शनिवार, 15 अगस्त 2015

2. तमिळ देशे डाभिल संवादं - तमिळ राष्ट्रगान 'तमिळ ताय वाळत्तु'

स्वतंत्रता दिवस समारोह में राष्ट्रगान के पहले एक और गान के बजने और उसको उतना ही आदर देने पर मेरा माथा ठनका – और कहीं ऐसा नहीं देखा! मैं डाभिल को ढूँढ़ने लगा। मेरी छठी इन्द्रिय बता रही थी कि इसका सम्बन्ध अवश्य तमिळ बनाम आर्य विवाद से है और इस मामले में उलझाव सुलझाव के लिये डाभिल से अच्छा कौन हो सकता है? मैं ग़लत था। डाभिल छुट्टी मुबारक मना रहे थे। बगल में बैठे एक दूसरे सज्जन से पूछा तो उन्हों ने गीत का नाम बताया – तमिळ ताय वाळत्तु अर्थात तमिळ माँ का वन्दन आह्वान।

मैंने मन ही मन अपनी सराहना की कि अनुमान सही साबित हुआ और उनको खोदना शुरू कर दिया। ऐसा क्यों? राष्ट्रगान से पहले?? उन्हों ने कहा – यहाँ ऐसा ही है। मैंने प्रतिवाद किया – और कहीं नहीं, यहीं क्यों? वह भारतीय से तमिळ हो आये और चिढ़ कर बोले – हम लोग ऐसे ही हैं। तमिळनाडु में ऐसा ही है। We are much older than India. Long before India came into picture, Tamil nation was there!  मुझे लगा कि कोई इलहामी कह रहा है – पहले इलहाम, फिर हिन्दुस्तान, इलहाम सबसे पुराना मजहब है। आश्चर्य नहीं कि इस भूमि से कभी द्रविड़्स्तान की माँग उठी थी। पेरियार और जिन्ना ...   

...भटकते मन को राह पर ला बात बदल कर मैंने रुचि दिखाई – अच्छा! लेकिन यह गीत तो पुराना नहीं लग रहा! I mean tune is modern. किसने रचा यह गाना? तब तक मैं इंटरनेट सर्च में लग चुका था और वे भी। अपनी स्क्रीन देखते हुये वे बोले – मनोनमनियम सुन्दरम पिल्लई ने लिखा और धुन किसी अंग्रेज ने बनाई थी। Why should we give priority to that Hin…? कहते हुये वह रुक गये तो मैंने कहा – राष्ट्रगान तो बँगला में है। वे बोले – हाँ, वही मैं सोचने लगा – यह तो वैसी ही बात हुई कि सारा दक्षिण भारत मदरासी! इन्हें आम उत्तर भारतीय ठीक ही पहचानता है। अस्तु...

... अलप्पुळ में जन्मे पिल्लई महाशय आज केरल कहलाने वाले प्रांत के तिरुअनंतपुरम से जुड़े थे। पश्चिमी साहित्य, विज्ञान और तकनीक से खासे प्रभावित थे। उन्हों ने 1891 में लम्बा गीति काव्य रचा – मनोनमनियम। तमिळ राष्ट्रगीत ‘तमिळ ताय वाळत्तु’ इस काव्य का मंगलाचरण है। ‘भारतीय’ राष्ट्रगान और तमिळ राष्ट्रगान दोनों में समानतायें हैं – दोनों के रचयिता पश्चिमी रंग में रँगे थे और दोनों अंग्रेजी रचनाओं को बहुत सूक्ष्म और नायाब ढंग से अनुदित, परिवर्तित, सृजित आदि कर अपना नाम देने में महारत रखते थे।

पिल्लई जी ने लॉर्ड बुलवेर लिट्टन की लम्बी कविता ‘The Secret Way’ का पुनर्संस्करण कर उसे 'मनोनमनियम' नाम दिया और यह ग़जब घोषणा की,

 “Among the rich and varied forms of poetic composition extant in the Tamil language, the dramatic type, so conspicuous in Sanskrit and English, does not seem to find a place. The play here submitted to the public is a humble attempt to see whether the defect may not be easily removed.”

