महाभारत आख्यान है। आख्यान उसे कहते हैं जो बीते घटित का वर्णन करता है। ऐतरेय ब्राह्मण में अश्वमेध एवं राजसूय यज्ञों के समय आख्यान सुनाने वाले अख्यानविदों का उल्लेख है। अश्व के भ्रमण करते समय यज्ञ स्थल पर जो आख्यानों की शृंखलायें यजमान को सुनाई जाती थीं, उन्हें परिप्लव कहते थे। यास्क ने ऐतिहासिकों के अर्थ में भी इस शब्द का प्रयोग किया है जो ऋग्वेद की 'व्याख्या', विवेचन आदि करते थे। बुद्ध ने अख्खानम नाम की कथाओं का उल्लेख किया है।
महाभारत काव्य भी है। सूतों द्वारा सहस्राब्दियों में गाया जाने वाला, मञ्चित महाकाव्य जिसमें काव्य के विविध अङ्गों, नायक नायिका भेद, रसादि के निरूपण, विविध विद्याओं के सुग्राह्य उद्धरण एवं लोकरञ्जन हेतु भी अपनी कल्पनाशीलता का समावेश लोकगायकों ने किया। स्पष्ट है कि जनश्रुतियों एवं जनप्रचलित बातों के पीछे यही प्रवृत्ति रही। महाभारत को पढ़ते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि यह प्रवृत्ति आज भी है तथा आख्यान एवं काव्य में भेद है। काव्य का अर्थ छंद बद्ध कृति मात्र नहीं, विविध उद्भावनाओं से परिपूर्ण रञ्जक कृति। शिवाजी सावंत का मृत्युञ्जय काव्य है, इतिहास नहीं। रश्मिरथी काव्य है, आख्यान नहीं। नरेंद्र कोहली का उपन्यास है, इतिहास नहीं। पुराण कथायें काव्य एवं इतिहास दोनों से पगी हैं।
इतिहास महाभारत को जानने के लिये लोकोक्तियों, जनश्रुतियों, आप की अवधारणा को जो भाये उस काव्य, द्वितीयक सोतों आदि को तज मूल उद्गम को देखना होगा जोकि स्वयं जय, भारत, महाभारत, शतसहस्री संहिता इत्यादि नामों से प्रसिद्ध कृष्ण द्वैपायन व्यास की कृति है। वही प्रमाण है, कुछ बच जाये तो उन्हीं द्वारा रचित खिल भाग हरिवंश है। पुराण द्वितीयक कृतियाँ हैं, महाभारत से विरोध होने पर या उससे अतिरिक्त मिलने पर उन्हें संदिग्ध माना जाना चाहिये क्योंकि उनकी रचना बहुत आगे के काल तक ऊपर बतायी प्रवृत्तियों के अनुकरण में होती रही है।
(ख)
वारणावत की आग से बच कर भटकते हुये पाण्डव एक वन में पहुँचे। प्यास से विकल माता कुंती हेतु भीम पानी के अनुसंधान में दो कोस की दूरी तक गये, स्वयं पानी पिये एवं अपने उत्तरीय में पानी ले कर शीघ्रता से पहुँचे तब तक थके हुये शेष पाण्डव एवं कुंती सो गये थे। भीम ने उन्हें जगाने के स्थान पर प्रतीक्षा करना उचित समझा। निकट ही एक नगरी दिखाई दे रही थी।
भीम सावधान थे। वहीं, बहुत दूर नहीं, शाल वृक्ष का आश्रय ले मनुष्य मांस भोजी राक्षस हिडिम्ब रहता था। उसके कहने पर हिडिम्बा नाम की उसकी बहन सोते हुये पाण्डवों को मार कर उनका मांस लाने हेतु पहुँची। साँवले एवं सिंह समान बलिष्ठ कंधों वाले महाबाहू भीम को देख कर कामपीड़ित हो गयी - अयं श्यामो महाबाहुः सिंहस्कन्धो महाद्युतिः। मार कर खाने से तो मुहूर्त भर मात्र आनंद होगा, जीवित रख कर इसे भतार बना लूँ तो अनंत काल तक सुख भोगूँगी। भाई की बात क्रूरता भरी है, नहीं मानूँगी। भाई के सौहार्द्र से पतिका स्नेह बहुत बड़ा होता है। पतिस्नेहोऽतिबलवान्न तथा भ्रातृसौहृदम् ... हतैरेतैरहत्वा तु मोदिष्ये शाश्वतीः समाः।
लम्बे समय के लिये शाश्वती समा शब्द युग्म का प्रयोग देखिये। यह रामायण में वाल्मीकि द्वारा उच्चरित प्रथम श्लोक में भी है।
उसने मानुषी सुंदर रूप धारण किया एवं भीम से कहा कि मेरा भाई तुम सबको मारना चाहता है किंतु मैं तुम पर अनुरक्त हूँ, मेरा चित्त एवं मेरे अङ्ग कामपीड़ित हो गये हैं, मुझे स्वीकार कर मेरे साथ भोग करें। मैं अपने राक्षस भाई से तुम सबकी रक्षा करूँगी। मैं अंतरिक्षचरी हूँ, मेरे साथ भ्रमण करते हुये अतुल्य प्रसन्नता प्राप्त करें।
भीम ने उत्तर दिया कि ज्येष्ठ भ्राता एवं माता को सोता हुआ तज तुम्हारे साथ आनंद विहार को चल दूँ? मुझ जैसा पुरुष कामार्त हो भाइयों एवं माता को राक्षस का भोजन बना विहार को जायेगा?
