प्रातकी बेला है नहीं कोई आधी रात 
देख सकता हूँ संसद में धुले अरमान 
गटर में बहते हुये! और वे रेटरिक भी 
जिनके डेसिबल हाउस में बना देते हैं 
हर पीर आह को नक्कारखाने की तूती -  
आज गूँजेंगे लाल किले की प्राचीर 
एक कंठ एक सुर – जय हिन्द ... हरामखोरों! 
साठ जमा आठ साल पहले गाढ़ी थी वह रात
रूमानियत भरी नौटंकी ने जब की शुरुआत 
सपनों, हर मुस्कान को मीठे शब्दों की चासनी में 
लपेट उजली खादी में समेट देने की बेदाग
थाली ज्यों कर सफाचट और ले प्रचंड विस्तार 
देखो! कहीं न कोई जूठन और न जुठवार
देखो! कहीं न कोई जूठन और न जुठवार
अगणित षंड एक डकार  - जय हिन्द ... जमाखोरों! 
बैठती फफनाई फेनिल बियर खाली पेट
अन्न की कमी न धन की, कपड़े वास्ते न तन की 
ऐसी मूढ़ता या मन की वा सूझे वतन की 
रिरियाती प्रजा चढ़ाती चिपचिपी भेंट 
चढ़ते सरकार ऊँचाइयाँ गिरह खुली लँगोट 
तुम भी ऊँचे बढ़ो, चढ़ो और मढ़ो समेत 
मुर्दे शेरों पर जिन्दा खाल – जय हिन्द ... नासपीटों! 
उगा है सूरज दमक लिये उमस सतरंगी 
मैंने माँगा है बस तीन रंग और नीला चार 
उगो कि जैसे रँगती है उषा प्राची को, लिखो 
सफेदी पर अपनी नियति और कर्म समाचार 
श्रावणी हरियाली पर बरसे आँसुओं की धार
रो लो, जी भर रो लो कि आँखें होंगी साफ 
पहचानने को ठग आचार – जय हिन्द ... नयनसुख अन्धों!
पहचानने को ठग आचार – जय हिन्द ... नयनसुख अन्धों!
  ~ गिरिजेश राव ~  
 
 
आज की बुलेटिन, वन्दे मातरम - हज़ार पचासवीं ब्लॉग-बुलेटिन में आप की पोस्ट भी शामिल की गई हैं । सादर
जवाब देंहटाएंजय हो......
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