सोमवार, 19 अगस्त 2013

पिता की सीख

जो दिखता है, जो मिलता है वह अवशिष्ट है, उच्छिष्ट। उत्कृष्ट का भोग हुआ तब ही वह बचा और हमें मिला जिसे हम इतना चाहते हैं, मान देते हैं।

 तुम्हें प्रार्थना के विश्राम की आवश्यकता है। एकाध घड़ी बुद्धि को परे रख समर्पित हो। वह वैसा ही होगा जैसे कुँये से पानी खींचते खींचते रुकना, साँसों को सम करना। तुम्हारी साँसें कुँये की जगत पर पड़ी रस्सियों के निशान से नहीं, हाथों के छालों से जुड़ती हैं।

सोमवार, 12 अगस्त 2013

अग्निपरीक्षा - 2

पहले भाग से आगे ... 

“कैसे पति हो राम?”
मन्द स्मित राम के मन में मेघ घिर आये – आर्ये! बस यही प्रश्न बचा था। कैसे पिता हो दशरथ? कैसी माँ हो सुमित्रा? कैसी पत्नी हो कैकेयी? कैसे भाई हो भरत? हर प्रश्न रुधिर पिपासु नाराच की तरह राम को घायल करता रहा है। जैसे प्रश्न संबंधित जनों के लिये न हो बस राम के लिये हों, सबका लक्ष्य एक – राम।

 आज यह क्या पूछ लिया ऋषि? क्या उत्तर है मेरे पास? वन वन भटकता सुरक्षा के लिये चिंतित राम उसे मातृत्त्व का सुख तक न दे सका जिससे पशु तक वंचित नहीं। कन्द मूल फल संचयन की टोकरी में निषिद्ध औषधियाँ! मौन से मौन संवादित – मेरे राम! अभी उपयुक्त समय नहीं है। अहेरियों का आखेट करने में संतान बाधा होगी। सब जानते हुये भी सीता को नहीं रोक सका राम। सीते! कितनी ऋतुयें व्यर्थ हुईं?

“कहाँ खो गये वत्स?” क्षितिज को निहारती सूखी आँखें लिये राम क्या उत्तर दें? लक्ष्मण ने बचा लिया – भैया! पाद्य अर्घ्य की सामग्री प्रस्तुत है...

... शिलायें आराधक को आधार देती हैं, ऊँचाई देती हैं कि वह वह देख सके जो और नहीं देख पा रहे। राम के सामने  चित्रावली चलने लगी!
गहन अमावस्या में सुदूर उत्तर में एक शिला पर बिठा कर कभी विश्वामित्र ने दोनों भाइयों को वह दिखाया था जो तम से परे था।
आनुष्ठानिक अभिचार की वह शिला जिसकी साखी राजा जनक एक नागकन्या सीता को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने के लिये विवश हुये, राम की प्रेमप्रतिज्ञा का आधार बनी। सीता के लरजते नेत्र जैसे राम की आँखों की पुतलियाँ बन गये!

फिर तो दाशरथि राम भार्गव राम की उस परशु शिला को भी भेद गया जिसकी ओट जनक ने वह शिवयंत्र सुरक्षित रखा था जिससे रावण का नाश हो सकता था। वीर्यशुल्का सीता उस नरशार्दुल की संगिनी होने वाली थीं जो उस यंत्र का संधान कर सकता था। जाने कितनी आशायें टूटी थीं उस दिन! नागों का प्रतिशोध भाव, जनक का प्रशांत निरपेक्ष प्रतीक्षा भाव और भार्गव राम का गर्व भी कि दशानन वध होगा तो उसी यंत्र से और कोई दूसरा युवा भार्गव सा शक्तिसम्पन्न हो ही नहीं सकता था जो सन्धान कर सके, दशानन अमर है!; सब टूटे। मनुष्य द्वारा गढ़े व्यापार कभी कभी उस पर ही चढ़ बैठते हैं। कालभंगुर शिवधनु और क्या था?

