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मंगलवार, 20 अक्टूबर 2015

बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 31

पिछले भाग से आगे...

गोंइठे की आग हाथ में लिये फेंकरनी धिया माई घिघियाती रहीं। सतऊ मतऊ उन्हें धिराते रहे। जब झपकी आये देवी सी दिखे – अंग, भंग, झोंटे से कस कर बाँधे हुये, समूची देह पर एक बस्तर नाहीं, बस झोंटा। करिया झोंटा बस्तर। मुँह से पुकार सी निकलती – माई माई और भवानी के रूदन में बदल जाती – केहाँ, केहाँ।

कांड की रात रमैनी काकी सो नहीं पाईं। बरमबेला में खटिया पर लेटे लेटे ही खदेरन को सराप रही थी – दहिजरा चमइन चाटे के सब कांड करवलस। सराप के फरुवाही बना देहलसि! तभी गोड़ पर मस ने काटा, काकी ने खींचा तो झूलती खटिया के ओनचन में फँस गया। जम के फाँस! काकी हड़बड़ा कर उठी। बझा गोड़ निकालने के चक्कर में भुँइया आ पड़ी।

कवन मुवाई रे हमके? भीतर भभुका सा उठा, मन बहका तो फेंकरनी, ओक रमाई, सतऊ, मतऊ, महोधिया, नगिनिया – चमइन अस्थान से जुड़े सारे मरे हुओं पर करुणा उमड़ पड़ी। काकी अहक अहक रोने लगी। जाने कितनी देर पड़ी रही। पहिली किरिन देह पर पड़ी तो बोध हुआ। आँखें पोछ खड़ी हुई तो पता चला कि पूरी रात उत्तर सिर्हान किये सोई थी। काकी के मुँह से सीताराम के बजाय निकला – डाढ़ा लागो! दोहाई हलुमान जी, दोहाई!

चूल्ह के लिये आगी लेने के बहाने पूरे गाँव का एक चक्कर काकी लगा आई। लौटी तो अपने पीछे जाने कितनी सनपाती मेहरियों में डर सँजो आई। जिन जिन ने नेबुआ अस्थान पर कभी कोई टोटका किया था उनके लिये सार्वजनिक नुस्खा छोड़ आई – कब्बो ओ पड़े न जइह सो, अगर जहई के परे त देबी के अच्छत सेनुर अगिला सुक्क के चढ़ा के माफी माँगि लीह सो! ओइजा भवानी के देंहि कटल बा। पुरान जमाना रहित त सकितपीढ हो जाइत। जहाँ से भी घूमी – कहाँ गइले रे नगिनिया?  गोहराना नहीं भूली।

 

नगिनिया आ कि सनकल सोहिता क भउजी कहाँ गई? इसरभर संघे उढ़र गई? विचित्र स्थिति थी। स्मृति में एक ओर क्षत विक्षत नवजात देह का भयानक दृश्य था तो दूसरी ओर कुलटा युवा स्त्री का सेवक के साथ पलायन। लोग अंड बंड कुछ भी सोचें, जुग्गुल और उसके खवासी लहकायें लेकिन घटना की भयानकता इतनी प्रबल थी कि मनोविलास, घृणा, क्रोध, जुगुप्सा सब करुणा में सिमट जाते और अंत में बस बच जाती – सहम। सोहित की पगलई दिनों दिन चुप्प होती गयी। जब भी अवसर मिलता कपड़े पहने ही नहा लेता – दिन में कई बार। जप चलता रहता – हमार भउजी, हमार भवानी!

 

 खदेरन के पिछले बारह दिन बारह वर्ष जैसे बीते थे। बेदमुनि और सुनयना, इन दो बच्चों के आपसी प्रेम ने मन को सँभाला था तो बेदमुनि द्वारा अनजाने ही तांत्रिक यंत्र रचना और पेंड़ के एकमात्र शिवली फूल द्वारा उसकी प्रतिष्ठा ने मन को जाने कितनी आशंकाओं की और मोड़ भी दिया था। भविष्य में क्या है? जानने के लिये कुंडली बाँचने का साहस तक नहीं हुआ!

उस दिन यंत्रवत प्रात: संध्या करते उनके सामने जैसे सुभगा बैठी थी। हवनकुंड नहीं, अघोर यंत्र था। आहुति नहीं पाँखियों की रक्तहीन बलि ... खदेरन सिहर उठे थे। स्वयं को केन्द्रित कर जैसे तैसे संध्या समाप्त किये। उसके बाद खुरपी ले कोला में ऐसे ही चिखुरते रहे – मोथा, दूब, डभिला। तन रमे तो मन रमे!

 

  पसीने से जनेऊ भीगा और पीठ पर खुजली होने लगी। झटक कर उठे और जाने कितने समय से भरा धिक्कार सवार हो गया – थाने जाने वाले थे न? और कितना समय चाहिये? भयभीत हो? साधक हो? निर्णय और संकल्प किस दिशा के यात्री हैं?

krishna_yantra प्रश्नों के गुंजलक केन्द्रित हुये और आँखों के आगे उजास ही उजास छा गया। वह यंत्र तो कृष्ण यंत्र भी है, बेदमुनि तो अक्षर भी लिख रहा था – कृष्णाय गोविन्दाय क्लीं ... गोपीजनवल्लभाय स्वाहा... नम: कामदेवाय ल ज्वल प्रज्जवल स्वाहा... कौन कन्हैया यहाँ आने वाला है खदेरन? दुविधा से मुक्त हो चलो, चलो खदेरन! कान्हा की लीला होनी भी होगी तो अभी बिलम्ब है।

घर के भीतर घुस खदेरन ने स्वयं ही निकाल गुड़ की ढेली के साथ पानी पिया, लाठी उठाये और निकल पड़े। मतवा की टोकार कंठ में ही अटकी रह गयी!

गाँव के सिवान पर जुग्गुल ने टोका – कवने ओर हो पंडित? खदेरन ठिठके, दोनों की आँखें मिलीं और खदेरन ने जो देखा वह जुग्गुल के पीछे था – सामने से इसरभर आ रहा था। हाथ की लाठी छूट गयी। (जारी)                             

शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2015

बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 30

पिछले भाग से आगे ...

बिहान हो गया है। गाँव में नये जगे की खुड़बुड़ है। संध्या विधान के पश्चात खदेरन पंडित चौकी पर दक्खिन उत्तर लेटे हैं। या तो यहाँ लेटना या चुपचाप सरेह में भटकना और मतवा ने जब कहा खा पी लेना, पिछ्ले नौ दिन ऐसे ही बीते हैं। बेदमुनि भी जैसे समझता है, पास नहीं जाता ...

इन दिनों में खदेरन ने नेबुआ तंत्र अनुष्ठान से लेकर नवजात कन्या की हत्या तक के समय को पुन: पुन: जिया था। मन इतना गहरे धँस गया था कि किसी भी तरह का पलायन असंभव था। एक समय जाने कौन बरम सिर पर सवार था जो ऐसी ही मन:स्थिति में भागते कामाख्या तक पहुँच गये थे! अब किससे भागें खदेरन, कहाँ जायें? कर्मों की डोर पाँवों की फाँस बन गयी। हर अनर्थ उन्हीं के हाथों घटा था, धरती पर नहीं, उनकी देह में। छाती पर सवार यमदूत हर रात बत्ता चरचराते, घुटती साँसों के बीच नींद खुल कर भी मुक्त नहीं करती – क्षत विक्षत रक्त सनी सुभगा अन्धेरे को चीरती खड़ी दिखाई देती। सुर्ख चमकती लहू की रेखायें जैसे कि गर्भगृह में काली प्रतिमा दमक रही हो! माँ, मुक्ति दो। अब तो शाप दे कर यातना पूरी भी कर दिया! अब क्यों, क्यों माँ?

