सतयुग कृतयुग
बारह वर्षों का दुर्भिक्ष
(सतयुग में भी अकाल पड़ते थे!)
धरा समूची त्राहि त्राहि।
मनुष्य ठीक हों, रहें तो
अकाल पड़ ही नहीं सकते।
सतयुग में भी यह बात सच थी
अर्थ यह कि सतयुग में भी होते थे कुकर्मी।
वर्षा की बूदें नहीं,
आकाश नपुंसक हो गया।
धरा के माथे बन्ध्या का कलंक लगा।
जैसा अब भी होता है
तब भी जन ने देवताओं की शरण ली
देवजन को ठिठोली सूझी
(अब भी सूझती है)
'कोई मनुष्य स्वेच्छा से अपनी बलि दे
दुर्भिक्ष समाप्त हो जायेगा'।
इतिहास में नरमेध की वह पहली माँग थी
लाखों की मृत्यु देख चुके तिल तिल मरते
जन में से कोई आगे नहीं आया -
जन की दृष्टि में जीवन तब भी मूल्यवान था
अब भी है
पर देवताओं का क्या?
उन्हें नरबलि चाहिये तो चाहिये।
'ऐसे जीवन का मूल्य क्या
जो तिल तिल जिये मरे
जीते मरते देखे -
दे दो आहुति!'
शतमन्यु आगे आया,
जिसने पाया था
पहली दुग्धधार के साथ
अकाल का प्रसाद,
जो अब तक था अकाल में ही जिया।
और
बधावे बज उठे
(आज भी बजते हैं।
आत्मा के हुतात्मा हो जाने के बाद
आनन्द दुगुना हो जाता है,
मनुष्य ने समय से यह सीख ली है।)
गले में माला
मस्तक पर चन्दन
पूजन।
वधिक तैयार हुआ परशु ले कर
और
किशोर के अन्तर से स्वर फूटे
मौन गहन सजल प्रार्थना -
अपने लिये नहीं
जन के लिये
जीवन के लिये
बन्ध्या धरा के लिये
नपुंसक आकाश के लिये
वनस्पतियों के लिये
नदियों के लिये
पशुओं के लिये -
इतिहास में मनुष्य की नि:स्वार्थता का
पहला प्रमाण था वह।
और
इन्द्र हिला
इन्द्रासन हिला
देव हिले
देवत्त्व हिला।
उठा बवंडर प्रलय गर्भ में ले कर
घबराया
सहमा
लजाया अपनी ठिठोली पर
वज्र घुमाया
इन्द्र प्रकट हुआ -
झमाझम बूँदें।
किशोर पहला स्नातक बना
और
पहली बार
वरुण ने सँभाल लिया
ऋत का भार।
धरा को बन्ध्यत्त्व से मिली मुक्ति
उसने गर्भभार धारण किया।
त्रेता द्वापर बीत गये
धर्मबुद्धि कुछ बची रही
अकाल पड़े
पर नरमेध आयोजन नहीं हुये।
लेकिन नि:स्वार्थ प्रार्थना के स्वर भी
एक दिन मन्द पड़ते हैं
काल के फेर में लोग भूलते हैं
सो भूल गये
और
कलिकाल में मनुष्य़ ने
मनुष्य का शोषण प्रारम्भ किया
(उस दिन पुण्य़ समाप्त हो गये
जिस दिन पहली बार
एक मनुष्य के पैर पड़ीं
दासत्त्व की बेड़ियाँ)
अब नये ढंग और नये नियम
मनुष्य़ को गढ़ने थे
और
मनुष्यों में ही कुछ देवता होने लगे थे
जिनके पास था - शोषण का अमृत कुम्भ।
अकाल, प्लेग, महामारी
सबके ऊपर शोषण भारी।
जन कुत्तों की तरह लड़ने लगे
जीने लगे
चाटने लगे
चटवाने लगे
मनुष्य और पशु में कोई अंतर न रहा,
चन्द देवता शासक बन बैठे।
लाखों वर्षों पुरानी परम्परा के स्वर
तब भी हवा में फुसफुसा रहे थे
और कुछ उन्हें सुनने, समझने में लगे थे।
उन्हों ने पाया
कि देवता बहरे थे - सुन नहीं सकते थे
जन बेदम थे
जो अपने से
न सुनते थे,
न कहते थे,
न चलते थे,
बस देवताओं का कहा करते थे।
सुन कर समझ कर
गुन कर कि
पुन: लाना होगा -
श्री, विजय, भूति
और उनके लिये
निश्चित नीति,
कुछ मनचलों ने धमाकों का निर्णय लिया।
(प्रार्थना सतयुग की प्रथा थी, अब नहीं चलने वाली थी)
इस बार नरमेध समर्पण नहीं,
