गुरुवार, 19 मई 2011

तुम्हें नमन है आदित्य!

बन्द गवाक्षों में सागौन से घिरे क्षीण स्फटिक पल्ले हैं। उनसे झाँकता आसमान कुछ कम नीला है।नीचे धरा की लहलहाती चूनर। कोप प्रदर्शन के पहले की शांति? नहीं। दधि अच्छी नहीं बनी तो क्रोध में निकाल निकाल फेंक दिया।  आसमान में यत्र तत्र श्वेत बादलों के टुकड़े हैं और नीचे शांति। खगरव आज बहुत कम है। 
समीर कैसा है? घावों के दाह को कोई फूँक फूँक शमित कर रहा है। रह रह झोंके। छींकें, छींकें... भीतर बन्द रहने को अभिशप्त फिर भी घाव पर रह रह फूँक। बुदबुदाते नाना, आदिम मंत्र पढ़ते, चेहरे पर फूँक मारते नाना। देवमन्दिर में प्रकाश नहीं है। आज आराधना नहीं। आने दो छींक को। 
नभ को तज कर गायत्री उद्धत विश्व के मित्र के पास कैसे आई होगी? बस चौबीस पगों में अनंत की दूरी पार कर ली!
विश्वामित्र! कितना अधैर्य, कितनी प्रतीक्षा, कितनी करुणा रही होगी तुम्हारी पुकार में!! उस दिन खगरव अवश्य शून्य रहा होगा। धरा उस दिन भी रूठी रही होगी।  ऋचा गायन छोड़ दधि बिलोने में लग गई होगी।
बिजली चली गई। यहाँ कम ही जाती है। आँधी आयेगी क्या? उपासना स्थल चुप हो गये हैं। उनसे पराती की टेर कराने वाले ठीकेदार तो अभी सोये होंगे या कहीं निपट रहे होंगे। हाइवे पर टें, टाँ, पों, पा वैसे ही है और कबाड़ी की पुकार भी। लेकिन उन्हें अनुभव करने को प्रयास करना पड़ता है। शांति इतनी प्रबल भी हो सकती है। ध्वनियाँ होकर भी नहीं हैं।
 ऐसे में प्रार्थना गाने को मन करता है।
 क्या गाऊँ? 
खेळ चाललासे माझ्या पूर्वसंचिताचा, 
पराधीन आहे जगतीं पुत्र मानवाचा? 
या 
अमृतस्य पुत्रा:..
सब दूसरों के स्वर हैं। मुझे तो अपने स्वरों में गाना है।
बिजली आ गई है। छत पर समीर से भेंट कर लूँ। दधि टुकड़े नील श्वेत में लुप्त से होने लगे हैं। 
आ पहुँचे आदित्य! आज मंगल गायन करती ऊषा नहीं आई, क्यों? अरुण तो अब भी साथ है।  


तुम आये हो और चीं, चीं, टीं, टीं, टू, पुं पुन,ट्यों,ट्यों, पीं, पीं सुनाई देने लगी हैं। इनसे गीत सीख लूँ? गीत सीखना पड़ता है? तुम ऐसा नहीं कह सकते। मुझे ऐसी आस नहीं। 
मेरी ओर देखो आदित्य!
 बाबा घहर रहे हैं - घह घह घह घहा घह घह घहा।
 आँधी नहीं आ रही। 
दधि के टुकड़ों से  समीर तृप्त हो डकारे ले रहा है। उसका स्वर ऐसा ही होता है। 
यह मेरे बाबा की घहरन नहीं है?
मेरी ओर देखो आदित्य! गाने को मन है। 
मेरी ओर देखो आदित्य! बताओ न क्या गाऊँ? 
मेरी ओर देखो आदित्य! बताओ न स्वर कैसे फूटते हैं? 
मेरी ओर देखो आदित्य! बताओ न गायत्री किसी पर कैसे मुग्ध होती है? 
नहीं बोलोगे? तुम्हें बन्दी बना लूँ? 

गायन के स्वर भीतर बन्द हैं, किसी दिन गा भी लूँगा। कितने ही कल्प बचे हैं! 
अभी तो बस तुम्हें नमन है आदित्य! मेरे संगीत को स्फुटन दो।
तुमसे प्रार्थना है -   
छल, छ्द्म, अत्याचार, घात, प्रतिघात, नैराश्य, क्लैव्य, दैन्य, आलस्य शमित रहें। 
आज दिन शुभ हो। तुम्हें नमन है आदित्य!           

18 टिप्‍पणियां:

  1. भाव बन रहे हैं, मानों वैदिक ऋचा.

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  2. अत्यंत ही प्रेरक और विशिष्ट सूर्य आराधना !

    साधुवाद आर्य!

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  3. पहला चित्र,
    सूर्य को प्यासी धरती,
    वृक्ष को प्यास जलद की।

    जो भी बरसे, मन भर बरसे,
    शब्दों की संरचना सरसे।

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  4. पढ़ते समय एक अलग ही अनुभव हुआ....कुछ कुछ वैदिक ऋचाओं के आनंदालोक में विचरने जैसा।

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  5. इस सुन्दर सूत्र की तन्मयता से अंतर्मन एकात्म हो उठा.दिव्यता का मानव मन में अवतरण इसी प्रकार होता होगा :
    धन्य हैं आप!

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  6. आराधना वही है - जो अपने मन से आये , जो अपना गीत हो | मन्त्रों का अपना महत्व है , मंत्रोच्चार का अपना - लेकिन प्रार्थना तब ही प्रार्थना हो सकती है - जब वह अपने मन से आये - कोई मांग नहीं - सिर्फ साक्षी और स्वीकार | यही मिला आपकी रचना में - साक्षी और स्वीकार्य भाव | आप धन्य हैं |

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  7. तन्मय सूर्योपासना! कभी कुंती ने भी ऐसी भूल की थी :)

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  8. रस बरसे हैं जब रङ्ग उमगे हैं। रङ्ग उमगे हैं जब दृग थिरे हैं।

    आपसे इससे कम की उम्मीद भी नही थी बडे भैया। वैसे नखलऊ की तो शाम मस्त होती है ना?

    प्रतीक्षा रहेगी।

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  9. बहुत सुंदर नमन जी, हमारा भी तुम्हें नमन है आदित्य!

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  10. त्रुटि सुधार -
    ऊपर अपने कमेंट में 'सूक्त 'लिखते-लिखते सूत्र लिख गई - कृपया सुधार कर पढें .
    आपने सचमुच 'सूक्त 'रच दिया है ,गिरिजेश बाबू !

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  11. आज जीवन में पहली बार आलस्यत्व को नमन करने की इच्छा प्रबल हो गयी!!

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