रविवार, 30 दिसंबर 2012

बलात्कार सम्बन्धित विधि में सुधार हेतु न्यायमूर्ति वर्मा समिति को सुझाव

तीन सदस्यीय समिति:
अध्यक्ष: न्यायमूर्ति जगदीश शरण वर्मा, पूर्व मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय
अन्य सदस्य: न्यायमूर्ति लीला सेठ, पूर्व मुख्य न्यायाधीश, हिमांचल प्रदेश उच्च न्यायालय
                 श्री गोपाल सुब्रमनियम, पूर्व महान्यायवादी  
शासन द्वारा घोषित उद्देश्य: संगीन यौन आक्रमणों के मामलों में त्वरित और कठोरतम अभिवर्द्धित दंड प्रदान करने के लिये वर्तमान विधि की समीक्षा और संशोधन के लिये सुझाव  
समिति का आह्वान: स्त्रियों के विरुद्ध जघन्य (of an extreme nature) यौन आक्रमणों के मामलों में त्वरित जाँच, अभियोजन, सुनवाई और अपराधियों के लिये कठोरतम अभिवर्द्धित दंड सुनिश्चित करने के लिये आपराधिक और सम्बन्धित विधि में सम्भावित संशोधन सम्बन्धित अपने विचार, ज्ञान और अनुभव सामान्य जन और विशेषकर प्रसिद्ध न्यायवादी, विधि विशेषज्ञ, अधिवक्ता, अ-सरकारी संस्थायें, स्त्री समूह एवं नागरिक समूह हमें भेजें।
                          ई मेल : justice.verma@nic.in
                     फैक्स: 011 213092675
                     अंतिम तिथि: 05/01/2013
वर्तमान में बलात्कार के लिये अधिकतम दंड: आजीवन कारावास
  
उनकी सीमायें: यह समिति प्रशासनिक आदेश द्वारा गठित है जिसके सुझाव मानने को सरकार बाध्य नहीं है। यह जाँच आयोग विधि, 1952 के तहत गठित जाँच आयोग नहीं है।

प्रशासनिक सीमायें: प्रशासन और दंड तंत्र के कारक स्वार्थ, तमाम जटिलताओं और कटु सचाइयों के कारण विधिक व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं चाहते। यथास्थितिवाद प्रशासन का मूल मंत्र होता है।
हमारी सीमायें: सरकार हमने चुनी है। समाज हमसे है। जो दिख रहा है, वह हमारा प्रक्षेपण मात्र है। सामाजिक और वैचारिक परिवर्तन एक दिन में नहीं होते।
हमारी आशा और शक्ति: तंत्र अच्छे लोगों के कारण चल रहा है। तंत्र में ऐसे जन हैं जो स्वस्थ और सार्थक परिवर्तन चाहते हैं। वे हमारी ओर से पहल की प्रतीक्षा करते हैं।