ऐसे में खेती बाड़ी से लेकर घर गिरहस्ती तक सब मतवा ने सँभाला।  नयनों के दोनों कोर से निकलते बेकहल आँसुओं की ढबढब में पंडित ने देखा कि खुले नभ में पश्चिम दिशा में चन्द्रमा विराजमान थे तो पूरब में उगते सूरज। अँजोर होने पर भी लगा जैसे दिन रात साथ साथ हों! कहीं हूक सी उठी। ज्यों तेज चोट लगी हो, हड़बड़ा कर बैठ गये। एक बार फिर से दोनों को निहार बड़बड़ाये – नौ दिन बीत गये!

कुछ ही हाथ की दूरी पर चमकती भुइँया हिसाब की रेखायें थीं जिन्हें मिटाना मतवा भूल गयी थीं। दलिद्दर की घरनी – खदेरन ने मन ही मन सोचा और दुवार पर ही टहलने लगे। घरनी उनकी भेदिया थी। इन दिनों ऐसे बतियातीं जैसे कोई बहुत ही गोपनीय बात कर रही हों लेकिन उसमें गाँव गिराम की रोजमर्रा की खोज खबर ही होती। चिंता असवार स्वर कहीं पंडित फिर से भाग न जायँ! ... तीसरे दिन ही जुग्गुल ने सोहित का गोंयड़े का खेत जोतवा लिया था – पगलेट का क्या ठिकाना, जाने कब ठीक हो?  ये रहा रेहन का कागद। गाँव चुप्प रहा लेकिन खदेरन की हड़पने वाली बात सबको समझ आ गयी थी। ... सोहित, इसरभर और भउजी का कहीं अता पता नहीं। लोगों में सन्देह पुख्ता था कि कोई बड़ा कांड उनकी नाक नीचे हो चुका है और पता ही नहीं! ...रमेसरी से मतवा की रार भी हुई। उसने बस यह कहा था कि खदेरन पंडित को सब पता है। खदेरन किस से कहें कि न तो वे अगमजानी हैं और न ही भविस्स देख सकते हैं? अपनी बिद्या का आतंक तो उन्हों ने खुद फैलाया था। उसके आगे खुद असहाय थे – नेबुआ वाला टोटका इतना असरदार कैसे हो गया? ... हरदी ओरा गयी है, साहुन के यहाँ से मँगानी पड़ेगी ...हल्दी शुभ होती है खदेरन! शुभ खत्म हो गया! ... लोग नेबुआ मसान वाला रास्ता फिर से बराने लगे हैं ... सही कही बेदमुनि की महतारी, वह मसान ही है जिसकी चौकीदारी में सबसे बड़ा झुठ्ठा नीच जुग्गुल लगा हुआ है।

... नीचे धोती की खींच का अनुभव कर खदेरन थम गये। पीछे मुड़ कर देखे तो परसू पंडित की बेटी सुनयना थी। बिहाने बिहाने भवानी घर छोड़ यहाँ कैसे आ गई? सुहावन गौर चेहरे पर लाल बाल अधर – देवी स्वयं पधारी हैं, खदेरन सब भूल वर्तमान में पूरी तरह पग गये!  मुस्कुराती बच्ची हाथ फैलाये निहोरा सी कर रही थी – हमके कोरा ले ल! कितना भोला मुख, सम्भवत: घर का कोई बड़ा आसपास ही हो, खानदानी शत्रुता भूल खदेरन ने भवानी को गोद में उठा लिया – एन्ने कहाँ रे, बिहाने बिहाने? दूध पियले हउवे की नाहीं? उसे गोद में लिये कोला की और आगे बढ़ गये। शिउली गाछ के नीचे बेदमुनि धूलधूसरित जमीन पर बैठा कुछ करता दिखा। खदेरन पास पहुँचे – देख तs के आइल बा?

हाथ में लकड़ी लिये बेदमुनि तल्लीन भुँइया कुछ खींचने में लगा हुआ था। त्रिभुजों की शृंखला जो कि क्रमश: सुगढ़ होती आकृतियाँ दर्शा रही थी। बेदमुनि जैसे आखिरी खींचने में लगा हुआ था – एक दूसरे में प्रविष्ट दो त्रिभुज, षड्भुज आकार। यह तो यंत्र है, किसने इस बच्चे को सिखाया?... अवाक खदेरन ने सुनयना को गोदी से नीचे उतार दिया। वह जा कर बेदमुनि के सामने बैठ गयी – भइया! ... यंत्र के दो सिरों पर अब बेदमुनि और सुनयना बैठे थे। ऊपर से एक शिउली पुहुप गिरा – ठीक केन्द्र में। प्रात:काल हरसिंगार! इस महीने?  चौंक कर सिर ऊपर उठाये। झाड़ एकदम खाली था, भूमि पर भी कोई दूसरा फूल नहीं लेकिन यह भीनी सुगन्ध? खदेरन स्तब्ध थे, कैसा संकेत! ...सुनयना की जन्मकुंडली देखने पर उपजी भविष्यवाणी मन में मुखर थी – विलासिनी... ऋतेनादित्यास्तिष्ठंति दिवि सोमो अधि श्रित:

स्वयं को सम्बोधित कर बुदबुदाये - ऋतावरी प्रज्ञा का आह्वान करो खदेरन! ... दोनों बच्चे एक दूसरे का हाथ थामे दूर भागे जा रहे थे। पंडित ने आह भरी – रक्त अपना ठौर पा ही जाता है।

(जारी)       

रविवार, 20 सितंबर 2015

बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 29

पिछले भाग से आगे...

रमैनी काकी माने माया छाया एक देह। कुछ पहर पहले ही जिस नगिनिया भउजी के लिये मन में माया हिलोर ले रही थी वह जुग्गुल की एक बात से अपनी पुरानी छाया में आ गई थी। रक्कत देख सन्तोख नहीं पूरा था, काकी तमाशा देखने को गोहरा रही थी!

घेरा तोड़ते खदेरन आगे पहुँचे तो जो वीभत्स दिखा वह कहीं नहीं, कभी नहीं दिखा था, कमख्खा में भी नहीं। एक नवजात मानुष देह क्षत विक्षत पड़ी थी, पास ही मझोले कद का एक कुत्ता किसी धारदार हथियार से कटा पड़ा था और जुग्गुल भ्रष्ट भैरव बना एक हाथ में टाँगी और दूसरे में नवजात की टाँग लिये उछ्ल रहा था। लाल कपड़े पर भी रक्त के छींटे स्पष्ट थे, धरती पर खून ही खून। रमैनी काकी को पंडिताइन के लाल गोड़ निसान याद आ गये, खुद को सँभालने को लबदी का सहारा ले धीरे धीरे वहीं बैठ गयी। दोनो गोड़ पानी जैसे हो गये थे!

जुग्गुल चिघ्घाड़ उठा – महापातक भइल बा गाँव में, महापातक! मुसमात देवर संगे सुहागिन भइल, केहू जानल? नाहीं। नागिन पेटे जीव परल, केहू जानल? नाहीं। भवानी पैदा भइल, केहू जानल? नाहीं। खेला देख जा पंचे, खेला! भवनिया के मुआ के एहिजा, भरल गाँव के बिच्चे गाड़ देले रहलि हे नगिनिया! बसगित में मुर्दा गड़ले रहलि हे नगिनिया खोनि के पिल्ला नोचत रहलें हँ सो, आपन पलिवार त खाही घरलसि, गाँव के सत्यानास करे चललि बा नागिन। रउरा पाछ्न के लइके फइके कुँवारे रहि जइहें, के बियही ए गाँवे जब ई खिस्सा चहुँ ओर फइली? कुलटा हे नगिनिया, कुलटा!...

