बैडमिण्टन कोर्ट पर भीतर सुपुत्र अभ्यासरत हैं और
मैं बाहर डूब उतरा रहा हूँ।
...प्रशांत गौरी हैं, यही कोई छ: सात में पढ़ती
होंगी। एक बार दीठ मिली तो बस समय ठहर गया,”किसने तुम्हारे नयनों में काजल लगाया
माँ? तुमने स्वयं? महामाया हो क्या?”
इतने वर्षों के पश्चात जब कि आस तक ओस सी उड़ चुकी
थी, इस अचीन्हे से क्षेत्र में ऐसे अवसर तुम मिल जाओगी, कभी नहीं सोचा था। इतने दिन
कहाँ थी?
सम्मोहन टूटा है, कहीं कुछ भी नहीं। मन चीत्कार कर
उठा है। सूनी आँखों में प्रवेश करते औपचारिक चेहरे सहमा देते हैं, पगलेट हो क्या? माँ
क्रीड़ा को गईं! मैं देखता हूँ सभी पर मणिकर्णिका की भस्म पुती है। मङ्गला गौरी सब
को लूट गयीं?
न रे, इन्हें तो उनके होने का पता ही नहीं। जिन्हें
पता नहीं होता, वे जीते हैं। जिन्हें पता चल जाता है, वे मर जाते हैं। जाने कितने
आँसू सूख गये हैं, मैं रहा ही नहीं। शरीर समाप्त हो चला है।
स्वयं को धन्य मान पगले! तब शरीर बचा हुआ था। आज पता
चला कि नहीं रहा...
यह कौन है शिखा और धोती बाँधे? कोई युवा है जो
मुझे घूर रहा है। माँ बाहर आ गयीं क्या? मैंने मुँह फेर लिया है, नहीं जानना मुझे
जगत बन्धन, तुम्हें क्या पता कि तुम्हारे घर कौन पल रही है? तुम्हारी आँखों पर माया
का पट्टर पड़ा है।
“चलिये पापा!”
मैंने च को छ सुना है।
बहुत ही बढ़िया article लिखा है आपने। ........Share करने के लिए धन्यवाद। :) :)
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’दलबदल ज़िन्दाबाद - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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