पहले भाग में हम बता चुके हैं कि लगभग फरवरी से लेकर जुलाई तक का समय नक्षत्र पर्यवेक्षण के लिये उपयुक्त होता है क्यों कि आकाश में बादल नहीं होते, ऋतु भी उपयुक्त होती है, धुन्ध और शीत अनुपस्थित होते हैं। वास्तव में जुलाई का महीना फरवरी की तरह लगभग ही उपयुक्त होता है, कारण यह कि जून के अन्तिम सप्ताह से ही वर्षा ऋतु साँकल बजाने लगती है।
अब तक हम इन नक्षत्रों को कुछ प्रमुख तारकसमूहों के साथ पहचान चुके हैं:
स्वाति
चित्रा
हस्त
उत्तराफाल्गुनी
मघा
पूर्वाफाल्गुनी
अभिजित
अब आगे बढ़ते हैं।
जून ग्रीष्म अयनांत का महीना है। 20/21 जून को उत्तरी गोलार्द्ध में सूर्य अपने उत्तरी झुकाव के चरम पर होते हैं और सबसे बड़ा दिन होता है। इस वर्ष संयोग अच्छा है। 20 जून को पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा ज्येष्ठा नक्षत्र पर होंगे अर्थात जेठ महीने(पूर्णिमांत) का अंत हो जायेगा। 21 जून को ग्रीष्म अयनांत के दिन आषाढ़ का महीना प्रारम्भ होगा। जेठ के महीने में सूर्य की तपन अधिकतम होती है। गाँव गिराम में कहते हैं मिरगा दहकता! मिरगा क्यों? क्यों कि इस समय सूर्य मृगशिरा नक्षत्र में होते हैं।
21 जून को ही सूर्य मृगशिरा से आर्द्रा नक्षत्र में प्रवेश करेंगे और ईंख की खेती करने वाले किसान ‘अदरा की गुड़ाई’ की तैयारी प्रारम्भ कर देंगे। इस नक्षत्र का नाम संकेतक है कि वातावरण में वर्षा की प्रस्तावना में आर्द्रता अर्थात नमी बढ़ जाती है। कुछ विद्वानों का मानना है कि रामायण काल में कुछ क्षेत्रों में नया वर्ष वृष्टि प्रारम्भ से लगता था और इसीलिये संवत्सर ‘वर्ष’ कहलाता था। वे बताते हैं कि महाविषुव के स्थान पर नववर्ष का प्रारम्भ वर्षा के संकेतक ग्रीष्म अयनांत के दिन अर्थात 21 जून से माना जाता था।
21 जून के दिन उठिये, चार बजे भोर में। पूरब और उत्तरपूर्व दिशाओं के बीच खड़े हो जाइये। उत्तरपूर्व में सबसे अधिक चमकते दिखेंगे ब्रह्महृदय (Capella), ब्रह्मबेला नाम ध्यान में आया?
मध्य दिशा में मन्द लपलप करता सा मन्द तारकपुंज दिखेगा। यही है देहाती ‘झुलनिया’ या ‘कचपचिया’ या वैदिक कृत्तिका नक्षत्र (pleiades) । जहाँ इसकी टिमटिम और द्युति के कारण सामान्य जन ने नाक में पहना जाने वाला गहना समझा वहीं वैदिक ऋषियों ने अग्नि की लपलप जिह्वा से साम्य पाया – अग्निर्न: पातु कृत्तिका।
इसके कोरी आँख से दिखने वाले छ: तारों के काटने वाले पुराने शस्त्र कटार से आकृति साम्य के कारण कृत्तिका कहा गया। यही षडानन कार्तिकेय को दूध पिलाने वाली मातायें हैं जिनकी महिमा अपरम्पार है।
एक ब्राह्मण ग्रंथ में संवत्सर प्रारम्भ के समय इनके प्राची में अटल रहने के उल्लेख ने ही भारतीय परम्परा के इसाई कालनिर्धारण की धज्जियाँ उड़ा दीं। तैत्तिरीय संहिता का नक्षत्रमंडल इन्हीं ने प्रारम्भ होता है, आज कल की तरह अश्विनी से नहीं। इनके बारे में विस्तार से यहाँ भी बताया गया है।
इनके बाद सबसे आसान पहचान है अश्विनी या अश्वायुज के दो तारों (Sharatan) की जो कि लगभग पूरब में 30 से 40 अंश के बीच दिखेंगे। कुछ लोग नीचे वाले तारे की अपेक्षा ऊपर के मन्द समांतर तारे को युग्म का भाग बताते हैं। वैदिक जन इनकी प्रशंसा में बहुत छन्द रचे हैं। ये भूलों को मार्ग दिखाने वाले हैं और देवताओं के वैद्य भी – यौ देवानां भिषजौ हव्यवाहौ, विश्वस्य दूतवमृतस्य गोपौ।
अश्विनियों से ऊपर प्राची में ही मीन राशि के दो तारे दिखते हैं जिनका स्थान नक्षत्र मण्डल की अंतिम रेवती का है। कृत्तिका और अश्विनियों के बीच दिखती हैं भरणी (Torcularis)। यदि आप साढ़े चार बजे तक रुक गये और भूदृश्य स्पष्ट हो तो क्षितिज के पास दिख जायेंगे बुध ग्रह और रोहिणी(Aldebaran) नक्षत्र - साथ साथ। महाभारत काल में महाविषुव मृगशिरा नक्षत्र से खिसक कर रोहिणी नक्षत्र पर आ चुका था। रोहिणी के बारे में कुछ और इस लिंक पर।
रात पौने दस बजे के आसपास दक्षिण से दक्षिण-पूर्वी आकाश में चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, अनुराधा के साथ मूल नक्षत्र। साथ में वृक और वृत्र तारामण्डल। पूरब में गरुड़ (Aquila, Altair)।
पहले दक्षिण में देखिये, वृक और वृत्र तारासमूह अपने आकार और तारों की बहुलता से स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं।
नीचे क्षितिज के पास दो बहुत तेज चमकते ताराओं से ऊपर जाइये, चित्रा (Spica) मिलेंगी। पूरब की ओर बढ़िये। दक्षिण-पूर्व से थोड़ा पहले ही वृश्चिक या रामायण में वर्णित ‘ऐरावत की सूँड़’(Scorpio) स्पष्ट दिखती है। इसी में अनुराधा और ज्येष्ठा हैं। बिच्छू का डंक ही मूल नक्षत्र है। चित्रा और मूल को मिलाने वाली रेखा पर तुला राशि में हैं विशाखा (Brachium)।
ठीक पूरब दिशा में हैं गरुड़ जी जिन्हें एक तेज चमकते तारे के परिवेश में देखा जा सकता है। पूर्ण चन्द्र के प्रकाश के कारण थोड़ी कठिनाई हो सकती है। मई उत्तरार्द्ध से जून पूर्वार्द्ध तक रात साढ़े ग्यारह बजे से नौ बजे के बीच कृष्ण पक्ष में इन्हें आसानी से देखा जा सकता है।
( क्रमश: )