हिडिम्बा ने कहा कि आप इन सबको जगा दें, मैं उस राक्षस से सबको छुड़ा लूँगी। भीम को लग गई, बोले कि तुम्हारे भाई के भय से इन थके सोये बंधुओं को नहीं जगाऊँगा। मैं अपना बल जानता हूँ। तुम रहो या जाओ, जैसी इच्छा हो करो, चाहो तो अपने भाई को ही भेज दे (देख लेता हूँ) - गच्छ वा तिष्ठ वा भद्रे यद्वापीच्छसि तत्कुरु। तं वा प्रेषय तन्वङ्गि भ्रातरं पुरुषादकम्॥
...
[यहाँ बड़े भाई के अविवाहित रहते हुये कनिष्ठ के विवाह की समस्या का सङ्केत दाक्षिणात्य पाठ में मिलता है जोकि न तो उत्तरी पाठ में है, न ही निम्नतर आलोचना पद्धति द्वारा शोधित भण्डारकर मानक पाठ में। वह श्लोक इस प्रकार है:
एष ज्येष्ठो मम भ्राता मान्य: परमको गुरु:।
अनिविष्टश्च तन्माहं परिविद्यां कथञ्चन॥
ये मेरे ज्येष्ठ भ्राता हैं जो परम सम्माननीय गुरु हैं। इनका अभी विवाह नहीं हुआ है, ऐसे में तुमसे विवाह कर मैं परिवेत्ता क्यों बनूँ?
बड़े भाई में ऐसा कोई दोष नहीं हो जिसके कारण उसका विवाह करना अनुमन्य न हो तो उसके अविवाहित रहते हुये विवाह करने वाला कनिष्ठ भाई परिवेत्ता कहलाता है। शास्त्रों के अनुसार यह निंदनीय है।]
(ग)
हिडिम्ब पाण्डवों के साथ हिडिम्बा को भी मारने को झपटा। भीम ने रोका - मुझे मार! हिडिम्बा स्त्री है, अवध्य, विशेषत: तब जब कि उसने कोई अपराध नहीं किया है। तेरा अपराधी तो मैं हूँ। यह तो कामपीड़ित हो अपने वश में नहीं, मुझे पति बनाना चाहती है। मेरे रहते हुये तुम इस स्त्री को नहीं मार सकते।
स्वर से सोते हुये बंधु जाग न जायें, यह सोच भीम उसे दूर खींच ले गये किंतु युद्ध के स्वर से पाण्डव एवं माता जाग ही गये। मानुषी वेश बनायी हिडिम्बा का अद्भुत रूप देख कर चकित हो गये - प्रबुद्धास्ते हिडिम्बाया रूपं दृष्ट्वातिमानुषम्।
कुंती ने हिडिम्बा से जो पूछा, उससे भी उसके रूप का पता चलता है:
कस्य त्वं सुरगर्भाभे का चासि वरवर्णिनि
केन कार्येण सुश्रोणि कुतश्चागमनं तव
यदि वास्य वनस्यासि देवता यदि वाप्सराः
सुर कन्याओं के समान आभा वाली, वरवर्णिनी, उत्तम जघनस्थल वाली, देवता हो या अप्सरा? यहाँ क्या कर रही हो?
हिडिम्बा ने सब कुछ सुनाया तथा यह भी कहा कि आप के जो वे पुत्र दूर मेरे भाई से लड़ रहे हैं, काम के वश में हो मैंने उन महाबली का वरण कर लिया है -
चोदिता तव पुत्रस्य मन्मथेन वशानुगा
ततो वृतो मया भर्ता तव पुत्रो महाबलः
सभी भाई वहाँ भाग कर पहुँचे। भीम ने उनसे उदासीन रहने को कहा। अर्जुन ने कहा कि शीघ्र इसका वध करो, पूरब दिशा में लाली का आभास हो रहा है, संध्याकाल का रौद्र मुहूर्त है जिसमें राक्षस बली हो जाते हैं।
पुरा संरज्यते प्राची पुरा संध्या प्रवर्तते
रौद्रे मुहूर्ते रक्षांसि प्रबलानि भवन्ति च
अर्थात हिडिम्ब वध काण्ड रात्रि के अंतिम प्रहर में आरम्भ हो प्रात:काल के पूर्व सम्पन्न हुआ।
भाई के मारे जाने पर हिडिम्बा ने भीम से अनुरोध किया, तुम्हारा पराक्रम भी देख लिया, मैं तुम्हारी हो तुम्हारे बली गात्र की शुश्रूषा करना चाहती हूँ।
भीम ने कहा - राक्षस मोहिनी माया का आश्रय ले बहुत दिनों तक वैर भाव का स्मरण रखते हैं। तू भी अपने भाई की दशा को प्राप्त हो!
