(पिछले भाग से आगे)
दिन ढल रहा था। सोहित के घर से लौटती
मतवा अपने दुवारे पहुँची और पलानी की डेहरी का आसरा ले भुइयाँ बैठ गयीं। देह में
जान नहीं, मन कोरा था। इतना भी
ध्यान नहीं रहा कि पीठ पीछे डेहरी पर वही दो नाम अनादर पा रहे थे जो लछमिनिया के
आँगन अँजोर कर रहे थे – सीता राम। गोंयड़े से लौट आये खदेरन
ने सँध्या आयोजन हेतु पहली सूखी लकड़ी तोड़ी। आवाज़ ने भीतर का सन्नाटा तोड़ा लेकिन
स्वामी को देख कर भी मतवा नहीं उठीं। मन में लहर उठी - कत बिधि सृजीं नारि जग
माहीं। पराधीन...
का सोच महतारी बिदा कइले होई लछमिनिया के? ऊ त आपन फँसरी खुदे लगा लिहले बा!
केकरे अधीन? (लक्ष्मी की माँ ने उसे क्या सोच विदा किया होगा? उसने तो अपने गले खुद फाँसी लगा ली
है! किसके अधीन है वह?) आगे कुछ सोच नहीं सकीं। आँखों से चुप सरिता बह चली।
कुकुरझौंझ शुरू होते ही जुग्गुल ने बही
बस्ता रख दिया था। बहानचो कुक्कुर! बड़बड़ाते हुये वह बाहर निकल आया और लाठी के
सहारे उछ्ल उछ्ल कुत्तों को भगाने लगा। कुत्ते भाग जायँ लेकिन थोड़ी दूर जा कर फिर
से वही झौंझ! हल्ला नहीं असगुन था यह और असगुन के भाव से ही वह बेचैन था। बही का
पुराना कापड़ यूँ ही नहीं फेंकना था लेकिन अब तो ग़लती हो चुकी थी। उसकी आँखों में
खून उतर आया। खुद को थाम दुलार भरे भरपूर स्वर में उसकी जीभ खुलने बन्द होने लगी – च, च, च ... और नज़र एक मरियल से पिल्ले से नज़रबन्द।
पिल्ला निकट आया तो
झपट कर जुग्गुल ने उसे पकड़ लिया। जानवर हिंसा भाँप गया लेकिन नाखूनों या दाँतों के
हथियार आदमजात के मन से कब पार पा सके! एक दो जगह खरोंच लगते ही जुग्गुल का नकली
दुलार असल कर्मभाव में बदल गया।
पिल्ले के गले को पाँव तले दबा खड़े हुये
जुग्गुल की लाठी की नोक उसके पेट पर थी – काँय, काँय.. कों, कों, कूऽ ऽ ऽ
….मरते पिल्ले की अंतिम साँस के साथ ही
सन्नाटा पसर गया। सभी कुत्ते जाने क्या भाँप चुप भाग गये और जुग्गुल के चेहरे पर
संतोख उतर आया – असगुन मेटि गे! बम
भोले!! (असगुन मिट गया! बम भोले!!)
सामने से सोहित और इसरभर को आते देख उसकी
बाँछें खिल गईं। निकट आ कर सोहित ने रमरम्मी की। जुग्गुल ने इसरभर से मुखातिब हो निहोरा किया –
हे पिलवा के दरेसी में फेंकि आउ। का जाने कहाँ से आके हमरे दुआरी
मरि गइल हे! (इस
कुत्ते को दरेसी में फेंक आओ। पता नहीं कहाँ से मेरे दरवाजे आ कर मर गया है!)
बेमन से इसरभर ने मरे पिल्ले की टाँग पकड़
घिरियाते हुये बाहर की राह पकड़ी और जुग्गुल सोहित की बाँह पकड़ भीतर ले आया। चुटकी
सा लेते हुये पूछ पड़ा – का हाल चाल तोहरे भउजी
के? (तुम्हारी
भाभी का क्या हाल है?)