(गाँव में बहुत बड़ा पाप हुआ है, महापातक! विधवा देवर संग सुहागिन हुई, किसी ने जाना? नहीं। नागिन गर्भवती हुई, किसी ने जाना? नहीं। बेटी पैदा हुई, किसी ने जाना? नहीं। तमाशा देखो पंचों! तमाशा। बेटी को मार कर यहीं, भरे पूरे गाँव के बीच नागिन ने गाड़ दिया था! बस्ती में नागिन ने मुर्दा दफन किया था, कुत्ते खोद के नोच चोथ रहे थे! अपना परिवार तो खा ही गयी, नागिन अब गाँव का सत्यानाश करने चली है। जब यह किस्सा आस पास फैलेगा तो उसके बाद कौन अपनी संतान इस गाँव में ब्याहेगा? आप सब के बच्चे कुँवारे रह जायेंगे। नागिन कुलटा है, कुलटा!...)

... कुलटा हे नगिनिया कुलटा! – सोहित के कान बस यही स्वर पड़े। बुढ़िया आँधी भरे मन ने स्वर पहचाना – जुग्गुल काका? एक ही सहारा था, वह भी...गद्दार...हमार भउजी कुलटा?

नयनों के आगे भीड़ दिखी, लाल लाल जुग्गुल दिखा, लाल आँखें, भउजी की काली आँखें, करिखही राति, बबुना... ढेबरी की लौ सम भक भक करिखही आँख... मस्तिष्क में भरे अरबों तंतुओं का आपसी संतुलन टूटा और काला पर्दा तन गया। सोहित के गले से माँ से बिछड़े पड़वे सी गुहार निकली – हमार भउजी कुलटा नाहीं, कब्बो नाहीं रे जुगुला! नरखा फाड़ते, केश नोचते सोहित जुग्गुल पर टूट पड़ा। लँगड़ा कहाँ सँभाल पाता, जमींदोज हुआ और उसके गले सोहित के हाथ कस गये...  

...सोहित के चेहरे की बदलती रंगत किसी ने सबसे पहले पहचानी तो इसरभर ने। उसे जुग्गुल की और झपटते देख इसरभर को चमैनिया अस्थान से जुड़ी सारी पुरानी घटनायें एक साथ याद आ गईं, वह पीछे मुड़ा और भाग चला – जल्दी से कुछु करे के परी,  लेकिन का? इसरभर सिर इसर सवार थे – मन में जाने कितने समीकरण बनने बिगड़ने लगे!  मलकिन के माटी कइसे पार घाट लागी? भइया त पगला गइलें! (मलकिन की मृत देह का संस्कार कैसे होगा? भैया तो पागल हो गये!)  कुलटा मलकिन, नगिनिया मलकिन ... सरापल गाँव में अब के अनरथ करी, खदेरन पंडित? ना, कब्बो ना!...(इस शापित गाँव में अब अनर्थ कौन करेगा? खदेरन पंडित? नहीं, कभी नहीं!)

...”सोहिता रे!” खदेरन पंडित ने स्वर पहचान लिया – बेदमुनि के महतारी? पीछे मुड़े और पियराती मतवा के उठे हाथ ने जैसे समझा दिया कि क्या करना है! झपट कर सोहित पर पिल गये जिसके नीचे गों गों करते जुग्गुल की आँखें बाहर निकल सी रही थीं। खदेरन को देख और लोग भी जुड़ गये। बहुत मुश्किल से सोहित का हाथ छूटा। जुग्गुल आश्चर्यजनक गति से पुन: खड़ा हो गया और सोहित? चुप्प! आँखें दूर तकती, जैसे किसी की तलाश में हों। अधखुले मुँह से लार बह रही थी, सुन्दर चेहरा विकृत हो गया था। खदेरन की आँखें भर आईं – इतने कम समय में कितनी यातना! सोहित लड़खड़ाता चल पड़ा। दूर सधी आँखें, पागल प्रलाप – भइया हो! ले चलs, भउजी के, हमके, गाँव के। घवराई भीड़ ने राह दे दी।

मन्नू बाबू के बाप के प्रचंड स्वर ने भीड़ को यथार्थ पर ला पटका – बरस बरस के नवमी के दीने, कुलदेबी पूजा के दीने अइसन गरहित कांड! थू। दुन्नू के गाँवे से बहरियावे के परी। (वर्ष में एक ही बार आने वाले इस नवमी के दिन, कुलदेवी की पूजा के दिन ऐसा घृणित कांड! थू। दोनों को गाँव से बाहर करना पड़ेगा।) विजयी स्वर में उन्हों ने प्रश्न किया - बोलs खदेरन पंडित! तोहार सास्त्र अब का कहता? कवनो दूसर उपाइ बा? आ कि चमइनियन जइसन फेंसे कुछु ...? (बोलो खदेरन पंडित!  तुम्हारा शास्त्र क्या कहता है? कोई दूसरा उपाय है? या वैसा कुछ करना है जैसा चमाइनों के साथ ...?)   

अधूरे छोड़ दिये गये व्यंग्य वाक्य में अहंकार कम, राक्षसी प्रवृत्ति का कोलाहल अधिक था। निर्बल मतवा को सहारा देते खड़े खदेरन भूत लोक में पहुँच गये। फेंकरनी गा रही थी – राम के कड़हूँ खरउँवा, कन्हैया जी के झूलन हो ... अमा की रात में सुभगा – मैं धरती हूँ बावले जिसकी वासना कभी समाप्त नहीं होती। युगों युगों से मैं तुम्हें भोगती आई हूँ, यहाँ जीवन मुझसे है। हाँ, हाँ, मुझे प्रेम करो, कहो सबसे कि मैंने धरती का सुख भोगा, कहो क्यों कि तुम्हारा कहना मुझे प्रबल करता है। हा, हा, हा...

करुणा की कीच सने मन को ठाँव मिली, उत्तर के पहले चेतना आई – धरती, भोग। यह सब षड़यंत्र है, जमीन हड़पने का। पंडितों की जमीन हड़पे, अब पट्टीदारों की जमीन हड़पने को ये नीच लगे हैं। खदेरन! तुम्हें यह सब समाप्त करना है। जाने कितनी बलियाँ इस गाँव में और होंगी। तुम्हारी करनी यह जगह शापित है, कुछ करो, कुछ करो!

“गाँव से बाहर कोई नहीं जायेगा बाबू! कोई नहीं। इस गाँव का शाप जायेगा!” खदेरन थम गये। चढ़े सूरज को घूरते तांत्रिक खदेरन का वही पुराना कौवे जैसा कर्कश स्वर भीड़ ने बहुत दिनों के बाद सुना:  

“त्वं जानासि जगत् सर्वं न त्वां जानाति कश्चन

त्वं काली तारिणी दुर्गा षोडशी भुवनेश्वरी

धूमावती त्वं बगला भैरवी छिन्नमस्तका

त्वमन्नपूर्णा वाग्देवी त्वं देवी कमलालया

सर्वशक्तिस्वरूपा त्वं सर्वदेवमयी तनु:”     

 

तेज स्वर की सहम दस दिशाओं को मथती चली गयी, एक विकार से दूसरे विकार में प्रवेश करते जन जड़ हो गये थे!