युधिष्ठिर ने हिडिम्बा के वध को तत्पर भाई को रोका - क्रोध में भर कर स्त्री का वध न करो - मा स्म स्त्रियं वधी:। शरीर की रक्षा की अपेक्षा अधिक तत्परता से धर्म की रक्षा करो - शरीरगुप्त्याभ्यधिकं धर्मं गोपय पाण्डव।
रक्षा के लिये 'गोपय' शब्द का प्रयोग देखें। रक्षा गोपनीयता है। गुप्तांग शब्द में मात्र सभ्य व्यवहार की अपेक्षा नहीं, प्रजनन सम्बंधित कोमल अंगों की सुरक्षा का भी भाव है।
हिडिम्बा ने कुंती के आगे हाथ जोड़ लिये - आर्ये! स्त्री होने के कारण एक स्त्री की कामजनित पीड़ा आप जानती ही हैं - आर्ये जानासि यद्दुःखमिह स्त्रीणामनङ्गजम्। मैंने आप के पुत्र का वरण अपने भाई का परित्याग करके किया है। मुझ पर कृपा करें। यदि आप या भीमसेन मेरी प्रार्थना ठुकरा देंगे तो मैं प्राण त्याग दूँगी। सत्य कहती हूँ।
मैंने जिन्हें चुना है, आप के उन पुत्र के साथ मेरा संयोग हो, ऐसा अवसर प्रदान करें - भर्त्रानेन महाभागे संयोजय सुतेन ते। मैं इन्हें ले कर अभीष्ट स्थान पर जाऊँगी, उद्देश्य पूरा होने (गर्भ धारण कर लेने) पर पुन: आप के समीप ले आऊँगी। शुभे! मेरा विश्वास करें - पुनश्चैवागमिष्यामि विश्रम्भं कुरु मे शुभे।
आप सब लोग मुझ पर कृपा करें ताकि भीमसेन मुझे स्वीकार कर लें - यूयं प्रसादं कुरुत भीमसेनो भजेत माम्।
आपदस्तरणे प्राणान्धारयेद्येन येन हि
सर्वमादृत्य कर्तव्यं तद्धर्ममनुवर्तता
आपत्सु यो धारयति धर्मं धर्मविदुत्तमः
व्यसनं ह्येव धर्मस्य धर्मिणामापदुच्यते
पुण्यं प्राणान्धारयति पुण्यं प्राणदमुच्यते
येन येनाचरेद्धर्मं तस्मिन्गर्हा न विद्यते
जिस उपाय से भी आपदा से छुटकारा मिले, प्राणों की रक्षा हो सके, धर्मानुसरण करने वालों को वह सब स्वीकार कर वैसा करना चाहिये। जो आपदाकाल में धर्म को धारण करता है वही धर्मात्माओं में श्रेष्ठ है। धर्मपालन में सङ्कट उपस्थित होना ही धर्मात्माओं के लिये आपदा कही जाती है। पुण्य ही प्राणों को धारण करता है, इस कारण पुण्य प्राणदाता कहलाता है, अत: जिस उपाय से धर्म का आचरण हो सके, उसे करने में कोई निंदा की बात नहीं है।
...
बड़े भाई के अविवाहित रहते हुये छोटे के विवाह से होने वाले लोकापवाद का यह समाधान हिडिम्बा ने दिया।
दाक्षिणात्य पाठ में उसने अपना नाम सालकटङ्कटी बताया है, साथ ही यह भी कि मैं राक्षस जाति की सुशीला कन्या हूँ, न तो यातुधानी हूँ, न ही निशाचरी। मेरी देह देवोपम है।
दाक्षिणात्य पाठ में ही कुंती युधिष्ठिर से अनुमति लेती हैं कि यह अपनी वाणी से उत्तम धर्म का प्रतिपादन करती है। यदि दूषित भाव भी रखती हो तो भीम का क्या बिगाड़ सकती है? यदि तुम्हारी इच्छा हो तो यह वीर पाण्डव भीम के साथ सन्तान प्राप्ति हेतु भोग करे - भजतां पाण्डवं वीरमपत्यार्थे यदीच्छसि।
...
युधिष्ठिर ने अनुमति दी कि प्रतिदिन भीम जब नित्यकर्म, संध्यादि से निवृत्त हो माङ्गलिक वेश धारण कर लें तब से दिन डूबने तक उनके साथ भोग करो किंतु रात को सदा ही भीमसेन को हमारे पास पहुँचा देना - अयं त्वानयितव्यस्ते भीमसेन: सदा निशि।
हिडिम्बा ने कहा कि ऐसा ही हो एवं भीमसेन को साथ ले कर उड़ चली!