 तब तक मैक्समूलर की आर्य परिकल्पना 'बहुत पढ़े लिखों' में पैठ बना चुकी थी। भारोपीय भाषाओं की अग्रणी के रूप में छान्दस और साहित्यिक संस्कृत की चर्चा भी स्थापित हो चुकी थी। कांग्रेस के रूप में ‘उत्तर के आर्यों’ का वर्चस्व भविष्य के गर्भ में था लेकिन तमिळ गौरव को आँच लगने लगी थी। ऐसे में पिल्लई महाशय ने यह गीत रचा जिसमें सम्भवत: पहली बार, प्राचीन चोल-चेर-पांड्य शासकों की सामरिक साम्राज्यवादिता से इतर, साहित्यिक साम्राज्यवाद का बीज वपन किया गया। अपने मूल रूप में इस गीत में ‘आर्य’ भाषाओं के प्रति तिरस्कार तो था ही, परोक्ष रूप से उन्हें मृत और मिश्रित घोषित कर अक्षतयोनि पवित्र देवी के रूप में तमिळ भाषा को चिरयौवना बता उसे प्रतिष्ठित किया गया था।

 

 

நீராரும் கடலுடுத்த நிலமடந்தைக் கெழிலொழுகும்

சீராரும் வதனமெனத் திகழ்பரதக் கண்டமிதில்

தெக்கணமும் அதிற்சிறந்த திராவிடநல் திருநாடும்

தக்கசிறு பிறைநுதலும் தரித்தநறும் திலகமுமே!

அத்திலக வாசனைபோல் அனைத்துலகும் இன்பமுற

எத்திசையும் புகழ்மணக்க இருந்தபெரும் தமிழணங்கே!

பல்லுயிரும் பலவுலகும் படைத்தளித்து துடைக்கினுமோர்

எல்லையறு பரம்பொருள்முன் இருந்தபடி இருப்பதுபோல்

கன்னடமுங் களிதெலுங்கும் கவின்மலையாளமும் துளுவும்

உன்னுதரத் தேயுதித்தே ஒன்றுபல வாகிடினும்

ஆரியம்போல் உலகவழக்கழிந் தொழிந்து சிதையாவுன்

சீரிளமைத் திறம்வியந்து செயன்மறந்து வாழ்த்துதுமே

सब भाषाओं की जननी 
वन्दन हे तमिळ माता!


उफनता सागर वस्त्र सम लिपटा है ऊर्जस्वी महि से!
सुन्दर वदन, उदात्त भारतीय उपमहाद्वीप! 
दक्षिण! द्रविड़ देश विशेष!


सुन्दर तिलक है तुम्हारे सुन्दर वक्र ललाट
तिलक सुगन्ध से हर्षोन्मत्त संसार 
देवी तमिळे!

सब दिशाओं में भी फैलता तुम्हारा ऊष्म उत्साह।

 
अनेक जीवन! अनेक संसार, सब तुम्हारे रचे और तुमसे विनशे भी!
सर्व श्रेयस्करी रचयिते! तुम सदा बनी रहो,
जैसे कि अब तक हो!

 
कन्नड़, आनन्दी तेलुगू, तुलु के साथ नन्हीं प्यारी मलयालम!
सब तुमसे ही उपजीं! तुम्हारी सरजीं! तुमसे निकसीं! तुम्हारी रूप!   

आर्य भाषाओं से इतर,
जिन्हें न कोई बोलता, जो हैं गत और मृत।

 
तुम बनी रहो सदा चिरयौवना नवीन,
अकेली तुम बनी रहो शुद्ध भी सदा!
मैं प्रसन्न, तुम्हारी प्रशंसा में सुन्दर तमिळ सदा अक्षतयोनि!
मैं विस्मित अचरज भर! मैं तुम्हें सराहूँ, तुम्हें सराहूँ।
 
 

इस पृष्ठभूमि में स्वतंत्रता आन्दोलन तेज होता गया, उत्तर 'हाबी' होता गया और 'बौद्धिक' तमिळों की सामूहिक हीनता ग्रंथि बढ़ती गयी। मद्रास प्रेसीडेंसी में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सन् 1937 में पहली सरकार बनी तब राजगोपालाचारी ने विद्यालयों में हिन्दी का पठन पाठन अनिवार्य कर दिया। ई.वी. रामास्वामी पेरियार और जस्टिस पार्टी ने हिंसक विरोध का नेतृत्त्व किया। तमिळ भूमि में अब तक वायवीय रही भाषिक और जातीय घृणा का ठोस बीज बो दिया गया। 1940 में कांग्रेस सरकार के हटने पर ब्रिटिश सत्ता ने हिन्दी का 'आरोपण' हटा लिया।

