तुम्हें प्रार्थना के विश्राम की आवश्यकता है। एकाध घड़ी बुद्धि को परे रख समर्पित हो। वह वैसा ही होगा जैसे कुँये से पानी खींचते खींचते रुकना, साँसों को सम करना। तुम्हारी साँसें कुँये की जगत पर पड़ी रस्सियों के निशान से नहीं, हाथों के छालों से जुड़ती हैं।
सोमवार, 19 अगस्त 2013
पिता की सीख
तुम्हें प्रार्थना के विश्राम की आवश्यकता है। एकाध घड़ी बुद्धि को परे रख समर्पित हो। वह वैसा ही होगा जैसे कुँये से पानी खींचते खींचते रुकना, साँसों को सम करना। तुम्हारी साँसें कुँये की जगत पर पड़ी रस्सियों के निशान से नहीं, हाथों के छालों से जुड़ती हैं।
सोमवार, 12 अगस्त 2013
अग्निपरीक्षा - 2
रविवार, 11 अगस्त 2013
अग्निपरीक्षा - 1
लोपामुद्रा वृषणं नी रिणाति धीरमधीरा धयति श्वसन्तं॥
सीता ने उत्सुकता और आश्चर्य के साथ पूछा,"दो पुरुष माता?"
वृद्धा लोपा ने उत्तर दिया,"सीमाओं को पार कर मित्रता और अनुशासन के साथ जन जन को उद्योगी बनाने वाले ऋषि अगस्त्य को मित्र और वरुण की संतान मैत्रावरुण भी कहा जाता है। लोक मनीषियों का ऐसे भी पुनर्जन्म करा उन्हें पारलौकिक बना देता है ... वैसे पुरुष क्या जानें मातृत्त्व?" उनका स्वर विनोदी हो चला था।
सीता मुस्कुराई थीं – माँ, मुझे भी उसका अनुभव नहीं।
तापस भरत, अयोध्या में सूनेपन को जी रही मातायें... सीते! इतना विलम्ब क्यों? जिस प्रतीक्षा का हर क्षण युग की तरह बीता था, अब वह असह्य हो चली थी।
"सृष्टि की समस्त शुभ शक्तियों! दाशरथि राम तुम्हारा आह्वान करता है। धरा को अत्याचार भार से मुक्त होना है, सन्नद्ध हो ....मातलि! सावधान!! अश्वों को स्थिर करो। निर्भय संकेत दो। स्वयं भी निर्भय सचेत रहो।“
(जारी)
शुक्रवार, 9 अगस्त 2013
पाँच उदासियाँ
(1)
हाथों में झुर्री भरे हाथ लेते
झुरझुरी होती है
और माँ कहती है –
छोड़ो, जाने दो
कितनी देर से रखी है आँच पर तरकारी
जल जायेगी।
मेरी आँखों में भरता है
मणिकर्णिका का धुँआ -
एक दिन
जल जायेगी।
(2)
बहुत शांति रहती है घर में
बेटे के वितान तले
पिता घुटता है
माँ सहमती है
बच्चे बढ़ कर ऊँचे तो होते हैं,
पसरते नहीं!