“तव रूपं महाकालो जगत्संहारकारक:

महासंहारसमये काल: सर्वं ग्रसिष्यति

कलनात् सर्वभूतानां महाकाल: प्रकीर्तित:

महाकालस्य कलनात् त्वमाद्या कालिका परा ...

साकाराsपि निराकारा मायया बहुरूपिणी

त्वं सर्वादिरनादिस्त्वं कर्त्री हर्त्री च पालिका

... जो भवानी भूमि पर क्षत विक्षत पड़ी है, उसकी साक्षी मान मैं इस स्थान पर अब तक हुये सारे पापों को अपने सिर लेता हूँ। साथ ही यह शाप देता हूँ कि आज के बाद अगर किसी ने यहाँ कुछ भी टोना टोटका किया तो उसका और उसके परिवार का सर्वनाश हो जायेगा।“

धीमे स्वर में सबको सुनाते हुये खदेरन ने कहा – यह सब जमीन हड़पने की गर्हित कुचाल है। आप लोग खुद विचारें और समझें। विधि की विधना जो होनी थी, हो गयी, आगे आप सब के हाथ लेकिन अगर किसी ने यहाँ कोई टोना टोटका किया तो माँ काली की सौंह... ।

मतली आते हुये भी खदेरन ने नवजात की देह के टुकड़ों को उठाया, गमछे में लपेट भीड़ को चीरते चँवर की ओर चल पड़े। मतवा उनके अनुसरण में थीं।

 

जुग्गुल को चेत हुआ, उसने भीड़ को ललकारा – ई पखंड कवनो नया थोड़े ह, सोहिता त भटकते बा, नगिनिया के पकड़ि के बहरे कर के परी!

प्रतिक्रिया नहीं होते देख उसने पट्टीदारों को पुकारा – खून खनदान के फिकिर बा कि नाहीं? एक छोटा सा समूह सोहित के घर की ओर चल पड़ा। लोग घर में घुसे, जुग्गुल सबसे आगे भउजी की कोठरी में।

कोठरी एकदम व्यवस्थित साफ सुथरी थी, जैसे कुछ हुआ ही न हो! न तो नागिन का अता पता था और न ही इसरभर का!

 

बचे दिन गाँव सरेह में दोनों की खोज चलती रही लेकिन वे नहीं मिले तो नहीं मिले! साँझ को दिया बारी पूजन के बेरा दक्खिन कोने किसी घर एक फुसफुसाहट उभरी – ऊ भवनिया देवरा के नाहीं, भरवा के रहलि हे। एहि से सोहिता पगला गइल हे अउर नगिनिया सँगे भरवा नपत्ता बा! धुँअरहा के धुँये और चूल्हे की आग के साथ यह बात घर घर में बँटती चली गयी। (वह भवानी देवर से नहीं, इसरभर के साथ हुये संबंध से थी। इसी से सोहित पागल हो गया और नागिन संग इसरभर लापता है!)  

 

शुद्धिस्नान और कर्मकांड के पश्चात कार्त्तिक शुक्ल पक्ष नवमी की उस सन्ध्या यह बात खदेरन पंडित के कान पड़ी और वह कराह उठे। शांति अब बस भ्रम थी। भीतर दाह उठने लगा। वहीं निखहरे चौकी पर लेट गये। मतवा ने हाथ लगाया तो जाना अब खदेरन की बारी थी। फीकी मुस्कान के साथ खदेरन बड़बड़ाये, सतमासी भवानी थी, नवमी के दिन सात महीनों की सँभाल व्यर्थ हुई। वे गलदश्रु हो उठे – आह, कहीं से भी सतमासी नहीं लगती थी... सुभगा!

... बेदमुनि की माँ, यह इकट्ठे पापों की ताप है, जल्दी नहीं जायेगी। धीरज रखना। जब भी यह काया ठीक हुयी, शिकायत ले थाने तो जाऊँगा ही।       

 

छिप कर सुने गये खदेरन के निश्चय के साथ लोगों की थू थू को जुग्गुल अपनी कोठरी में दुहरा रहा था।  उसके हाथ पीले बस्ते के वही कोरे कागज थे जिन पर अंगूठों की छाप थी। चेंचरा बन्द कर ढेबरी जला वह कुटिल मुस्कान लिये लिखता जा रहा था - हम कि सोहित सिंह वल्द ...

 

(अगले भाग में जारी)

सोमवार, 2 जून 2014

बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 28

पिछले भाग से आगे...
राम राम बिहान में सोहित झटके से उठ बैठा। भुँइयाँ मत्था टेकने के बाद भउजी की कोठरी में झाँकने गया। उजास से अन्हार में आया था, बिछौना खाली सा दिखा। पलखत भर में आँखें अभ्यस्त हुईं और करेजा धक्क! उसने नजर इधर उधर दौड़ाई और डेहरी मे ऊपर भउजी की देह लटकती दिखी, समझ आते ही बैस्कोप की तरह से पिछला सब कुछ मन में घूमता चला गया और फिर कोर्रा हो गया। सीने में कहीं लुकारा भभक उठा, तीखा असहनीय कष्ट। चरम यातना छ्न भर में चीर गयी  – भ ...उ...जीsss। सोहित झपट कर लटकते गोड़ ऊपर उठाते डेहरी पर चढ़ा।
 जैसे तैसे कर देह को छुड़ाया ही था कि डेहरी भहरा गई। तोपना, जोड़ और मुँह सब खुल गये, घर की अनपुरना की देह लिटा ही पाया, निकलता धान देह को घेरने लगा। धरती, धान, धरनी घरनी सब जलछार! माटी की रक्षा के लिये इतना कुछ करने वाली भउजी लहास माटी माटी में उतान, देवी जइसन मुँह ओइसन के ओइसन!! सोहित धरती पर हाथ पीटता सिर पटकने लगा। आघात से उबरते मन में धुँधली सम्भावनायें उठने लगीं और नयन बरस पड़े। मन साफ होता गया, आँखें सूखती गयीं।
इसरभर आया तो ढोर नाद पर नहीं लगे थे। देरी होने पर मालिक खुद लगा देते हैं, क्या हुआ आज? उत्सुकता वश घर के भीतर हेरता घुसता गया। मलकिन की कोठरी में हिम्मत कर झाँका और जो दिखा वह अकल्पनीय था! उसके मुँह से आतंक भरी घिघियाहट निकली – ओs s मलिकाssssन, भुँइया घस्स से बैठ गया।  सोहित वैसे ही रहा जैसे पता ही न चला हो। इसरभर को सँभलने में थोड़ी देर लगी।...  
...पीठ पर हाथ और साथ के स्वर से चेत हुआ – मालिक! सोहित ने पहचाना – भइया!
“भइया त कब के सरगे गइलें। भइया नाहीं मालिक, ईसर। ई का हो गइल? मलकिनि ...”
सोहित ने सिर उठाया-ईसर? इसरभर??
सिर घूम रहा है ... भँवर है, नद्दी मइया का भँवर। सोहित ने नाव से हाथ बढ़ा भइया की देह उड़ेली है, अब भउजियो जइहें नद्दी में, माटी जाई पानी में? स्वाहा, सब जलछार??
टूटते मन ने बचने के लिये उस अभाव की ओर खुद को मोड़ा जिस पर अब तक सोहित का ध्यान नहीं गया था – भवनिया, केन्ने? का भइल होके??
शोकग्रसित करेजा संतान को ले चिंतित हुआ। सोहित किससे पूछे? खदेरन पंडित? ना! मतवा? ना! रमैनी काकी? ना!
बस एक राह – जुग्गुल काका। बूड़त बिलार कइन सवार।
भउजी की देह वैसे ही छोड़ वह बाहर की ओर भागा, इसरभर भी पीछे पीछे।
...
ज्वर मन्द पड़ गया था। मतवा का मन रह रह सोहित के यहाँ जा हाल चाल लेने को कर रहा था लेकिन पंडित अभी दिसा मैदान से लौटे नहीं थे। बेदमुनी को अकेले छोड़ जाना जाने क्यों ठीक नहीं लग रहा था। दतुअन कर मिट्ठा खा मतवा ने पहली घूँट ली और पानी लगा!
चौकी पर लोटा रख थोड़ा अगोरने लगीं कि मन्द पड़े तो पानी पियें, तभी नेबुआ झँखाड़ की ओर से शोर उठने लगा। मतवा से अब नहीं रुका गया। लबदी उठा लँगड़ाती घर से निकलीं तो रमैनी काकी की गोहार सुनाई दी – मतवा हो! बड़हन खेला भइल बा, दउरि आवs
राह में काँटे बिछा लहूलुहान करने वाली दौड़ कर खेला देखने का बुलावा दे रही थी! मतवा के पैर न आगे बढ़ें न पीछे जायँ!  
...
नेबुआ नियराया तो खदेरन को लोगों का घेरा दिखा। घेरे की भीतर से जुग्गुल की ऊपरी देह भर दिख रही – लाल बस्तर पहने वह किसी ओझा गुन्नी की तरह उछल रहा था। (जारी)           