स्वतंत्र भारत के संविधान में हिन्दी और अंग्रेजी को साथ साथ 15 वर्षों तक बना रहने वाला राजभाषा का दर्जा द्रविड़ दबाव समूहों के कारण दिया गया। 26 जनवरी 1965 से एक दिन पहले जब कि अंग्रेजी को हट जाना था, मदुरै में हिंसक विरोध ने जन्म लिया और देखते देखते पूरा तमिळ प्रांत सुलग उठा। दो वर्षों तक चले सिंचन के पश्चात चुनावों में फसल काटी विजयी द्रविड़ मुनेत्र कषगम पार्टी ने। तमिळ गौरव को पुनर्स्थापित करने के प्रयास तो बहुत पहले से जारी ही थे। 1966 में कुआलालम्पुर, मलेशिया में पहला विश्व तमिल सम्मेलन आयोजित किया गया। तब से चेन्नई, पेरिस. जाफना, मदुरइ, कुआलालम्पुर, पोर्ट लुइस, तंजावुर आदि नगरों से होते हुये नवें तक आयोजन हो चुके हैं।

इन्हीं के समांतर जून 1970 में  तमिळ ताय वाळत्तु को राज्यगान बना दिया गया। तमिळ 'राष्ट्रीयता' के उफान में इसे हर राजकीय अवसर पर भारतीय राष्ट्रगान से पहले गाया जाता है। इसका संगीत रचा प्रसिद्ध तमिळ संगीतकार 'मेल्लिसई मन्नार' MSV अर्थात मनयंगत सुब्रमनियन विश्वनाथन ने। चूँकि मूल गीत स्पष्टत: भाषिक अहंकार और तिरस्कार से भरा था इसलिये उसे संशोधित कर वैसे वाक्य निकाल दिये गये और गीत को संगीत अनुरूप करने के लिये पुनर्व्यवस्थित भी कर दिया गया:

நீராரும் கடல் உடுத்த நில மடந்தைக் கெழிலொழுகும்
சீராரும் வதனமெனத் திகழ்பரதக் கண்டமிதில்
தெக்கணமும் அதிற்சிறந்த திராவிட நல் திருநாடும்
தக்கசிறு பிறைநுதலும் தரித்தநறும் திலகமுமே!
அத்திலக வாசனைபோல் அனைத்துலகும் இன்பமுற,
எத்திசையும் புகழ்மணக்க இருந்த பெரும் தமிழணங்கே!
தமிழணங்கே!
௨ன் சீரிளமைத் திறம்வியந்து
செயல் மறந்து வாழ்த்துதுமே!
வாழ்த்துதுமே!
வாழ்த்துதுமே!


https://youtu.be/cfghItANhUU

भाषा के समांतर ही जातीय आन्दोलन भी चलते रहे। उनके लिये संस्कृत उन आक्रमणकारी आर्यों की भाषा है जिन्हों ने विश्व की सबसे पुरानी 'द्रविड़' सिन्धु सभ्यता का नाश कर दिया। हिन्दी उन ब्राह्मणों की आधुनिक हथियार है जो उत्तर से आते राजनैतिक वर्चस्व के अश्व पर सवार हैं। तमिळ से जुड़े किसी भी आन्दोलन के लिये कम्बन की रामायण सांस्कृतिक प्रतीक नहीं क्यों कि वह हिन्दू आर्य का प्रतिनिधित्त्व करती है। उसके स्थान पर सेकुलर तिरुक्कुराल को प्रतिष्ठा दी गयी है ताकि तमिळ जन को धार्मिक के बजाय 'भाषिक' और 'जातीय' आधार पर ध्रुवित किया जा सके।

पूरे इतिहास को जानने के पश्चात तमिळ को संस्कृत के प्रदूषण से मुक्त करने के अभियान, उत्तर भारतीय भाषाओं के प्रति तिरस्कार भाव और 'मृत' संस्कृत के प्रतिद्वन्द्वी के रूप में संसार की एकमात्र जीवित 'क्लासिक' भाषा के रूप में तमिळ की स्थापना के आन्दोलन के कारण समझ में आ जाते हैं। साथ ही यह भी कि ऐसी क्षति हो चुकी है जिसे ठीक नहीं किया जा सकता...