(3)
बच्चे की ज़िद पर
मोल ले आई है गृहिणी
पिजरे में चिड़ियों का जोड़ा।
गृही उन्हें उड़ा नहीं पाता
उसे रह रह कोंचता है
पिता का उसके घर को
‘गोल्डेन केज’ कहना।
छाँव की चाह स्वार्थी
समय का क्या
रीत जायेगा
पिजरा रह जायेगा
सुगना उड़ जायेगा।
(4)
नहीं जाना चाहते वे
घूमने पोते के साथ,
बूढ़े पाँव
छोटे पाँवों के साथ चल नहीं पाते।
जो साथ दे सकता है
वह तो कुर्सी तोड़ता है।
(5)
कमरे के तेज प्रकाश से अलग
बिरवे का संझा दिया
टिमटिमाता है।
गमले की तुलसी तले
माँ सावन सजायी है
मन्नतें गायी है।
हाड़ हाड़ समाये हैं
गठिया के कजरी बोल
जब चलती है
चटकते हैं।
मंगलवार, 6 अगस्त 2013
बारिश, मेन फ्रेम और आंटी
रात बरसी है, नहीं पता कि दुख में या सुख में लेकिन काशी धुली है। शैल संग हरी चाय का अरोमा और मानसूनी देश की प्रातकी गातीं सुवहन हवायें, तुम्हारा मनु बकुल छाँव की ओर खिंच चला है। सब धुला धुला मन भीगा सा है। टप टप बूँदें गिर रही हैं, उद्यान का चबूतरा भी भीगा है। बैठने से घुटन्ना पीछे गीला होगा, परवा नहीं। बनारस में वैसे भी किसी को देख कोई हँसने जैसा नहीं हँसता।
ऐसे बगीचे एक जैसे होते हैं – कॉलेज के पीछे महुवों वाला, विश्वविद्यालय के मुख्य भवन के आगे सीढ़ियों से बँधी झुकती धरा को निहारती वाटिका या यहाँ यह उद्यान! कोरे मन पर मसि चढ़ने लगी है – रुड़की वाली आंटी। उर्मी! तुम्हारी वही उँसास है – कैसे कैसे लोग आये तुम्हारे जीवन में, मनु! तुम भी न ... ऐसे क्यों? न और ऐसे के विराम में जो होना चाहिये वह तुम्हारे मन में कभी आ ही नहीं सकता, कहना तो दूर की बात है लेकिन मैं कहता हूँ, वही उपयुक्त है – ‘अभिशप्त हो’...
...रात है। बाहर घनघोर झड़ी है और मुझे प्रोजेक्ट की पड़ी है। हॉस्टल से मेन फ्रेम सेंटर दूर है। सॉफ्टवेयर रन हो तो कल के लिये डाटा मिले। पुरी सर को कल ही विदेश के लिये निकल जाना है, चूक गया तो पन्द्रह दिन व्यर्थ, एक्सटेंशन कौन दिलायेगा? जाऊँ भी तो कैसे? न छाता, न रेनकोट और न साइकिल – कुछ भी नहीं। इनके लिये जो धन चाहिये था वह बचता ही नहीं! आवारगी महँगी पड़ती है, सबके वश की नहीं।
स्नातक होने के बाद मनु प्रताप सिंह ने पुरुषोत्तम सिंह के सामने हाथ फैलाना छोड़ दिया था। आज भी यही लिख रहा हूँ – पुरुषोत्तम सिंह कह कर जो संतोष मिलता है वह पापा कहने से कहाँ मिलने वाला? प्रतिहिंसा है, अहंकार है, नकार है और सामने तुम्हारे वही प्रस्तर नेत्र हैं जिनमें मुझे यूँ व्यवहार करते देख युगों घना दुख जम जाया करता था। मैं कहता, कहो कि मैं ... और तुम्हारी हथेली में बस उठने की भंगिमा सी होती, शब्द घुट जाते, आँखें छलक उठतीं, सारा कलुष बह जाता लेकिन मेरी मुक्तमना! मैं मुक्त क्यों नहीं हो पाया? खोने से डरता था, इतना डरा कि स्वयं खो गया! एक लड़ी ही बची जो लिखा रही है और वह तुम हो।
