भीम को गौतम बुद्ध से कुछ नहीं लेना देना था। बुद्ध का अनुयायी होता तो मनुस्मृति जलाने का आयोजन ही नहीं करता ! तो उसने बौद्ध धम्म क्यों अपनाया?
रहस्य उसके पिता के नाम में है तथा गंगा-यमुना क्षेत्र के समतल भाग से सह्याद्रि तक पसरे विराट भू भाग में चतुर्थ वर्ण द्वारा सबसे अधिक प्रयुक्त नाम/उपनाम 'राम' में है। वह राम से उनके जुड़ाव को समझता था। एक भगवान की काट दूसरे भिन्न वैचारिक भगवान में ही थी, न तो मूर्ति भञ्जक इस्लाम में, न सलीबधारी ख्रिस्तान में।
प्रतीक वास्तविकता से कई गुना शक्तिशाली होते हैं। बुद्ध एक आकर्षक प्रतीक हैं - सङ्कीर्ण मानसिकता वालों की घृणा के कारण भी एवं अपने चमत्कृत कर देने वाले व्यक्तित्व के कारण भी। कर्मकाण्डों के विरुद्ध तो हैं ही, यह बात दूजी है कि स्वयं अनुष्ठान भी करवाते थे!
अहिंसा के आवरण में चरम द्वेषी हिंसक प्रचार एवं पीढ़ियों तक चलने वाले मस्तिष्क प्रक्षालन को छिपाना बहुत सरल था। भावी सत्ता तंत्र भी बुद्ध के प्रति सहानुभूति का भाव रखता था। ऐसे में नवजात पंथ को पालना, पोसना एवं भविष्य हेतु तत्पर संघर्षियों को बौद्ध धर्म से इतर किसी आड़ में ढालना असम्भव था।
मोहनदास एवं भीम, दोनों प्रतीकों की शक्ति जानते थे एवं दुर्लभ यशलिप्सा की मानसिकता के कारण एक दूसरे को प्रतिद्वंद्वी पाते थे। इसी कारण उनकी टकराहटें भी हुईं।
कभी विचार करें कि उसने जलाने को मनुस्मृति ही क्यों चुनी जब कि उसके अनुसार तो न कोई शासन तंत्र चलता था, न ही कोई समाज तंत्र? मिताक्षरा याज्ञवल्क्य स्मृति की टीका थी एवं दायभाग विविध स्मृतियों से चुन कर संग्रहीत संकलन की भाँति। इन दो से ही हिंदू विधि का बहुत महत्वपूर्ण अंश चालित था। भीम ने दहन के लिये इन्हें नहीं चुना।
इस चयन में भी उसकी धूर्त मेधा के दर्शन होते हैं। मनु को सबने प्रमाण माना है, वे सबसे प्राचीन धर्मशास्त्री हैं। मनु सनातनी जीवन शक्ति के शीर्ष पितर हैं। तत्कालीन हिंदू जीवन पद्धति पर स्मृतियों का गहरा प्रभाव था, मुख्य केंद्रीय क्षेत्र के अधिकांश हिंदू स्मार्त कहलाते थे, विशुद्ध एवं कट्टर शैव, वैष्णवादि उनकी तुलना में अल्प थे।
उसने मनु एवं उनकी स्मृति पर प्रहार को एक बहुत ही सशक्त प्रतीक के रूप में चुना। आज जो कतिपय गाँवों के घरों से हिन्दू देवी देवताओं के चित्र एकत्र कर जलाये जाते हैं, उनके मूल में बुद्ध का आश्रय एवं मनु का विरोध, ये दो संरक्षक पोषक तत्व हैं।
इन हिंसकों को न तो बौद्ध धर्म से कोई लेना देना है, न बुद्ध से। बुद्ध प्रतीक अस्त्र के रूप में प्रयुक्त हो रहे हैं। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार परशुवादियों को न तो जमदग्नि से कुछ लेना देना, न पुत्र राम के साथ उनके द्वारा शोधित संवर्धित आर्ष विद्याओं से। राम जामदग्नेय का विकृत परशुधारी रूप बहुत ही प्रभावी एवं आकर्षक प्रतीक है जिसकी ओट ले कल्मष छिपा कर उसका संवर्धन किया जा सकता है।
प्रतीकों से सावधान रहें। उनके स्थान पर उन व्यक्तित्वों का अवगाहन करें जिनके आधार पर प्रतीक गढ़े गये हैं। ढेर सारे मिथ ध्वस्त होंगे, प्रकाश मिलेगा। वैसे आज कल प्रतीकों का सबसे सफलता पूर्वक नवोन्मेषी प्रयोग इसाई कर रहे हैं।
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आ च॒ वह॑ मित्रमहश्चिकि॒त्वान्त्वं दू॒तः क॒विर॑सि॒ प्रचे॑ताः ॥ - पिता जमदग्नि के साथ राम द्वारा दर्शित ऋचा।
हे मित्रों का सत्कार करने वाले! ज्ञानवान हो कर तू देवों को हमारे इस यज्ञ में ले आ। क्रांतदर्शी एवं उत्तम चित्त वाला तू उनका हितकर्ता दूत है।
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अन्धभूतो अयं लोको तनुकेत्थ विपस्सति। - बुद्ध
यह लोक अन्धे के सदृश है, यहाँ देखने वालों की संख्या अल्प है।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन अंतरराष्ट्रीय संग्रहालय दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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