जनस्थान की वह सामरिक समर्थ शिला जिसकी आड़ ले राम ने एक पूरा रक्ष स्कन्धावार ही नष्ट कर दिया, वह शिला भी जिसके पीछे छिप राम ने बाली का वध किया। आततायियों का उन्मूलन उन्हीं की विधि, आर्यरीति का उल्लंघन कर राम ने युगांतर कलंक माथे लिया।... 
         
... भविष्य के लिये उदात्त यातना के तीन सागर दिनों  को सुरक्षित कर देने वाली उस शिला पर आज ऋषि दम्पति बैठे हैं जिस पर कभी राम के नेत्रों से झरते प्रकाश ने विजय मंत्र उद्घाटित किये थे। थके पाँवों को राहत दे राम ने लोपामुद्रा की ओर देखा जैसे अनुमति माँग रहे हों। वृद्धा ऋषि के समूचे अस्तित्त्व पर उल्लास उग आया – कैसे पति हो राम? बुलाओ उसे, पुकारो राम, पुकारो! राम का रोम रोम नीरव पुकार कर उठा – सीते!

... सीता आयेंगी? पहले कौन राक्षस अपहृत स्त्री वापस आई? किस पिता, भाई, पति, पुत्र ने उसका स्वागत किया? किस माँ ने उसके लिये आँचल पसारे?  स्वागत की छोड़ो, उसे वापस लाने को किसने उद्योग किया राम? क्यों नहीं किया राम?
तुम्हारा साहस उद्योग प्रणम्य है राम लेकिन भावी अग्निपरीक्षा का जो भय वर्षों तक रक्ष अनाचार से पृथ्वी को मेदिनी बनते देखता रहा, वह क्या इतना आसान है?

 महासंग्राम तो अब होना है राम! प्रतिपक्ष में रक्ष नहीं, मानवसंस्कृति है आर्य! शस्त्रास्त्र प्रहार नहीं होने, रुधिर नहीं बहना, इसीलिये हर व्यक्ति योद्धा है। मानव सब खोते रहे, जड़ता खोने से रहे। जहाँ खोने के लिये कुछ और न हो वहाँ सब योद्धा हैं, कैसे निपटोगे राम? बूढ़े ऋषिदम्पति के बल पर? ...


महर्षि के नेहसंबोधन से राम चेत गये – यह दक्षिणापथ का सागर तट है राम! उत्तर के मानवों की नहीं; यहाँ वानर, ऋक्ष, किरात, नाग, कोल, भील, राक्षसादि की सभा है। सीता आ रही है राम! भूमितनया नागकन्या सीता का स्वागत करो। कैसे करोगे?  
(जारी)      