नृशंसता, योजनाबद्ध अत्याचार एवं क्रूरता की सारी सीमाओं को पार कर घटित दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले में जन प्रतिक्रियायें अधिकतर प्रतिहिंसात्मक रही हैं। व्यापक जन आक्रोश में यह स्वाभाविक है। कुछ ऐसे दंड सुझाये गये:
1. अपराधियों के यौनांग काट कर उनके आगे ही कुत्तों को खिला दिया जाय।
2. मृत्युदंड नहीं, उन्हें नपुंसक कर चेहरे पर निशान लगा समाज में उपेक्षित घूमने के लिये छोड़ दिया जाय।
3. उनके अंग भंग कर दिये जायँ।
4. उन्हें सार्वजनिक स्थान पर हिंसक भीड़ के आगे न्याय के लिये छोड़ दिया जाय
5. उनके साथ वही किया जाय जो उन लोगों ने पीड़िता के साथ किया ... इत्यादि।
न्यायतंत्र आक्रोश और प्रतिहिंसा में काम नहीं करता। जिसे न्याय करना है उसे निश्चित ही मानवीयता के एक अपेक्षाकृत ऊँचे स्तर पर निरपेक्ष रूप से रहना होगा। प्रतिहिंसात्मक दंड के जो विधान स्मृतियों या इस्लामी शरिया में सुझाये गये थे, वे अपने युग की सचाई के सापेक्ष थे जब कि तंत्र इतना सुगठित, सुव्यवस्थित और जटिल नहीं था और दंड विधान में जन भी सम्मिलित होता था, चाहे पत्थर मार मार जान लेना हो या कटते हुये सिर पर किलकारियाँ भरनी हों। उस समय सत्ता और तंत्र के दंड के भय को सुदृढ़ करने के लिये ऐसे काम किये जाते थे लेकिन इस युग में किसी भी सभ्य समाज में यह सम्भव नहीं। इस युग की संवेदनायें भिन्न हैं, उनके कारक बहुल हैं, उपादान जटिल हैं। चिह्नित नपुंसक अपराधी अप्राकृतिक यौन आक्रमणों और हिंसा में लिप्त घूमेंगे और आम जन कुछ नहीं करेंगे!
इस्लामी शरिया के जो बर्बर विधान आज जिन कतिपय लोगों को बेहतर लग रहे हैं, वे उस समाज की सामान्य बर्बरता को भूल रहे हैं। वे यह भूल रहे हैं कि इस लोकतांत्रिक समाज में भी उनके घेट्टों को देखना और उनसे गुजरना एक बीते युग से गुजरने जैसा होता है।  
तो क्या हम ऐसे ही झेलते रहें? हर पल भय में, आतंक में रहें कि घर से बाहर निकली स्त्री के साथ जाने क्या हो? घर में भी कहाँ  सुरक्षित है? अपराधी तो वर्तमान विधान से डरने से रहे! ... नहीं।
दंड में अपराध के प्रति जो निषेधात्मक और निवारक भय का गुण है, उसके दो पक्ष हैं:
(1)   दंड की सुनिश्चितता यानि एक निश्चित तार्किक समय सीमा में अपराधी दंडित हो जाय, कोई अपराधी न छूटे।
(2)   दंड की भयावहता यानि दंड इतना भयंकर हो कि उसकी स्मृति ही अपराध रोकने में समर्थ हो।
पुराने समय में दूसरा पक्ष होता ही था। पहला पक्ष इस पर निर्भर करता था कि सत्ता की पहुँच कितनी है और स्थानीय तंत्र कितना प्रबल, संवेदनशील और वर्ग चेतना से मुक्त। भूलवश या जानबूझ कर बिल्ली या गाय मार देने पर भी घर घर घूम कर भीख माँगना, प्रताड़ित होना आदि आदि धर्म आधारित समाज व्यवस्था के सामूहिक अनुशासन से जुड़े थे जिसमें कई परिस्थितियों में नर हत्या भी अपराध नहीं थी, स्वीकृत थी और गर्व का कारण भी। अब वह सब सम्भव नहीं।
आधुनिक शोध यह दर्शाते हैं कि यदि पहला पक्ष यानि दंड की सुनिश्चितता सुदृढ़ हो, बिना अपवाद के हो तो अपराध न्यूनतर होते चले जाते हैं। अपराधी हमेशा रहे हैं और रहेंगे, अपराध भी होते रहेंगे। उनकी संख्या अलबत्ता बहुत कम की जा सकती है और वह साध्य है। दूसरा पक्ष यानि दंड की भयावहता पहले पक्ष की पूरक होती है। यह ध्यान देने लायक है कि दंड कितना भी भयावह क्यों न हो, यदि वह सुनिश्चित नहीं है, यदि उससे बच निकलने के लिये तमाम राहें उपलब्ध हैं तो उसका कोई भय नहीं रह जायेगा, दुरुपयोग की सम्भावनायें अवश्य बढ़ जायेंगी।
तंत्र के अधिकारियों के अनुसार बलात्कार के लम्बित मामलों में लगभग तिहाई चौथाई ऐसे हैं जिनमें आरोप फर्जी हैं। यह एक कटु सत्य है कि न्यायालय और जाँच एजेंसियों का अधिक समय इन्हीं में व्यर्थ होता है। संसाधनों की कमी के कारण और समूचे तंत्र के रोगी हो जाने की स्थिति में उन अधिकारियों का काम बहुत कठिन हो जाता है जो निष्ठापूर्वक न्याय दिलाना चाहते हैं। 
दंड की सुनिश्चितता के लिये देश भर में फास्ट ट्रैक न्यायपीठ स्थापित करने से सम्बन्धित याचिका तो है ही, लेकिन वर्तमान में जो दंड की मात्रा है, वह अपर्याप्त है। दंड की समीक्षा के लिये बनी न्यायमूर्ति वर्मा की समिति को मेरे सुझाव ये हैं:
(1)   यौन अपराध मामलों में विधि और न्यायतंत्र की भाषा सरल की जाय, इतनी सरल कि सामान्य शिक्षित जन भी उसे समझ सकें। वह भावगम्य, बोधगम्य हो। संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित सभी भाषाओं में विधि संहिता मूल रूप से लिखी जाय और वे ही पाठ न्यायालय में हर स्तर पर मान्य हों न कि अंग्रेजी अनुवाद। अंग्रेजी पाठ को ही प्रमाणिक मानने की अनिवार्यता समाप्त हो।
(2)   आठवीं कक्षा से यौन शिक्षा, यौन अपराध और दंड से सम्बन्धित पाठ अनिवार्य किये जायँ जो स्नातक की शिक्षा तक जारी रहें। समिति यदि इस सुझाव को अपने कार्यक्षेत्र में नहीं मानती तो भी इसे सम्पूर्णता का एक पक्ष मानते हुये इस पर विचार करे।
(3)  अप्राकृतिक यौन आक्रमण भी बलात्कार माना जाय।    
(4)   बलात्कार के अपराधी को औषधीय या अन्य विधि द्वारा यौन अक्षम कर दिया जाय और सश्रम आजीवन कारावास अनिवार्य कर दिया जाय। आजीवन कारावास का अर्थ 75 वर्ष की आयु प्राप्त होने तक या उससे पहले मृत्यु होने तक लिया जाय।
(5)   श्रम या कार्य का प्रकार और उसकी मात्रा इतनी हो कि उस आय से दो व्यक्तियों का अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार सामान्य जीवन निर्वहन सम्भव हो सके। उस आय का अर्द्धांश पीड़ित को या पीड़ित पुनर्वास से सम्बन्धित आम कोश में दिया जाय।
(6)   बलात्कार का अपराध एक अलग श्रेणी हो जिसमें 14 वर्ष की आयु के अपराधी को भी वयस्क समान दंड मिले। इसके लिये बाल अपराध संहिता में संशोधन किया जाय। इस आयु में यौन सक्रियता अब वास्तविकता है। यौन चेतना सुनिश्चित करने के लिये (2) में सुझाव दिया गया है।   
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मूलत: यह आलेख 5 जनवरी को प्रकाशित किया गया था लेकिन सन्दर्भ पुराना हो जाने के कारण पीछे कर दिया गया। 