मारना होगा, चिल्लाना होगा
ताकि देवता समझें कि
आँसू होते हैं
आँखें झपकती हैं
उनसे आँसू बहते हैं
जो खारे होते हैं।
सूखने पर चीर देते हैं देह
और भर देते हैं तीखा दर्द
जिसे अधिक समय तक
सहा नहीं जा सकता।
धमाके हुये
जिनकी धमक क्या खूब गूँजी
आज भी घमकती है।
उनकी हत्या
नहीं थी पहला नरमेध।
लेकिन
मृत शरीरों से देवता पहली बार डरे थे।
नदी किनारे बोटियाँ काट काट
एक की देह जलायी गयी
और
देवता अपने आसन से गिरे -
हमेशा के लिये
वे कसाई हो गये।
जन ने समझा
देव तो होते ही नहीं
मनुष्य़ ही उन्हें बनाते हैं
और
इसलिये उन्हें नष्ट भी कर सकते हैं।
परम्परा में कलिकाल का यह योगदान
रहेगा सुरक्षित अनंत काल तक।
कुछ मनचलों को
प्रेरित करता रहेगा -
प्रार्थना को
नि:स्वार्थता को
पुण्य को
बलिदान को।
उन कायरों को भी
जो केवल लिख सकते हैं
कुछ कर नहीं सकते।
जो केवल सराह सकते हैं
कराह नहीं सकते।
नरमेध परम्परा जारी रहेगी।
बारह वर्षों का दुर्भिक्ष
(सतयुग में भी अकाल पड़ते थे!)
धरा समूची त्राहि त्राहि।
मनुष्य ठीक हों, रहें तो
अकाल पड़ ही नहीं सकते।
सतयुग में भी यह बात सच थी
अर्थ यह कि सतयुग में भी होते थे कुकर्मी।
वर्षा की बूदें नहीं,
आकाश नपुंसक हो गया।
धरा के माथे बन्ध्या का कलंक लगा।
जैसा अब भी होता है
तब भी जन ने देवताओं की शरण ली
देवजन को ठिठोली सूझी
(अब भी सूझती है)
'कोई मनुष्य स्वेच्छा से अपनी बलि दे
दुर्भिक्ष समाप्त हो जायेगा'।
इतिहास में नरमेध की वह पहली माँग थी
लाखों की मृत्यु देख चुके तिल तिल मरते
जन में से कोई आगे नहीं आया -
जन की दृष्टि में जीवन तब भी मूल्यवान था
अब भी है
पर देवताओं का क्या?
उन्हें नरबलि चाहिये तो चाहिये।
'ऐसे जीवन का मूल्य क्या
जो तिल तिल जिये मरे
जीते मरते देखे -
दे दो आहुति!'
शतमन्यु आगे आया,
जिसने पाया था
पहली दुग्धधार के साथ
अकाल का प्रसाद,
जो अब तक था अकाल में ही जिया।
और
बधावे बज उठे
(आज भी बजते हैं।
आत्मा के हुतात्मा हो जाने के बाद
आनन्द दुगुना हो जाता है,
मनुष्य ने समय से यह सीख ली है।)
गले में माला
मस्तक पर चन्दन
पूजन।
वधिक तैयार हुआ परशु ले कर
और
किशोर के अन्तर से स्वर फूटे
मौन गहन सजल प्रार्थना -
अपने लिये नहीं
जन के लिये
जीवन के लिये
बन्ध्या धरा के लिये
नपुंसक आकाश के लिये
वनस्पतियों के लिये
नदियों के लिये
पशुओं के लिये -
इतिहास में मनुष्य की नि:स्वार्थता का
पहला प्रमाण था वह।
और
इन्द्र हिला
इन्द्रासन हिला
देव हिले
देवत्त्व हिला।
उठा बवंडर प्रलय गर्भ में ले कर
घबराया
सहमा
लजाया अपनी ठिठोली पर
वज्र घुमाया
इन्द्र प्रकट हुआ -
झमाझम बूँदें।
किशोर पहला स्नातक बना
और
पहली बार
वरुण ने सँभाल लिया
ऋत का भार।
धरा को बन्ध्यत्त्व से मिली मुक्ति
उसने गर्भभार धारण किया।
त्रेता द्वापर बीत गये
धर्मबुद्धि कुछ बची रही
अकाल पड़े
पर नरमेध आयोजन नहीं हुये।
लेकिन नि:स्वार्थ प्रार्थना के स्वर भी
एक दिन मन्द पड़ते हैं
काल के फेर में लोग भूलते हैं
सो भूल गये
और
कलिकाल में मनुष्य़ ने
मनुष्य का शोषण प्रारम्भ किया
(उस दिन पुण्य़ समाप्त हो गये