तथेति तत्प्रतिज्ञाय हिडिम्बा राक्षसी तदा
भीमसेनमुपादाय ऊर्ध्वमाचक्रमे ततः
कुछ दिनों तक रमण के पश्चात वह गर्भवती हुई, भीम को हिडिम्बा से विकट महाबली महाकाय पुत्र की प्राप्ति हुई। माता ने कहा कि इसका घट (सिर) उत्कच अर्थात केश रहित है अत: यह घटोत्कच कहलायेगा।
रमयन्ती तथा भीमं तत्र तत्र मनोजवा
प्रजज्ञे राक्षसी पुत्रं भीमसेनान्महाबलम्
विरूपाक्षं महावक्त्रं शङ्कुकर्णं विभीषणम्
भीमरूपं सुताम्रोष्ठं तीक्ष्णदंष्ट्रं महाबलम्
महेष्वासं महावीर्यं महासत्त्वं महाभुजम्
महाजवं महाकायं महामायमरिंदमम्
अमानुषं मानुषजं भीमवेगं महाबलम्
यः पिशाचानतीवान्यान्बभूवाति स मानुषान्
बालोऽपि यौवनं प्राप्तो मानुषेषु विशां पते
सर्वास्त्रेषु परं वीरः प्रकर्षमगमद्बली
सद्यो हि गर्भं राक्षस्यो लभन्ते प्रसवन्ति च
कामरूपधराश्चैव भवन्ति बहुरूपिणः
प्रणम्य विकचः पादावगृह्णात्स पितुस्तदा
मातुश्च परमेष्वासस्तौ च नामास्य चक्रतुः
घटभासोत्कच इति मातरं सोऽभ्यभाषत
अभवत्तेन नामास्य घटोत्कच इति स्म ह
अनुरक्तश्च तानासीत्पाण्डवान्स घटोत्कचः
तेषां च दयितो नित्यमात्मभूतो बभूव सः
....
हिडिम्बा एवं भीम के विधिवत विवाह का उल्लेख नहीं है।
कस्य त्वं सुरगर्भाभे का चासि वरवर्णिनि
केन कार्येण सुश्रोणि कुतश्चागमनं तव
यदि वास्य वनस्यासि देवता यदि वाप्सराः
सुर कन्याओं के समान आभा वाली, वरवर्णिनी, उत्तम जघनस्थल वाली, देवता हो या अप्सरा? यहाँ क्या कर रही हो?
हिडिम्बा ने सब कुछ सुनाया तथा यह भी कहा कि आप के जो वे पुत्र दूर मेरे भाई से लड़ रहे हैं, काम के वश में हो मैंने उन महाबली का वरण कर लिया है -
चोदिता तव पुत्रस्य मन्मथेन वशानुगा
ततो वृतो मया भर्ता तव पुत्रो महाबलः
सभी भाई वहाँ भाग कर पहुँचे। भीम ने उनसे उदासीन रहने को कहा। अर्जुन ने कहा कि शीघ्र इसका वध करो, पूरब दिशा में लाली का आभास हो रहा है, संध्याकाल का रौद्र मुहूर्त है जिसमें राक्षस बली हो जाते हैं।
पुरा संरज्यते प्राची पुरा संध्या प्रवर्तते
रौद्रे मुहूर्ते रक्षांसि प्रबलानि भवन्ति च
अर्थात हिडिम्ब वध काण्ड रात्रि के अंतिम प्रहर में आरम्भ हो प्रात:काल के पूर्व सम्पन्न हुआ।
भाई के मारे जाने पर हिडिम्बा ने भीम से अनुरोध किया, तुम्हारा पराक्रम भी देख लिया, मैं तुम्हारी हो तुम्हारे बली गात्र की शुश्रूषा करना चाहती हूँ।
भीम ने कहा - राक्षस मोहिनी माया का आश्रय ले बहुत दिनों तक वैर भाव का स्मरण रखते हैं। तू भी अपने भाई की दशा को प्राप्त हो!