8 टिप्‍पणियां:

  1. गम्भीर चिंतन से निसृत सुझाव!! इन सुझावों का समर्थन!!

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  2. यौन अपराधों पर यह एक संतुलित आलेख है। हर समाज में अपराध होते हैं, प्रतिशत का फ़र्क हो सकता है। अपराध को कम करने के प्रयास किये जा सकते हैं, वह करने भी चाहियें। वर्तमान कानून के बारे में एक प्रचलित थ्योरी यह है कि ’बेशक सो अपराधी छूट जायें, एक भी निर्दोष दंड न पाये’ जबकि व्यवस्था ऐसी होनी चाहिये कि एक भी निर्दोष दंड न पाये और एक भी अपराधी न छूटे।

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    1. agree with this a hundred percent " प्रचलित थ्योरी यह है कि ’बेशक सो अपराधी छूट जायें, एक भी निर्दोष दंड न पाये’ जबकि व्यवस्था ऐसी होनी चाहिये कि एक भी निर्दोष दंड न पाये और एक भी अपराधी न छूटे।"

      the problem is the implementation... theory is fine ...

      for the life of me, i am unable to think of a way out of this mess we have put ourselves in - we just seem to be sinking deeper ....

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  3. गंभीर चिंतन ... सोचने को मजबूर करती पोस्ट ...
    आपके हर बिन्दु से सहमत ....

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