रविवार, 11 अगस्त 2013

अग्निपरीक्षा - 1

तेज चलो लोपा! हमें सागर तट तक शीघ्र पहुँचना है।“
“वृद्धावस्था है अगस्त्य! शक्तियाँ क्षीण हो चली हैं।“
“दायित्त्वों से मुक्ति होने को है देवी! राम समर में विजयी हुये हैं।“
“थोड़ा ठहरो। तुम्हारी लोपा अब चल नहीं सकती।“
घने शमी वृक्ष की छाँव में दोनों रुक गये। अपनी गोद में लोपा के थके पैर ले ऋषि अगस्त्य सहलाने लगे। कितनी प्रतीक्षा कराई राम ने विन्ध्य के पार आने में! उसके पश्चात रक्ष सत्ता को संहारने में कितना विलम्ब किया!!  आत्मलीन अगस्त्य की दृष्टि मुग्ध निहारती लोपामुद्रा पर पड़ी।
“ऐसे क्या देख रही हो देवी? सृष्टि के विभिन्न प्राणियों से अंग सौन्दर्य ले कर रचा हुआ तुम्हारा सौन्दर्य अब भी चकाचौंध करता है।“  
“कह लो अगस्त्य! अब तो न तुम कहीं जा सकते हो और न लोपा तुम्हें रिझाने को ऋचायें गढ़ सकती है। गोधूलि बेला में एक दूसरे की आँखों की टिमटिमाहटों में ही प्रकाश मिलेगा। तुम्हें ऐसे पादाति और शिष्यों के बिना जाने की क्यों सूझी?“
“रावण से निर्णायक युद्ध के पहले राम का आदित्य संस्कार करने हम अकेले ही गये थे। अब उन दम्पति का अग्नि संस्कार करना है। मृत देहों का नहीं, तपी हुई कुन्दन आत्माओं का संस्कार करना है। उसके लिये सुपात्र हम दोनों के अतिरिक्त कोई नहीं। भीड़ का क्या काम? वहाँ तो होगी ही। यह पैदल चलना हम दोनों का अंतिम तप है।“
“उसके पश्चात क्या होगा अगस्त्य!”
“चिर विश्राम देवी! चिर विश्राम। दूर नक्षत्रों में कहीं हम टिमटिमायेंगे। आने वाली मानव संतानें हम दोनों को लेकर अगणित कथायें कहेंगी। लोपामुद्रा और अगस्त्य, सीता और राम जन स्मृति से कभी लुप्त नहीं होंगे लोपा!”
“यह लुप्त और लोपा की तुमने अच्छी युति लगाई अगस्त्य! मैं तो लुप्त होने से रही। तुम्हारे साथ सर्वदा रहूँगी।”
“तुम्हें तो वन की प्रजा वरप्रदा भी कहती है। तुम तो सर्वदा वरदा हो।“
अगस्त्य ने रुक कहा -  यह तो ऋचा जैसी हो गई। गायत्री छ्न्द में इसे साथ साथ कहें?
 दोनों समवेत हँसे।
“वह ऋचायें सुना दो जो तुमने मुझे लुभाने को रची थीं।“ अगस्त्य के स्वर में दाम्पत्य प्रेम का आग्रह था।
“चली चलाई की बेला में उनका क्या काम?” लोपा के श्वेत केश समृद्ध वृद्ध मुख पर लाज की लाली आ फैली।
“बस तुम्हारे मुख से सुनने को मन कर रहा है। विश्राम विरम जायेगा।“
लोपा सचेत हो गईं और सहज स्वर में गा उठीं – पूर्वीरहं शरद: शश्रमाणा ....
नदस्य मा रुधतः काम आगन्नित आजातो अमुतः कुतश्चित। 
लोपामुद्रा वृषणं नी रिणाति धीरमधीरा धयति श्वसन्तं॥ 
“साधु देवि! साधु!! तुम्हारे साथ मेरा जीवन सफल हुआ। हमारा धैर्य ही हमारा काम, हमारा प्रेम बन गया। हमारी साँसें एक हो गईं।“
लोपामुद्रा के स्वर में कौतुक उतर आया। बोलीं,“परचित्तानुरंजन तो कोई तुमसे सीखे! पूछोगे नहीं कि मेरा जीवन भी सफल हुआ या नहीं?”  
“उसका सफल होना जानता हूँ तभी तो कह पा रहा हूँ। अकेले अगस्त्य या लोपामुद्रा किस काम के? चलें अब? सीता और राम को हमदोनों की आवश्यकता है।”
चलते हुये ऋषि दम्पति के ऊपर मेघों ने छाँव कर दिया।
