छत और दीवारों से रंग पपड़ियाँ लहराती उतरी हैं। हवा की नमी सोख गहराई भारी हैं और धसते फर्श की दरारों में हौले हौले सिमट गई हैं। मरमरी मेज पर धूल की एक बारीक पर्त है जो बीते काहिल दिनों के ठहराव से जमी है। जिस दिन से मेज से हवा में कुछ दूर टेढ़ी अटकी पारदर्शी सीमाओं में बन्द पानी के साथ साथ मछली मरी है, मैंने मेज को नहीं पोछा है। मुझे अब तक यह समझ में नहीं आया है कि पहले कौन मरा? पानी या मछली? दोनों साथ साथ मरे क्या?
पहली बार, पहली बार यह लगा है कि मैं तनहा हूँ और यह पहली बार भी कितना लम्बा हो गया है!
शब्द होठों से लीक हो जाते हैं और जब तक यह पता चलता है कि क्रियायें संज्ञाओं से आगे हो गई हैं, सामने वाला मुस्कुरा चुका होता है और मन की मसोस आँखों में खो जाती है। बात प्रलाप हो कर चुप हो जाती है।
घर के हर दरवाजे की चींचीं की अपनी शैली है। कोई लम्बी तानता है तो कोई रुक रुक कर। कोई फुसफुसाता है तो कोई क्रोध में गुर्राता है। अब सबकी चींचीं रोज नहीं सुनता, कई तो खुलते ही नहीं। रातों में जब फर्श और दरवाजे के बीच से गुजरती चुहिया की खटखट होती है, ठीक उसी समय घरघराता फ्रिज खट से बन्द होता है या ऑटो स्टार्ट होता है। ऐसा क्यों होता है? क्यों होता है कि तनहाई भीतर घुलने के बजाय बाहर टहल कर ऐसे वाकये इकठ्ठा करने लगती है? मुझे लगता है कि मैं धीरे धीरे पागल हो रहा हूँ और सुबह होते ही अपने लगने पर हँसी आती है। हँसी ऑफिस तक साथ आती है और तब और ह ह हो जाती है जब प्रोग्रामिंग लिखते हुये गूढ़ सबरूटींस को पहले से अधिक तेजी से फिट कर आगे बढ़ जाता हूँ। सामने वाला बिना बात ही ताना दुहराता है - इस जमाने में यह सब? सोर्स कोड लिक्खो अब! और मैं उसे झिड़कते कह देता हूँ सोचो तो अभी तुमने कितनी मूर्खता भरी बात कही है। जब उसकी यह आवाज कानों में पड़ती है कि मैंने तो कुछ कहा ही नहीं! तब, तब मुझे फिर तनहाई का अनुभव होता है।
कड़वी कॉफी का मेज पर रखा जाना उदास कर जाता है। झाग के ऊपर पाउडर तैरता है। नीचे की गर्म भाप पाउडर को धकियाती एरोमा को हवा में हिल हिला देती है और मुझे गर्मी में उड़ती धूल पर मेह फुहार का छौंका सुँघाई देता है। कितनी तनहा होती हैं ये सोंधी गन्धें! वाह, वाह और चाह सब चन्द घूँटों में खत्म। हवा में डायलूट हो जीती रह जाती हैं। अब तक कितने सिप लिये होंगे?
कितनी बार? कितनी बार टूट कर चाहा है कि कभी घर में एक चिड़िया रहे! एक आई भी थी। बाद में एक और भी आया। घोंसला बना। अंडा आया और जाने किस बात पर दोनों लड़ पड़े। अंडा जमीन पर गिरा और गमगम से घर गमक उठा। इतनी बू! बाप रे!! दोनों चले गये और फिर नहीं आये। जाने कितनी कहानियों के ड्राफ्ट ऐसे ही मन में दफन हो गये।
कोई केवल रोटी, छत और कपड़े से जी सकता है भला? क्यों नहीं? मैं जी तो रहा हूँ। कइयों ने कहा कि शादी बना लो। जाने क्यों मुझे उसे बनाने का खयाल ही नहीं आता? मुझे पता है कि पीठ पीछे कुछ वाहियात कहते सुनते हैं। हक़ीकत यह है कि मुझे इंसानों में दिलचस्प जैसा कुछ दिखता ही नहीं। इंसान ही क्यों किसी चीज में नहीं दिखता। चौबिस घंटे अपनी ही रची सूइयों पर लटक कर उन्हें चलने से रोकने की कोशिश करना मुझे मूर्खता ही नहीं अपराध भी लगता है। अब ऐसे से शादी कौन बनाएगा? शाद बनाने वाली चीज होती है क्या?
गैस पर सब्जी फदक रही है। उसका रंग आश्चर्यजनक रूप से दीवार और छत की पपड़ियों जैसा लगता है। नहीं यह बाहर की रोशनी और भीतर की रोशनी के संयोग के कारण है। सब्जी खा लूँगा लेकिन रोशनियाँ तो बच रहेंगी और पपड़ियाँ ऐसे ही गिरती रहेंगी। मकानमालिक से कहता हूँ कि पेंटिंग करा दे और फर्श भी ठीक करा दे। केवल मरमरी मेज रखना काफी नहीं। मछली और पानी के लिये तनहाई ठीक नहीं होती।
तो तुम्हारी तनहाई बस पेंटिंग और फर्श के कारण है? नहीं, ऐसा नहीं है। उनके कारण लगने लगती है। क्या उस समय तुम्हारे मन में शादी बनाने का खयाल आता है? नहीं। इस समय आ रहा है? नहीं। तुम पागल नहीं, पकाऊ इंसान हो। तुम्हारे लिये बेहतर होगा कि जैसे हो वैसे ही रहो।
उफ्फ! ये तनहाई खुद से बात करने पर भी नहीं जाती। डाक्टर से मिलना ही पड़ेगा। क्यों, इसमें डाक्टर क्या करेगा? पता नहीं। कुछ तो करेगा ही। नाड़ी देखेगा। मुँह खोलो! आँख। जीभ निकालो! हाथ झटको। मुस्कुरायेगा। कहेगा - घर जाओ। आराम करो।
जानते हो उसे फीस में क्या दूँगा? क्या? यह रुक्का। वह मानेगा? पता नहीं लेकिन आज तक किसी ने किसी डाक्टर को ऐसी चीज फीस में नहीं दी होगी। वह तुम्हें पक्का पागलखाने में भेज देगा। फिर तो मैं उसे पागल कहूँगा। की फरक?
मकानमालिक घर किसी और को उठा देगा। पपड़ियाँ वैसे ही लहराती उतरेंगी, धसते फर्श की दरारों में सिमटेंगी लेकिन घर में शायद कोई तनहा नहीं होगा। उनका लहराना और सिमटना देखा भी नहीं जायेगा।
अच्छा है जी, अब बस भी करो। अच्छा जी।