... डाभिल की अनेक बातें मन में चल रही हैं। पता चल गया है कि कहाँ से उधारी ली है! जाने मोइन-जो-दड़ो के जन मृत किस कारण हुये लेकिन ये तो सच हैं ही कि तमिळ राष्ट्रगान भी भरतवंशी आर्यों के नाम से ही इस देश को भारत பரதக் बताता है और एक दूसरे आर्य भरतमुनि के सृजन भरतनाट्यम से तमिळनाडु अपने को कभी अलग नहीं कर पायेगा, आर्य दूषण बना रहेगा!
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Although Tamil and a few other languages such as Greek, Latin and Sanskrit enjoy the status of classical language in the academic world thanks to their antiquity and rich literary heritage, Tamil is the first living language to be given the official status of a classical language. – Karunanidhi
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The politics of Tamilnadu during the twentieth century, as fascinating as it is complex, has been the subject of numerous studies. In Tamil politics, we find a textbook case of how issues of language and cultural identity can become prime factors in the political process.

I have already suggested that the hallmark of Tamil nationalism is vigorous opposition to linguistic and economic domination by the north. While no serious politician any longer argues that Tamilnadu should secede from the Indian union, the political rhetoric heard in Madurai during the conference week proved that language is far from a dead issue in the Tamil political scene.

All politicians who hold the slightest hope of success in Tamilnadu are obliged to take a strong stand against Hindi imposition, a sentiment that was voiced openly and loudly at the many ancillary conference events.
– From a Report on Tamil World Conference, 1981

(http://www.tamilnation.co/conferences/cnfMA81/index.htm)

जय हिन्द!

प्रातकी बेला है नहीं कोई आधी रात
देख सकता हूँ संसद में धुले अरमान
गटर में बहते हुये! और वे रेटरिक भी
जिनके डेसिबल हाउस में बना देते हैं
हर पीर आह को नक्कारखाने की तूती -  
आज गूँजेंगे लाल किले की प्राचीर
एक कंठ एक सुर – जय हिन्द ... हरामखोरों!

साठ जमा आठ साल पहले गाढ़ी थी वह रात
रूमानियत भरी नौटंकी ने जब की शुरुआत
सपनों, हर मुस्कान को मीठे शब्दों की चासनी में
लपेट उजली खादी में समेट देने की बेदाग
थाली ज्यों कर सफाचट और ले प्रचंड विस्तार
देखो! कहीं न कोई जूठन और न जुठवार
अगणित षंड एक डकार  - जय हिन्द ... जमाखोरों!

बैठती फफनाई फेनिल बियर खाली पेट
अन्न की कमी न धन की, कपड़े वास्ते न तन की
ऐसी मूढ़ता या मन की वा सूझे वतन की
रिरियाती प्रजा चढ़ाती चिपचिपी भेंट
चढ़ते सरकार ऊँचाइयाँ गिरह खुली लँगोट
तुम भी ऊँचे बढ़ो, चढ़ो और मढ़ो समेत
मुर्दे शेरों पर जिन्दा खाल – जय हिन्द ... नासपीटों!

उगा है सूरज दमक लिये उमस सतरंगी
मैंने माँगा है बस तीन रंग और नीला चार
उगो कि जैसे रँगती है उषा प्राची को, लिखो
सफेदी पर अपनी नियति और कर्म समाचार
श्रावणी हरियाली पर बरसे आँसुओं की धार

रो लो, जी भर रो लो कि आँखें होंगी साफ
पहचानने को ठग आचार – जय हिन्द ... नयनसुख अन्धों!  
     

  ~ गिरिजेश राव ~  

गुरुवार, 13 अगस्त 2015

तमिळ क्षेत्रे डाभिल संवादं - 1

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वे रामायण की एक बात के पक्के समर्थक हैं – बिना पंगे के कोई ‘आर्य’ दक्षिण नहीं आता।
इस प्रकार वह मुझे राम की परम्परा से जोड़ते हैं। आनन्ददायी सज्जन हैं क्यों कि उनके
पास सब कुछ कसौटी कसा है, शालिग्राम ऐसे ही नहीं कहा मैंने? उत्तर कभी नहीं गये
लेकिन इतना खूब जानते हैं कि वहाँ अभी भी बर्बर बसते हैं जिन्हें हगने तक का सहूर नहीं!
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उनका नाम मैं डाभिल रख देता हूँ, ‘द्रविड़’ से ध्वनि साम्य है और वैदिक युग की पवित्र वनस्पति दर्भ के भोजपुरी संस्करण डभिला से भी। शालिग्राम शिला सम वर्ण और The Core चलचित्र के Mr. Rat जैसा चेहरा अर्थात डी एम के के समर्थक ये सज्जन स्वयं को घनघोर द्रविड़ मानने के बावजूद ‘अनास’ नहीं, मेरी सूँड़ की तरह ही लम्बी नाक वाले हैं। देह बिचुके घेंवड़े जैसी है अर्थात पेट अच्छा खासा निकला हुआ किंतु ऊपर नीचे धड़ पतला।