शनिवार, 26 अप्रैल 2014

बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 27

 

पिछले भाग से आगे ...

 

नवरातन अष्टमी की रात। रमैनी काकी को नींद नहीं - आँखों में देवी ने अपने लहू लुहान पाँव जमा दिये थे! रह रह याद आते - लीक की चिकनी चमकती कठभट्ठा माटी पर पाँवों के लाल लहू निशान ज्यों देवी देवकुरी में पइस रही हो। मतवा!

 “जुगुला का करी रे?” सब जानते हुये भी पुछार मन पर असवार है। उत्तर निसंक है – अनरथ करी, अउर का! करवटों के नीचे कीच काच। बिछावन में काँटे उग आये थे, मतवा के गोड़ की चुभन काकी के अंग अंग समाने लगी। देह को किसी ने उछाल दिया और मन कराह उठा – हम नाहीं होखे देब, हम नाहीं होखे देब। जिसे नगिनिया बता स्त्री समाज से बहिष्कृत करा दिया था, आज उसी के लिये रमैनी काकी के हिया ममता उमड़ रही है!

दक्खिन पच्छिम अकास में हनवा डूबने वाला था। बरसों पहले अपनी खींची रेख को एक ही दिन दूसरी बार लाँघने काकी सोहित के घर की ओर झड़क चली...

...लाल बस्तर, लाल फेंटा, लाल गमछा बाँधे हुये जुग्गुल की एकांतिक ‘निसापूजा’ सम्पन्न हुई। आज की रात बलि की रात है, मन्नी बाबू की भेंट के रास्ते में जनम आये ‘काँटे के नास’ की रात है।

 

...जिस समय खदेरन पंडित विशल्या व्रणहा गिलोय की सोच में थे, उसी समय नेबुआ की झाँखी में कुदाल छिपाने के बाद डाँड़ा में सूखी अरकडंडी खोंसे दबे पाँव जुग्गुल सोहित के घर में घुसा। सोहित के नासिका गर्जन ने उसे उत्साह दिया। पहले कभी आया नहीं, किधर जाये? मदद करो बकामुखी! हुँ फट् स्वाहा ... नथुनों में धुँये की रेख पहुँची। ताड़ते हुये जुग्गुल परसूता के कक्ष में घुसने लगा कि लतमरुआ से ठोकर लगी। लँगड़े पाँव ने जवाब दे दिया, वहीं लुढ़क गया! बाहर सोहित की नाक बजनी बन्द हो गई थी, जुग्गुल जहाँ था वहीं पटा गया। सन्नाटा! कुछ पल कुछ नहीं हुआ तो खुद को जमीन पर सँभालते हुये कोहनियों के बल रेंगता हुआ भीतर पहुँच गया। पसीने पसीने हाथ जल्दी जल्दी बिस्तर टटकोरने लगे, बिस्तर खाली था!

 कहाँ गयी नागिन? मारे घबराहट के देह में थरथरी फैल गयी। मक्कार मन में जमा जम और हाबी हो गया। वस्त्र में लिपटे शिशु तक हाथ पहुँचे। टटोलते हुये उसने एक हाथ मुँह पर जमाया और दूसरे से गला दबाने वाला ही था कि मन ने चुगली की – लेके भागु! आ गइल त सब खटाई हो जाई। जैसे तैसे खुद को सँभालते नवजात के मुँह पर एक हाथ जमाये लँगड़ा बाहर को निकला, सोये सोहित को पार किया तो हिम्मत बढ़ी। दुआर से आगे उसने अपनी स्वाभाविक तिगुनी लँगड़ी चाल पकड़ ली। नेबुआ मसान तक आते आते वह पूरा जुग्गुल था। मन्नी बाबू, मन्नी बाबू ...जैसे कोई ओझा मन्तर पढ़ रहा हो, अधखुली आँखें और पूरी तरह से शांत मन लिये जुग्गुल ने नवजात बालिका का गला मरोड़ दिया। छटपटाहट शांत हुई तो वहीं गड्ढा खोद उसे तोप दिया...

... कोई उत्पात या शोर नहीं, सब ओर शांति ज्यों त्रिताप से मुक्ति मिली हो। जुग्गुल पीछे मुड़ा और रमैनी काकी की छाया से साक्षात हुआ – ई का क देहलऽ  जुग्गुल नवरातन में? भवानी रहलि हे भवानी!  

मौका अनुकूल रहता तो जुग्गुल जोर जोर से हँस पड़ता। साँप की फुफकार सी आवाज निकली – भवानी रहलि होखे चाहे भवाना, मूये के रहबे कइल? कब से तोहरे हिया माया ममता जुड़ाये लागल हो काकी? चुप्पे रहिह नाहीं त..

अधूरे छोड़ दिये गये वाक्य में छिपी धमकी और बात के उल्लंघन की स्थिति में परिणति कि काकी बखूबी समझ गयी। दिवाली और अष्टमी की रातों में रमैनी काकी द्वारा किये जाने वाले टोने टोटके गाँव भर में विख्यात थे। जुग्गुल बहुत कुछ कर सकता था!

बिना कुछ कहे मौन रूदन करते काकी अपने घर की ओर चल पड़ी। पावों में, हिया में, सर में पाथर ही पाथर थे जैसे हत्या जुग्गुल ने नहीं बल्कि काकी ने खुद की हो।

 

भोर हुई। मतवा का ज्वर वैसे ही था। खदेरन पंडित ने मड़ई से बाहर निकल आसमान निहारा और बीते जन्माष्टमी की वह रात याद आ गई जिसमें सोहित और उसकी भउजी ने सारे बरजन तोड़ दिये थे! उत्तर से दक्षिण तक बहती आकाशगंगा वैसी ही बढ़ियाई लग रही थी और शिशुमार भयानक! श्रावण, ज्येष्ठा, विशाखा सब मन्द थे। रामनवमी की बेला में यह सब! यज्ञशाला में पूर्वाभिमुख हो मन की शांति के लिये स्तवन करने लगे:

मातर्नीलसरस्वती प्रणमतां सौभाग्यसम्पत्प्रदे,

प्रत्यालीढपदस्थिते शवहृदि स्मेराननांभोरुहे

फुल्लेन्दीवर लोचने त्रिनयने कर्त्रीकपालोत्पले...