सोहित को कुछ अच्छा नहीं लगा, बोल पड़ा – कब्बो
कब्बो काका बुझइबे नाहिं करेला कि तू कवने ओर से बतियावतड़! ...जवन होई तवन होई।
देखल जई। (कभी कभी समझ में ही नहीं आता कि आप किस ओर से बात कर रहे हैं!...जो होगा
सो होगा। देखा जायेगा।)
जुग्गुल सतर्क हो गया – पार त हमहीं लगाइब ए भतीजा! केहू
अउरी से जनि उघटि दीह! (भतीजे! पार तो मैं ही लगाऊँगा। किसी और से भेद न खोल देना!)
निज कर्म से जने घाव पर हल्की ठेस लगी, सोहित नम्र हो गया – एतना पुन्न काम कइले बानीं का कि ढिंढोरा पीटीं?...हमके
त तोहरे सहारा बा। (इतने पुण्य का काम किया हूँ कि ढिंढोरा पीटता चलूँ? मुझे तो आप का ही सहारा है।)
बात बदल जुग्गुल दूसरी ओर ले चला – कवने ओर निकलल रहल ह जा? सुगउवा ठोर? ...ऊ जमीन त रोहू के पेटी हे। (किस ओर निकले थे तुम दोनों? सुगउवा ठोर? ... वह जमीन तो रोहू मछली की पेटी है।)
सुगउवा ठोर! तोते की चोंच के आकार की थोड़ी
उँचास जमीन का विशाल उपजाऊ इलाका जिसके बारे में यह प्रसिद्ध था कि उसे देख
गिरहस्थ (गृहस्थ) का जिया वैसे ही जुड़ा जाता जैसे सामने जीमने को थाली में रोहू की पेटी पड़ी
हो! गाँव गन्हवरिया के कमोबेश सभी जन के खेत उस इलाके में थे, दूरी होने पर भी सबसे प्रिय और लोलुप चाहना के केन्द्र भी।
इसरभर के लौट आने से संवाद रुक गया।
सोहित ने उत्तर भर दिया – हँ काका, ओंहरे गइल रहनी हें (हाँ काका, उधर ही गया था) ... और उठ खड़ा हुआ। जुग्गुल ने आँखों आँखों में ही
उसे सांत्वना सा दिया और वे दोनों विदा हुये। वापस पलानी में घुसते जुग्गुल का
करेजा धक धक कर रहा था।
उसने कोरा कागद निकाला। किनारे पड़ी गठरी
में से सिन्दूर, हल्दी और अक्षत ले मिला
कर पहले दक्षिण की ओर फेंका और उसके बाद बुदबुदाते हुये नवो दिसा निकलंक कर चौकी
पर झुका टेढ़े मेढ़े अक्षरों में लिखने लगा:
॥ऊँ लच्छमी सदा सहाय॥
आज तिथि चउथ बदी दिन सुक महीना...
पलानी में अन्हार पहले धीरे और फिर हहरते
हुये भरने लगा। लिलार पर नमी बढ़ती गयी और आँखों की सिकुड़न भी। वह कागज पर झुकता
चला गया, अच्छर गहीन (बारीक) हो चले। मुन्हार (शाम) होते दिखना बन्द हुआ और साथ में
लिखना भी। बायें अंगूठे पर स्याही लगा उसने खुद की निशानी दी और फिर दायें अंगूठे
से भी। बड़े जतन से मोड़ कर बही में लपेट कर जब उठा तो कल्हिआँव में बत्था (कमर में दर्द) समा चुका था लेकिन चेहरे पर अपार
शांति थी।
लाठी का सहारा लिये देह सीधी करते
चिल्लाया – हरे मदिया! बोलु कवनो के,
घर में से दीया माँगि ले आवे। (रे मदिया! किसी को बोलो कि घर से दीपक
माँग कर ले आये।) खेलते हुये अपने मन्नी बाबू की
पीठ पर जा कर एक धौल लगाया और गुनगुना उठा – टुटेला बदन मोर
पोर पोर, न लगाव हाथ बलमुआ हो!
दीप नीचे रखने के लिये नया जौ चाहिये था।
खाली कोसा लिये खदेरन जब मतवा के पास आये तो उन्हें रोता पा वहीं बैठ गये – का भइल?(क्या हुआ?)
मतवा ने सब कुछ कह सुनाया और उनकी आँखों
में आँखें डाल पूछ पड़ीं – का कवनो राहि नाइँ बा? (क्या कोई राह नहीं है?)