जिस दिन से आया हूँ उस दिन से बहुत उत्सुक रहते हैं – मेरा दायित्त्व क्या है? कार्यभार कितना है और कौन सा? कहीं मैं अतिरिक्त तो नहीं? रामायण की एक बात के पक्के समर्थक हैं – बिना पंगे के कोई ‘आर्य’ दक्षिण नहीं आता। इस प्रकार वह मुझे राम की परम्परा से जोड़ते हैं। आनन्ददायी सज्जन हैं क्यों कि उनके पास सब कुछ कसौटी कसा है, शालिग्राम ऐसे ही नहीं कहा मैंने? उत्तर कभी नहीं गये लेकिन इतना खूब जानते हैं कि वहाँ अभी भी बर्बर बसते हैं जिन्हें हगने तक का सहूर नहीं!

गंगा प्रदूषण समस्या का हल पहले दिन ही बता दिये थे – दोनो ओर एक किमी तक के पाट क्षेत्र में मनुष्यों के प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाय! मेला और स्नान जैसे ढकोसलों के लिये गंगा का पानी पम्प कर स्थान स्थान पर टोटियाँ लगा दी जायँ। बाकायदा पेपर पर प्लान बना कर मुझे समझाये भी। मैंने पूछा – आप विज्ञान स्नातक हैं? (विज्ञान पढ़े मित्र कोहनायें नहीं, कॉमन सेंस की कमी वैज्ञानिकों में होती ही है। वैसे मैं भी विज्ञान का ही विद्यार्थी रहा हूँ।) वह प्रसन्न हो कर उत्तर दिये – केमिस्ट्री में पी जी हूँ, आप को कैसे पता? मैंने कहा – उत्तर में ऐसे बहुत से वैज्ञानिक पाये जाते हैं। इस पर चिढ़ गये और दक्षिण की वैज्ञानिकता के गुण गाने लगे। मैं आनन्दित होने लगा। बहुत बाद में समझ पाये कि मैं मजे ले रहा हूँ तो उठ कर चले गये।

आज बड़ी विचित्र बात हुई। संसद का हंगामा मेरी टेबल तक ले आये जैसे कि उनकी गाढ़ी कमाई के 300 करोड़ रुपयों की बरबादी का मैं ही जिम्मेदार हूँ! मैंने बस इतना कहा – देखिये, बरबादी भी रसूख के हिसाब से होती है। आप हल्ला काटेंगे, ऑफिस में काम करने के बजाय इधर उधर डोलेंगे तो बरबादी हजार में सिमट कर रह जायेगी। वह संसद है, पूरे भारत का कार्यालय। वहाँ काम नहीं होगा तो...। मैंने बात जान बूझ कर अधूरी छोड़ दी कि देखें अब क्या करते हैं? दाँव उल्टा पड़ गया। उत्तर में कार्यालय के डाभिल बमकते हैं तो उठ कर चाय पीने चले जाते हैं लेकिन ये तो कुर्सी खींच जम गये। मैंने भी गोदऊपर का फाटक नीचे दबाया और कागज कलम ले कर गांधी वंश के पाड़ा के गुरु की तरह सुन्दर अक्षरों में नकलनोट बनाने लगा।

उन्हों ने बात शुरू की - Bloody Hell! These RSS goons. एक्स्प्लायट करते हैं। पहले दलितों पिछड़ों को शोषित कर राज करते रहे और इस युग में कल्याण सिंह, गोविन्दाचार्य, बंगारू और अब ये साला मोदी, सबकी बुद्धि खराब कर के मजे ले रहे हैं – शोषक! मैंने छींटा मारते हुये कहा – प्राचीन भारत में आर एस एस कहाँ था? घी की छिड़क से जैसे आग भड़कती है वैसे ही भभक उठे – नाम बदल लेने से क्या होता है? मेंटलिटी तो वही रहेगी न, पिस्सू कहीं के। अचानक उन्हें कुछ याद आया तो एकदम शीतल माइनस चार अंश सेल्सियस हो कर पूछे – You are Brahmin? No… मैंने कहा – अरे नहीं, मैं मूलनिवासी हूँ।

