पुराने साहित्य में
लम्बेऽऽऽऽ चले अकाल, दुर्भिक्ष आदि की बातें मिलती
हैं। हम भी अकाल काल में रह रहे हैं। इससे पहले कि मैं आगे लिखूँ, स्पष्ट कर दूँ कि हम हैं, यह एक तथ्य ही यह दर्शाने के
लिये पर्याप्त है कि चाहे जितने भयानक हों, अकाल हारते रहे हैं।
यह अकाल भी हारेगा, आशा बलवती है।
जिस अकाल की बात कर
रहा हूँ,
पानी, भूमि, पोषण के अकाल
के समांतर एक बहुत बड़ा अकाल है – नवोन्मेष, दुर्धर्ष कर्मठता, सत्यनिष्ठा और नेतृत्त्व का अकाल।
हमने स्वयं कुछ न कर, दूसरों के लिये दायित्त्व निश्चित कर रखें
हैं जिनमें सरकारें प्रमुख हैं, वे सरकारें जो हमसे ही निकलती
हैं। हम उन ठगों को अपना सरकार बनाते हैं जिन्हें अंग्रेजी में ‘स्ट्रीट स्मार्ट’ कहा जाता है।
उनके कुकर्मों और काहिली
से संत्रस्त हममें जब तब अकाल की अनुभूति एक समूह के स्तर पर सांद्र होती रहती है।
उदर में अम्ल, पित्त बढ़ जाते हैं, खट्टी डकारें आने लगती हैं; अपान प्राण को संकट में
डालने लगता है और तब कोई एक स्ट्रीट स्मार्ट हमारी मन:स्थिति भाँप कर मसीहा पैगम्बर
बन सामने आता है – विनाशाय दुष्कृतां और हम लोट जाते हैं। वह अपने समुदाय के अन्यों
से किञ्चित आगे होता है – उसे नारे गढ़ने, उपयुक्त समय पर उछालने
और उपयुक्त समय पर ही पुराने को शांतिपूर्वक समय के कूड़ेदान में डाल, दूसरा नया नारा गढ़, उछाल चक्रीय प्रक्रिया बनाये रखने
की विद्या आती है।
50 वर्षों के पश्चात
लोग हमारे बारे में क्या सोचेंगे, सोच कर हँसेंगे या रोयेंगे,
सोच सोच मुझे ग्लानि होती है। अन्ना, दिल्ली का
ठग, जाने कितने बाबा बाबी, शाह मोदी ...
बहुरुपिये स्ट्रीट स्मार्टों पर हमारे विश्वास न्यौछावर की बड़ी ही लम्बी शृंखला है
और उनसे उकता कर मनमोहन जैसी कठपुतलियों को आसनी देने की भी।
ये वे जन हैं जो हमारा
अकाल में शोषण करते हैं और प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से बताते रहते हैं – देख ले! हमारा
कोई विकल्प नहीं।
उन्हें पता होता है
कि शोषित होने के लिये हमारे पास विकल्प ही विकल्प हैं,
देश स्ट्रीट स्मार्टों से भरा पड़ा है।
उन्हें चिंता रहती
है कि कोई अन्य उनका स्थान न ले ले, इसलिये वे
उछलते हुये नये नये नारे उछालते रहते हैं। हमारा ध्वंस ही उनका निर्माण होता है और
हम उसे एक दूरगामी शुभ की प्रक्रिया का अंग मान आस लगाये सहते रहते हैं , हमारा शोषण होता रहता है, अकाल जारी रहता है क्योंकि
हम अहिंसक स्वेद बहाने को भी संत्रास समझते हैं, रक्त तो धमनियों
में बचा ही नहीं!
हम अकाल के वे जाली
व्याध हैं जो हिंस्र पशुओं को ‘जाल में फँसा’ देख निहाल होते हैं और अपनी चबाई जाती हड्डियों की कुड़ुर कुड़ुर को मुक्ति का
संगीत बताते एक दूसरे को अहो रूपं अहो ध्वनि की अरण्य किलकारियों से अभिशप्त करते ‘जीते’ और ‘जीतते’ हैं।
हमारे भीतर का अकाल
ही हमारे शोषण को पुष्ट करता है, निरंतर उसका आकर्षण बनाये
रखता है कि नये नये स्ट्रीट स्मार्ट आते रहें और चक्र चलता रहे।
हमें आत्ममंथन की आवश्यकता
है, आज से उपयुक्त कोई समय नहीं।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’नीरजा - हीरोइन ऑफ हाईजैक और ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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