रक्ष संस्कृति के पराभव के पश्चात सात समुद्रों से घिरी पृथ्वी अब मुक्त थी। रावण की मृत्यु ने जो निर्वात जना था उसे शीघ्र पूरना अति आवश्यक था। वशिष्ठ संकीर्ण थे। नवसृजन करने वाले और अवैदिकों को भी वैदिक धारा में सम्मिलित करने वाले विश्वामित्र संन्यासी हो चले थे। राम को इस महत दायित्त्व योग्य दीक्षित कर सके, अगस्त्य के अतिरिक्त किसी में यह सामर्थ्य नहीं थी। विजयी राम को संस्कृति का नवसंस्कार करना था जो कोल, भील, किरात, वानर, ऋक्षादि को वैसे ही अपनी गोद में स्थान दे सके जैसे देव, मानव, दानव और यहाँ तक कि राक्षसों को भी देती आई थी। राक्षसों ने तो उन्हें आखेट योग्य पशुओं से इतर नहीं समझा और विभीषण निस्तेज था।
शीघ्र पहुँचो अगस्त्य! इसके पहले कि कोई अनर्थ हो जाय – उनके कदम तेज हो चले। साथ चलती ऋषि लोपामुद्रा समझ गईं कि उन्हें अब टोकना उचित नहीं। लोपामुद्रा को सीता और राम के साथ दण्डक वन में बिताये तीन दिनों की स्मृति हो आई।
...राक्षसों से संघर्ष की योजना बनाते अगस्त्य और राम। कौतुक वश लोपामुद्रा ने सीता से कहा था – लगता है जैसे मित्र और वरुण पुन: सृजन उद्योग में लग माता बनना चाह रहे हैं।
सीता ने उत्सुकता और आश्चर्य के साथ पूछा,"दो पुरुष माता?" 
वृद्धा लोपा ने उत्तर दिया,"सीमाओं को पार कर मित्रता और अनुशासन के साथ जन जन को उद्योगी बनाने वाले ऋषि अगस्त्य को मित्र और वरुण की संतान मैत्रावरुण भी कहा जाता है। लोक मनीषियों का ऐसे भी पुनर्जन्म करा उन्हें पारलौकिक बना देता है ... वैसे पुरुष क्या जानें मातृत्त्व?" उनका स्वर विनोदी हो चला था।    
सीता मुस्कुराई थीं – माँ, मुझे भी उसका अनुभव नहीं।
"धैर्य रखो पुत्री! सौभाग्य मानो, संसार में बहुत कम लोगों को धैर्यतप के अवसर मिलते हैं।"
... 
सागर तट पर प्रतीक्षारत राम। समूचे संसार को रुलाने वाला रावण अब स्वजनों के आँसुओं में बचा था। आस पास के  जन, मुनि गण उसकी मृत्यु पर हर्ष प्रकट कर जा चुके थे और इन्द्र अपना युद्धरथ ले कर।  लक्ष्मण सहित वानर सेना के सभी मुख्य पदाधिकारी लंका नगरी में थे - पृथ्वी को पददलित करने वाले महापंडित का अन्तिम संस्कार होने तक सीता को लंका में ही राजकीय अतिथि की तरह रहना था। राम को कूटनीति और राजनीति के सूक्ष्म विधानों पर झुँझलाहट हो आई - आतताई, बर्बर, बलात्कारी राक्षस मृत्यु के पश्चात भी राजकीय सम्मान का अधिकारी था।
प्रसन्न विजयी सेना में कोलाहल अभी भी था। घर लौटने की तैयारी!  
तापस भरत, अयोध्या में सूनेपन को जी रही मातायें... सीते! इतना विलम्ब क्यों? जिस प्रतीक्षा का हर क्षण युग की तरह बीता था, अब वह असह्य हो चली थी।
...सीता, सीता – हम दोनों किसी तापस कुल में उत्पन्न हुये होते तो कितना अच्छा होता! ... अच्छा नहीं होता। कोई रावण तब भी उठा कर ले जाता और मैं कुछ न कर पाता। क्या होगा जब उसके विनाश का समाचार फैलेगा? यत्र तत्र सर्वत्र फैले राक्षस स्कन्धावार अब केन्द्रीय सत्ता के अनुशासन से मुक्त। उन्हें कौन नियंत्रित करेगा? भोगवादी रक्ष संस्कृति पुन: मेदिनी को निरीहों के रुधिर मेदा से न भर दे! शोषण, दासता और बलात्कार का भय पुन: समय का सत्य न हो! कैसे? स्त्री अपहरण को वीर भोग्या वसुन्धरा से जोड़ने वाली संस्कृति पुन: बली न हो सीते! कैसे?... विजय का आनन्द राम से सहस्रों योजन दूर था।...निज शरीर के घावों को निरखते राम आत्मलीन हो चले, स्मृति बह चली... 