युधिष्ठिर ने हिडिम्बा के वध को तत्पर भाई को रोका - क्रोध में भर कर स्त्री का वध न करो - मा स्म स्त्रियं वधी:। शरीर की रक्षा की अपेक्षा अधिक तत्परता से धर्म की रक्षा करो - शरीरगुप्त्याभ्यधिकं धर्मं गोपय पाण्डव।
रक्षा के लिये 'गोपय' शब्द का प्रयोग देखें। रक्षा गोपनीयता है। गुप्तांग शब्द में मात्र सभ्य व्यवहार की अपेक्षा नहीं, प्रजनन सम्बंधित कोमल अंगों की सुरक्षा का भी भाव है।
हिडिम्बा ने कुंती के आगे हाथ जोड़ लिये - आर्ये! स्त्री होने के कारण एक स्त्री की कामजनित पीड़ा आप जानती ही हैं - आर्ये जानासि यद्दुःखमिह स्त्रीणामनङ्गजम्। मैंने आप के पुत्र का वरण अपने भाई का परित्याग करके किया है। मुझ पर कृपा करें। यदि आप या भीमसेन मेरी प्रार्थना ठुकरा देंगे तो मैं प्राण त्याग दूँगी। सत्य कहती हूँ।
मैंने जिन्हें चुना है, आप के उन पुत्र के साथ मेरा संयोग हो, ऐसा अवसर प्रदान करें - भर्त्रानेन महाभागे संयोजय सुतेन ते। मैं इन्हें ले कर अभीष्ट स्थान पर जाऊँगी, उद्देश्य पूरा होने (गर्भ धारण कर लेने) पर पुन: आप के समीप ले आऊँगी। शुभे! मेरा विश्वास करें - पुनश्चैवागमिष्यामि विश्रम्भं कुरु मे शुभे।
आप सब लोग मुझ पर कृपा करें ताकि भीमसेन मुझे स्वीकार कर लें - यूयं प्रसादं कुरुत भीमसेनो भजेत माम्।
आपदस्तरणे प्राणान्धारयेद्येन येन हि
सर्वमादृत्य कर्तव्यं तद्धर्ममनुवर्तता
आपत्सु यो धारयति धर्मं धर्मविदुत्तमः
व्यसनं ह्येव धर्मस्य धर्मिणामापदुच्यते
पुण्यं प्राणान्धारयति पुण्यं प्राणदमुच्यते
येन येनाचरेद्धर्मं तस्मिन्गर्हा न विद्यते
जिस उपाय से भी आपदा से छुटकारा मिले, प्राणों की रक्षा हो सके, धर्मानुसरण करने वालों को वह सब स्वीकार कर वैसा करना चाहिये। जो आपदाकाल में धर्म को धारण करता है वही धर्मात्माओं में श्रेष्ठ है। धर्मपालन में सङ्कट उपस्थित होना ही धर्मात्माओं के लिये आपदा कही जाती है। पुण्य ही प्राणों को धारण करता है, इस कारण पुण्य प्राणदाता कहलाता है, अत: जिस उपाय से धर्म का आचरण हो सके, उसे करने में कोई निंदा की बात नहीं है।
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बड़े भाई के अविवाहित रहते हुये छोटे के विवाह से होने वाले लोकापवाद का यह समाधान हिडिम्बा ने दिया।
दाक्षिणात्य पाठ में उसने अपना नाम सालकटङ्कटी बताया है, साथ ही यह भी कि मैं राक्षस जाति की सुशीला कन्या हूँ, न तो यातुधानी हूँ, न ही निशाचरी। मेरी देह देवोपम है।
दाक्षिणात्य पाठ में ही कुंती युधिष्ठिर से अनुमति लेती हैं कि यह अपनी वाणी से उत्तम धर्म का प्रतिपादन करती है। यदि दूषित भाव भी रखती हो तो भीम का क्या बिगाड़ सकती है? यदि तुम्हारी इच्छा हो तो यह वीर पाण्डव भीम के साथ सन्तान प्राप्ति हेतु भोग करे - भजतां पाण्डवं वीरमपत्यार्थे यदीच्छसि।
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युधिष्ठिर ने अनुमति दी कि प्रतिदिन भीम जब नित्यकर्म, संध्यादि से निवृत्त हो माङ्गलिक वेश धारण कर लें तब से दिन डूबने तक उनके साथ भोग करो किंतु रात को सदा ही भीमसेन को हमारे पास पहुँचा देना - अयं त्वानयितव्यस्ते भीमसेन: सदा निशि।
हिडिम्बा ने कहा कि ऐसा ही हो एवं भीमसेन को साथ ले कर उड़ चली!