खदेरन ने बिना सोचे ही उत्तर दिया – न! ... बेदी खातिर जौ द (नहीं! ...वेदी के लिये जौ दो)
मतवा ने फिर से सवाल दुहराया - का कवनो
राहि नाइँ बा? (क्या कोई राह नहीं है?)
खदेरन के भीतर क्रोध उमड़ पड़ा – अपने पहिरें लुगरी रानी, परजा पहिरावें दुसाला! (रानी खुद तो सस्ता कपड़ा पहनती है लेकिन प्रजा के
लिये दुशाला की सोचती है!)...
तेहा में जुबान शास्त्री हो उठी, हिंसक मद्धिम फुफकार – दिमाग है भी या नहीं? इस गाँव में राँड़ का देवर से
विवाह कभी कराया है किसी पुरोहित ने? कभी सोचा भी है कि अब
हमलोगों की स्थिति क्या है यहाँ? जो भी ढंग की जजमानी थी,
हाथ से कब की चली गई। घराने का यह हाल कि महोधिया चाचा, सतऊ, मतऊ स्वर्गवासी हुये और माधव का कहीं पता नहीं!
बचे परसू पंडित। एक बेटी सुनयना उधर और एक बेटा बेदमुनि इधर, वह भी ... खदेरन रुकना चाहे लेकिन बात निकल गई...चमइन की कोख का जाया!
क्या चाहती हो? उसकी ज़िन्दगी भी...
मतवा के लिये यह अप्रत्याशित था। बाँझ
कोख का धक्का! हाथ से घूँचा छूट कर गिरा और टूट गया। भुइयाँ पर बिखरा जौ...अशुद्ध!
बिजली सी तेजी से वह निकलीं – रउरे जइसन उपरोहित का न करवा दे
लेकिन चाहे तब न? चमइन सुता के निसा अउर के जगवले होई? ओकरे लगे हमसे पूछि के गइल रहनीं? तंतर मन्तर रउरे
कइनीं त भोगी के?...रउरे बेदमुनि से कौन जजमान बेद पढ़वाई? (आप जैसा पुरोहित जो न करवा दे लेकिन
चाहे तब न? चमइन को सुला कर निशा
और किसने जगाई होगी? उसके पास मुझसे पूछ कर गये थे? तंत्र मंत्र आप ने किया तो भोगेगा कौन? ... आप के
वेदमुनि से कौन यजमान वेद पढ़वायेगा?)
खदेरन हक्के बक्के हो गये। मतवा ने
मिट्टी के हाथी घोड़ों से खेलते बेदमुनि को गोद में उठाया और भीतर चली गयीं।
उसाँस भरते खदेरन ने घूँचे में बचे खुचे
जौ से कोसा भरा और कुछ ही रह गये सूरज की ओर मुँह कर सन्ध्योपासना में लग गये ... ॐ अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्च:
स्वाहा ...
विषण्ण मन को थामना असम्भव था, ॐ नमः शंभवाय च मयोभवाय च नमः
शंकराय... च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च के साथ आधा अधूरा पूरा किये। उठते
हुये देखा कि क्षितिज पर केवल राख बची थी। नंगी कठभट्ठा जमीन चमकती सी लगी और मन
में रोशनी छितरा गई। छिपा भय साक्षात हो उठा – क्यों नहीं
करा रहे वह सोहित और लछमिनिया का विवाह?
निरबंस होने के जिस भय के कारण वह शूद्रा
के अंग लगे, उसके पीछे इसी नंगी
चमकती कठभठ्ठा जमीन के चले जाने की आशंका थी।
सोहित के बाद कौन? पट्टीदारों की गिद्ध दृष्टि से यह
सीधी सी बात छिपी होगी क्या कि नवल्द होने पर खेती किसकी होनी है? जुग्गुल जैसा नीच जाने किस जुगत में होगा! इतनी सी बात को उनका हिया तो
समझ गया था लेकिन मन अनजान था!
कितने फरीक? सग्गर सिंघ,जंत्री
सिंघ, मनभल बाबू...कौन चाहेगा कि सोहित के घर दिया जले?
