सोमवार, 2 जून 2014

बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 28

पिछले भाग से आगे...
राम राम बिहान में सोहित झटके से उठ बैठा। भुँइयाँ मत्था टेकने के बाद भउजी की कोठरी में झाँकने गया। उजास से अन्हार में आया था, बिछौना खाली सा दिखा। पलखत भर में आँखें अभ्यस्त हुईं और करेजा धक्क! उसने नजर इधर उधर दौड़ाई और डेहरी मे ऊपर भउजी की देह लटकती दिखी, समझ आते ही बैस्कोप की तरह से पिछला सब कुछ मन में घूमता चला गया और फिर कोर्रा हो गया। सीने में कहीं लुकारा भभक उठा, तीखा असहनीय कष्ट। चरम यातना छ्न भर में चीर गयी  – भ ...उ...जीsss। सोहित झपट कर लटकते गोड़ ऊपर उठाते डेहरी पर चढ़ा।
 जैसे तैसे कर देह को छुड़ाया ही था कि डेहरी भहरा गई। तोपना, जोड़ और मुँह सब खुल गये, घर की अनपुरना की देह लिटा ही पाया, निकलता धान देह को घेरने लगा। धरती, धान, धरनी घरनी सब जलछार! माटी की रक्षा के लिये इतना कुछ करने वाली भउजी लहास माटी माटी में उतान, देवी जइसन मुँह ओइसन के ओइसन!! सोहित धरती पर हाथ पीटता सिर पटकने लगा। आघात से उबरते मन में धुँधली सम्भावनायें उठने लगीं और नयन बरस पड़े। मन साफ होता गया, आँखें सूखती गयीं।
इसरभर आया तो ढोर नाद पर नहीं लगे थे। देरी होने पर मालिक खुद लगा देते हैं, क्या हुआ आज? उत्सुकता वश घर के भीतर हेरता घुसता गया। मलकिन की कोठरी में हिम्मत कर झाँका और जो दिखा वह अकल्पनीय था! उसके मुँह से आतंक भरी घिघियाहट निकली – ओs s मलिकाssssन, भुँइया घस्स से बैठ गया।  सोहित वैसे ही रहा जैसे पता ही न चला हो। इसरभर को सँभलने में थोड़ी देर लगी।...  
...पीठ पर हाथ और साथ के स्वर से चेत हुआ – मालिक! सोहित ने पहचाना – भइया!
“भइया त कब के सरगे गइलें। भइया नाहीं मालिक, ईसर। ई का हो गइल? मलकिनि ...”
सोहित ने सिर उठाया-ईसर? इसरभर??
सिर घूम रहा है ... भँवर है, नद्दी मइया का भँवर। सोहित ने नाव से हाथ बढ़ा भइया की देह उड़ेली है, अब भउजियो जइहें नद्दी में, माटी जाई पानी में? स्वाहा, सब जलछार??
टूटते मन ने बचने के लिये उस अभाव की ओर खुद को मोड़ा जिस पर अब तक सोहित का ध्यान नहीं गया था – भवनिया, केन्ने? का भइल होके??
शोकग्रसित करेजा संतान को ले चिंतित हुआ। सोहित किससे पूछे? खदेरन पंडित? ना! मतवा? ना! रमैनी काकी? ना!
बस एक राह – जुग्गुल काका। बूड़त बिलार कइन सवार।
भउजी की देह वैसे ही छोड़ वह बाहर की ओर भागा, इसरभर भी पीछे पीछे।
...
ज्वर मन्द पड़ गया था। मतवा का मन रह रह सोहित के यहाँ जा हाल चाल लेने को कर रहा था लेकिन पंडित अभी दिसा मैदान से लौटे नहीं थे। बेदमुनी को अकेले छोड़ जाना जाने क्यों ठीक नहीं लग रहा था। दतुअन कर मिट्ठा खा मतवा ने पहली घूँट ली और पानी लगा!
चौकी पर लोटा रख थोड़ा अगोरने लगीं कि मन्द पड़े तो पानी पियें, तभी नेबुआ झँखाड़ की ओर से शोर उठने लगा। मतवा से अब नहीं रुका गया। लबदी उठा लँगड़ाती घर से निकलीं तो रमैनी काकी की गोहार सुनाई दी – मतवा हो! बड़हन खेला भइल बा, दउरि आवs
राह में काँटे बिछा लहूलुहान करने वाली दौड़ कर खेला देखने का बुलावा दे रही थी! मतवा के पैर न आगे बढ़ें न पीछे जायँ!  
...
नेबुआ नियराया तो खदेरन को लोगों का घेरा दिखा। घेरे की भीतर से जुग्गुल की ऊपरी देह भर दिख रही – लाल बस्तर पहने वह किसी ओझा गुन्नी की तरह उछल रहा था। (जारी)           

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