... उस रात मैंने बरसाती में शर्ट पैंट, फ्लॉपी और प्रिंट आउट लपेटे और कुर्ता पाजामा पहने भीगते ही मेन फ्रेम सेंटर की ओर बढ़ लिया। सुनसान अन्धेरे में पाँवों में आँखें थीं लेकिन वे तो दूर कल्पित कैम्ब्रिज देखने की अभ्यस्त थीं – पुरी सर! मुझे कुछ नया करना है और यहाँ के लिये करना है। उनकी वत्सल आँखों में कृपायें मचल उठतीं और फिर वही रटा रटाया सा वाक्य – ऊपर वाला बड़ा वाला गोल्फबाज है। उसे पता है कि किस गेंद को कहाँ डालना है, हम तुम होते कौन हैं निर्णय लेने वाले? पहले प्रोजेक्ट तो पूरा करो।
जी करता कि चीख कर कहूँ वह दिल्ली से मेसाचुसेट जाने की राह में है और आप दर्शन बघार रहे हैं! उर्मी! उस समय तुमसे डाह नहीं, पापा चुनौती से होते – देखना, यह लड़की तुम्हारे लाल से बहुत आगे जायेगी। मैं आगे नहीं बस तुम्हारे साथ होना चाहता था। एक छत के नीचे एक से एक ही – इतनी बड़ी चाहना संसार में कोई नहीं कर सकता, न मुझसे पहले किसी ने किया और न मेरे बाद करेगा।
...चढ़ते गिरते लैंडस्केप को बिना छेड़े विकसित किये कैम्पस की जलधारायें किनारे की ओर थीं और मैं बीच सड़क भागता भीगता। सामने लो बीम में आती कार जैसे अन्धाई हो, सेंट्रल लाइब्रेरी के आगे ब्रेक के अनुशासन को नकारते फिसलते टायरों की चीख सुनाई दी और उसके बाद सन्नाटा ... उसे मैं सुन सकता था, मैं सब सुन सकता था – स्त्री स्वर है।
“तिवारी, गाड़ी ऐसे चलाते हैं! स्टूडेंट है। इस बारिश में, हॉस्पिटल...”
मैंने हाथ खींच उन्हें वहीं बिठा लिया है – कुछ नहीं हुआ मुझे, मुझे कुछ नहीं हो सकता... आँख क्यों नहीं खुल रही? मुझे हॉस्पिटल या हॉस्टल नहीं मेन फ्रेम सेंटर ले चलिये। मेन फ्रेम चलो अनजाने तिवारी!
ललाट पर वही स्पर्श – माँ! आँखें खुल गईं। गाड़ी की तेज हेडलाइट में देखा और भीतर आश्वस्ति भरती गई।
“आंटी! मुझे चोट नहीं लगी है। आप चिंता न करें। मेन फ्रेम तक ड्रॉप दे दें... आप कितना भीग गई हैं!”
“Are you sure?”
“हाँ ... जाना जरूरी है वरना इस बारिश में कौन निकलता?”...
सेंटर के बाथरूम में मैंने कपड़े बदले। भीतर जाने तक तो आंटी देखती रहीं लेकिन बफर ज़ोन से भीतर हो ही रहा था कि उन्हों ने आवाज दी – क्या नाम है तुम्हारा?
“मनु, मनु प्रताप सिंह।“
”नाम से तो यहाँ के नहीं लगते ... कहाँ के हो?”
अटेंडेंट की बरजन को नकारती परिचय की गाँठें खुलती चली गयीं – तो बच्चे! तुम तो हमारे रिश्ते में निकले। भीतर की एयरकंडीशनिंग से आती शीतल बयार सी वाणी – कल सी बी आर आई आ जाना। मेरे हसबेंड डिप्टी डायरेक्टर हैं।
...सिगरा उद्यान की टप टप को सुखाती उजास भर गई है। लक्स और उजला हो गया है। सुख इसे कहते हैं उर्मी! उसके लिये कोई समय स्थान नहीं होता, बस हो जाता है। रुड़की में एक माँ मिल गई। ... कल उनसे मिलने जाना है। अंकल गये और आंटी को कर्करोग है। लेकिन उन्हें ले कर दुखी नहीं हुआ जा सकता, वह आज तक कभी दुखी नहीं दिखीं और मैं जानता हूँ कि हुई भी नहीं होंगी।
“कैसे कैसे लोग आये तुम्हारे जीवन में मनु! तुमने सब ...”
“तुम फालतू बहुत सोचती हो!”
मैं गिन रहा हूँ कि जीवन में कितनी बार इस तरह चोटिल हुआ कि आँखें बन्द हुईं और खुलीं तो आशीर्वादों के नील नभ उनमें भर गये!