तथेति तत्प्रतिज्ञाय हिडिम्बा राक्षसी तदा
भीमसेनमुपादाय ऊर्ध्वमाचक्रमे ततः
कुछ दिनों तक रमण के पश्चात वह गर्भवती हुई, भीम को हिडिम्बा से विकट महाबली महाकाय पुत्र की प्राप्ति हुई। माता ने कहा कि इसका घट (सिर) उत्कच अर्थात केश रहित है अत: यह घटोत्कच कहलायेगा।
रमयन्ती तथा भीमं तत्र तत्र मनोजवा
प्रजज्ञे राक्षसी पुत्रं भीमसेनान्महाबलम्
विरूपाक्षं महावक्त्रं शङ्कुकर्णं विभीषणम्
भीमरूपं सुताम्रोष्ठं तीक्ष्णदंष्ट्रं महाबलम्
महेष्वासं महावीर्यं महासत्त्वं महाभुजम्
महाजवं महाकायं महामायमरिंदमम्
अमानुषं मानुषजं भीमवेगं महाबलम्
यः पिशाचानतीवान्यान्बभूवाति स मानुषान्
बालोऽपि यौवनं प्राप्तो मानुषेषु विशां पते
सर्वास्त्रेषु परं वीरः प्रकर्षमगमद्बली
सद्यो हि गर्भं राक्षस्यो लभन्ते प्रसवन्ति च
कामरूपधराश्चैव भवन्ति बहुरूपिणः
प्रणम्य विकचः पादावगृह्णात्स पितुस्तदा
मातुश्च परमेष्वासस्तौ च नामास्य चक्रतुः
घटभासोत्कच इति मातरं सोऽभ्यभाषत
अभवत्तेन नामास्य घटोत्कच इति स्म ह
अनुरक्तश्च तानासीत्पाण्डवान्स घटोत्कचः
तेषां च दयितो नित्यमात्मभूतो बभूव सः
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हिडिम्बा एवं भीम के विधिवत विवाह का उल्लेख नहीं है।
उस संक्रमणशील समय में विवाह संस्कार के साथ साथ प्राचीन रीतियाँ भी प्रचलन में थीं। महाभारत में ही विवाह संस्था के स्थापित होने की कथा भी है।
एक दिन श्वेतकेतु ऋषि अपने आश्रम में थे। उसी समय एक अन्य वहाँ पहुँचे एवं श्वेतकेतु की माता को रमण हेतु ले कर चले गये। श्वेतकेतु ने इसका विरोध किया। तब उद्दालक ऋषि ने अपने पुत्र को समझाते हुए कहा कि अत्यंत प्राचीन काल से यही होता चला आ रहा है। संसार में सभी स्त्रियाँ इस विषय में स्वाधीन हैं। किंतु श्वेतकेतु ने इसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा कि यह पाशव प्रवृत्ति है। उन्होंने विवाह सम्बन्धी नियम बनाये। उन्होंने कहा कि जो स्त्री अपने पति को छोड़ कर अन्य पुरुष के साथ संसर्ग करेगी उसे घोर पाप लगेगा। जो पुरुष पतिव्रता स्त्री को छोड़ कर अन्य स्त्रियों के साथ रमण करेगा उसे घोर पाप लगेगा।
यहाँ कालखण्ड महत्वपूर्ण नहीं, यह महत्वपूर्ण है कि किसी सभ्यता ने इस तथ्य को सँजो कर रखा है। आदरणीय ऋषियों के नाम के साथ सँजो कर रखा है, वहाँ रखा है जिसे पञ्चम वेद तक की मान्यता है। यह भी महत्वपूर्ण है कि श्वेतकेतु के विधान को सबने स्वीकार कर लिया। क्यों कर लिया? क्योंकि समय की माँग थी, जीवन जटिल होता जा रहा था। आज भी वनवासी समाज में यौन सम्बन्धों के विधान उतने जटिल नहीं जितने नागर या ग्राम समाज के हैं किन्तु नागर या ग्राम समाज पश्चाभिगमन नहीं कर सकता। बहुत कुछ टूट जायेगा।
हिडिम्बा प्रकरण को ले कर लिव-इन पर प्रश्न आया, एक मैंने भी किया था कि हिडिम्बा को अनुमति क्यों दी गई? अनुमति के साथ भीम को आदेश भी कि उसे तृप्त करो!
आप सबने सुना होगा - when in Rome, do what Romans do! वन वन भटकते पाण्डव परिवार के पास विकल्प नहीं था, अपना धर्म भी देखना था जिसमें स्त्री की कामेच्छा पूर्ति निषेधों के साथ धर्म का अङ्ग बतायी गयी थी। राक्षस समाज में जो प्रिय लगे उसके साथ शयन कर संतान प्राप्त करना प्रचलित रीति थी। दो अपरिचित समाज टकराहटों में कैसे समाधान निकाल बन्धु हो सकते हैं, यह उदाहरण है। हिडिम्बा एवं भीम ने अग्नि प्रदक्षिणा कर विवाह नहीं किया, कुरुवंश को अंतर नहीं पड़ना था। हिडिम्बा किसी की व्याहता भी नहीं थी जो व्यभिचार का दोष लगता। हिडिम्बा की प्रार्थना उसके समाज के अनुकूल थी कि एक बली संतान हो सके जिसके लिये बली पुरुष से संसर्ग आवश्यक था। काम आकर्षण तो अपने स्थान पर था ही। जाने कितनों के प्रति हम आकर्षण का अनुभव करते हैं किंतु सबसे यौन सम्बंध ही तो नहीं बनाने लगते! विवाह कर्मकाण्ड यदि कुरुवंशी चाहते तो वह पूरी कर भी देती किन्तु उसका उसके लिये क्या महत्व होता? अर्जुन का उलूपी एवं चित्रांगदा से विवाह/सम्बंध भी ऐसे ही देखना होगा।