 

प्रातकी के साथ ही गिलोय की खोज में वे अन्हरिया बारी में प्रविष्ट हुये। औषधि प्राप्ति से किंचित संतुष्ट खदेरन हाथ में भिषक्प्रिया अमृता तंत्रिका गुडूची गिलोय लिये बाहर आये ही थे कि कानों में भीषण चीत्कार की ध्वनि पड़ी - सोहित! स्वर पहचानते ही क्षणिक संतुष्टिमय शांति हवा हो गयी।

नेबुआ मसान में हुये पुराने अनर्थों की शृंखला में एक कड़ी और तो नहीं जुड़ गयी! सारे लक्षण, संकेत, संयोग तो वैसे ही आ मिले थे। खदेरन के पाँवों में पंख उग आये। आबादी से निकट होते जाना कि कोलाहल बढ़ता जा रहा था ...

(अगले भाग में जारी)

मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 26

पिछले भाग से जारी ...
सोहित के घर की ओर बढ़ती मतवा, अगल बगल बहतीं गंगा जमुना! नगिनिया का हाल बूझ गंगा हिलोर ले आगे बढ़ती तो सम्भावित लांछन, बहिष्कार की जमुना जैसे गोड़ के नीचे से जमीन ही बहा ले जाती! कसमकस, छोटी सी राह और पवन बहान! गंगा बीस पड़ती गई और मतवा सुध बुध खोती आगे बढ़ती गईं। नेबुआ मसान दिखा और दिखे दूर आसमान में मेहों से मुँह करियाते चमकते ढूह। मतवा की आँखें बढ़िया गईं, लाली उतरी – सब सुभ होई! झड़क चली। छिपाव कि कोई देख न ले जाने कहाँ छिप गया।
खिरकी दिखी ही थी कि साड़ी टाट की खोंच फँसी, थमी ही थीं और दोनो गोड़ तीखी चुभन धँसती गई। ऊपर की ओर लहराती पीर बढ़ती, देह थरथराती; उसके पहले ही मसानों ने स्वेद की गगरियाँ उड़ेल दीं। घस्स से भुइँया बैठ गयीं, होश ठिकाने आ गया। साफ पता चला कि लीक पर सूखी नेबुआ की डाल किसी ने आड़ी डाल रखी थी। चोख काँटे! पाँवों में गहरे उतर गये थे। निकाल कर फेंकती मतवा के कानों में स्वर पड़ा – कवन ह रे! कहेनी कि देखि के चलs सो, बाबू के टाट तिसरिये टूटेला।
 समूचा अस्तित्त्व एक ही अंग - बस कान कान! मतवा ने साफ पहचाना – रमईनी काकी! धुँधलाती चेतना पतियाती कि जानी पहचानी कर्कश हँसी ने जैसे चेतना ही हर ली – अरे काकी! पाँवपुजवा हे, कुच्छू न कहs- लँगड़ जुग्गुल!
देह नहीं, केवल भीतरी संवाद थे – क्या बचा मतवा? बेटा धतूरा पी बेसुध सोया है, सँवाग अचेत है और जो गोपन बनाये रखना चाहती थी वह तो खुले बजार उघार हो गया! ये दोनों जान गये तो अब किसे जानना शेष है?
काँटे के घाव से अचानक तीखा दर्द उठा, नयन भर भर उठे। अब जो होना हो सो हो। लहराती पियरी बुला रही थी, पाँव यंत्रवत बढ़ चले। गंगा जमुना दह बिला गईं, पीर पटा गई।
 
टाट की आड़ से झाँकती दो जोड़ी आँखों ने देखा। लीक की चिकनी चमकती कठभट्ठा माटी पर पाँवों के लाल लहू निशान ज्यों देवी देवकुरी में पइस रही हो। दोनों सन्न!

भउजी ने आहट पहचानी और चौखट पर ही मतवा से लिपट गई। मतवा ने जाना उनकी आँखें सूख गई थीं। इतनी जल्दी! लम्बे जर बोखार से उऋन होने पर जैसे देह हो जाती है बस वैसी थी। अभी तो सब सँभालना था।
काठ ने देखा – पाथर! यह चेहरा परसूत की पीर झेलती मेहर का नहीं हो सकता, नहीं।
नइहर कि माई मूरत ध्यान में आई – पाथर!  दरद कहाँ छिपा रखा है इसने?
भउजी झट से बैठ गई। पाँव पड़ी नागिन को उठा मतवा ने गले लगा लिया। एक मौन सहमति में दोनों उस कोठरी की ओर बढ़ चलीं जहाँ नागिन का रात का बासा होता था - परसूता का घर।
हाँफती पुकार ने दोनों को थाम लिया – भउजी! सोहित आ पहुँचा था। उसने मतवा को देखा। बहुत बार कुछ कहने सुनने की आवश्यकता ही नहीं होती। भीतर की आश्वस्ति चारो ओर फैलने लगी। जिस मुँह कालिख लगी थी, जिस पर पट्ठा बैल मरने जैसी गम्मी थी, वह अब भावी पिता था। उसने चेतावनी सुनी - सोहित! केहू भीतर जनि आवे, हम सब सँभारि लेब। हाथ की लाठी मुट्ठी की भींच, कस कराह – सब ठीक होई।

इसरभर आया, पिटा और भूखे पेट घर वापस गया। भूख तो जन्म के बाद होती है न?  

...रात गझीन है। आसमान में बदरी है। अँजोरिया अन्हरिया बराबर। चारो ओर फुसफुसाहटें हैं। खदेरन नींद में ही जागे हैं। सुभगा आ रही है। आश्वस्त चुप्पी है। सब तैयारी पूरी हो चुकी है। अब तो बस स्वागत का अगोरा है। गुड़ेरवा नहीं बोल रहा, पिहका है। खेंखर नहीं, खेंचातान है। दूर की कामाख्या पितरों की भूमि पधार रही है। आओ माँ! बताओ तो मैं कहाँ हूँ? किस काल में हूँ?...

...लहू रुकने का नाम नहीं ले रहा, कितनी पीड़ा ले कर आयी भवानी? माँ नग्न है, ले मैं ब्राह्मणी भी आधी होती हूँ – मतवा ने अपनी साड़ी फाड़ी और नागिन को उसमें कसती चली गईं – केहाँ, केहाँ।
ढेबरा के अँजोर भवानी की आब, दप दप! यह तो महीने दो महीने जैसी लग रही है! मतवा रूप निहारने लगीं।
... होश आया। जान पहचान कर नागिन रोने लगी – जमीन को बचाने वाला नहीं आया, इस दुआर दिया जलाने वाला नहीं आया। मुझ पापिनी की कोख कैसे आता?
मतवा ने अँकवार भर लिया – ई नाहीं कहे के रे! एकरे कोखि से होई। आई रे आई!
अन्हार सन्न। दुख जब सहन के परे हो जाता है तो मनुष्य में शक्ति जगती है। आखिरकार भउजी ने कहा – बबुना के बता देंई। आपन भवानी सँभारें।
उसके बाद उसने मतवा को मुक्त किया – जाइये मतवा! अपना घर सँभालिये। इस घर के दो जन पर कृपा दृष्टि बनाये रखियेगा। जनम दे हमार जनम सुफल, पूर गइल।
पाँवों की पीर का तेहा अब जबराने लगा था। मतवा ने बची खुची साड़ी लपेटी और बाहर आ गईं। लाठी का सहारा लिये बैठी सोहित की छाया प्रतीक्षा में दिखी। कन्धे पर हाथ रख मतवा ने बताया – भवानी ... संतान और सँवाग की देखभाल करना। कुल चलाने बेटी आई है। उन्हों ने सोहित का चेहरा उठाया। अन्धेरे में क्या दिखता? सोहित ने जैसे सहमति में सिर हिलाया – पाँय लागीं मतवा! हम बाप बनि गइलीं मतवा, हम बाप बनि गइलीं!
मतवा के मन में स्वर पुन: उठे – जनम दे हमार जनम सुफल, पूर गइल। अर्थ समझ में आया, आशंका सी उठी लेकिन उन्हों ने अशुभ को शब्द तक नहीं लेने दिया। कंठ में रूदन भर आया। सोहित को अधूरा ही छोड़ अन्धेरे में भागीं। कुछ देर की तेज हवा ने आसमानी बदरी को तो छिन्न भिन्न कर दिया था लेकिन मतवा का मन ...   