ट्रैक बदल गया जैसे ‘चोरबजारी दो नयनों की गीत’ समाप्त हो और ‘मन तरपत हरि दरसन को आज’ शुरू – How come you call yourself aboriginal? Your skin is fair. मैंने कहा – श्वेत नहीं, गेंहुआ wheatish. क्या आप जानते हैं कि गेहूँ को राक्षस अन्न क्यों कहा जाता था? उनके लिये नयी बात थी। ऐसे मौकों पर वे बहुत ही आनन्ददायी मुद्रा अपना लेते हैं – ओठ गोल कर सीटी बजाने का अन्दाज लिये आगे की ओर झुकते हुये फुसफुसाते हैं – ऐसा क्या? कहो, कहो! उनके बायें पैर की थरथराहट का आप अनुभव कर सकते हैं और साँसों से आती फेकराहिन बू का भी।

मैंने उन्हें विजयी भाव से उत्तर दिया – इसलिये कि गेहूँ का रंग भी यहाँ के मूलनिवासियों की तरह ही स्वर्णिम भूरा था और यहाँ के मूलनिवासी तो राक्षस ही थे न? तो चावल खाने वाले आक्रमणकारी आर्यों ने उनके अन्न को भी राक्षस बता दिया! उनकी आँखें गोल हो फैल गयीं – क्या बकवास कर रहे हो? यूरोप में चावल कहाँ होता है?

मैंने कहा – हजारो साल पहले जब वहाँ आर्य थे तब वहाँ खूब वर्षा होती थी। आप तो जनबे करते हैं कि चावल अर्थात धान पानी का कीड़ा होता है। जब घटा उमड़ती, बिजली कड़कती तो वर्षा के देवता इन्द्र की स्तुति में वे लोग प्रसन्न हो मंत्र पढ़ने लगते। सफेद चावल से प्रेम करने वाले आर्य उसके बिना रह नहीं सकते थे। जलवायु परिवर्तन से वहाँ जब धान होना बन्द हो गया तो वे भारत अर्थात दक्षिण की ओर बढ़े क्यों कि यहाँ पानी ही पानी था - नीचे नदियों का जाल, ऊपर से वर्षा विकराल! धान ही धान खेत खलिहान। वे ही यहाँ धान ले कर आये थे।

उन्हों ने मेरी और ठीक वैसे ही देखा जैसे आप पढ़ते हुये सोच रहे हैं – क्या फालतू आदमी है! हँसते हुये उठ खड़े हुये – सुबह से कोई मिला नहीं था क्या बकवास सुनाने को?

मैंने कहा – अभी बात पूरी नहीं हुई। यहाँ भारत में अर्थात रक्षभूमि में गोधूम होता था। वे लोग उपले जला कर उनमें गेहूँ की लिट्टियाँ पका कर खाते थे। गाय के गोबर यानि गोमय और आग के धुँये का संगम उस भोजन के लिये अति आवश्यक था इसलिये आज का गेहूँ तब गोधूम कहलाता था। आर्यों को वह पसन्द नहीं आया क्यों कि सफेद आटा भी पकने पर राक्षस रंग का अर्थात गेंहुआ हो जाता था।

वे अट्टहास कर उठे – यार तुम हो बहुत मनोरंजक! तुम्हारे पास रोज आना पड़ेगा। अच्छा अब यह भी बता दो कि तुम्हारे आर्यों का रंग कैसा था?

मैंने तरस खाते हुये बता दिया – काला। रंग से देखें तो आप शुद्ध आर्य अर्थात देव हैं। यूरोप के राक्षसों की गोराई देख हीन भावना रखने वाले आर्य जितना प्रेम सफेदी से करते हैं उतना कोई नहीं करता। उनके इस प्रेम के आगे सब फीके – चाहे रामदेव का सफेद धन से हो, चाहे भुअरी भँइस का अपने गोरे पड़वे से ...

... नोट बनाने में तल्लीन मुझ बकवासी को पता ही नहीं चला कि वे कब चले गये। मुझे शंका है कि मेरी अंतिम बात वे सुन पाये होंगे। कोई बात नहीं, अगली बार सुना दूँगा, जब पुष्पक विमान और रंग बिरंगी बिल्लियों की बात बताऊँगा तब!