आज के लिव-इन के समांतर देखें तो यह ध्यान में रखना होगा कि हिडिम्बा संतान प्राप्ति तक ही भीम को माँगती है। राक्षसी है किन्तु अपनी मर्यादाओं से बँधी भी है - ज्येष्ठ जन से भीम को माँगती है, अनुनय करती है। यौन सुख के साथ साथ सन्तान की प्राप्ति उसका उद्देश्य है। लिव-इन में ऐसा है क्या? लिव-इन किसी जोड़े का एक प्रकार से संतति के दायित्वों से स्वार्थी पलायन है जिसकी जड़ जटिल होती नागर व्यवस्था में है। ऐसे प्रकरण वृत्त की परिधि पर स्पर्शी रेखा की भाँति होते हैं, परिधि में घिरे क्षेत्र में नहीं आते। उनका उतना ही महत्व है, उतनी ही प्रासंगिकता है। यौन व्यवहार का नियमन सभ्यता की आवश्यकता है। उससे सम्बंधित व्यवस्थायें दोषपूर्ण हो सकती हैं किन्तु उनका विधायी प्रभाव, समाज को स्थिर उपद्रवहीन कर विकास की दिशा में बढ़ने हेतु समय, संसाधन इत्यादि की उपलब्धता सुनिश्चित कराना, स्थायित्त्व इत्यादि को मिला कर समग्रता में देखना होगा। विवाह संस्था का कोई उपयुक्त विकल्प इस जटिल समाज के पास सहस्राब्दियों पहले से ही नहीं रहा, आगे भी नहीं होना। अपवाद तो हर समय में रहे, परिपक्व समाज उनको सुन्दर ग्राह्य विधियों से स्थान भी देता रहा। यदि कोई पुरातन घटना का उदाहरण आधुनिक समय पर लगा कर माँग करे तो विकृतियाँ होनी ही हैं। बहुत पहले भाई बहन, माता पुत्र, पिता पुत्री के यौन सम्बन्ध होते रहे होंगे, पशुओं में अंत:प्रजनन अब भी होता है। उनका उदाहरण दे हम इस काल में तो वैसे नहीं चल सकते न!
युधिष्ठिर द्वारा हिडिम्बा-भीम संसर्ग का केवल दिन में अनुमति देना तथा प्रत्येक रात भीम पर बंधुओं के पास आ जाने का अनुशासन उनकी सावधानी को दर्शाता है। राक्षसी है, रात में भीम के सोते हुये घात लगा जाने क्या कर बैठे? उसका क्या, कभी भी मानव मांस की लिप्सा सिर उठा सकती है, भीम तो उसकी दृष्टि स्वादिष्ट होंगे ही। रात में राक्षसों का बल बढ़ भी जाता है। दिन में भीम से पार पाना असम्भव है! अस्तु।
एक दिन श्वेतकेतु ऋषि अपने आश्रम में थे। उसी समय एक अन्य वहाँ पहुँचे एवं श्वेतकेतु की माता को रमण हेतु ले कर चले गये। श्वेतकेतु ने इसका विरोध किया। तब उद्दालक ऋषि ने अपने पुत्र को समझाते हुए कहा कि अत्यंत प्राचीन काल से यही होता चला आ रहा है। संसार में सभी स्त्रियाँ इस विषय में स्वाधीन हैं। किंतु श्वेतकेतु ने इसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा कि यह पाशव प्रवृत्ति है। उन्होंने विवाह सम्बन्धी नियम बनाये। उन्होंने कहा कि जो स्त्री अपने पति को छोड़ कर अन्य पुरुष के साथ संसर्ग करेगी उसे घोर पाप लगेगा। जो पुरुष पतिव्रता स्त्री को छोड़ कर अन्य स्त्रियों के साथ रमण करेगा उसे घोर पाप लगेगा।
यहाँ कालखण्ड महत्वपूर्ण नहीं, यह महत्वपूर्ण है कि किसी सभ्यता ने इस तथ्य को सँजो कर रखा है। आदरणीय ऋषियों के नाम के साथ सँजो कर रखा है, वहाँ रखा है जिसे पञ्चम वेद तक की मान्यता है। यह भी महत्वपूर्ण है कि श्वेतकेतु के विधान को सबने स्वीकार कर लिया। क्यों कर लिया? क्योंकि समय की माँग थी, जीवन जटिल होता जा रहा था। आज भी वनवासी समाज में यौन सम्बन्धों के विधान उतने जटिल नहीं जितने नागर या ग्राम समाज के हैं किन्तु नागर या ग्राम समाज पश्चाभिगमन नहीं कर सकता। बहुत कुछ टूट जायेगा।
हिडिम्बा प्रकरण को ले कर लिव-इन पर प्रश्न आया, एक मैंने भी किया था कि हिडिम्बा को अनुमति क्यों दी गई? अनुमति के साथ भीम को आदेश भी कि उसे तृप्त करो!