काँटा! काँटा गड़ि गइल!! पाँवों तले नमी थी। जाने फिर से घायल हुए थे या नहीं लेकिन मतवा को सँभालने के बाद खदेरन ने हाथ लगा देखा। मद्धिम रोशनी में लहू करिया लग रहा था। गर्म लहू! भवानी न? मतवा ने सिर हिलाया और जाने किस प्रेरणा से दोनों आलिंगन में कस गये। कौन है? माँ?? सुभगा???
मेरे साथ साधना करोगे पापी!

भउजी के ललाट पर हाथ फेर, कन्या को दुलरा कर सोहित कोठरी से बाहर आँगन में ही नंगी धरती पर चौड़ा हो गया। चौखट पर एक छाया उभरी और अकन कर किनारे हो गई।
...देह में जाने कहाँ की शक्ति भर आयी है, नागिन छोटकी डेहरी पर चढ़ तर उपर ओसौनी सहेज रही है। मतवा की साड़ी कमर में नहीं, गले में है।
....एक उछाल, बन्धा, झटका ...देह झूल गयी।

सन्नाटे को चीरते तीखे स्वर से नींद टूटी, खदेरन उठ कर चौकी पर बैठ गये। वेदमुनि सो रहा था। उतरने को पाँव नीचे किये तो मतवा की देह से लगे। झपट कर हाथ लगाया तो पाया कि मतवा की देह भट्ठी हो रही थी।
इतना ज्वर, ताप! काँटे थे या कुछ और? उठा कर चौकी पर लिटाने के बाद उन्हों ने चादर भिगो कर निचोड़ा और मतवा को ओढ़ा दिया  ...गिलोय, इस समय गिलोय कहाँ ढूँढ़ें खदेरन? (जारी)                                                  

सोमवार, 29 जुलाई 2013

बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 25

पिछले भाग से जारी

गदबेर घिर रही है। मतवा बेचैन हैं। कैसे पहुँच पायेंगी? जाने दुखिया किस हाल में होगी? वेदमुनि तो अभी जगा हुआ है, सुत्ता पड़ते पड़ते बहुत देर हो जायेगी। बेर कुबेर जग कर रोने वाला और बिना महतारी के बझाये न बझने वाला लड़का वहाँ रहते जग गया तो पंडित सँभाल पायेंगे? बात खुल गई तो??

पच्छिम की लाली बदरी से फूट रही थी। ऊपर धुँधले चन्द्रमा की छवि सी थी। निहारती मतवा को रमायन जी के सिव सम्भू की प्रतीति हुई और होठ बुदबुदा उठे:

नाम महाराज के निबाह नीको कीजै उर, सब ही सोहात, मैं न लोगनि सोहात हौं।
कीजै राम बार यहि मेरी ओर चखकोर, ताहि लगि रंक ज्यों सनेह को ललात हौं ।

डबडबाई आँखों से एक लोर धतूरे पर टपक पड़ी। मतवा ने अनुमान लगा थोड़ा भाग लिया और पीसने लगीं। वेदमुनि को गोद में लिटा धतूरा मिला दूध पिलाती मतवा गुनगनाती रहीं - सिव राम रच्छा करें। ॐ नम: शिवाय, जाके केहु नाहिं ताहि रामै रे गोंसइयाँ। दूध पीते पीते लड़का सो गया तो हिरदया में धिक्कार उठी – कइसन महतारी हउवे रे तें? अन्धेरे कमरे में मिट्टी की भीत पर सिर पटक पटक मतवा सिसकने लगीं। सिव की बूटी से माते वेदमुनि की नींद गहराती गई ...

... गुरेरवा की असमय चीख सुन मन की झंझा से जूझते खदेरन जैसे तन्द्रा से जगे, मतवा के पाथर बोल ठठा ठठा उठने लगे – हम सँभारि लेब! हम सँभारि लेब!! बिना शरीर शुद्धि के खदेरन घस्स से भुँइया बैठ गये – इस संझा ऐसे ही सन्ध्या। भान ही न रहा कि दक्षिण दिशा को उन्मुख थे। सविता का मंत्र पंचतंत्र के शोक श्लोक की बलि चढ़ गया।

शम्बरस्य च या माया या माया नमुचेरपि

बले: कुम्भीनसेश्चैव सर्वास्ता योषितो विदु:!

फेंकरनी, माई, मतवा, कमच्छा की माता, सुभगा, नगिनिया .... माया हैं, माया! इनसे बली कोई नहीं। इन्हीं के जोर से जीवन भर घूमता रहा। अब यह घड़ी! किसकी लड़ी? कौन है सूत्रधार, कौन रचयिता? मन की हर दिशाओं से प्रतिध्वनियाँ हहरा उठीं – महाश्मशान में मृदंग नाद और साथ ही पैशाची ध्वनियों के आवर्त – तुम हो! तुम हो!!

अहोम अनुष्ठान याद आया – रक्तविहीन बलि, सिर पर चोट से छटपटाते दम तोड़ते बटेर – वयस्क, शिशु, सभी। हत्या तो हत्या है खदेरन! चाहे जैसे की जाय। सुभगा की अमानुषी खिलखिलाहट, स्वयं प्रसार, स्वयं परास – ही, ही, ही, ही ... मुझे सँभाल पाओगे साधक?

माया है माया!!

शिव, शिव! सँभारो, उबारो – यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्र: सर्वत्र वन्द्यते।

साधक दुसह मनव्याधि सह नहीं पाया। शिव ने मूर्च्छा भेजी, खदेरन भूमिशायी हुये।

 

...शोकमूर्ति कर्तव्यशीला माता ने शुभ्र साड़ी पहनी, काली चादर ओढ़ी और निषिद्ध घर की ओर प्रस्थित हुई। नागिन ने प्रसव वेदना को अब तक दबा रखा था। उसे बीज के बोवइये किसान की प्रतीक्षा थी, देह की जमीन से जमीन बचाने वाले का जन्म होने वाला है, सँवाग आ तो जाये!

शिशु पृथु न हो सीता हुई तो? क्या होगा??...


आँख की पुतरी रह रह लपलपा जा रही थी। भउजी! भउजी!! सरेह में देरी कर चुका सोहित घर की ओर झड़क चला। (जारी)    

रविवार, 3 फ़रवरी 2013

बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 24

पिछले भाग से आगे...