देवास्त्र सौंपते ऋषि अगस्त्य। दशानन के जीवनरक्षण के दश अवसर समाप्त हो चुके हैं रघुनन्दन! अब राक्षस के संहार का समय है। यह ऐन्द्रास्त्र ब्रह्मा द्वारा निर्मित है। वही ब्रह्मा जिनके कारण आज रावण को अमर माना जाता है। इसी से उसका वध होगा। वह अभिचारी तांत्रिक भी है। उसे मारने के लिये शरीर के दश मर्मस्थानों पर एक साथ प्रहार करना होगा राघव! यह अस्त्र कर सकता है किंतु इसे चलाने के दिक्काल का निर्धारण तुम्हें स्वयं करना होगा। तुममें वह क्षमता है। यह ध्यान रखना कि रथी रावण पर प्रहार के लिये तुम्हें भी रथारूढ़ रहना होगा नहीं तो ऊँचाई का अन्तर मर्मस्थानों पर प्रहार नहीं होने देगा...
... रावण से निर्णायक युद्ध की घड़ियाँ निकट आती गईं और राम बेचैन होते गये। पदाति सेना। रावण कैसे मरेगा? रथ का प्रबन्ध किया जा सकता था लेकिन देवास्त्र को चलाने योग्य धनुर्यन्त्र को सँभाल सकने वाला रथ कहाँ मिलेगा?...
...अर्धरात्रि। इन्द्र को साथ ले मारुति खड़े हैं। उसे ऋषि अगस्त्य ने भेजा है।
“मेरे रथ और सारथी मातलि का उपयोग करो राम! ऋषि ने मेरी सारी दुविधायें हर ली हैं। तुम सक्षम हो। मैं अक्षम सुपात्र नहीं। मुझ भोगी का तप नष्ट हो गया है।  उस अस्त्र को चला सकने की योग्यता मेरे पास नहीं है। मेरे लिये बनाये गये अस्त्र से राक्षस का संहार करो।“
‘यह ऋषि सभी साधक तापसों से भिन्न है।‘
 राम को लगा जैसे अगस्त्य समर्थ पिता की भूमिका में थे – गहन संकटों में पुत्र के तारणहार। दशरथ पुत्र राम दशकन्धर का वध करेगा। अमानिशा बीत चुकी थी।...
सामने दशदिशा विजयी रावण।  दशग्रीव कहा जाता है इसे – दश मनुष्यों के बराबर शक्ति और मेधा। आश्चर्य नहीं कि अजेय रावण ने मनुष्यों को अपने सामने ‘कुछ नहीं’ समझा। इसे अमर तो इसके समर्थकों,  संरक्षकों और इतर समर्थों की मृत सोच ने बनाया है – महादेव, इन्द्र, सहस्रार्जुन, यम, वेदवती, बाली, अनरण्य ...इसके नाश के कितने ही अवसर आये लेकिन कभी नियति, कभी पुलस्त्य, कभी ब्रह्मा- बचता गया।...
“मुझे मारो राम! मुझे मारो।“ दूर से रावण का दशमुखी बर्बर अट्टहास युक्त स्वर दशों दिशाओं से आती प्रतिध्वनियों सा लग रहा है।
मन में अगस्त्य वाणी - राम! दिक्काल उपयुक्त है। ऊँचाई और दूरी दोनों पर्याप्त हैं। आदित्यों का स्मरण कर अस्त्र सन्धान करो। वह दशानन है तो तुम सूर्यवंशी। द्वादश आदित्य तुम्हारे साथ हैं राम! सन्धान करो।
केन्द्रित होने को कुछ समय चाहिये। संकेत – हनुमान ने रावण को उलझा लिया है।
 “मातलि! कुछ क्षण रथ को ऐसे ही घुमाते रहो। मुझे स्वयं को साधना है।“
आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान्।
सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः॥
हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान्।
तिमिरोन्मथनः शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डकोऽशुमान्॥
हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोऽहस्करो रविः।
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शङ्खः शिशिरनाशनः॥
व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजुःसामपारगः।
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवङ्गमः॥
आतपी मण्डली मृत्युः पिङ्गलः सर्वतापनः।
कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोद्भवः॥
नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तुते॥
"सृष्टि की समस्त शुभ शक्तियों! दाशरथि राम तुम्हारा आह्वान करता है। धरा को अत्याचार भार से मुक्त होना है, सन्नद्ध हो ....मातलि! सावधान!! अश्वों को स्थिर करो। निर्भय संकेत दो। स्वयं भी निर्भय सचेत रहो।“  
भीषण स्वर जैसे वज्र दामिनी की गड़गड़ाहट। इन्द्र सारथी मातलि स्तब्ध, समूचा युद्ध क्षेत्र स्तब्ध! अस्त्र के छूटते ही उसके दश भाग हो गये हैं।  रावण के हृदयक्षेत्र पर मुख्य आघात और बाकी भाग सटीक मर्मस्थानों पर! कवच छिन्न भिन्न हो चला है। मारुति की आनन्द भरी परुष किलकारी - रावण मारा गया राघव! रावण मारा गया!! ... 
...राम पुन: संज्ञस्थ हुये - मृत राक्षस जीवित से भी भयंकर है। कितने ही प्रश्न छोड़ गया। ऋषि! आप कहाँ हैं?
यह निर्वात और यह प्रतीक्षा। सीता से कब मिलना होगा? कैसे?
वरप्रदा! आप कहाँ है? सीता का स्वागत करने को क्या कोई स्त्री न होगी?
“हमें विलम्ब तो नहीं हुआ राम?”
अगस्त्य की वाणी ने राम को मुक्त किया। वह साष्टांग दण्डवत में भूमिशायी हो गये। उन्हें उठा कर गले लगाते हुये लोपामुद्रा ने पूछा – मेरी पुत्री सीता कहाँ है? अभी नहीं आई? कैसे पति हो राम?
(जारी) 

शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

पाँच उदासियाँ

(1)

हाथों में झुर्री भरे हाथ लेते
झुरझुरी होती है
और माँ कहती है –
छोड़ो, जाने दो
कितनी देर से रखी है आँच पर तरकारी
जल जायेगी।
मेरी आँखों में भरता है
मणिकर्णिका का धुँआ -
एक दिन
जल जायेगी।

 

(2)

बहुत शांति रहती है घर में
बेटे के वितान तले
पिता घुटता है
माँ सहमती है
बच्चे बढ़ कर ऊँचे तो होते हैं,
पसरते नहीं!

 

(3)
बच्चे की ज़िद पर
मोल ले आई है गृहिणी
पिजरे में चिड़ियों का जोड़ा।
गृही उन्हें उड़ा नहीं पाता
उसे रह रह कोंचता है
पिता का उसके घर को
‘गोल्डेन केज’ कहना।  
छाँव की चाह स्वार्थी
समय का क्या
रीत जायेगा
पिजरा रह जायेगा
सुगना उड़ जायेगा।

 
(4)
नहीं जाना चाहते वे
घूमने पोते के साथ,
बूढ़े पाँव
छोटे पाँवों के साथ चल नहीं पाते।
 जो साथ दे सकता है
वह तो कुर्सी तोड़ता है।

(5)
कमरे के तेज प्रकाश से अलग
बिरवे का संझा दिया
टिमटिमाता है।
गमले की तुलसी तले
माँ सावन सजायी है
मन्नतें गायी है।
हाड़ हाड़ समाये हैं
गठिया के कजरी बोल
जब चलती है
चटकते हैं।