आप सबने सुना होगा - when in Rome, do what Romans do! वन वन भटकते पाण्डव परिवार के पास विकल्प नहीं था, अपना धर्म भी देखना था जिसमें स्त्री की कामेच्छा पूर्ति निषेधों के साथ धर्म का अङ्ग बतायी गयी थी। राक्षस समाज में जो प्रिय लगे उसके साथ शयन कर संतान प्राप्त करना प्रचलित रीति थी। दो अपरिचित समाज टकराहटों में कैसे समाधान निकाल बन्धु हो सकते हैं, यह उदाहरण है। हिडिम्बा एवं भीम ने अग्नि प्रदक्षिणा कर विवाह नहीं किया, कुरुवंश को अंतर नहीं पड़ना था। हिडिम्बा किसी की व्याहता भी नहीं थी जो व्यभिचार का दोष लगता। हिडिम्बा की प्रार्थना उसके समाज के अनुकूल थी कि एक बली संतान हो सके जिसके लिये बली पुरुष से संसर्ग आवश्यक था। काम आकर्षण तो अपने स्थान पर था ही। जाने कितनों के प्रति हम आकर्षण का अनुभव करते हैं किंतु सबसे यौन सम्बंध ही तो नहीं बनाने लगते! विवाह कर्मकाण्ड यदि कुरुवंशी चाहते तो वह पूरी कर भी देती किन्तु उसका उसके लिये क्या महत्व होता? अर्जुन का उलूपी एवं चित्रांगदा से विवाह/सम्बंध भी ऐसे ही देखना होगा।
आज के लिव-इन के समांतर देखें तो यह ध्यान में रखना होगा कि हिडिम्बा संतान प्राप्ति तक ही भीम को माँगती है। राक्षसी है किन्तु अपनी मर्यादाओं से बँधी भी है - ज्येष्ठ जन से भीम को माँगती है, अनुनय करती है। यौन सुख के साथ साथ सन्तान की प्राप्ति उसका उद्देश्य है। लिव-इन में ऐसा है क्या? लिव-इन किसी जोड़े का एक प्रकार से संतति के दायित्वों से स्वार्थी पलायन है जिसकी जड़ जटिल होती नागर व्यवस्था में है। ऐसे प्रकरण वृत्त की परिधि पर स्पर्शी रेखा की भाँति होते हैं, परिधि में घिरे क्षेत्र में नहीं आते। उनका उतना ही महत्व है, उतनी ही प्रासंगिकता है। यौन व्यवहार का नियमन सभ्यता की आवश्यकता है। उससे सम्बंधित व्यवस्थायें दोषपूर्ण हो सकती हैं किन्तु उनका विधायी प्रभाव, समाज को स्थिर उपद्रवहीन कर विकास की दिशा में बढ़ने हेतु समय, संसाधन इत्यादि की उपलब्धता सुनिश्चित कराना, स्थायित्त्व इत्यादि को मिला कर समग्रता में देखना होगा। विवाह संस्था का कोई उपयुक्त विकल्प इस जटिल समाज के पास सहस्राब्दियों पहले से ही नहीं रहा, आगे भी नहीं होना। अपवाद तो हर समय में रहे, परिपक्व समाज उनको सुन्दर ग्राह्य विधियों से स्थान भी देता रहा। यदि कोई पुरातन घटना का उदाहरण आधुनिक समय पर लगा कर माँग करे तो विकृतियाँ होनी ही हैं। बहुत पहले भाई बहन, माता पुत्र, पिता पुत्री के यौन सम्बन्ध होते रहे होंगे, पशुओं में अंत:प्रजनन अब भी होता है। उनका उदाहरण दे हम इस काल में तो वैसे नहीं चल सकते न!
युधिष्ठिर द्वारा हिडिम्बा-भीम संसर्ग का केवल दिन में अनुमति देना तथा प्रत्येक रात भीम पर बंधुओं के पास आ जाने का अनुशासन उनकी सावधानी को दर्शाता है। राक्षसी है, रात में भीम के सोते हुये घात लगा जाने क्या कर बैठे? उसका क्या, कभी भी मानव मांस की लिप्सा सिर उठा सकती है, भीम तो उसकी दृष्टि स्वादिष्ट होंगे ही। रात में राक्षसों का बल बढ़ भी जाता है। दिन में भीम से पार पाना असम्भव है! अस्तु।
मैं ऑडियो हेतु आप सब का समर्थन चाहता हूँ, फोन से करने में व्यवधान बहुत है। कुछ तो उपाय करें।
जवाब देंहटाएंमैं ऑडियो हेतु आप सब का समर्थन चाहता हूँ, फोन से करने में व्यवधान बहुत है। कुछ तो उपाय करें।
जवाब देंहटाएंसुंदर और सटीक ...
जवाब देंहटाएंहिंदी महाभारत की सबसे प्रामाणिक और प्रवाहमय पुस्तक अथवा ऑनलाइन कौन सी है ?