भूमा
को सिञ्चित करते पर्जन्य को देख कर जो आह्लाद वैदिक ऋचाओं में बरसता है वह मानसूनी
जलवायु से ही साम्य रखता है, भैया काहें बुद्धि का दुरुपयोग कर रहे हो?
[यह विवेचना उस दावे को काटने के
लिये है जो इन्द्र द्वारा वृत्र के वध और वर्षा के प्रारम्भ को लेकर यह सिद्ध करने
का प्रयास करता है कि कथित आर्य मध्यएशिया के स्तेपी घास के मैदानों से भारत में
आये थे।]
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ऋग्वैदिक सत्रों में दो महाविभूति समूहों की बड़ी प्रतिष्ठा है। वे हैं नवग्व और दशग्व। ये दोनों बड़े रहस्यमय हैं। टिळ्क ने इनका प्रयोग यह दर्शाने में किया कि वैदिक जनों का आदि देश आर्कटिक क्षेत्र था जिसे कालान्तर में निरस्त कर दिया गया जब कि वामपन्थी भगवान सिंह इन्हें 'गौ' अर्थात धन, खनिज आदि की खोज में देश विदेश की यात्रायें करने वाले विशिष्ट आङ्गिरस कुल का नाम दे पहचानते हैं जो कि साहित्यिक साक्ष्यों से पुष्ट भी होता है (कभी सप्तर्षि आङ्गिरस कुल के ही थे! और सप्तर्षियों की प्रतिष्ठा जग जाहिर है)।
ऋग्वैदिक सत्रों में दो महाविभूति समूहों की बड़ी प्रतिष्ठा है। वे हैं नवग्व और दशग्व। ये दोनों बड़े रहस्यमय हैं। टिळ्क ने इनका प्रयोग यह दर्शाने में किया कि वैदिक जनों का आदि देश आर्कटिक क्षेत्र था जिसे कालान्तर में निरस्त कर दिया गया जब कि वामपन्थी भगवान सिंह इन्हें 'गौ' अर्थात धन, खनिज आदि की खोज में देश विदेश की यात्रायें करने वाले विशिष्ट आङ्गिरस कुल का नाम दे पहचानते हैं जो कि साहित्यिक साक्ष्यों से पुष्ट भी होता है (कभी सप्तर्षि आङ्गिरस कुल के ही थे! और सप्तर्षियों की प्रतिष्ठा जग जाहिर है)।
सम्भव है ये दो समूह वर्ष के दो और तीन उन महीनों को छोड़ यात्रा
करते रहे हों जिनमें जलवायु यात्रा योग्य न रहती हो।
छ: ऋतुओं से दो दो ले कर सामान्य जन के समझ योग्य तीन लगभग (+/- एक पक्ष) समूह बने: जाड़ा - हेमंत (नवम्बर दिसम्बर), शिशिर (जनवरी फरवरी); गर्मी - बसंत (मार्च अप्रैल), ग्रीष्म (मई जून); बरसात - वर्षा (जुलाई अगस्त), शरद (सितम्बर अक्टूबर)। दो, तीन महीनों से आगे आते परवर्ती काल में हम चातुर्मास अर्थात बरसात के चार महीनों में साधकों के एक ही स्थान पर निवास से परिचित होते हैं।
छ: ऋतुओं से दो दो ले कर सामान्य जन के समझ योग्य तीन लगभग (+/- एक पक्ष) समूह बने: जाड़ा - हेमंत (नवम्बर दिसम्बर), शिशिर (जनवरी फरवरी); गर्मी - बसंत (मार्च अप्रैल), ग्रीष्म (मई जून); बरसात - वर्षा (जुलाई अगस्त), शरद (सितम्बर अक्टूबर)। दो, तीन महीनों से आगे आते परवर्ती काल में हम चातुर्मास अर्थात बरसात के चार महीनों में साधकों के एक ही स्थान पर निवास से परिचित होते हैं।
शरद अर्थात सितम्बर विषुव के पश्चात सूर्य प्राचीन पितृयान (तब
का दक्षिणायन) में चले जाते और वसन्त विषुव अर्थात संवत्सर के प्रारम्भ के दिन से
देवयान में प्रवेश करते जो कि उत्तरायण माना जाता। तब देवयान की दो ऋतुओं बसंत और
ग्रीष्म को ले कर कभी समस्या नहीं रही। समस्या जाड़े के समय अर्थात पितृयान में है।
इसकी तीन ऋतुयें शरद, हेमंत और शिशिर श्रौत सत्रों के आयोजकों के
लिये कठिन थीं। शतपथ ब्राह्मण में सन्धि ऋतु वर्षा को शरद के साथ संयुक्त कर
पाँच ऋतुयें कर दी गईं और पुरुषमेध में पाँच अंगों से इन्हें पहचाना गया। शतपथ के
पुरुषमेध का प्रारम्भ पाँव से होता है और पाँव है ऋतुओं में सर्वश्रेष्ठ बसंत!
ऋग्वैदिक ऐतरेय ब्राह्मण में हेमंत और शिशिर ऋतुओं का समास कर
पाँच ऋतुयें बना ली गईं। स्पष्ट है कि 5x2=10 महीनों में ही श्रौत सत्रों की गतिविधियाँ
उठान पर रहतीं और बचे दो महीनों अर्थात एक ऋतु के बराबर समय में दशग्व सहित सब मिल
कर सत्र अवसान करते। एक पक्ष आगे और पीछे मिला कर विराम पर रहने वाले नवग्व भी
सम्मिलित होते। शतपथ का वर्षा और शरद को मिलाना उस ऋग्वैदिक कूट कथ्य से भी जुड़ता
है जिसमें इन्द्र वृत्र को मार कर सूर्य और वर्षा दोनों को नया जीवन देते हैं।
उल्लेखनीय है कि इन दो ऋतुओं को मिलाने पर सितम्बर का विषुव भी इस कालखंड में
पड़ जाता है। संवत्सर प्रारम्भ के लिये एक अन्य आदर्श कालखंड। आश्चर्य नहीं कि
पुरुषमेध में यह देह का केन्द्रीय भाग अर्थात कटि है। तो ऐतरेय ब्राह्मण के हेमंत+शिशिर का
क्या करें? विश्वामित्र का स्मरण करें जो कि नये संसार के साथ
वैकल्पिक संवत्सर के भी जन्मदाता माने जाते हैं।
स्पष्ट है कि वैदिक युग के श्रौत समाज में एक साथ अनेक पद्धतियाँ
प्रचलित थीं जिन्हें न समझने के कारण निरूपण में बहुत सी भूलें हुई हैं।