मंगलवार, 6 अगस्त 2013

बारिश, मेन फ्रेम और आंटी

रात बरसी है, नहीं पता कि दुख में या सुख में लेकिन काशी धुली है। शैल संग हरी चाय का अरोमा और मानसूनी देश की प्रातकी गातीं सुवहन हवायें, तुम्हारा मनु बकुल छाँव की ओर खिंच चला है। सब धुला धुला मन भीगा सा है। टप टप बूँदें गिर रही हैं, उद्यान का चबूतरा भी भीगा है। बैठने से घुटन्ना पीछे गीला होगा, परवा नहीं। बनारस में वैसे भी किसी को देख कोई हँसने जैसा नहीं हँसता।

 

ऐसे बगीचे एक जैसे होते हैं – कॉलेज के पीछे महुवों वाला, विश्वविद्यालय के मुख्य भवन के आगे सीढ़ियों से बँधी झुकती धरा को निहारती वाटिका या यहाँ यह उद्यान! कोरे मन पर मसि चढ़ने लगी है – रुड़की वाली आंटी। उर्मी! तुम्हारी वही उँसास है – कैसे कैसे लोग आये तुम्हारे जीवन में, मनु! तुम भी न  ... ऐसे क्यों? न और ऐसे के विराम में जो होना चाहिये वह तुम्हारे मन में कभी आ ही नहीं सकता, कहना तो दूर की बात है  लेकिन मैं कहता हूँ, वही उपयुक्त है – ‘अभिशप्त हो’...

 

...रात है। बाहर घनघोर झड़ी है और मुझे प्रोजेक्ट की पड़ी है। हॉस्टल से मेन फ्रेम सेंटर दूर है। सॉफ्टवेयर रन हो तो कल के लिये डाटा मिले। पुरी सर को कल ही विदेश के लिये निकल जाना है, चूक गया तो पन्द्रह दिन व्यर्थ, एक्सटेंशन कौन दिलायेगा? जाऊँ भी तो कैसे? न छाता, न रेनकोट और न साइकिल – कुछ भी नहीं। इनके लिये जो धन चाहिये था वह बचता ही नहीं! आवारगी महँगी पड़ती है, सबके वश की नहीं।

  

स्नातक होने के बाद मनु प्रताप सिंह ने पुरुषोत्तम सिंह के सामने हाथ फैलाना छोड़ दिया था। आज भी यही लिख रहा हूँ – पुरुषोत्तम सिंह कह कर जो संतोष मिलता है वह पापा कहने से कहाँ मिलने वाला? प्रतिहिंसा है, अहंकार है, नकार है और सामने तुम्हारे वही प्रस्तर नेत्र हैं जिनमें मुझे यूँ व्यवहार करते देख युगों घना दुख जम जाया करता था। मैं कहता, कहो कि मैं ... और तुम्हारी हथेली में बस उठने की भंगिमा सी होती, शब्द घुट जाते, आँखें छलक उठतीं, सारा कलुष बह जाता लेकिन मेरी मुक्तमना! मैं मुक्त क्यों नहीं हो पाया? खोने से डरता था, इतना डरा कि स्वयं खो गया! एक लड़ी ही बची जो लिखा रही है और वह तुम हो।

 

... उस रात मैंने बरसाती में शर्ट पैंट, फ्लॉपी और प्रिंट आउट लपेटे और कुर्ता पाजामा पहने भीगते ही मेन फ्रेम सेंटर की ओर बढ़ लिया। सुनसान अन्धेरे में पाँवों में आँखें थीं लेकिन वे तो दूर कल्पित कैम्ब्रिज देखने की अभ्यस्त थीं – पुरी सर! मुझे कुछ नया करना है और यहाँ के लिये करना है। उनकी वत्सल आँखों में कृपायें मचल उठतीं और फिर वही रटा रटाया सा वाक्य – ऊपर वाला बड़ा वाला गोल्फबाज है। उसे पता है कि किस गेंद को कहाँ डालना है, हम तुम होते कौन हैं निर्णय लेने वाले? पहले प्रोजेक्ट तो पूरा करो।