मरजाद और धरम का आड़ ले जाने क्या कर बैठें? कहीं
वेदमुनि को भी न ... सूदा की संतान बाभन पाले! इस असलियत से समझौता तो कर लिये थे
लोग लेकिन दुबारा लोक विरुद्ध कुछ करने पर... अब तो न महोधिया काका रहे और न उनका
पुण्य प्रताप! सब मेरे कारण ही तो हुआ।
बहुत दिनों के बाद खदेरन आज फिर खुद को
धिक्कार रहे थे। भीतर जा कर मतवा को मनाने का साहस न कर सके। ‘चमैनिया अस्थान’ पर सन्नाटा था लेकिन खदेरन को पता था कि अन्हार पाख में आधी रात शाप की
चाप तनेगी ही!
इसरभर की थाल में खयका (पका भोजन) परोसती भउजी के हाथ
जैसे अन्न उलीच रहे थे! वह बोल पड़ा – एतना! (इतना!)
“ले जाईँ, आजु ढेर बनि गइल हे।“ (ले जाइये, आज अधिक बन गया था।)
सोहित जब से आया तब से चुप लेटा हुआ था।
देह में थकान थी और मन मलिन - जुग्गुल काका की रंगत आज ठीक नहीं दिखी।
इसरभर चला गया तो घर में वही सूनेपन का
मौन पसर गया। ढेबरी लपर लपर उसे उल्था रही थी तो मच्छरों को हटाते यदा कदा सोहित
का गमछा और गझीन बना रहा था। देवर भउजाई में हूँ, हाँ या एक दो बोल के अलावा बात हुये जाने कितने दिन हो गये
थे।
सोहित के पास भुइयाँ बैठ उसका सिर दबाते
भउजी ने कहना शुरू किया – बबुना! जिउ ठीक नाहिं बा
का? ... हारि गइल होखब! लामे के खेत। का जाने एतना लामे
काहें खेत कइलें पुरनिया? (बबुना! जी ठीक नहीं है क्या? ... थक गये होंगे! दूर का खेत।
पुरखों ने इतनी दूर खेती जाने क्यों की?)
सोहित चुप रहा। केशों में फिरती
अंगुलियों में कोई जादू था, इतना अच्छा लग रहा था कि
बोलना भी ठीक नहीं लगा। उसने गमछा ले यूँ ही पैरों की ओर चलाया जैसे कोई मच्छर हो
लेकिन भउजी भाँप गई। उसने अँगुलियाँ हटा लीं।
“भउजी!”
“हँ!”
“हथवा काहें हटा लिहलू?” (हाथ क्यों हटा ली?)
“हथवा काहें हटा लिहलू?” (हाथ क्यों हटा ली?)
“...”
अंगुलियाँ फिर फिरने लगीं। सोहित की
आँखों के कोर पसीज उठे। भउजी की अंगुलियों ने बहक कर गीलेपन को जाना लेकिन जीभ पर अब
ताला लग चुका था। भीगी आँखें जाने कब सो गईं और अंगुलियाँ घने केशों पर आशीष छोड़
नीचे आ लुढ़कीं। हाथों पर माथा टेके भउजी बैठे बैठे वहीं सो गई।
आधी रात बाहर ढेबरी बुझी, भीतर रसोई में घुस कर बिलार ने बचा
हुआ भोजन पाना शुरू किया और चमइनिया अस्थाने दिन जैसा ही कुकुरझौंझ मचने के पहले
ही पटा गया। एक पिल्ला रोने लगा – ओंऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ... साथ में चेंव, चेंव, चाँव ...खें, खें, खें।
“गम्मी में लोग उपासे
सुत्तेलें। कइसे हमार आँखि लागि गइल?...राम, राम। सीताराम।” (लोग घर में मृत्यु की स्थिति में भूखे सोते हैं। मेरा आँखें कैसे लग गईं? ...राम, राम।
सीताराम।) भउजी उठी और भीतर जा
कर सो गई।
“राम करें जो होय! हमार
राहि त बनीऽ गइल बाऽ।“ (राम
करें सो होय! मेरी राह तो बन ही गई है)
(शेष अगले भाग
में)
बस पढ़ते जा रहे हैं।।।
जवाब देंहटाएंसादर
ललित
pranam
जवाब देंहटाएंBau ka deewana bhi padh raha hai.
जवाब देंहटाएं’सभी दीवाने पढ़ रहे हैं’ कहिये साहब!
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