जिस दिन पहली बार
एक मनुष्य के पैर पड़ीं
दासत्त्व की बेड़ियाँ)
अब नये ढंग और नये नियम
मनुष्य़ को गढ़ने थे
और
मनुष्यों में ही कुछ देवता होने लगे थे
जिनके पास था - शोषण का अमृत कुम्भ।
अकाल, प्लेग, महामारी
सबके ऊपर शोषण भारी।
जन कुत्तों की तरह लड़ने लगे
जीने लगे
चाटने लगे
चटवाने लगे
मनुष्य और पशु में कोई अंतर न रहा,
चन्द देवता शासक बन बैठे।
लाखों वर्षों पुरानी परम्परा के स्वर
तब भी हवा में फुसफुसा रहे थे
और कुछ उन्हें सुनने, समझने में लगे थे।
उन्हों ने पाया
कि देवता बहरे थे - सुन नहीं सकते थे
जन बेदम थे
जो अपने से
न सुनते थे,
न कहते थे,
न चलते थे,
बस देवताओं का कहा करते थे।
सुन कर समझ कर
गुन कर कि
पुन: लाना होगा -
श्री, विजय, भूति
और उनके लिये
निश्चित नीति,
कुछ मनचलों ने धमाकों का निर्णय लिया।
(प्रार्थना सतयुग की प्रथा थी, अब नहीं चलने वाली थी)
इस बार नरमेध समर्पण नहीं,
मारना होगा, चिल्लाना होगा
ताकि देवता समझें कि
आँसू होते हैं
आँखें झपकती हैं
उनसे आँसू बहते हैं
जो खारे होते हैं।
सूखने पर चीर देते हैं देह
और भर देते हैं तीखा दर्द
जिसे अधिक समय तक
सहा नहीं जा सकता।
धमाके हुये
जिनकी धमक क्या खूब गूँजी
आज भी घमकती है।
उनकी हत्या
नहीं थी पहला नरमेध।
लेकिन
मृत शरीरों से देवता पहली बार डरे थे।
नदी किनारे बोटियाँ काट काट
एक की देह जलायी गयी
और
देवता अपने आसन से गिरे -
हमेशा के लिये
वे कसाई हो गये।
जन ने समझा
देव तो होते ही नहीं
मनुष्य़ ही उन्हें बनाते हैं
और
इसलिये उन्हें नष्ट भी कर सकते हैं।
परम्परा में कलिकाल का यह योगदान
रहेगा सुरक्षित अनंत काल तक।
कुछ मनचलों को
प्रेरित करता रहेगा -
प्रार्थना को
नि:स्वार्थता को
पुण्य को
बलिदान को।
उन कायरों को भी
जो केवल लिख सकते हैं
कुछ कर नहीं सकते।
जो केवल सराह सकते हैं
कराह नहीं सकते।
नरमेध परम्परा जारी रहेगी।
न सराह, न कराह. कुछ कर सकने का प्रयास.
जवाब देंहटाएं@मनुष्यों में ही कुछ देवता होने लगे थे
जवाब देंहटाएंजिनके पास था - शोषण का अमृत कुम्भ।
नरमेध परम्परा जारी रहेगी।
pranaam shahidan noo.
बहुत गहरे भाव हैं. आप ही इस तरह का सृजन कर सकते हैं.
जवाब देंहटाएंये परम्परा जारी रहनी भी चाहिए.
ये क्रांती आह्वान नहीं समझ सीखने का आह्वान है और इसे आचरण में उतारने का क्यूंकि साकारात्मक कार्य अभी बहुत से बाकी है जिन्हें हमें करना है.
जवाब देंहटाएंढाई लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं, अब कितनी नरबलि चाहिये?
जवाब देंहटाएंएक अद्भुत और स्तब्ध करने वाला नजरिया है आपका.. इश्वर आपका आलस्य इसी प्रकार बनाए रखे!!
जवाब देंहटाएं• आसन्न संकटों की भयावहता से हमें परिचित कराया है आपकी वैचारिकी की मौलिकता नई दिशा में सोचने को विवश करती है ।
जवाब देंहटाएंयह कि सतयुग में भी होते थे कुकर्मी।
जवाब देंहटाएंनरमेध परम्परा जारी रहेगी।
jai baba banaras....
दर्दनाक!
जवाब देंहटाएंत्रासद !
जवाब देंहटाएं......
जवाब देंहटाएंpranam.
सत्य है, उतना ही खरा, उतना ही दो टूक।
जवाब देंहटाएं