 

जी करता कि चीख कर कहूँ वह दिल्ली से मेसाचुसेट जाने की राह में है और आप दर्शन बघार रहे हैं! उर्मी! उस समय तुमसे डाह नहीं, पापा चुनौती से होते – देखना, यह लड़की तुम्हारे लाल से बहुत आगे जायेगी। मैं आगे नहीं बस तुम्हारे साथ होना चाहता था। एक छत के नीचे एक से एक ही – इतनी बड़ी चाहना संसार में कोई नहीं कर सकता, न मुझसे पहले किसी ने किया और न मेरे बाद करेगा।

 

...चढ़ते गिरते लैंडस्केप को बिना छेड़े विकसित किये कैम्पस की जलधारायें किनारे की ओर थीं और मैं बीच सड़क भागता भीगता। सामने लो बीम में आती कार जैसे अन्धाई हो, सेंट्रल लाइब्रेरी के आगे ब्रेक के अनुशासन को नकारते फिसलते टायरों की चीख सुनाई दी और उसके बाद सन्नाटा ... उसे मैं सुन सकता था, मैं सब सुन सकता था – स्त्री स्वर है।

“तिवारी, गाड़ी ऐसे चलाते हैं! स्टूडेंट है। इस बारिश में, हॉस्पिटल...”

 मैंने हाथ खींच उन्हें वहीं बिठा लिया है – कुछ नहीं हुआ मुझे, मुझे कुछ नहीं हो सकता... आँख क्यों नहीं खुल रही? मुझे हॉस्पिटल या हॉस्टल नहीं मेन फ्रेम सेंटर ले चलिये। मेन फ्रेम चलो अनजाने तिवारी!

 

ललाट पर वही स्पर्श – माँ! आँखें खुल गईं। गाड़ी की तेज हेडलाइट में देखा और भीतर आश्वस्ति भरती गई।

“आंटी! मुझे चोट नहीं लगी है। आप चिंता न करें। मेन फ्रेम तक ड्रॉप दे दें... आप कितना भीग गई हैं!”

“Are you sure?”

“हाँ ... जाना जरूरी है वरना इस बारिश में कौन निकलता?”...

 

सेंटर के बाथरूम में मैंने कपड़े बदले। भीतर जाने तक तो आंटी देखती रहीं लेकिन बफर ज़ोन से भीतर हो ही रहा था कि उन्हों ने आवाज दी – क्या नाम है तुम्हारा?

“मनु, मनु प्रताप सिंह।“

”नाम से तो यहाँ के नहीं लगते ... कहाँ के हो?”

अटेंडेंट की बरजन को नकारती परिचय की गाँठें खुलती चली गयीं – तो बच्चे! तुम तो हमारे रिश्ते में निकले। भीतर की एयरकंडीशनिंग से आती शीतल बयार सी वाणी – कल सी बी आर आई आ जाना। मेरे हसबेंड डिप्टी डायरेक्टर हैं।  

 

...सिगरा उद्यान की टप टप को सुखाती उजास भर गई है। लक्स और उजला हो गया है। सुख इसे कहते हैं उर्मी! उसके लिये कोई समय स्थान नहीं होता, बस हो जाता है। रुड़की में एक माँ मिल गई। ... कल उनसे मिलने जाना है। अंकल गये और आंटी को कर्करोग है। लेकिन उन्हें ले कर दुखी नहीं हुआ जा सकता, वह आज तक कभी दुखी नहीं दिखीं और मैं जानता हूँ कि हुई भी नहीं होंगी।

 

“कैसे कैसे लोग आये तुम्हारे जीवन में मनु! तुमने सब ...”  

“तुम फालतू बहुत सोचती हो!”

 

मैं गिन रहा हूँ कि जीवन में कितनी बार इस तरह चोटिल हुआ कि आँखें बन्द हुईं और खुलीं तो आशीर्वादों के नील नभ उनमें भर गये!