गाँव में दसबजिया सनाटा पसरा है। पुजारी सूरज ने रोज की ही तरह हर पत्ते को चन्दन से टीक दिया है और पवन देव घर घर घूम जामा तलासी ले रहे हैं। दुआर पर एक अकेला पिल्ला गरदन जमीन से सटाये आँखें मूँद उकड़ू है। रात की कुकरौझ के लिये माफी माँग रहा है साइत! पड़ोस की खिरकी में लगी असुभ केरवानि की छाँव में निखहरे खटिया बैठा सोहित पत्ते हिलने डुलने से भउजी के मुखड़े पर होती घमछँइया निरख रहा है। भउजी ने आज केश धोये हैं।

पीठ की कोर्रा उज्जर साड़ी पर खुले केश फैले हैं। रमइनी काकी चुपके से झाँक गयी है – आजु नगिनिया पुरा खनदान बटोरले बा! ...

 

नये रोपे जोड़ा अँवरा की जमीन लीपने को जब भउजी ने धरती पर पहला हाथ लगाया तो सिहर उठी। दुबारा हाथ रखते जैसे किसी ने पूछा – सोहित के बतवलू कि नाहीं? भउजी ने सिर उठा निहारते देवर को देखा और पुन: झुक कर मन में ही उत्तर दिया – बूझ त गइले होंइहें, इशारा नाहीं बुझिहें देवर! ...नाहीं त बादि में जानि जइहें। पुन: आदेश जैसी पूछ हुई – बतावल जरूरी नइखे?

हाथ तेज चलने लगे। लीपना खत्म कर जब धोने के लिये लोटे की ओर हाथ बढ़ाई तो भउजी ने देखा बाईं ओर थाली में रखी रोरी में कुमकुम पर धूप रह रह चमक रही थी। अच्छत, दूब, हरदी को भी देखा और  भउजी ने रोरी में मटिहा दहिने हाथ की बिचली अंगुरी बोरा। माँग तक ले जाते भीतर हूक सी उठी – कत्थी खातिर रे! ... बबुना के पगलावे खातिर? हाथ रुक गये और हाँक सी पारी – हे आईँ बबुना!  

सामने आ बैठे सोहित के माथे माटी सनी रोली लगा भउजी ने अच्छत लगाया – खेत के अन्न बबुना! हाथ देईं। सोहित के हाथ दूब पड़ी – ज़मीन बबुना! और उस पर हल्दी गाँठ – सुभ बबुना! ... बइठल रहीं बबुना! ए खनदान के आँखुर हमरे कोखि में बा। संतान जनि के मेहरारू असल में सोहागिन होले। हम सोहागिन बबुना! हमके पक्का पियरी आनि देईं।

कोर्रा लुग्गा पहनने वाली भउजी जब तब हल्दी से रँग कर भी पहनती थी। बजार से पक्की पियरी ले आने की माँग से सोहित पहले हैरान हुआ और उसके बाद घाम जैसे और फरछीन हो गया। अब तक जिस सचाई को जानते हुये भी मन के भीतर दबे ढके था, उसका रूप बदल गया। कन्धे बोझिल से लगे और मन में बात धसती चली गई – आँखुर, अन्न, जमीन, सुभ। भउजी की माँग पूरी करनी ही होगी लेकिन कैसे?

सोहित अपने कर्मों से जवार में मसहूर, मुसमाति भउजी गाँव में नगिनिया नाम मसहूर। किस पटवा के यहाँ से लुग्गा बेसहि लाये सोहित? स्वयं के सरनाम चरित्र को जानने वाले पटवा की आँखों के व्यंग्य को सह पायेगा सोहित? और फिर बात में बात जोड़ कहीं बात खुल गई तो? कानों में साँप फुफकार उठा -  पार त हमहीं लगाइब ए भतीजा! केहू अउरी से जनि उघटि दीह! सम्मोहित सा चलता सोहित जाने कब जुग्गुल के आगे पहुँच गया।
जुग्गुल सरीखे धूर्तों में एक खासियत बहुत विलक्षण होती है – वे आदमी के रंग को समय से जोड़ कर पहचानते हैं।  सोहित को देखते ही घोड़वने के पास मदिया को हिदायत देता जुग्गुल अपनी लँगड़ी चाल से तीन पगों में ही उसके पास पहुँच गया और सीधे पूछ पड़ा – का हे? पलानी की ओर खिसकते हुये ही उसने सोहित की बात सुननी शुरू की और खत्म होते होते भीतर पहुँच गया। चुपचाप छोटकी सन्दूक से पियरी निकाला और सोहित को नरखा ऊपर करने का इशारा किया। कमर के कुछ नीचे से शुरू कर पेट से कुछ ऊपर तक बहुत सफाई से लुग्गा लपेट नरखा नीचे कर छिपा दिया – अब्बे नाहींs, साँझि के अपने भउजी के दे दीहs। अब जा!...

 

...समय बीत चला। खदेरन और मतवा के मनमेल बीच पड़ी किनकिनी सीपी बीच रेत सी हो गई – दोखी मोती। बेदमुनि का वात्सल्य ही उन्हें जोड़े हुये था, कभी कभी साथ हँसा भी देता था लेकिन अकेली मतवा स्वयं को आगम से सामना करने के लिये तैयार करती पत्थर होती गयी और खदेरन घिसते चन्दन - घिसें, लगें, बहें, निरर्थक, चुप कर्मकांडी।

भउजी की कांति बढ़ती गई और साथ ही देवर पर किये जाने वाले हास्य कटाक्ष भी मारक होते गये। ढेबरी की रोशनी में भउजी को देखता सोहित तो पुर्नवासी होती और दिन के उजाले में देखता तो गरहन। उस के ऊपर चिंता का भार बढ़ता गया। ऐसे में वह और जुग्गुल एक बन्धन बँधते गये – जाल में सोहित और कूट रस्सी जुग्गुल के हाथ। मन्नी बाबू घोड़े के साथ तरक्की करते गये।

सुनयना की किलकारियों पर रमइनी काकी की जब तब लग जाने वाली नजर गाँव भर में परसिद्ध हो चली। परसू पंडित की मलिकाइन सुनयना को हमेशा टीके रहतीं, कजरवटा से लगाये तीन निशान – एक माथे और दुन्नू गाल।

बाकी गाँव में वैसे ही अमन चैन। गोपन पाप, पवित्तर बैन।

 

...तिजहर को कोख में धीमी धीमी पीर शूरू हो गयी। नैसर्गिक समझ ने बता दिया कि वक्त हो गया है। भीतर की जुड़ान को हवा होते अनुभव करती भउजी सुख और दुख से परे हो कठिन उद्योग में लग गई।

 घर की मनही बाहर ले भागे वेदमुनि के पीछे दौड़ती मतवा की दीठ बहकी और पाँव जहाँ के तहाँ जम गये। सोहित की बैठकी की पलानी पर फैलाई गयी पियरी रह रह उड़ रही थी। खदेरन ने देखा जैसे मतवा के चेहरे से सारी ललाई निचुड़ गयी हो – पांडुरोगी सी! अकस्मात कुघटना समझ सँभालने को उन्हों ने हाथ बढ़ाया और मतवा की तर्जनी उठ गई – हम सँभारि लेब! रउरे चिंता जनि करीं। आवाज थी या सिर पर पत्थर! खदेरन उपेक्षा और अनादर की चोट से एक झटके में सब समझ गये।  

घड़ी भर बाद खेत से लौटते जुग्गुल ने पियरी को पहचाना और उसकी आँखें सिकुड़ती चली गईं – मन्नी बाबू, हमार एहसान बड़हन होखले पर बुझबs! (जारी)