गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

कूर्म पुराण, स्वच्छ भारत अभियान, अंतरिक्ष यात्रा एवं रामानुजाचार्य निर्मित मानचित्र

कूर्म पुराण में मल मूत्र त्याग कहाँ न करें, इसकी पूरी सूची दी हुई है : 

'व्यासगीता' से : 
छायाकूपनदीगोष्ठचैत्याम्भः पथि भस्मसु ।
अग्नौ चैव श्मशाने च विण्मूत्रे न समाचरेत्॥२,१३.३६॥
न गोमये न कृष्टे वा महावृक्षे न शाड्वले ।
न तिष्ठन् वा न निर्वासा न च पर्वतमस्तके ॥ २,१३.३७॥
न जीर्णदेवायतने न वल्मीके कदाचन ।
न ससत्त्वेषु गर्तेषु न गच्छन् वा समाचरेत् ॥ २,१३.३८॥
तुषाङ्गारकपालेषु राजमार्गे तथैव च ।
न क्षेत्रे न विले वापि न तीर्थे न चतुष्पथे ॥ २,१३.३९ ॥
नोद्यानोदसमीपे वा नोषरे न पराशुचौ ।
न सोपानत्पादुको वा छत्री वा नान्तरिक्षके॥२,१३.४०॥
न चैवाभिमुखे स्त्रीणां गुरुब्राह्मणयोर्गवाम् ।
न देवदेवालययोरपामपि कदाचन ॥ २,१३.४१ ॥
न ज्योतींषि निरीक्षन्वानसंध्याभिमुखोऽपिवा ।
प्रत्यादित्यं प्रत्यनलं प्रतिसोमं तथैव च ॥ २,१३.४२ ॥
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संक्षेप में कहूँ तो मार्ग, वृक्ष के नीचे, घास वाली भूमि, जोती हुई भूमि पर भी मल मूत्र त्याग का निषेध है। 
एक रोचक पाठभेद है जो दर्शाता है कि कैसे पुराण श्लोक दूषित किये गये, यह क्षेपकों से इतर प्रवृत्ति है: 
पाठ 1:

न सोपानत्पादुको वा छत्री वा नान्तरिक्षके
पाठ 2:
न सोपानत्पादुको वा गंता यानांतरिक्षग:
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दूसरा वाला पाठ गीताप्रेस संस्करण में है जिसका अर्थ दिया है - यान में अंतरिक्षगामी हो कर (मल मूत्र त्याग न करे)। पहले वाले से सीधा अर्थ निकलता है कि अंतरिक्ष की ओर ऊर्ध्व हो कर न करे (समझ ही सकते हैं कि क्या स्थिति होगी! )
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अब दूसरे श्लोक को लेकर यदि कुछ उत्साही लोग यूरी गगारिन से सहस्राब्दियों पहले ही अंतरिक्ष में भारतीय मनुष्यों की आवाजाही का प्रमाण प्रस्तुत करने लगें तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा।
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महाभारत वर्णित सुदर्शन द्वीप के रूप में विश्व का मानचित्र, चंद्रमा में, दो खरहों तथा पीपल की पत्तियों वाला, प्रतिबिम्बित एवं कथित रूप से रामानुजाचार्य द्वारा निर्मित घूम ही रहा है! 
घोर कलियुग यही है! 
महाभारत के भीष्म पर्व में एक प्रकरण है जिसमें यह बताया गया है कि 'सुदर्शन द्वीप' का प्रतिबिम्ब चंद्रमण्डल में वैसे ही दिखता है जैसे किसी पुरुष द्वारा दर्पण में देखा गया अपना मुख। आगे पीपल के दो पत्तों और द्विरंशे शशो महान् की चर्चा है।
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बताया जा रहा है कि पंद्रहवीं या सोलहवीं शताब्दी में किसी आचार्य ने इन श्लोकों के आधार पर विश्व का मानचित्र खींच दिया था जो कि चित्र में बायीं ओर दर्शाया गया है। उसे उलट देने पर वैसे ही विश्व का मानचित्र बन जाता है जैसे दर्पण में दिखने वाला चेहरा उलट दें (180 अंश) तो सीधा चेहरा बन जाता है।
दायीं ओर उलटने पर बना मानचित्र दर्शाया गया है।
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आप उछ्ल पड़े न? अरे! चार सौ वर्ष पहले ही भारतीय जन विश्व का मानचित्र खींच दिये थे तथा पाँच हजार वर्ष पहले भी उन्हें ज्ञात था!
... ठीक यही प्रचारित किया जा रहा है। इसमें कितनी सचाई है? विश्लेषण करते हैं।

भारत और दक्षिण पूर्व एशिया दर्शाने के लिये कथित शशक की पीठ पर दो विचित्र आकार के कूबड़ निकाल दिये गये हैं (लाल घेरा) और ऑस्ट्रेलिया के लिये एक तीसरी पत्ती (श्वेत घेरा) भी जोड़ दी गयी है जो कि उक्त श्लोकों में नहीं है। 'शशो द्विरंशे' कैसे? पता नहीं। ग्रीनलैण्ड, अण्टार्कटिक और आर्कटिक तो तब भी लुप्त हैं। छल समझ में आया?
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भारतीय ज्ञान विज्ञान बहुत आगे बढ़ा हुआ था। इन सबके बिना भी महान था। उसे अपनी महानता दर्शाने के लिये ऐसे भौंड़े प्रयासों की आवश्यकता नहीं है।
उन पूर्वजों को सच्ची श्रद्धांजलि यह होगी कि आधुनिक ज्ञान विज्ञान में हम आगे हों, झण्डे गाड़ें, न कि विश्वविद्यालयों को चुनावी राजनीति के दलदल में डाल अकादमिकी की ऐसी तैसी करें और गाल बजायें।
सच में ऐसी बातों से मुझे बहुत कष्ट होता है। देखिये तो, भारत के सर्वोत्तम विज्ञान संस्थान वैश्विक श्रेष्ठता श्रेणी में कहाँ हैं?
अपने विश्वविद्यालय या महाविद्यालय को ही देखिये। मुझसे नहीं, स्वयं से पूछिये कि क्या वास्तव में हमारे अकादमिक कर्म उन महान पूर्वजों के पासंग भी हैं?

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