निमंत्रण पत्र भी भेजे गये जिन पर दढ़ियल फोटो की जगह भगवान सत्यनारायण का मुस्कुराता फुटपाथिया चित्र लगा था। सुरक्षा व्यवस्था तगड़ी थी। दक्षिणमार्गी और वाममार्गी युवा शक्ति प्रदर्शन की सोचते ही रह गये, कथा चरणामृत और प्रसाद के साथ सम्पूर्ण हुई।
उसी शाम विश्वविद्यालय परिसर में और टीवी चैनलों पर कोहराम मच गया। परिसर में सत्यनारायण कथा पोथियाँ और मेनिफेस्टो अलग अलग जगहों पर जलाये जाने लगे। समूचे देश में सेकुलरी, धार्मिक, क्रांतिकारी वगैरा वगैरा टाइप की बहसें शुरू हो गईं जिनके शोर में नीली फिल्म का संगीत पहले दबा और फिर सिम्फनी की तरह आखिरी साँस भर कर चुप हो गया।
दो गिरफ्तार युवा जेल में अगली नीली फिल्म के वेन्यू, विषय, नायिका की देह के ऐंगल, स्टोरी लाइन आदि पर गम्भीरता पूर्वक मनोमंथन करते रहे। जेलर को निर्देश था कि उन्हें जो पेन दिये जायँ उनमें नीले रंग की स्याही नहीं होनी चाहिये।
... उस साल उस बहुमार्गी छात्र को कुलपति पदकमिला। कुलपति ने काला चोगा पहन रखा था। यह संयोग ही था कि पदक जिस फीते से छात्र के गले में लटक रहा था उसमें चार रंगों की पट्टियाँ थीं। लाल, केसरिया, नीला और सफेद - लाल केसरिया पास पास।